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सिकंदर से लेकर खोमैनी तक ईरान का पूरा इतिहास, भारत से क्या कनेक्शन बना रहा?

ईरान (Iran) के इतिहास में फिरदौसी जैसे लेखकों का ज़िक्र आता है, जिन्होंने 'पर्शिया का शाहनामा' लिखा. इसे पर्शिया में वही कद हासिल है, जो भारत में महाभारत को. साथ ही, ज़िक्र नादिर शाह का भी आता है, जिसने करोड़ों के हीरे-जवाहरात, सोना-चांदी, इतना सब कुछ लूटा गया कि उसके मुंशी पूरी तरह हिसाब भी न कर सके.

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ईरान का इतिहास. (फ़ोटो - इंडिया टुडे)

युद्ध के मैदान में सिकंदर खड़ा है. सामने है एक रथ. रथ पर पड़ी है एक लाश. उस राजा की, जो कभी धरती पर सबसे बड़े साम्राज्य का अधिनायक था. सिकंदर अपने दुश्मन की मौत से दुखी था. वो उसे जिन्दा पकड़ना चाहता था. निराशा से भरा सिकंदर राजा के मृत शरीर के पास जाता है. उसकी उंगली में एक अंगूठी थी. सिकंदर अंगूठी उतारकर खुद पहन लेता है. इसी के साथ मैसेडोनिया का सिकंदर बन जाता है पर्शिया का सुल्तान. सिकंदर ने जब पर्शिया पर आक्रमण किया, वहां के राजा का नाम था डेरियस थर्ड. डेरियस को हराने के बाद सिकंदर हिंदुस्तान आया. सिकंदर से पहले हालांकि एक और डेरियस हिंदुस्तान आया था. डेरियस द ग्रेट. इसी डेरियस के समय में भारत को हिंदुस्तान नाम मिला. इसलिए हिंदुस्तान और फारस का रिश्ता 2500 साल पुराना है. इस रिश्ते से होकर गुजरती हैं कई गांठें.

पारसी लोगों का भारत आना, महमूद गज़नी का आक्रमण, नादिर शाह का हमला, तैमूर लंग. भारत के इतिहास के इन महत्वपूर्ण चैप्टर्स का पर्शिया यानी आज के ईरान से महत्वपूर्ण रिश्ता है. इसी रिश्ते की डोर पकड़कर समझेंगे ईरान का इतिहास. जानेंगे कैसे बना ईरान? अदालत, ज़मीन, बाज़ार, ज़बान, आदमी. रोजमर्रा इस्तेमाल होने वाले ये शब्द दरअसल फारसी भाषा से हिन्दुस्तानी में जुड़े हैं. भारत का खाना, आर्किटेक्चर, बहुत कुछ है ऐसा, जिस पर ईरान का साफ़ प्रभाव दिखता है. लेकिन इस प्रभाव की शुरुआत कैसे हुई? ईरान के इतिहास को मोटामोटी हम तीन हिस्सों में बांट सकते हैं.

630 ईस्वी से पहले, 630 ईस्वी के बाद और 1800 के बाद. एक एक कर समझते हैं.

पर्शिया का उदय

शुरुआत ईसा से 2000 साल पहले से करते हैं. ईरान को पहले पर्शिया कहा जाता था. या फारस भी कहते थे. हमारी स्टोरी में ये तीनों नाम सुविधा के हिसाब से यूज़ होंगे. बात एक ही देश की हो रही है. कुछ 2000 साल पहले यूरेशिया यानी यूरोप और एशिया के बीच बड़े-बड़े मैदानों में रहने वाले कबीलाई लोग उस इलाके में आए, जिसे आज ईरान कहा जाता है. ईरान में सबसे पहले जिन लोगों का निवास था, उन्हें इलेमाईट कहते हैं. धीरे-धीरे राजशाही की शुरुआत हुई. और ईरान में जो साम्राज्य उपजा, उसे कहा गया- असेरियन साम्राज्य. असेरियन के बाद मेडियन नाम का एम्पायर स्थापित हुआ. इन लोगों की राजधानी थी हमदान.

