दो जुड़वा बहनें. एकदम एक जैसी शक्ल. जैसे शीशे के सामने खड़ी हों. एक साथ पैदा हुईं. साथ पढ़ाई-लिखाई हुई. साथ-साथ काम किया. एक साथ ही दुनिया भर में शोहरत मिली. शादी भी नहीं की. घर भी लिया पास-पास. बीच में थी सिर्फ एक दीवार जिसे खिसकाकर कभी भी दूसरे के कमरे में दाखिल हो जाएं. दोनों का जीवन ऐसे ही साथ-साथ रहते गुजरा. और जब लगा कि दुनिया में दिन पूरे हो गए तो एक साथ जाने की इच्छा भी मन में आने लगी. जर्मनी में थीं तो वहां के कानून ने भी साथ दिया. वो एक संस्था से जुड़ीं, जो ‘असिस्टेड सुसाइड’ में मदद करती है. इसके साल भर बाद 18 नवंबर 2025 को दोनों ने ‘इच्छामृत्यु’ जैसी व्यवस्था में एक साथ दुनिया को अलविदा कह दिया.
जुड़वां बहनों ने अपनी मौत खुद चुनी, लोगों ने आत्महत्या में मदद की, आखिर क्या है Assisted Suicide?
क्या किसी व्यक्ति की अपनी इच्छा में यह अधिकार भी शामिल होना चाहिए कि वह मरना चाहता है या नहीं? असिस्टेड सुसाइड आपको ये विकल्प देता है. जर्मनी समेत कई देशों में यह वैध है.
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ये किसी फिल्म की कहानी नहीं है. ये जर्मनी की केसलर बहनों का सच है. एलिस केसलर और एलेन केसलर की. 1950 के दशक के लोग जानते होंगे कि मनोरंजन की दुनिया में 'केसलर ट्विन्स' का कैसा जलवा था. NBC न्यूज के अनुसार, फरवरी 1963 की शुरुआत में केसलर सिस्टर्स ने अमेरिकी टीवी पर पहली बार एंट्री की थी. वो CBS के वेरायटी शो ‘द रेड स्केल्टन ऑवर’ में आईं और ‘लेस गर्ल्स’ गाने पर शानदार सिंग एंड डांस परफॉर्मेंस देकर सबका मन मोह लिया. इसी महीने वो ‘लाइफ’ मैगजीन के कवर पर भी छपीं, जिस पर बड़ी हेडलाइन लगी थी- ‘जर्मनी से सनसनी: केसलर ट्विन्स’

एलिस और एलेन का जन्म 20 अगस्त 1936 को नाजी जर्मनी में हुआ था, जहां उन्होंने बैले डांसर के रूप में ट्रेनिंग ली. 1950 के दशक की शुरुआत में उनका परिवार पूर्वी जर्मनी से पश्चिमी जर्मनी चला गया. यहां उन्होंने अपने पेशेवर मनोरंजन करियर की शुरुआत की.
1960 के दशक में दोनों बहनें इटली गईं और वहां की ‘प्लेबॉय’ मैगजीन के कवर पर भी दिखीं. उस पूरे दशक में उन्होंने कई यूरोपीय फिल्मों में काम किया और हॉलीवुड की बाइबिल वाली फिल्म ‘सोडोम एंड गमोरा’ में भी थोड़ी देर के लिए नजर आईं.
आखिरकार 1980 के दशक में वे दोनों वापस जर्मनी लौट आईं और म्यूनिख के पास एक घर में बस गईं. दोनों का फ्लैट अगल-बगल था, जिसकी अंदर स्लाइडिंग वॉल्स लगी थीं. दोनों ने कभी शादी नहीं की.
इटली के अखबार कोरिएरे डेला सेरा को दिए इंटरव्यू में दोनों बहनों ने कहा था कि वे एक ही दिन साथ में दुनिया छोड़ना चाहती हैं. उन्होंने ये भी कहा था कि ये सोचना बहुत मुश्किल है कि पहले किसी एक के साथ कुछ हो जाए. यही वजह ही होगी कि उन्होंने एक साल पहले German Society for Dying with Dignity (DGHS) से संपर्क साधा.
