सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक अंतरिम फैसला दिया जिसकी खूब आलोचना हो रही है. जिन प्रदर्शनकारी किसानों के लिए ये फैसला आया, वो सवाल उठा रहे हैं, राजनैतिक पार्टियां सवाल उठा रही हैं, देश के बड़े कानूनविद, बुद्धिजीवी सवाल उठा रहे हैं. देश के लगभग सभी छोटे बड़े अखबारों में आज संपादकीय सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर हैं. एक संपादकीय में लिखा है-
SC has eroded its own authority, augur badly for India's future.यानी सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला भारत के भविष्य के हिसाब से ठीक नहीं है. एक प्रतिष्ठित अखबार के संपादकीय में लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपनी हद पार की है, एक राजनैतिक समस्या को अपने हाथों में ले लिया है. एक और अखबार अपने संपादकीय में लिखता है कि कोर्ट के फैसले ने ये सवाल खड़े कर दिए हैं कि क्या इसे अपने दायरे से बाहर के मामलों में दखल देना चाहिए?
तो अब हम इस पर बात करेंगे कि सुप्रीम कोर्ट ने किसान प्रदर्शन के मामलों पर अंतरिम फैसले में ऐसा क्या कह दिया जिस पर इतने सवाल उठ रहे हैं, या उठने चाहिए. हम बिंदुवार एक एक बात को समझेंगे.

किसान नए कृषि नियमों का लगातार विरोध कर रहे हैं. (तस्वीर: पीटीआई)
पहला बिंदु
सुप्रीम कोर्ट के तीन सीनियर जजों की बेंच जिसमें देश के चीफ जस्टिस भी शामिल थे, इसने मंगलवार को मोदी सरकार के तीनों कृषि कानूनों के लागू किए जाने पर रोक लगा दी. कानून लागू होने पर रोक लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ये तर्क दिया कि अदालत को मीडिया और दूसरे स्रोतों से मालूम चला है कि सरकार और प्रदर्शनकारी किसानों के बीच झगड़े की मुख्य वजह ये कानून ही हैं, इसलिए किसानों को सुलह के लिए प्रोत्साहित करने के मकसद करने के लिए वो रोक लगा रहे हैं.
अगर कानून संविधान के मुताबिक नहीं हैं तो संसद के बनाए कानूनों को सुप्रीम कोर्ट नल एंड वॉइड कर सकता है, रद्द कर सकता है, ऐसा पहले कई दफा हुआ है. लेकिन क्या सुप्रीम कोर्ट सरकार के फैसले पर या संसद के बनाए कानून के लागू होने पर अंतरिम रोक लगा सकता है? एक लाइन में जवाब - हां बिल्कुल लगा सकता है. सुप्रीम कोर्ट के पास ऐसा पावर है. और ये सवाल जब बहस के दौरान कोर्ट में आया तब भी चीफ जस्टिस ने ये ही कहा कि वो एक्सीक्यूटिव के किसी भी फैसले पर रोक लगा सकते हैं. कोर्ट में एक उदाहरण दिया गया मराठा आरक्षण के फैसले का. जिसपर सितंबर 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी. लेकिन अंतरिम रोक भी तभी लगती है जब कोर्ट को ज़रा सा भी लगता है कि कानून संविधान संगत नहीं है.
मराठा आरक्षण वाले फैसले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने कानून की संवैधानिकता जांची थी और अपील के तौर पर फैसला सुप्रीम कोर्ट में आया था. हालांकि तब भी अंतरिम स्टे लगाने वाली बेंच के जस्टिस रवींद्र भट्ट और जस्टिस एल नागेश्वर राव ने कहा था कि स्टे वाले पावर का इस्तेमाल तभी किया जाता है जब कानून के संविधान सम्मत ना होने पर पुख्ता प्रमाण मिलें. लेकिन किसान कानूनों की संवैधानिकता पर बिना कुछ कहे सुप्रीम कोर्ट ने स्टे लगा दिया. हालांकि कोर्ट ने अपने फैसले में ये भी लिखा कि ये असाधारण परिस्थिति है. और किसानों को भरोसे में लेने के लिए ऐसा किया जा रहा है.
