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सुप्रीम कोर्ट अपने ही फैसले जल्दी-जल्दी पलट रहा, कुत्ते वाला तो 11 दिन में पलट गया

सुप्रीम कोर्ट ने 11 दिन में ही आवारा कुत्तों पर दिया अपना फैसला पलट दिया था. अब प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी ने तमिलनाडु सरकार Vs गवर्नर मामले में दिए फैसले को पलट दिया है.

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बीते तीन दिन में सुप्रीम कोर्ट ने अपने दो पुराने फैसला. (Photo- India Today)

सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में ऐसे उदाहरण कम ही मिलते हैं कि शीर्ष अदालत अपने फैसले को ही पलट दे. पर बीते दिनों ऐसा कई बार हुआ है. एक मिसाल तो आज यानी 20 नवंबर को ही देखने को मिली. प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति को जो राय दी, उससे तमिलनाडु सरकार बनाम गवर्नर मामले में कोर्ट ने अपने ही फैसले को पलट दिया. आपको ध्यान होगा, सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिन पहले दिल्ली-NCR की गलियों से सभी आवारा कुत्तों को हटाने का आदेश दिया. लेकिन हल्ला मचा और कुछ ही दिनों बाद फैसला पलट गया. हाल ही सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली-NCR में पटाखे फोड़ने पर भी ढील दे दी थी. यह रियायत भी सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही फैसले को पलटते हुए दी थी.

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एक नज़र डालते हैं इसी तरह के कुछ मामलों पर जिनमें देश की सर्वोच्च अदालत ने अपने पिछले फैसलों या टिप्पणियों पर कैंची चला दी है.

तमिलनाडु सरकार बनाम गवर्नर

तमिलनाडु के गवर्नर आरएन रवि एमके स्टालिन सरकार के 10 बिलों को लेकर बैठे हुए थे. राज्य सरकार इस मामले में सुप्रीम कोर्ट पहुंची तो संवैधानिक बेंच ने गवर्नर को फटकार लगा दी. साथ-साथ टिप्पणी राष्ट्रपति तक भी पहुंच गई. सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को फैसला सुनाते हुए कड़े शब्दों में कहा कि गवर्नर आरएन रवि का कदम गलत और कानून के खिलाफ था. उन्होंने 10 बिलों पर मंज़ूरी नहीं दी थी. इनमें से एक बिल तो जनवरी 2020 से ही रुका हुआ था. बाद में जब राज्य विधानसभा ने इन बिलों को दोबारा पास किया, तो गवर्नर ने उन्हें मंजूरी देने के बजाय प्रेसिडेंट के पास भेज दिया.

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सुप्रीम कोर्ट ने कहा, 

अनुच्छेद 200 के संवैधानिक महत्व और देश की फेडरल पॉलिटिक्स में इसकी भूमिका को ध्यान में रखते हुए, ये टाइमलाइन तय की जा रही हैं. टाइमलाइन का पालन न करने पर गवर्नर का एक्शन ज्यूडिशियल रिव्यू के दायरे में आ जाएगा.

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट की चार टिप्पणियों पर गौर फरमाने की जरूरत थी. खास तौर पर राज्यों के गवर्नर और सरकार को. लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक जस्टिस जेबी पारदीवाला और आर महादेवन की बेंच ने कहा,

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1. अगर राज्य के मंत्रिपरिषद की मदद और सलाह पर बिल को राष्ट्रपति के विचार के लिए मंज़ूरी नहीं दी जाती है या रिज़र्व नहीं किया जाता है, तो राज्यपाल से उम्मीद की जाती है कि वे ज़्यादा से ज़्यादा 1 महीने के समय के लिए तुरंत ऐसी कार्रवाई करेंगे.

2. राज्य के मंत्रिपरिषद की सलाह के खिलाफ मंज़ूरी न देने की स्थिति में, राज्यपाल को ज़्यादा से ज़्यादा 3 महीने के अंदर बिल को मैसेज के साथ वापस भेजना होगा.