जर्मनी में कुछ शर्तों के साथ Assisted dying यानी ‘सहायता लेकर मौत चुनना’ कानूनन वैध है. साल 2020 में यहां की सर्वोच्च अदालत ने फैसला दिया था कि हर व्यक्ति को अपनी जिदगी खत्म करने का अधिकार है और अगर वह किसी दबाव में न हो तो किसी तीसरे व्यक्ति से मदद लेने का भी हक है.

जर्मनी में कई ऐसी संस्थाएं भी हैं जो लोगों को ‘सहायता से आत्महत्या’ (assisted suicide) करवाने में मदद करती हैं. इनमें से कुछ संस्थाएं यह भी बताती हैं कि उन्होंने कितने लोगों को ऐसा करने में मदद की. Verein Sterbehilfe नाम की संस्था ने 2022-2023 में बताया था कि उन्होंने 139 लोगों को अपने हिसाब से मौत चुनने में मदद की. वहीं, German Society for Dying with Dignity (DGHS) ने इसी अवधि में 229 लोगों के साथ ये प्रोसेस दोहराया. इनमें से ज्यादातर लोग गंभीर शारीरिक बीमारियों से पीड़ित थे.
असिस्टेड सुसाइड क्या है?केसलर बहनों के बारे में भी कहा जा रहा है कि साथ मरने की ख्वाहिश में उन्होंने असिस्टेड सुसाइड का रास्ता चुना था.
इसी से मिलती-जुलती एक प्रक्रिया है- यूथेनेशिया (Euthanasia). मतलब किसी इंसान की जिंदगी को जानबूझकर खत्म करना ताकि उसकी तकलीफ कम हो सके.
महाभारत में भीष्म पितामह के इच्छामृत्यु का जिक्र आता है. यानी बाणों की शय्या पर लेटे हुए भी अपनी मृत्यु का दिन निर्धारित करने का उनको वरदान प्राप्त था. यह भी कुछ वैसा ही है, लेकिन यह कोई वरदान नहीं है बल्कि जीवन से विमुखता का भाव है, जो अक्सर पीड़ा और हताशा के बाद इंसान के मन में आता है.
जैसे अगर किसी को ऐसी बीमारी है, जिसका इलाज असंभव है. वह तकलीफ में है और अब उसका एक ही इलाज है कि उसकी मृत्यु हो जाए. ऐसे में वह यूथेनेशिया उसके लिए आखिरी विकल्प बचता है. इसमें डॉक्टर मरीज को जानबूझकर ऐसी दवा देता है, जिसकी उसे जरूरत नहीं है. जैसे बहुत ज्यादा मात्रा में सिडेटिव या मसल रिलैक्सेंट. इसका मकसद सिर्फ उसकी मृत्यु होती है. यही प्रक्रिया यूथेनेशिया कहलाती है.
वहीं, असिस्टेड सुइसाइड (Assisted suicide) का मतलब होता है, कोई दूसरा इंसान किसी को अपनी जान लेने में मदद करे.
जैसे, अगर किसी लाइलाज बीमारी वाले व्यक्ति का रिश्तेदार उसके लिए बहुत तेज असर वाली नींद की गोलियां ले आए. ये जानते हुए कि वह व्यक्ति इसे लेकर खुद को मारना चाहता है तो यह रिश्तेदार असिस्टेड सुइसाइड में मदद कर रहा माना जाएगा.
कई यूरोपीय देशों में कानून इसकी इजाजत देता है.
केसलर बहनें जहां की रहने वाली थीं, उस जर्मनी के सुप्रीम कोर्ट ने 26 फरवरी 2020 से इसे लीगल दर्जा दे दिया था. हालांकि, कुछ शर्तें लगाई गई थीं, जिसके मुताबिक, अगर कोई व्यक्ति स्वेच्छा से मृत्यु चाहता है और असिस्टेड सुसाइड के जरिए मौत चुनता है तो उसे 5 बातें माननी पड़ेंगी.
पहला- उसे ठीक-ठीक पता हो कि वह क्या कर रहा है. गुस्से, सदमे या किसी औचक हालत में फैसला न ले रहा हो.
दूसरा- उसका फैसला पक्का और लंबे समय से हो. यानी वह इसे बार-बार बदल न रहा हो.
तीसरा- उस पर किसी और व्यक्ति का दबाव या असर न हो. फैसला उसका अपना हो.