एक बात और. ऐसे कई पुराने केस हैं जब सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर हुई और कानूनों पर स्टे लगाने की मांग हुई . जैसे आधार का मामला ले लीजिए या इलेक्टोरल बॉन्ड्स का मामला ले लीजिए. तब कोर्ट ने ये ही कहा है कि योजना के इम्पलिमेंटेशन पर स्टे नहीं लगा सकते, हां संवैधानिकता की कसौटी पर ज़रूर परखेंगे. ऐसे कई मामलों में अब भी फैसले पेडिंग हैं और योजनाएं या कानून लागू हैं. कानून और संविधान के जानकार इसे किस तरह से देखते हैं ये भी हमने समझने की कोशिश की.
दूसरा बिंदु
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर दखल क्यों दिया, सरकार और किसानों के झगड़े वाली बात सुप्रीम कोर्ट तक कैसे पहुंची थी. क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में कुछ याचिकाएं दायर की गई थी. करीब 6 याचिकाएं दायर की गई थी जिनमें तीन कृषि कानूनों को संवैधानिक और कानूनी तौर पर गलत बताया गया था. यानी याचिकाकर्ताओं ने कहा था कि ना तो ये कानून संविधान के मुताबिक हैं और ना ही कानून संगत हैं इसलिए सुप्रीम कोर्ट इन्हें रद्द करे. इनके अलावा दिल्ली के बॉर्डर पर प्रदर्शन कर रहे किसानों को हटाने की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दो PIL यानी जनहित याचिकाएं दायर की गई थी. इनके अलावा भी प्रदर्शन कर रहे किसानों के मूल अधिकारों के हनन को लेकर कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में फाइल की गई थी.
यानी बहुत सारी याचिकाएं थीं. सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम आदेश देने से पहले वो याचिकाएं नहीं सुनीं जिनमें कानूनों को संवैधानिक तौर पर गलत बताया गया था. संसद में वॉइस वोट से जिस तरह से कानून पास करवाए गए उस पर दायर याचिकाओं पर भी अभी तक फैसला नहीं आया. सिर्फ प्रदर्शनों वाले पक्ष को सुप्रीम कोर्ट में अभी तक तवज्जो मिली. प्रदर्शनकारी कानूनों को गलत बताकर रद्द करने की मांग कर रहे हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कानूनों की मेरिट पर बिना कुछ कहे सुलह के लिए कमेटी बना दी. संविधान का अनुच्छेद 13 कहता है कि अगर कोई कानून मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है तब उसे रद्द किया जा सकता है. मंगलवार से पहले की बहस में केंद्र सरकार के वकीलों ने भी सुप्रीम कोर्ट में कहा कि आप स्टे नहीं लगा सकते क्योंकि ये कानून संवैधानिकता का उल्लंघन नहीं करते. इसके बावजूद कोर्ट के अंतरिम फैसले में इसका जिक्र नहीं किया, जिसने सवालों को आमंत्रित किया.
तीसरी बात
सुप्रीम कोर्ट ने झगड़ा सुलझाने के लिए एक कमेटी बनाई. कमेटी बनाने से पहले की बहस में कई तरह के तर्क आए. जैसे भारतीय किसान संघ के वकील ने कहा है कि वो किसानों के देश में सबसे बड़े संगठन हैं और कानूनों को रद्द करने के पक्ष में नहीं हैं. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आपकी बातों से सिचुएशन ऑन ग्राउंड नहीं बदलेगी. यानी सुप्रीम कोर्ट ने प्रदर्शनकारी किसानों को ध्यान में रखकर ही कमेटी बनाई. और कमेटी इसलिए बनाई ताकि वो सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट दे सके. मज़ेदार बात देखिए जिन प्रदर्शनकारियों का पक्ष सुनने के लिए कमेटी बनाई गई उसमें एक भी सदस्य प्रदर्शनकारियों की तरफ से नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने कमेटी के सदस्यों का चुनाव कैसे किया, किस आधार पर चारों सदस्यों को रखा है. ये जानकारी सार्वजनिक नहीं है. लेकिन ये बात सार्वजनिक है कि चारों सदस्य कानूनों के समर्थन में सार्वजनिक रूप से अपनी राय रख चुके हैं.
