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सेक्स जैसी एक सहज मानवीय भावना को गुनाह में बदल देते हैं हम

सेक्स से बचो, उसके ज़िक्र से भी बचो यही स्टैण्डर्ड फ़ॉर्मूला है हमारे मुल्क में.

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सेक्स एजुकेशन पर बनी फिल्म 'एक छोटी सी लव स्टोरी' फिल्म का पोस्टर.
मेनका गांधी समझती हैं कि 16-17 साल की उम्र में बच्चों को पाबंदियों में रखना उनकी बेहतरी के लिए है. इस उम्र के लड़के-लड़कियों के लिए वो एक लक्ष्मणरेखा की वकालत करती हैं. एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा: “जब आप 16-17 साल के होते हो तब हार्मोनल बदलाव के शिकार होने की संभावना ज़्यादा होती है. तो अपने खुद के हार्मोनल विस्फोट से बचने के लिए एक लक्ष्मणरेखा खींची जानी ज़रूरी है. ये उनकी खुद की सुरक्षा के लिए है.” वो समझती हैं कि हॉस्टल्स को लड़के-लड़कियों को देर शाम तक बाहर रुकने की इजाज़त नहीं देनी चाहिए. इसको ‘अर्ली कर्फ्यू’ बताती हैं मेनका गांधी. लड़के-लड़कियों की संभावित मुठभेड़ टालने के लिए वो कुछ उपाय भी सुझाती हैं शिक्षण संस्थानों को. जैसे कि रात में लाइब्रेरी में पढ़ाई करने के लिए लड़के और लड़कियों को अलग-अलग रातें एलॉट की जाएं. जेंडर इक्वैलिटी का ये अजीब उदाहरण होगा.
जानवरों की आज़ादी का झंडा बुलंद करने वाली मेनका गांधी इंसानों के बच्चों को हद में बांधे रखने की बात कर रही हैं. उनकी इस बात से कितने ही सवाल ज़हन में आते हैं. जैसे क्या हार्मोनल डिसबैलेंस का ख़तरा किसी ख़ास वक़्त पर ही होता है? दिन के वक़्त नहीं रहता ये ख़तरा? टीन एज में शारीरिक बदलाव आना सहज-स्वाभाविक बात है. अपोजिट सेक्स के प्रति आकर्षण भी उतनी ही सहज प्रक्रिया है. ऐसे में ढंग के सेक्स एजुकेशन की ज़रूरत है ना कि पिंजरे में बंद किए जाने की. बच्चा जब चलने की कोशिश कर रहा होता है, तब उसे गिर कर चोट लगने की संभावना बहुत ज़्यादा होती है. फिर भी हम उसे चलने देते हैं ना!
हमारे देश में सेक्स हमेशा से एक टैबू चीज़ रही है. सेक्स से बचो, उसके ज़िक्र से भी बचो यही स्टैण्डर्ड फ़ॉर्मूला है हमारे यहां. कोई हैरानी नहीं कि यौन-कुंठा का प्रतिशत हमारे देश में इतना ज़्यादा है. तमाम पाबंदियां इसी बात को लेकर है कि कहीं एक लड़का-लड़की कुछ कर ना बैठे. एक बेहतर व्यवस्था देने की जगह हमारे तमाम रहनुमा हमें एस्केप रूट ही समझाते रहते हैं. 5547137ee4b042cdf61e85d8_cv1 मेनका जी चाहती हैं ना सिर्फ लड़कियां बल्कि लड़कों को भी शाम 6 बजे के बाद हॉस्टल में रहने पर मजबूर कर दिया जाए. उन्हें बाहर ना घूमने दिया जाए. यूं पाबंदियों में रख कर कौन सा भला होने वाला है किशोरों का! माना कि अनुशासन ज़रूरी है लेकिन कर्फ्यू लगाकर क़ैद करने में और डिसिप्लिन में फ़र्क है. मेनका जी एक और बात कह कर जता देती हैं कि इन नेताओं को कुछ भी बोलने से पहले सोचने की ज़रा भी आदत नहीं है. वो कहती हैं, “दो बिहारियों को हाथ में डंडा देकर गेट पर खड़ा कर देने से गर्ल्स कॉलेज की सुरक्षा की गारंटी नहीं हो जाती.” ये एक राज्य के तमाम लोगों के प्रति घोर असंवेदनशील स्टेटमेंट है. यूं किसी राज्य की तमाम जनता को टाइपकास्ट कर देना मेनका जैसी नेत्री को शोभा नहीं देता.
सेक्स हो जाने का भय, रात में बाहर रुकने से कुछ हो जाने का भय. इन डरों को दिल से निकालने की जगह इन्हें और पक्का करने में ही जुटे हुए हैं सब. ऐसा माहौल तो दूर का सपना है जहां किसी भी वक़्त, लड़का-लड़की किसी को भी, कहीं आते-जाते डर ना लगे. एक खौफ़-रहित समाज का निर्माण तो हमसे क्या ही होगा, टीन एज के बच्चों पर गाइडलाइंस थोप-थोप कर हम उन्हें दहला देते हैं. कोई हैरानी नहीं कि एक सहज मानवीय भावना को हम लगभग एक गुनाह में तब्दील करा चुके हैं.
कोई माने या न माने, सोशल मीडिया पर किसी भी मुखर लड़की को रेप की धमकियां देने वाला कुंठित समाज इन्हीं पाबंदियों की देन है.
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