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कैलाश नाथ काटजू : यूपी का वो वकील, जिसे नेहरू ने मध्यप्रदेश का मुख्यमंंत्री बना दिया

जो खुद चुनाव हार गया और फिर वकालत करने लौट गया.

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कैलाश नाथ काटजू मध्यप्रदेश के तीसरे मुख्यमंत्री थे. लेकिन वो पहले मुख्यमंत्री भी थे, जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया था.
चुनावी मौसम में दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आया है पॉलिटिकल किस्सों की ख़ास सीरीज़- मुख्यमंत्री. आज आपको एक मुख्यमंत्री की कहानी पढ़वाते हैं. मध्यप्रदेश के तीसरे मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू की. कहने को तीसरे लेकिन टेक्निकली फुल टाइम पहले मुख्यमंत्री, जो बहुत रईस था, जिसने आजाद हिंद फौज का केस लड़ा था, जो यूपी में वकालत करता था और वकालत करते-करते मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बना था.
अंक 1: मंत्री बाद में बनूंगा, पहले पासबुक चेक करो

सन 1937. ब्रिटिश हुकूमत ने चुनाव करवाए. पूरे देश में कांग्रेस की जबर जीत. सबसे बड़े सूबे यूनाइटेड प्रोविंस माने आज के यूपी में भी. सरकार बनी गोविंद वल्लभ पंत की सदारत में. फिर बना मंत्रिमंडल. सब मंत्री तय सिवाय एक को छोड़कर. कानून मंत्री. वजह, जिस आदमी के नाम पर विचार किया जा रहा था, वो तैयार नहीं था. देश का नामी वकील. नेहरू परिवार का पुराना दोस्त. बहुत रईस. ये बहुत कितना होता है.


नेहरू ने कैलाश नाथ काटजू को मनाने की पूरी कोशिश की. वो नहीं माने. इसके बाद जिम्मा राजेंद्र प्रसाद को सौंपा गया और वो काटजू को मनाने में कामयाब रहे.
नेहरू ने कैलाश नाथ काटजू को मनाने की पूरी कोशिश की. वो नहीं माने. इसके बाद जिम्मा राजेंद्र प्रसाद को सौंपा गया और वो काटजू को मनाने में कामयाब रहे.

ऐसे समझिए कि तब एक कार की कीमत होती थी दो-तीन हजार रुपये. मगर इन वकील साहब की महीने की आमदनी 25-30 हजार रुपये थी. सो वो प्रैक्टिस छोड़ने को तैयार नहीं हो रहे थे. फिर उन्हें मनाने का जिम्मा सौंपा गया डॉ. राजेंद्र प्रसाद को. राजेंद्र बाबू ने बड़ा जोर लगाया. घंटों बातचीत हुई. आखिर वकील साहब माने. पर अपनी पासबुक प्रसाद के सामने रख दी. उसमें उस वक्त 13 लाख रुपये थे. डॉ. प्रसाद दंग. वकील साहब बोले-


'ये मैं इसलिए दिखा रहा हूं क्योंकि मैं नहीं चाहता कि कल को मैं मंत्री पद से हटूं तो लोग कहें कि देखो मंत्री जी ने कितनी संपत्ति जुटा ली. ये किसका फसाना सुना रहा हूं आज आपको.'

ये कहानी है आजादी के सेनानी और नामी वकील कैलाशनाथ काटजू की. जो आजाद हिंद फौज के अफसरों का केस लड़े. लाल किले में जाकर. जो संविधान सभा के सदस्य बने. फिर केंद्र में गृह और रक्षा मंत्री भी.


रविशंकर शुक्ल (बाएं) दो महीने मुख्यमंत्री रहे थे, जबकि भगवंत राव मंडलोई मात्र 23 दिन के लिए कार्यवाहक मुख्यमंत्री बने थे.
रविशंकर शुक्ल (बाएं) दो महीने मुख्यमंत्री रहे थे, जबकि भगवंत राव मंडलोई मात्र 23 दिन के लिए कार्यवाहक मुख्यमंत्री बने थे.