चौथी बात
जब इस केस की सुनवाई हो रही थी तो चीफ जस्टिस ने सरकार को इस बात के लिए फटकार लगाई थी कि आप निराश कर रहे हैं, झगड़ा सुलझा नहीं रहे हैं. एक बारगी मान लेते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने हिसाब से कमेटी के सभी सदस्यों को एक अच्छी मंशा से ही चुना होगा, और मंशा ये ही रही होगी कि कमेटी के सामने सब किसान अपनी बात रखेंगे तो सुलह हो जाएगी. लेकिन बात तो सरकार भी किसानों से कर रही है. किसानों के प्रदर्शन को आज कितने दिन हुए हैं- 49 दिन. और सुप्रीम कोर्ट ने जो कमेटी बनाई उसे कितना वक्त दिया गया दो महीने. कमेटी की सिफारिशें से गतिरोध दूर होगा, ये कैसे तय होगा? क्या कमेटी की सिफारिश आने के बाद न्यायालय कोई आदेश निकालेगा? ये आदेश किसके लिए होगा? सरकार के लिए या किसानों के लिए? क्या आदेश बाध्यकारी होगा? कोर्ट ने सरकार को इसलिए डांट दिया कि वो इतने दिनों में सुलह नहीं कर पाई. लेकिन और इस पर कोर्ट ने सुलह का जो तरीका निकाला, उसमें इतना लंबा वक्त लगने के बाद भी समाधान को लेकर आश्वासन नहीं है. सवाल उठ रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट की तरफ से कमेटी बनाने को लेकर सीरियस रिसर्च नहीं हुई क्या?
पांचवां बिंदु
मान लेते हैं सुप्रीम कोर्ट की बनाई कमेटी अपनी सिफारिशें 2 महीनें में सुप्रीम कोर्ट को दे देती है. लेकिन ये सिफारिशें होंगी किस तरह की. कमेटी में कोई भी कानून का जानकार नहीं है. सब कृषि के जानकार हैं. तो ये बात जाहिर है कि कानून की संवैधानिकता पर कमेटी की सिफारिश नहीं होंगी. अगर सिफारिशें कानून में संशोधन को लेकर होंगी तो सुप्रीम कोर्ट इन सिफारिशों का क्या करेगा? क्या देश का सुप्रीम कोर्ट भारत की संसद को कह सकता है कि उसे किस तरह के कानून बनाने चाहिए क्या उनमें किस तरह का संशोधन करना चाहिए. और क्या सुप्रीम कोर्ट कमेटी की सिफारिशें आने के बाद भी कानूनों के लागू होने पर स्टे बरकरार रख सकता है? ये अहम सवाल हैं.
और सवाल सुप्रीम कोर्ट के राजनीतिक मामले में दखल को लेकर भी हैं. पूछा जा रहा है कि एक विवाद के संवैधानिक पहलू के बजाय सुप्रीम कोर्ट ने उसके राजनीतिक पहलू पर पहले दखल क्यों दिया?
चलते चलते एक सवाल सरकार से भी. सरकार ने कोर्ट में कहा था कि उसने कानून पर व्यापक चर्चा की थी और जल्दबाजी में ये कानून नहीं लाया गया. लेकिन कृषि, सहकारिता और किसान कल्याण विभाग में लगाई आरटीआई के जवाब में इस तरह का रिकॉर्ड नहीं मिला, ऐसी बातें RTI कार्यकर्ताओं ने इंडिया टुडे को बताई हैं.
सरकार और संसद के फैसलों पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं, आलोचना से दूर रहता है सुप्रीम कोर्ट. अब सुप्रीम कोर्ट की भूमिका पर भी सवाल उठना भारत के भविष्य के लिए चिंताएं पैदा करता है.