अगर आप इनमें से किसी एक का नाम लेने वाले हैं, तो आप सरासर ग़लत हैं. पाकिस्तान की मानें तो पहला पाकिस्तानी वो अरब आक्रमणकारी था जिसने लगभग 1300 साल पहले सिंध पर आक्रमण किया था. मुहम्मद बिन क़ासिम. तब जब कि पाकिस्तान बना भी नहीं था.
आप भौंचक होंगे कि एक आक्रांता को कैसे कोई मुल्क अपना पहला बाशिंदा मान सकता है! लेकिन मज़हब आधारित जम्हूरियत में ऐसे कारनामे कोई बड़ी बात नहीं. वैसे भी पाकिस्तान इतिहास के मामले में खुद को कंगाल ही पाता है. 1947 तक का सारा इतिहास ‘भारतीय इतिहास’ है. यहां तक कि आज़ादी की लड़ाई तक 'भारत बनाम ब्रिटिशर्स' के रूप में दर्ज है. ऐसे में अपनी हिस्ट्री का फोकस पाकिस्तान मज़हब की तरफ शिफ्ट करता है. इसीलिए पहला पाकिस्तानी वो शख्स है जिसने पाकिस्तान पर ही हमला किया था.

मुहम्मद बिन क़ासिम
किताबों में उल्लेख
यूं तो बिन कासिम को पाकिस्तानी किताबों में 1970 के बाद भरपूर जगह मिलनी शुरू हुई, लेकिन उसका ज़िक्र पहली बार 1953 में छपी टेक्स्ट बुक ‘फाइव इयर्स ऑफ़ पाकिस्तान’ में आया था. ये किताब पाकिस्तान निर्माण की पांचवीं सालगिरह पर छापी गई थी. इसमें सिंध को साउथ एशिया का पहला इस्लामिक प्रांत बताया गया. रीज़न ये बताया गया कि मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर ही हमला करके इस्लाम की बुनियाद डाली थी. इसलिए इस्लामी मुल्क पाकिस्तान के लिए वो घटना ऐसा नींव का पत्थर थी, जिस पर पाकिस्तान तामीर हुआ. और यही वजह है कि मुहम्मद बिन कासिम को पहला पाकिस्तानी होने का शर्फ़ हासिल हुआ.पाकिस्तान की राइट विंग पार्टी जमात-ए-इस्लामी 70 के दशक के बाद से ही यौम-ए-बाब-उल-इस्लाम मनाती आई है. ये हर साल दसवें रमज़ान को पाकिस्तान में इस्लामी हुकूमत की नींव के दिन के रूप में मनाया जाता है.
कौन था क़ासिम?
मुहम्मद बिन क़ासिम सऊदी अरब की खिलाफ़त का एक जनरल था, जिसने 711 में भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमी इलाकों पर हमला बोला था. उसने सिंधु नदी के रास्ते इधर कदम रखा और पंजाब-सिंध पर अपना कब्ज़ा जमा लिया.क़ासिम का जन्म सऊदी अरब के ताइफ़ शहर में हुआ था. काफी कम उम्र में ही पिता का साया क़ासिम के सर से उठ गया था. ताऊ हज्जाज बिन यूसुफ की निगरानी में क़ासिम ने युद्ध और प्रशासन कलाओं की शिक्षा ली. हज्जाज बिन यूसुफ़ उस समय इराक़ के राज्यपाल थे. उन्होंने क़ासिम की शादी अपनी बेटी ज़ुबैदा से करवा दी और उसे मकरान तट के रास्ते से सिंध पर हमला करने के लिए भेज दिया. उस वक़्त क़ासिम की उम्र सिर्फ 17 साल थी.

क़ासिम के सिंध आगमन पर एक कार्टून. सोर्स: Dawn.com
सिंधु घाटी पर हमला
क़ासिम 6000 सीरियाई सैनिक और अन्य दस्तों को लेकर चल पड़ा. रास्ते में मकरान के राज्यपाल ने उसे और सैनिक दिए. फन्नाज़बूर और अरमान बेला के विद्रोह को कुचलते हुए वो आगे बढ़ता रहा. कश्तियों के सहारे उसकी सेना सिंधु नदी पार कर के सिंध के देबल बंदरगाह पहुंची. ये बंदरगाह आज के कराची शहर के पास स्थित था. सिंध पर उस वक़्त हिंदू राजा दाहिर सेन की हुकूमत थी. कहा जाता है कि क़ासिम ने वहां पहुंचकर पुजारियों और नागरिकों का क़त्लेआम किया. मंदिरों को नष्ट किया, जिनमें एक बहुत ही प्राचीन मंदिर शामिल था.वहां से आगे उसके अभियान ने और भी ज़ोर पकड़ा. पूरब की ओर बढ़े क़ासिम के काफ़िले ने भारी संख्या में बंदी बनाए और जी भर के लूटपाट की. बंदियों को गुलाम बना कर हज्जाज और खलीफ़ा को भेजा गया. ढेर सारा खज़ाना भी भेजा गया. दाहिर सेन को युद्ध में परास्त करने के बाद क़ासिम का सिंध पर कब्ज़ा हो गया. उसके फ़ौरन बाद क़ासिम मुल्तान पर भी काबिज़ हो गया.