पर आज काटजू की बात इसलिए क्योंकि क्योंकि वो मध्यप्रदेश के तीसरे मुख्यमंत्री भी बने. या यूं कहें 1956 में जन्मे मध्यप्रदेश के टेक्निकली पहले फुल टाइम सीएम. क्योंकि पहले सीएम रविशंकर शुक्ल सरकार बनने के 2 महीने बाद ही चल बसे थे. और उनके बाद कार्यवाहक मुख्यमंत्री के तौर पर भगवंतराव मंडलोई मात्र 21 दिन सीएम रहे. फिर 31 जनवरी 1957 से लेकर 11 मार्च 1962 तक डॉ. काटजू ही एमपी के नेता रहे. पूरे 5 साल 39 दिन के लिए.

अंक 2: नेहरू, एक तीर और दो शिकार

काटजू के एमपी आने से पहले के हालात समझ लीजिए. आगे का किस्सा समझने में सुभीता रहेगा. मध्य प्रदेश में रविशंकर शुक्ल के बाद सीएम के कई दावेदार थे. पहले, तखतमल जैन. वो एमपी बनने से पहले मध्य भारत के प्रधानमंत्री रह चुके थे. दूसरे, सेठ गोविंद दास, जो उस वक्त प्रदेश कांग्रेस के मुखिया थे. और तीसरे भगवंत राव मंडलोई जो शुक्ल के अचानक निधन के चलते 21 दिन के कार्यवाहक सीएम रहे.



रविशंकर शुक्ल के बाद भगवंत राम मंडलोई कार्यवाहक सीएम बने थे. सेठ गोविंद दास (दाएं) उस वक्त कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष थे.

तब तक गोविंद दास और तखतमल अपने हिस्से की कोशिशें कर चुके थे. उन्हें लगा कि हम जब बनेंगे तब बनेंगे, इस जूनियर को निपटाओ. विंध्य के प्रधानमंत्री रहे कद्दावर कांग्रेसी नेता शंभु भी उनके साथ हो लिए.

इसी बीच इंदौर में 6, 7 और 8 जनवरी को अखिल भारतीय कांग्रेस का अधिवेशन शुरू हुआ. गोविंद, तखत और शंभू की तिकड़ी अधिवेशन के दौरान ही मौलाना आजाद के पास पहुंची. उन्होंने कहा, नेहरू से मिलो. नेहरूजी के पास पहुंचे तो कहा गया, पंत जी से मिलो. पंत मिलने पर बोले, मुझे क्या, नेहरूजी जिसका नाम कहेंगे, मुझे स्वीकार है. नेहरू ने नाम कहा, कैलाश नाथ काटजू का. उनकी कैबिनेट में रक्षा मंत्री. सियासी पंडित कहते हैं कि नेहरू ने एक तीर से दो निशाने साधे. भोपाल में अपना आदमी बैठा दिया और रक्षा मंत्री की कुर्सी भी खाली कर ली. एक और अपने आदमी वीके कृष्णामेनन के लिए.


कहा जाता है कि नेहरू ने भोपाल में अपने आदमी के तौर पर कैलाश नाथ काटजू को बिठा लिया और केंद्र में वीके कृष्ण मेनन को लेकर आ गए.
कहा जाता है कि नेहरू ने भोपाल में अपने आदमी के तौर पर कैलाश नाथ काटजू को बिठा लिया और केंद्र में वीके कृष्ण मेनन को लेकर आ गए.

यहां मैंने काटजू के लिए अपना आदमी कहा. क्यों. क्योंकि कैलाश नाथ नेहरू के पिता मोती लाल के साथ वकालत कर चुके थे. नेहरू से दो साल बड़े थे और पंडित जी से भाई कहकर बात करते थे. कश्मीरी पंडित कनेक्शन तो था ही.

अंक 3: यूपी का वकील एमपी का सीएम क्यों

पूरी जिंदगी इलाहाबाद और दिल्ली में गुजारने वाले काटजू सीएम बनाकर एमपी क्यों भेजे गए. उनका मध्य प्रदेश से जन्म का नाता था. वो पैदा हुए थे 17 जून 1887 को रतलाम जिले में पड़ने वाले जावरा इलाके में. उन दिनों पिता त्रिभुवन नाथ काटजू जावरा के दीवान थे.