3. अगर राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह के खिलाफ, राष्ट्रपति के विचार के लिए बिल रिज़र्व किए जाते हैं, तो राज्यपाल ज़्यादा से ज़्यादा 3 महीने के अंदर बिल रोके जा सकते हैं.

या

4. अगर पहले प्रोविज़ो के अनुसार दोबारा विचार के बाद बिल रिज़र्व किए जाते हैं, तो राज्यपाल को तुरंत मंज़ूरी देनी होगी, जो ज़्यादा से ज़्यादा 1 महीने के समय के लिए होगी.

सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश पर राजनीतिक आपत्तियां आने में देर नहीं लगी. बीजेपी के कुछ सांसदों ने कोर्ट की आलोचना में मर्यादा भी लांघी, लेकिन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की अवहेलना में कुछ नहीं कहा. फिर कुछ दिन बाद खबर आई कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद 143 का इस्तेमाल करते हुए प्रेसिडेंशियल रेफरेंस के तहत सुप्रीम कोर्ट से 10 सवाल पूछे. इन प्रश्नों की मूल भावना में सुप्रीम कोर्ट का यही आदेश था, जिसमें अदालत ने राष्ट्रपति को भी समयसीमा वाला निर्देश दे दिया था.

20 नवंबर को आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर राष्ट्रपति को राय दी. इसका सीधे तो तमिलनाडु सरकार बनाम गवर्नर केस से लेना-देना नहीं है. लेकिन कोर्ट की टिप्पणी ने उस केस के फैसले को पलट कर रख दिया है. इस मामले की सुनवाई चीफ जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर की संविधान पीठ ने की.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर अदालत यह घोषणा करे कि तय समय बीतने पर बिल ‘अपने-आप मंजूर’ मान लिया जाएगा, तो यह संविधान की भावना के खिलाफ होगा. ऐसा करने से कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन बिगड़ सकता है. कोर्ट ने कहा कि ‘डीम्ड असेंट’ का मतलब होगा कि न्यायपालिका गवर्नर या राष्ट्रपति के अधिकार अपने हाथ में ले रही है, जो संविधान की मर्यादा के भीतर बिल्कुल स्वीकार्य नहीं है.

हालांकि, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि अगर गवर्नर बहुत लंबा समय लेते हैं या बिना कारण किसी बिल पर फैसला न करें, जिससे विधानमंडल का कामकाज प्रभावित हो, तो ऐसी स्थिति में कोर्ट सीमित दखल दे सकता है. इस दखल का मतलब सिर्फ इतना होगा कि कोर्ट गवर्नर से ये कह सकती है कि वह एक निश्चित समय में निर्णय करें, लेकिन कोर्ट बिल की अच्छाई या बुराई पर कोई टिप्पणी नहीं करेगी.

पहले बिल्डिंग बनेगी, फिर पर्यावरण की मंजूरी

केस था- वनशक्ति Vs केंद्र सरकार. सुप्रीम कोर्ट ने 16 मई को केंद्र सरकार को यह आदेश दिया कि वह आगे से किसी भी प्रोजेक्ट को “एक्स-पोस्ट फैक्टो” पर्यावरण मंजूरी (Environmental Clearance – EC) न दे. यानी प्रोजेक्ट पहले शुरू हो जाए या पूरा हो जाए और बाद में उसे EC मिले. कोर्ट ने पहले जारी किए गए सभी सरकारी आदेश और नोटिफिकेशन भी रद्द कर दिए, जिनमें ऐसे प्रोजेक्ट्स को बाद में मंजूरी देने की अनुमति दी जाती थी जो EC लिए बिना शुरू हो गए थे.

इसका मतलब यह है कि जो खनन (mining) या अन्य प्रोजेक्ट्स बिना ज़रूरी पर्यावरण मंजूरी लिए ही शुरू कर दिए गए, उन्हें अब बाद में मंजूरी देकर “कानूनी” नहीं बनाया जा सकता. यानी, बिना EC शुरू हुए प्रोजेक्ट्स को अब बाद में मंजूरी देकर नियमित नहीं किया जा सकेगा.

लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ने कहा था,

जिन लोगों ने बिना ज़रूरी पर्यावरण मंज़ूरी (Environmental Clearance – EC) के बड़े-बड़े अवैध काम किए, उनके पक्ष में कोई सहानुभूति नहीं हो सकती. ये लोग अनपढ़ या जानकारी से दूर नहीं थे. ये कंपनियां, रियल एस्टेट डेवलपर्स, सरकारी उपक्रम, खनन उद्योग जैसे बड़े संस्थान थे. ये सभी अच्छी तरह जानते थे कि उन्हें पहले क्लियरेंस लेना चाहिए, लेकिन फिर भी उन्होंने जानबूझकर कानून तोड़ा.

कोर्ट ने साफ कहा कि अब से केंद्रीय सरकार 2017 की उस अधिसूचना का कोई भी नया रूप जारी नहीं कर सकती, जिसमें अवैध काम करने वालों को बाद में ‘एक्स-पोस्ट फैक्टो EC’ देने की छूट दी गई थी.

कोर्ट ने 2021 का ऑफिस मेमोरेंडम (OM) भी रद्द कर दिया. फैसला देते हुए कोर्ट ने कहा था,

2017 की अधिसूचना, 2021 का OM, और इनके आधार पर जारी सभी सर्कुलर, आदेश और नोटिफिकेशन, सभी अवैध हैं और रद्द किए जाते हैं.

कोर्ट ने केंद्र सरकार को रोका कि वह आगे से किसी भी तरह से काम होने के बाद मंज़ूरी (ex-post facto EC) देने की कोई व्यवस्था या नियम न जारी करे. हालांकि, कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि 2017 की अधिसूचना या 2021 के OM के तहत जो मंज़ूरियां पहले ही दी जा चुकी हैं, वे रद्द नहीं होंगी, वे वैसी ही बनी रहेंगी.

कट टू 18 नवंबर, 2025. भारत के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां और न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन की पीठ ने 2:1 के बहुमत से अपना ही फैसला बदल दिया.

फैसला सुनाते हुए चीफ जस्टिस (CJI) बीआर गवई ने कहा कि Alembic Pharmaceuticals Ltd (2020) केस में सुप्रीम कोर्ट की दो-जजों की बेंच ने यह तो माना था कि पोस्ट-फैक्टो पर्यावरण मंजूरी यानी काम होने के बाद मंजूरी सामान्य रूप से नहीं दी जानी चाहिए. लेकिन उसी फैसले में अदालत ने ऐसे मामलों को नियमित (regularise) भी कर दिया था और कंपनियों को सिर्फ जुर्माना भरने का निर्देश दिया था.

CJI ने यह भी कहा कि D Swamy vs Karnataka State Pollution Control Board, Electrosteel Steels Limited v. Union of India (2021), और Pahwa Plastics Pvt Ltd v. Dastak NGO (2023) जैसे मामलों में अदालत ने यह कहा था कि कुछ विशेष परिस्थितियों में पोस्ट-फैक्टो EC दी जा सकती है. लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक CJI गवई ने कहा,

वनशक्ति केस में जो फैसला दिया गया था, उसने इन पहले के फैसलों का ध्यान नहीं रखा जो समान दर्जे की बेंच द्वारा दिए गए थे. इस वजह से वनशक्ति वाला फैसला per incuriam माना जाएगा, जिसका मतलब है- ऐसा फैसला जो महत्वपूर्ण पूर्व फैसलों को ध्यान में न रखने के कारण कानूनी रूप से सही नहीं माना जाता.

16 मई को सर्वोच्च अदालत ने ही प्रोजेक्ट शुरू करने से पहले पर्यावरण मंजूरी ना लेने वालों को जबरदस्त फटकार लगाई और उनको तोड़ने का आदेश दिया था. लेकिन 18 नवंबर को उसी अदालत में CJI ने कहा,

'अगर रिव्यू के तहत जजमेंट वापस नहीं लिया गया, तो इसके गंभीर नतीजे होंगे. जैसे कि उन प्रोजेक्ट्स को गिराना जो या तो पूरे हो चुके हैं या जल्द ही पूरे होने वाले हैं और जो सरकारी खजाने से बने हैं और बहुत ज़रूरी हैं. ऐसे तो हज़ारों करोड़ रुपये बर्बाद हो जाएंगे.'