राजाओं की बात करें, तो ईरान के इतिहास में एक बड़े महान राजा का नाम था सायरस द ग्रेट. इसने मेडियन साम्राज्य को हराकर एकमेनिड एम्पायर की स्थापना की. सायरस ने ईरान का साम्राज्य पूर्वी यूरोप तक फैलाया. और उन्हीं के दौर में हिंदुस्तान का उत्तरी हिस्सा, मसलन अफ़ग़ानिस्तान और सिंधु नदी के पश्चिम का इलाक़ा ईरान के कब्ज़े में चला गया. सायरस को ग्रेट सिर्फ़ इसीलिए नहीं कहा जाता. सायरस एक उदारवादी राजा थे. 'क्षत्रप' ये शब्द सायरस के दौर से निकला है. उनके राज्य में अलग-अलग इलाक़ों में क्षत्रप नियुक्त किए गए. जो जनता की भलाई के लिए काम करते थे. इसके अलावा सायरस ने जब बेबीलोन को जीता, तो वहां के गुलाम यहूदियों को आज़ाद कर उन्हें वापिस जेरूसेलम जाने की इजाज़त दी. इसी के चलते यहूदी लोग भी सायरस का बड़ा सम्मान करते हैं. यहूदी इतिहास के अनुसार, इस घटना के बाद यहूदी वापिस जेरूसेलम गए और वहां अपना मंदिर बनाया. सायरस के बाद डेरियस, जर्कसीस नाम के राजा हुए, जिनके समय में फारस के साम्राज्य और फला-फूला. डेरियस के समय तो फारस का साम्राज्य इस कदर फैल चुका था कि दुनिया की 44% जनता पर फारस रूल करता था.

सिकंदर और आगे

फारस पर 331 BC तक एकमेनिड एम्पायर का राज रहा. इस दौरान उनके राजाओं से कुछ गलतियां भी हुईं. इनमें सबसे बड़ी ग़लती थी, ग्रीस और मेसेडोनिया पर आक्रमण. इस आक्रमण का बदला लेने के लिए मेसेडोनिया के राजा सिकंदर ने फ़ारस पर आक्रमण हुआ. और सैन्यबल में कमजोर होने के बावजूद सिकंदर ने फ़ारस के राजा डेरियस को हरा दिया. कहानी कहती है कि सिकंदर से संधि के लिए डेरियस ने कई ख़त लिखे. सिकंदर ने जवाब दिया,

"आगे से जब भी ख़त लिखोगे, मुझे अपने बराबर सम्बोधित नहीं करोगे. तुम्हारे लिए मैं किंग ऑफ़ एशिया हूं".

फारस पर कब्ज़े के बाद सिकंदर भारत आया. लेकिन विश्व-विजय का अधूरा अपना लेकर उसे लौटना पड़ा. सिकंदर की असमय मृत्यु के बाद फारस पर सेल्युकिड वंश ने शासन किया. उनके बाद पार्थियन वंश आया. 200 साल तक फारस सामंतों के कब्ज़े में रहा. फिर एक और ताकतवर साम्राज्य का उदय हुआ. सासानियन साम्राज्य. इनके फाउंडर का नाम था- अर्दशीर. अर्दशीर के बाद राजा बने उनके बेटे- शापुर. शापुर को ईरान में शाहों के शाह, शहंशाह के तौर पर जाना जाता है. क्योंकि इनके पाले में एक अनोखा रिकॉर्ड है. शापुर वो पहले राजा थे, जिन्होंने महान रोमन साम्राज्य के एक राजा वैलेरियन को युद्धबंदी बना लिया था. रोम में तब ईसाई धर्म का प्रभाव बढ़ रहा था. ईसाई परंपरा के मुताबिक़, शापुर ने वैलेरियन का अपमान किया. उन्होंने वैलेरियन को झुकने का आदेश दिया. और फिर उसकी पीठ पर पांव रखकर घोड़े पर चढ़ गए. हालांकि कुछ दूसरे सोर्सेस बताते हैं कि शापुर ने वैलेरियन के साथ अच्छा सुलूक किया. सासानियन साम्राज्य ने सातवीं शताब्दी तक फारस पर शासन किया. लेकिन फिर इस्लाम धर्म का उदय हुआ.