काटजू ने स्कूल किया लाहौर में और वकालत पढ़ी इलाहाबाद में. पढ़ने में टॉपर. पीएचडी भी कर ली. हाई कोर्ट में वकालत झमक कर चलने लगी. फिर कांग्रेस और आजादी के आंदोलन से जुड़े और वकालत के सूरमा बने. सियासत के भी.



कैलाश नाथ काटजू पैदा मध्यप्रदेश में हुए थे, लेकिन वकालत यूपी में की थी.

और इसी के पहले बड़े पड़ाव पर एमपी कनेक्शन काम आया. संविधान सभा के चुनाव में काटजू यूपी से नहीं पहुंच पाए. तब नेहरू ने मध्य भारत से चुनकर आए सीताराम जाजू का इस्तीफा करा उन्हें भेजा. आजादी के बाद वो ओडिशा और पं. बंगाल के गवर्नर रहे. फिर पहली लोकसभा के चुनाव आए तो वह एमपी लौटे. मंदसौर से सांसद बने और फिर मंत्री. 31 जनवरी 1957 को जब कैलाशनाथ काटजू भोपाल के बैरागढ़ हवाई अड्डे पर उतरे तो उनको करीब से जानने वाला कोई नहीं था. हाईकमान के आदेश के कारण उनको मध्यप्रदेश के नेताओं ने अपना नेता जरूर मान लिया था, मगर सिर्फ ऊपरी तौर पर. पर काटजू ने इसका लोड नहीं लिया. स्टाफ, ब्यूरोक्रेसी और मंत्रिमंडल में बदलाव जैसे फेर में नहीं पड़े. चुनाव की तैयारियों में जुटे. 1957 में मध्य प्रदेश ने अपनी दूसरी विधानसभा चुनी. 288 सीटों में से कांग्रेस ने 232 सीटें जीतीं. काटजू फिर सीएम बने.

अंक 4: काटजू की ईमानदारी और भुलक्कड़ी के किस्से

कैलाशनाथ काटजू की सादगी और ईमानदारी के कई किस्से हैं. उन दिनों मुख्यमंत्री को 250 रुपये का नाश्ता-पानी वाला समच्युरी अलाउंस मिलता था. मगर काटजू नहीं लेते थे. इस खर्चे के लिए वो हर तीन महीने में इलाहाबाद से 1000 रुपये का ड्राफ्ट मंगाते थे.


कैलाश नाथ काटजू इतने भुलक्कड़ थे कि वो अपनी सरकार के उपमंत्री दशरथ जैन का नाम तक भूल गए थे.
कैलाश नाथ काटजू इतने भुलक्कड़ थे कि वो अपनी सरकार के उपमंत्री दशरथ जैन का नाम तक भूल गए थे.

उनके भूलने के किस्से भी काबिल ए जिक्र हैं. एक बार काटजू छतरपुर के दौरे पर गए. वहां उनकी सरकार में उपमंत्री दशरथ जैन एक प्रतिनिधिमंडल लेकर सर्किट हाउस में मुलाकात के लिए पहुंचे. दशरथ ने मुख्यमंत्री का सबसे परिचय करवाया. आखिरी में काटजू ने दशरथ से ही पूछ लिया. और आप कौन हैं? मंत्री जी का जवाब आया-


अरे डॉक्टर साहब मैं दशरथ जैन. फिर काटजू ने जो बोला उससे जैन साहब के काटो तो खून नहीं.

मुख्यमंत्री बोले-


एक दशरथ जैन तो हमारे मंत्रीमंडल में भी हैं.

दशरथ बोले- जी, मैं वही हूं.

अंक 5: मुख्यमंत्री जी, आप चुनाव हार रहे हैं

कैलाशनाथ काटजू ने मुख्यमंत्री रहते संगठन पर पकड़ बनाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई. वो कहते थे - कांग्रेस अपना काम करे, मैं अपना कर रहा हूं. लेकिन ये रवैया उनकी राजनीति के लिए ठीक नहीं रहा.जब काटजू सूबे के सीएम बने थे. तभी संगठन में भी एक आदमी की शीर्ष पर पारी शुरू हुई थी. काटजू नियुक्ति के रास्ते आए थे, तो वह चुनाव के जरिए. इंदौर अधिवेशन के बाद कांग्रेस में प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए भी चुनाव की रवायत शुरू हो गई थी. और इसमें बाजी मारी थी. महाकोशल इलाके के मूलचंद देशलहरा ने.