चौथा- अंतिम कदम वह खुद उठाए. यानी मौत की प्रक्रिया वह अपने हाथों से पूरी करे.
ये सब वकील और डॉक्टरों की निगरानी में होता है और इसकी एक लंबी प्रक्रिया होती है. जैसे जर्मनी में काम करने वाले German Society for Dying with Dignity (DGHS) नाम की संस्था को ही लें. इसका काम ऐसे होता है कि असिस्टेड सुसाइड के लिए किसी को 6 महीने पहले संस्था की सदस्यता लेनी होगी. केसलर सिस्टर्स एक साल से इस संस्था से जुड़ी थीं.

– Assisted suicide के लिए संस्था को लिखित आवेदन देना होगा, जिसमें अपनी वजहें साफ-साफ बतानी होंगी. जरूरत पर मेडिकल रिपोर्ट्स भी जमा करनी होंगी. DGHS की टीम इन कागजों की जांच करती है. अगर सब सही पाया गया तो DGHS ये दस्तावेज बेहद गोपनीय तरीके से एक स्वतंत्र टीम को भेज देती है, जो आगे की पूरी प्रक्रिया संभालती है.
– DGHS का वकील व्यक्ति से उसके परिवार के लोगों के साथ मुलाकात करता है. उसकी निजी वजहें समझता है. परिवार की स्थिति का पता लगाता है. और सबसे जरूरी बात ये पता लगाता है कि क्या उसका फैसला पूरी तरह से स्वतंत्र और बिना दबाव के लिया गया है.
– अगले चरण में व्यक्ति से डॉक्टर मुलाकात करता है. वो मेडिकल और नर्सिंग के ऑप्शन पर बात करता है कि क्या पालीएटिव केयर यानी दर्द और तकलीफ कम करने वाले इलाज से लाभ हो सकता है. डॉक्टर कोशिश करते हैं कि संवाद ऐसे हो कि वह मरीज को किसी निष्कर्ष की ओर धकेलते न दिखें.
– बातचीत से साफ हो जाए कि व्यक्ति का फैसला स्वतंत्र है और कानूनी रूप से संभव है, तब उस व्यक्ति के साथ मृत्यु की तारीख तय की जाती है.
– फिर आता है अंतिम चरण. यानी असिस्टेड सुसाइड की बारी. इस वक्त डॉक्टर के साथ एक वकील भी मौके पर मौजूद रहता है, जो गवाह का काम करता है. परिवार या दोस्त भी चाहें तो साथ रह सकते हैं. जब मरीज की मौत की पुष्टि हो जाती है तो स्थानीय पुलिस को सूचित किया जाता है.
स्विट्जरलैंड की एक संस्था है डिग्निटास. वो भी यही काम (Assisted Suicide) करती है. इसकी स्थापना साल 1998 में एक पत्रकार और वकील लुडविग मिनेली ने की थी. मिनेली बताते हैं कि इस प्रोसेस में क्लाइंट किसी भी वक्त अपना फैसला बदल सकता है और प्रक्रिया छोड़कर जा सकता है. लेकिन अगर वे आगे बढ़ना चाहे तो उन्हें सोडियम पेंटोबार्बिटल और उलटी रोकने की दवा दी जाती है. इससे उनकी मौत हो जाती है.
क्या कोई सोच सकता है कि उसे कभी मरने के लिए भी पैसा देना पड़ेगा? नहीं न. लेकिन डिग्निटास इसके लिए लगभग 1100 यूरो यानी करीब सवा लाख रुपये और अतिरिक्त खर्च लेती है.
DGHS की मेंबर थीं केसलर सिस्टरDGHS की प्रवक्ता वेगा वेत्जेल ने CNN को बताया कि केसलर सिस्टर ने एक साल से भी पहले उनसे संपर्क किया था. दोनों ने DGHS की सदस्यता भी ले ली थी. सबसे बड़ी वजह शायद यह थी कि वे दोनों एक ही तय तारीख को साथ में मरना चाहती थीं. हालांकि, उन्हें दोनों बहनों की व्यक्तिगत वजहों की पूरी जानकारी नहीं है. वेत्जेल का कहना है कि उनकी मौत की इच्छा लंबी सोच-विचार का नतीजा थी. यह किसी मानसिक संकट की वजह से नहीं बनी थी.
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