कुत्तों पर पलट गया सुप्रीम कोर्ट का फैसला

कुत्तों के काटने और रेबीज़ के बढ़ते खतरे पर गंभीर चिंता जताते हुए 11 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के अधिकारियों को एक ज़रूरी निर्देश दिया. इसमें अदालत ने कहा कि वे तुरंत सभी इलाकों से आवारा कुत्तों को उठाना शुरू करें और उन्हें डॉग शेल्टर में शिफ्ट करें. कोर्ट के आदेश के मुताबिक ये निर्देश नोएडा, गुरुग्राम और गाजियाबाद पर भी लागू होने थे.

जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने आवारा कुत्तों द्वारा बच्चों पर हमला करने की एक न्यूज़ रिपोर्ट पर स्वत: संज्ञान लेने वाले मामले में ये निर्देश जारी किए थे.

लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था,

'छोटे बच्चे किसी भी कीमत पर रेबीज़ का शिकार नहीं होने चाहिए. इस कार्रवाई से उनमें यह भरोसा पैदा होना चाहिए कि वे आवारा कुत्तों के काटने के डर के बिना आज़ादी से घूम सकें. इसमें किसी की भावना बीच नहीं आनी चाहिए.'

सुनवाई के दौरान जस्टिस पारदीवाला ने स्टरलाइज़ किए गए कुत्ते को उसी इलाके में वापस छोड़ने के लॉजिक पर सवाल उठाया, जहां से उसे उठाया गया था. जस्टिस पारदीवाला ने पूछा,

'स्टरलाइज़ किया गया हो या नहीं, समाज को आवारा कुत्तों से आज़ाद होना चाहिए. आपको शहर के किसी भी इलाके या बाहरी इलाकों में एक भी आवारा कुत्ता घूमता हुआ नहीं मिलना चाहिए. यह पहला कदम है. एक बहुत ही बेतुका और गलत नियम देखा है, अगर आप एक आवारा कुत्ते को एक जगह से उठाते हैं, तो आप कुत्ते को स्टरलाइज़ करते हैं और उसे उसी जगह पर छोड़ देते हैं, यह बिल्कुल बेतुका है. और इसका कोई मतलब नहीं बनता. वह आवारा कुत्ता उस इलाके में वापस क्यों आएगा और किस लिए?'

लेकिन ये फैसला 11 दिन भी नहीं टिक सका. जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस संदीप मेहता और जस्टिस एनवी अंजारिया की बेंच ने 11 अगस्त के आदेश को बदल दिया.

तीन जजों की बेंच ने कहा, 

जिन कुत्तों को उठाया जाता है, उन्हें वैक्सीनेशन और नसबंदी के बाद उसी जगह पर छोड़ा जाना चाहिए, जहां से उन्हें उठाया गया था, सिवाय उन कुत्तों के जो रेबीज़ से इन्फेक्टेड हैं, जिन पर रेबीज़ होने का शक है या जो गुस्सैल व्यवहार दिखा रहे हैं.

कुत्तों को खाना खिलाने पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सड़कों और पब्लिक जगहों पर आवारा कुत्तों को खाना खिलाना गैर-कानूनी है. कोर्ट ने निर्देश दिया कि आवारा कुत्तों को सिर्फ़ उन्हीं खास जगहों पर खाना खिलाया जाए जो हर म्युनिसिपल वार्ड में अधिकारियों द्वारा बनाई जाएंगी. अगर कोई इस निर्देश का उल्लंघन करता पाया जाता है, तो उसके खिलाफ कानून के मुताबिक कार्रवाई की जाएगी.

वीडियो: 'आवारा कुत्तों का शुक्रगुजार,' सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस विक्रम नाथ को क्या मैसेज आया?

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