कश्मीर विवाद को UN ले जाने की सलाह माउंटबेटन ने दी थी. उनका मानना था कि दोनों देशों के बीच इस मसले पर जंग छिड़ सकती है. इसे रोकने के लिए UN का सहारा लिया जा सकता है. नेहरू शुरू में इसके लिए तैयार नहीं थे. बाद में वो मान गए (फोटो: नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी)
पंडित नेहरू. (फोटो: नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी)

देशलहरा ने हर जिले में अपने लोगों को बढ़ाना शुरू किया. इससे दो खेमे बन गए. एक उनका, दूसरे में तखतमल, सेठ गोविंददास, शंभू और डीपी मिश्रा और खुद काटजू गुट के लोग. इन सबमें पांच साल बीत गए. 1962 के चुनाव आए. काटजू पूरे सूबे में प्रचार कर रहे थे. इसी दौरान एक सभा हुई. रीवा में. नेहरू भी आए थे. मंच से पंडित जी भाषण दे रहे थे. मुख्यमंत्री अपनी कुर्सी पर बैठे थे. तभी उनके सुरक्षा अधिकारी ने एक तार हाथ में थमा दिया. उसमें लिखा था-


'फौरन जावरा पहुंचें. मुश्किल है.'

ये जावरा क्या था. उनकी पैदाइश वाली जगह. और अब उनका विधानसभा क्षेत्र. काटजू को कहा गया कि आपका चुनाव फंसा है. तब तक नेहरू अपनी कुर्सी पर लौट चुके थे. काटजू ने तार अपने नेता को थमाते हुए कहा. मैं तो हार रहा हूं. पता नहीं बाकी का क्या होगा. तार और हार सही निकले. काटजू हार गए. नेहरू बहुत गुस्सा हुए. हार की जांच के लिए हैदराबाद के पूर्व मुख्यमंत्री वी रामकृष्ण राव को एमपी भेजा गया. पता करना था कि इस हार में तखतमल जैन और देशलेहरा का कितना हाथ है?

राव ने तीन बातें बताईं.

1. जिले में कांग्रेस के कई धड़े बन गए थे जो एक दूसरे को हराने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे.

2. देशलेहरा ने डॉ. काटजू के चुनाव को गंभीरता से नहीं लिया. भितरघात किया.

3. तखतमल जैन की इस हार में कोई भूमिका नहीं थी.



वकील रहते हुए कैलाश नाथ काटजू ने आजाद हिंद फौज का मुकदमा लड़ा था.

नेहरू एक्शन में आ गए. देशलहरा को कांग्रेस हाईकमान ने पद छोड़ने के निर्देश दे दिए. काटजू को दिल्ली बुला लिया गया. नेहरू उन्हें दोबारा सीएम बनाने के लिए तैयार थे. मगर उसके लिए विधायकी जरूरी थी. इसके लिए नरसिंह गढ़ के पहले राजा और अब विधायक भानुप्रकाश सिंह ने इस्तीफा दे दिया. भानुप्रताप सांसद भी जीते थे तो उन्हें दिक्कत नहीं हुई. उपचुनाव में यहां से काटजू जीत गए. मगर चुनाव और उपचुनाव के बीच कुछ महीने थे.

और थी बहुमत की महीन गणित.

1962 के चुनाव में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला था. 296 में से कांग्रेस के केवल 144 विधायक जीते थे. चार विधायकों को इधर-उधर से लाकर नंबर जुगाड़ा गया. और यहां नेहरू को ढीला पड़ना पड़ा. तखतमल जैन दिल्ली तलब हुए तो भोपाल में अफवाह उड़ी. आखिरकार नंबर आ गया. कई लोग बोले, घुड़की देने के लिए बुलाया है पंडित जी ने. मगर उन्हें तो एक नाम पर सहमति बनाने के लिए बुलाया गया था. कौन था ये नाम.


भगवंतराव मंडलोई.


भगवंत राव मंडलोई डेढ़ साल तक मुख्यमंत्री रहे.

