सुप्रीम कोर्ट (supreme court) ने EWS आरक्षण की संवैधानिक वैधता पर फैसला सुना दिया है. फैसला एकमत नहीं है. लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक पांच सदस्यीय बेंच के तीन न्यायाधीशों ने EWS आरक्षण के समर्थन में फैसला दिया है और दो जजों ने उनके फैसले से असहमति जताई है. दिलचस्प बात ये कि फैसले से असहमति जताने वाले जजों में खुद CJI यूयू ललित शामिल हैं.
EWS कोटे पर सुप्रीम कोर्ट ने लगाई मुहर, कहा - "ये संवैधानिक है"
लेकिन CJI यूयू ललित समेत दो जजों ने बहुमत वाले फैसले से असहमति जताई है.

रिपोर्टों के मुताबिक मामले में चार फैसले सुनाए गए हैं. जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, जस्टिस बेला एम त्रिवेदी और जस्टिस जेबी पारदीवाला ने EWS कोटे को संवैधानिक करार दिया है. तीनों जजों ने कहा है कि ये आरक्षण कोटा संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं करता है.
वहीं जस्टिस एस रविंद्र भट ने इस राय से असहमति व्यक्त की है और बेंच की अध्यक्षता कर रहे CJI यूयू ललित ने जस्टिस रविंद्र भट की इस राय पर सहमति जताई है. हालांकि दोनों जजों ने आर्थिक आधार पर आरक्षण को उल्लंघनकारी नहीं माना है, लेकिन साथ में कहा है कि EWS कोटे से SC, ST और OBC के गरीब लोगों को बाहर करके 103वां संविधान संशोधन उन भेदभावों की वकालत करता है, जिनकी संविधान में मनाही है.
इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों (EWS) के लिए 10 फीसदी आरक्षण कोटा रखे जाने के केंद्र सरकार के फैसले के खिलाफ करीब 40 याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट (supreme court) में दायर की गई थीं. याचिकाकर्ताओं की मांग थी कि EWS कोटे को रद्द किया जाए, क्योंकि ये संविधान के मूल ढांचे का 'उल्लंघन' करता है. वहीं प्रतिवादी के रूप में केंद्र और कुछ राज्य सरकारों ने शीर्ष अदालत से अपील की है कि अपने फैसले में वो इस आरक्षण प्रावधान की सुरक्षा करे. दोनों तरफ की दलीलें सुनने के बाद बीती 27 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था.
क्या है EWS आरक्षण और इससे जुड़ा विवाद?EWS यानी Economic Weaker Sections. इसी को हिंदी में कहते हैं- 'आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग'. EWS रिजर्वेशन पहले से चले आ रहे आरक्षण प्रावधानों के काफी समय बाद लागू किया गया. मौजूदा केंद्र सरकार जनवरी 2019 में 103वें संविधान संशोधन के तहत सामान्य वर्ग के लिए अलग से 10 फीसदी EWS कोटा लेकर आई थी. यानी ये सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थानों में अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षण सुनिश्चित करने वाली व्यवस्था से अलग है. सरकार के इस फैसले से नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी के पार चली गई है.
EWS कोटे के विरोध में कई वकील और कानूनी जानकार केशवानंद भारती और इंदिरा साहनी मामलों का हवाला देते हैं. वो कहतें है कि पांच दशक पहले केशवानंद भारती वाले मामले में सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों की पीठ ने कहा था कि संसद को कानून बनाने का पूरा अधिकार है, लेकिन उससे संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं होना चाहिए जो कि 103वें संशोधन के जरिये हुआ है.
इसके अलावा इंदिरा साहनी वाले मामले को भी पहले से चली आ रही आरक्षण व्यवस्था से 'छेड़छाड़' के विरोध में इस्तेमाल किया जाता रहा है. उस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट की ही 9 जजों की बेंच ने आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तय कर दी थी. लेकिन EWS के आने के बाद आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा हो गया है. वो ऐसे कि SC-ST कैटेगरी के लिए 22.5 फीसदी आरक्षण दिया जाता है और OBC को मिलता है 27 पर्सेंट रिजर्वेशन. कुल हो गया 49.5 फीसदी. 10 पर्सेंट EWS कोटा आने के बाद आरक्षण हो गया 59.5 फीसदी.
इसके अलावा EWS से जुड़े प्रावधानों पर भी आपत्तियां जताई जाती हैं. मसलन, आरक्षण के लिए आर्थिक योग्यता सालाना आठ लाख रुपये तक तय किए जाने की वजह से वे लोग भी EWS के लिए अप्लाई कर सकते हैं जिनकी आय ज्यादातर आवेदकों से तुलनात्मक रूप में काफी ज्यादा है. ऐसे लोगों में कई आवेदक बाकायदा इनकम टैक्स फाइल करते हैं, जबकि कोटा आर्थिक रूप से पिछड़े, यानी गरीब लोगों के लिए है. सवाल किया जाता है कि जब आठ लाख रुपये सालाना कमाने वाले भी EWS के लिए अप्लाई कर सकते हैं, तो इसे गरीबों का आरक्षण कहने का क्या औचित्य है.
बहरहाल, आरक्षण एक बहुत जटिल मुद्दा है. इसमें कानूनी और संवैधानिक राय के साथ राजनीति और सामाजिक दृष्टिकोण भी समान रूप से महत्वपूर्ण हैं. और ये दृष्टिकोण जस्टिस रविंद्र भट और CJI ललित की राय में भी दिखा है. ये भी समझना जरूरी है कि इस मामले में कई अन्य संवैधानिक पहलू और मसले भी जुड़े हैं. ये ध्यान देने वाली बात है कि सुप्रीम कोर्ट ये भी कह चुका है कि आरक्षण में 50 प्रतिशत की संवैधानिक सीमा की बाध्यता नहीं है. जाहिर है EWS पर मुकदमेबाजी का दौर खत्म नहीं हुआ है, बल्कि आगे और याचिकाएं आने की पूरी संभावना है.
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