पाकिस्तान के सुक्कुर में एक मस्जिद के बाहर लगा शिलालेख. सोर्स: यूट्यूब.
क़ासिम ने बहुत से भारतीय राजाओं को ख़त लिखे कि वो इस्लाम को अपना लें और आत्मसमर्पण कर दें. उसने कन्नौज की तरफ 10,000 सैनिक भी भेजे लेकिन कूफ़ा से उसे वापस आने का आदेश आ गया और ये अभियान रुक गया.
कासिम की मौत से जुड़ी दो कहानियां
क़ासिम भारत में अरब साम्राज्य के विस्तार की तैयारियां कर ही रहा था कि उसके ताऊ हज्जाज की मौत हो गई. उसी वक़्त खलीफ़ा अल-वलीद का भी इंतकाल हो गया. अल वलीद का छोटा भाई सुलेमान बिन अब्दुल मलिक अगला खलीफ़ा बना. खिलाफ़त के ताज को अपने सर पर देखने के लिए जिन लोगों की मदद सुलेमान को हासिल हुई थी, वो सभी हज्जाज बिन यूसुफ़ के विरोधी गुट के थे. ज़ाहिर सी बात है हज्जाज के समर्थकों के लिए हालात मुश्किल हो गए. क़ासिम इसी का शिकार बना. क़ासिम की मौत से जुड़ी दो कहानियां बताई जाती हैं.# ईरानी इतिहासकार बलाज़ुरी के मुताबिक़ नए खलीफ़ा ने हज्जाज से जुड़े सभी लोगों पर कहर बरसाना शुरू किया था. क़ासिम तो हज्जाज का सबसे करीबी था. उसे भारत से वापस बुलवाकर इराक़ के मोसुल शहर में बंदी बनाया गया. क़ैद में उस पर बेतहाशा ज़ुल्म किए गए. भयंकर यातनाएं दी गईं. उन्हीं के चलते उसने कालकोठरी में दम तोड़ दिया.बहरहाल कहानी जो भी रही हो, मुहम्मद बिन क़ासिम महज 21 साल की उम्र में दुनिया छोड़ गया. उसकी कब्र कहां है, किसी को नहीं पता. पहला पाकिस्तानी होने का सम्मान जिस शख्स को हासिल है, उसका कोई स्मारक तक उपलब्ध नहीं है.
# दूसरी कहानी ज़्यादा कलरफुल है. ‘चचनामा’ नामक ऐतिहासिक दस्तावेज के मुताबिक़ बिन क़ासिम ने राजा दाहिर सेन की बेटियों को तोहफे के तौर पर खलीफ़ा के पास भेजा था. जब वो खलीफ़ा के सामने पेश की गईं, तो उन्होंने क़ासिम से बदला लेने के लिए एक अनोखा झूठ बोला. उन्होंने खलीफ़ा से कहा कि क़ासिम पहले ही उनके साथ हमबिस्तरी कर चुका था. ये सुनकर खलीफ़ा ने बेहद अपमानित महसूस किया. उसने क़ासिम को बैल की चमड़ी में लपेटकर वापस दमिश्क़ मंगवाया. उसी चमड़ी में दम घुटकर क़ासिम की मौत हो गई. बाद में बहनों का झूठ सामने आने पर उन्हें दीवार में जिंदा चुनवा दिया गया.
हक़ीकत तो ये है कि आज़ादी के वक़्त तक बिन क़ासिम का दर्जा महज एक आक्रमणकारी का था जिसके हिस्से बहुत ज़्यादा प्रसिद्धी नहीं आई थी. ये तो पाकिस्तान के पास अपने निजी इतिहास की किल्लत ने और मज़हब आधारित जम्हूरियत ने उसे हीरो बनने का मौका दे दिया.
इस तरह से पाकिस्तानी उस शख्स को अपना प्रथम पुरुष मानते हैं जिसने उन्हीं के पूर्वजों के ख़ून से उन्हीं की धरती लाल की थी.
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