मंडलोई डेढ़ साल सीएम रहे. फिर कामराज प्लान आया, तो गद्दी गई. लोगों को लगा, अब नेहरू के खास काटजू सीएम बनेंगे. लेकिन तब तक मध्य प्रदेश की राजनीति का चाणक्य कहे जाने वाले द्वारिका प्रसाद मिश्र भी विधानसभा में दाखिल हो चुके थे. नेहरू की कोटरी में भी. बिटिया इंदु की बदौलत. मिश्र ने पहला दांव चला. बोले, काटजू ही सीएम बनें. मगर उनकी उम्र और कद का ख्याल रखा जाए. वो आम सहमति से बनाए जाएं.

इस बयान के बाद देशलहरा गुट सामने आया. सीएम के पद पर दावा ठोंकते हुए. बात विधायक दल में गुप्त मतदान की चलने लगी. काटजू समझ गए, उन्हें सेट किया जा रहा है. वो दावेदारी से खुद ही दूर हो गए. और फिर कभी इस कुर्सी के लिए इच्छा भी नहीं जताई. तो इस कहानी के नायक को कैसे याद किया जाए. बताएंगे अगले अंक में. जिसका नाम है चंबल साहब.

अंक 6: चंबल साहब और जजों वाला परिवार


चंबल नदी पर सिंचाई परियोजनाओं की वजह से काटजू का नाम चंबल साहब भी पड़ गया था.
चंबल नदी पर सिंचाई परियोजनाओं की वजह से काटजू का नाम चंबल साहब भी पड़ गया था.

काटजू का कार्यकाल शांति और तरक्की वाला रहा. एक उदाहरण से उनका रवैया समझिए. मंदसौर और नीमच जिलों में सिंचाई के साधन नहीं थे. जबकि चंबल बहती थी. बात चली बांध बनाने की. गांधी सागर जलाशय. योजना आयोग ने प्रोजेक्ट तो क्लियर कर दिया, मगर पैसा रिलीज करने में आनाकानी की. काटजू एक आध बार चिरौरी करने दिल्ली गए. फिर गए जनता के पास. प्रोजेक्ट का 25 फीसदी चंदा मांग जुटा लिया और बांध तेजी से बनने लगा. विकास में जनभागीदारी का ये पहला और सर्वोत्तम नमूना था. और इसी के चलते उनका नाम पड़ा चंबल साहब.

मगर चंबल तो मिथकों के मुताबिक बहते रक्त की नदी थी. बलि की नदी थी. सियासत ने जब काटजू के करियर की बलि ली तो उन्होंने गाया.


रहना नहीं देस बिराना है.

चल दिए झोला उठा अपने पुराने ठिकाने इलाहाबाद. ओह सॉरी. प्रयागराज. यहीं पर 17 फरवरी 1968 को उन्होंने आखिरी सांस ली.


कैलाश नाथ काटजू के बेटे ब्रह्मनाथ काटूज (बाएं) इलाहाबाद हाई कोर्च के चीफ जस्टिस बने. पोते मार्कंडेय काटजू भी पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बने.
कैलाश नाथ काटजू के बेटे ब्रह्मनाथ काटूज (बाएं) इलाहाबाद हाई कोर्च के चीफ जस्टिस बने. पोते मार्कंडेय काटजू भी पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बने.

काटजू की क्या विरासत है. वकीलों और जजों वाला परिवार. डॉ. काटजू के तीन बेटे और दो बेटियां थीं. उसमें से एक बेटा ब्रह्म नाथ इलाहाबाद हाई कोर्ट का चीफ जस्टिस बना. दूसरा शिव नाथ इसी हाई कोर्ट में जज. इन्हीं शिवनाथ के बेटे मार्कंडेय काटजू सुप्रीम कोर्ट में जज के ओहदे तक पहुंचे.

और हम पहुंचे इस वाकये के अंत पर. अगले एपिसोड में सुनाएंगे. उस सीएम की कहानी, जो हमेशा पान का डब्बा लेकर चलता था. मगर खुद से पान कभी नहीं खिलाता था. जिसकी मौत के साथ एक बंगले के मनहूस होने का किस्सा मशहूर हो गया.




वीडियो: यूपी का एक वकील कैसे बना एमपी का सीएम?