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नरेश चंद्र सिंह : मध्यप्रदेश का इकलौता आदिवासी मुख्यमंत्री, जो सिर्फ 13 दिनों तक कुर्सी पर रहा

14 वें दिन इस्तीफा दिया और फिर इंदिरा के कहने पर भी राजनीति की ओर मुड़कर नहीं देखा.

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नरेश चंद सिंह मध्यप्रदेश के इकलौते आदिवासी मुख्यमंत्री रहे हैं. वो इस कुर्सी पर बस 13 दिनों के लिए ही रह पाए, 14वें दिन कुर्सी चली गई.

चुनावी मौसम में दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आया है पॉलिटिकल किस्सों की ख़ास सीरीज़- मुख्यमंत्री. आज बात मध्यप्रदेश के पहले और इकलौते आदिवासी मुख्यमंत्री नरेश चंद्र सिंह की, जो अपनी कुर्सी पर बस 13 दिनों तक ही रह सका. और जब कुर्सी चली गई तो ताउम्र सियासत से दूर रहा.

17, 15, 14, 13,0. ये पांच अंक हैं. ये एक नेता से  जुड़े अंक हैं, जो 17 साल विधायक रहा, उसमें 15 साल मंत्री. फिर 13 दिन के लिए मुख्यमंत्री बना. 14वें दिन इस्तीफा और फिर संन्यास. यानी सब जीरो.

अंक 1: राजा की विदाई


गोविंद नारायण सिंह के इस्तीफे के बाद नरेश चंद सिंह एमपी के मुख्यमंत्री बने थे.
गोविंद नारायण सिंह के इस्तीफे के बाद नरेश चंद सिंह एमपी के मुख्यमंत्री बने थे.

बात है मार्च 1969 की. मध्यप्रदेश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार की स्थिति डांवाडोल थी. 12 मार्च 1969 को गोविंद नारायण सिंह ने इस्तीफा दे दिया. 13 मार्च को मुख्यमंत्री बने नरेशचंद्र सिंह. पर उसके 13वें दिन यानि 25 मार्च को उन्हें पद छोड़ना पड़ा. नरेशचंद्र ने राजभवन में इस्तीफा देने से पहले पूर्व सीएम द्वारकाप्रसाद मिश्र से मिलने का फैसला किया. सबकी नजरें इस मीटिंग पर. मुलाकात खत्म हुई. पत्रकारों ने द्वारकाप्रसाद से पूछा कि ये मुलाकात क्यों? मिश्र ने जवाब दिया -



नरेश चंद्र ने इस्तीफे के बाद डीपी मिश्र से मुलाकात की थी और कहा था कि उनकी विदाई सम्मानजनक तरीके से होनी चाहिए.

वो ये कहने आए थे,


आशिक का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले...

पर यहां सबसे बड़ा सवाल खड़ा होता है कि नरेशचंद्र आखिर कांग्रेस छोड़ संविद सरकार का हिस्सा बने क्यों? वो भी अचानक. तो इसकी दो थ्योरियां हैं.

पहली थ्योरी:

पहली किताबों और पत्रकारों के हवाले से. वो ये कि नरेशचंद्र सिंह मुख्यमंत्री बनना चाहते थे. सो जब गोविंद नारायण सिंह ने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दिया तभी नरेश ने कांग्रेस छोड़ने का ऐलान कर दिया. उन्हें राजमाता सिंधिया की तरफ से न्योता था. जैसे गोविंद विधायक तोड़कर लाए. तुम भी लाओ. और सीएम बन जाओ. जनक्रांति दल मोर्चा और जनसंघ का समर्थन तय है.


राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने नरेश चंद सिंह को विधायक तोड़कर लाने को कहा. नरेश चंद सिंह विधायक तोड़कर लाए और सीएम बन गए.
राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने नरेश चंद सिंह को विधायक तोड़कर लाने को कहा. नरेश चंद सिंह विधायक तोड़कर लाए और सीएम बन गए.

नरेश चंद्र ने ऐसा ही किया. वह आज के छत्तीसगढ़ में पड़ने वाली सारंगढ़ रियासत से थे. कांग्रेस में आदिवासियों के सबसे बड़े नेता थे. इसलिए संविद गुट को लगा कि सिंह के साथ आदिवासी विधायक जुट जाएंगे. और सत्ता बची रहेगी.

मगर सिंह के शपथ ग्रहण के कुछ रोज बाद गोविंद नारायण सिंह ने अपनी मूल पार्टी कांग्रेस में लौटने का ऐलान कर दिया. उनके साथ के दर्जनों विधायक भी नेता का अनुसरण करते हुए पार्टी में लौट गए. नरेश की सरकार अल्पमत में आ गई और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा.

दूसरी थ्योरी:


एक थ्योरी ये कहती है कि नरेश चंद को कांग्रेस से बगावत के लिए उकसाने वाली खुद इंदिरा गांधी थीं.
एक थ्योरी ये कहती है कि नरेश चंद को कांग्रेस से बगावत के लिए उकसाने वाली खुद इंदिरा गांधी थीं.

ये हमें बताई नरेशचंद्र सिंह के दामाद डॉ. प्रवेश मिश्रा ने. उनके मुताबिक नरेशचंद्र को कांग्रेस से बगावत करने के लिए खुद इंदिरा गांधी ने कहा था. इस थ्योरी के मुताबिक संविद सरकार के सीएम गोविंद नारायण सिंह ने कांग्रेस में वापसी का मन बना लिया था. लेकिन उनको एक फेस सेवर की जरूरत थी. ये काम किया नरेश ने. खुद को शहीद करके. वो संविद में गए और गोविंद नारायण को मौका मिल गया कांग्रेस में वापस आने का. नरेशचंद्र को समझ आ गया था कि उनका इस्तेमाल किया गया है. राजनीति में उस वक्त भयानक गंध भी मची हुई थी. सो उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का फैसला किया.

अंक 2: राजा जी बने मंत्री जी


रविशंकर शुक्ला जब मध्यप्रदेश के पहले सीएम बने, नरेश चंद उनकी कैबिनेट में मंत्री बने थे.
रविशंकर शुक्ल जब मध्यप्रदेश के पहले सीएम बने, नरेश चंद उनकी कैबिनेट में मंत्री बने थे.

नरेशचंद्र सिंह की कहानी शुरू होती है सारंगढ़ रियासत से. पिता जवाहीर सिंह रियासतदार थे. आजादी के डेढ़ बरस पहले जनवरी 1946 में जवाहीर चल बसे तो राजा बन गए नरेशचंद्र सिंह. फिर आया 1947. देश आजाद हो गया. 1 जनवरी 1948 को राजा नरेशचंद्र ने भी अपनी जनता को आजाद कर दिया. सारंगढ़ का भारतीय संघ में विलय कर दिया. खुद कांग्रेस जॉइन कर ली. 1952 में चुनाव लड़े. नेतृत्व अपनी जनता का ही किया. माने सारंगढ़ विधानसभा से विधायक बने. तब मध्यप्रदेश अस्तित्व में नहीं आया था. ये मध्य प्रांत था. यहां के मुख्यमंत्री बने रविशंकर शुक्ल. नरेश को कैबिनेट मंत्री बनाया. विभाग था बिजली और पीडब्ल्यूडी. 1954 में एक कमेटी बनी. काम था आदिवासियों के कल्याण के लिए अलग से विभाग बनाना. आदिवासी कल्याण विभाग. नरेशचंद्र 1955 में इस विभाग के मंत्री बने तो 1967 तक रहे. संविद सरकार बनने तक. फिर इसके गिरने पर उन्हें मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला.


इंदिरा गांधी के कहने पर नरेश चंद सिंह ने अपनी बेटी पुष्पा को रायगढ़ से लोकसभा का चुनाव लड़वाया था.
इंदिरा गांधी के कहने पर नरेश चंद सिंह ने अपनी बेटी पुष्पा को रायगढ़ से लोकसभा का चुनाव लड़वाया था.

राजनीति से अलविदा के 11 साल बाद नरेश के सामने धर्मसंकट आया. साल था 1980 और पुकार थी इंदिरा गांधी की. इंदिरा ने खुद फोन कर नरेश सिंह को रायगढ़ से लोकसभा चुनाव लड़ने को कहा. मगर सिंह ने इनकार किया. लेकिन मैडम का मान भी रखा. अपनी बेटी पुष्पा को चुनाव लड़वाकर.

अंक 3: बीवी के सामने कोई नहीं, बेटियां भी जिंदाबाद

नरेश ने सियासत छोड़ी, मगर परिवार इसमें लगातार कायम रहा. 1969 में उनके इस्तीफे के चलते पुसौर विधानसभा खाली हुई. यहां उपचुनाव में उनकी पत्नी ललिता देवी निर्विरोध चुन ली गईं. नरेशचंद्र की पांच औलादों में से चार बेटियां थी. इनमें से तीन राजनीति में आईं. बड़ी बेटी कमला देवी 1971 से 1989 तक विधायक के साथ ही मंत्री रहीं. दूसरी, रजनीगंधा और तीसरी पुष्पा लोकसभा सदस्य रहीं. चौथी, मेनका समाजसेवा में हैं. नरेश के बेटे शिशिर बिंदु सिंह भी एक बार विधायक रहे.


नरेश चंद ने सियासत की शुरुआत की थी. अब उनकी बेटियां परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं.
नरेश चंद ने सियासत की शुरुआत की थी. अब उनकी बेटियां परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं.

और नरेश चंद्र सिंह. वो 11 सितंबर 1987 को नहीं रहे. मुख्यमंत्री के अगले ऐपिसोड में कहानी उस मुख्यमंत्री की जिसके पापा भी मुख्यमंत्री रहे. और भाई ऐसा जलवेदार मंत्री जिसके फोन से क्या हीरो, क्या संपादक, सब हड़कते थे.




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