पारसी लोग

उनके काल में फारस के इतिहास का एक सिरा भारत से जुड़ता है. दरअसल फारस का आधिकारिक धर्म था- ज़ोरोस्ट्रियन धर्म. इस धर्म को फॉलो करने वाले लोगों को भारत में पारसी कहा जाता है. सातवीं सदी में इस्लाम का उदय हुआ. इस्लामी साम्राज्य के दूसरे खलीफा उमर ने फारस पर आक्रमण किया और फारस पर अरबों का कब्ज़ा हो गया. धार्मिक उत्पीड़न से बचने के लिए जोरोस्ट्रियन लोगों ने फारस से पलायन शुरू कर दिया. ये पलायन अगली कई सदियों तक चला. और इस दौरान 18 हज़ार शरणार्थियों का एक जत्था भारत भी पहुंचा. क़िस्सा-ए-संजान नाम की एक कविता के अनुसार पर्शिया से भागकर पारसी लोग होरमुज़ चले गए. होरमुज़ को 30 साल तक अपना ठिकाना बनाने के बाद उन्हें यहां से भी भगा दिया जाता है. यहां से इन लोगों की भारत तक यात्रा शुरू होती है. शरणार्थियों का पहला बेड़ा आठवीं शताब्दी में भारत के पश्चिमी तट तक पहुंचता है. जहां ये लोग शुरुआती 19 साल तक दीव को अपना घर बनाते हैं.

दीव के बाद ये बेड़ा पहुंचता है गुजरात. क़िस्सा-ए-संजान के अनुसार दीव से गुजरात की यात्रा में इन लोगों को भयंकर तूफ़ान का सामना करना पड़ा. तूफ़ान से बचने के लिए वे ईश्वर से प्रार्थना करते हैं. और वादा करते हैं कि अगर ईश्वर ने उन्हें बचा लिया, तो वे आतश बहरम की अगियारी यानी एक मंदिर बनाएंगे. जोरोस्ट्रियन धर्म में 'आतश बहरम' पवित्र आग को कहा जाता है. जिसे इस धर्म में सबसे ऊंचा स्थान हासिल है. क़िस्सा-ए-संजान के अनुसार इसके बाद तूफ़ान रुक जाता है. और ये लोग गुजरात के वलसाड़ पहुंच जाते हैं. यहां इन लोगों को पारसी कहा जाता है. गुजरात के एक स्थानीय शासक, जिनका नाम जदी राणा था, वे इन पारसियों को अपने राज्य में शरण देने के लिए तैयार हो जाते हैं. लेकिन चार शर्तों के साथ. शर्तें ये कि वे स्थानीय रीति रिवाज अपनाएंगे, स्थानीय भाषा बोलेंगे, स्थानीय लोगों जैसे ही कपड़े पहनेंगे, पारसी कभी हथियार इकट्ठा नहीं करेंगे. ये शर्तें मानने के बाद पारसियों ने अपने लिए एक नया शहर बनाया. जिसका नाम उन्होंने रखा- संजान. उन्होंने यहां पवित्र आग का एक मंदिर भी बनाया.

13 वीं सदी के अंत में जनरल अलफ़ ख़ान नाम के एक मिलिट्री कमांडर ने संजान पर हमला बोल दिया. क़िस्सा-ए-संजान के अनुसार ये हमला सुल्तान महमूद ने किया था, जो सम्भवतः महमूद अलाउद्दीन ख़िलजी का नाम है. अलफ खान के ख़िलाफ़ पारसियों ने पहली बार हथियार उठाए. लेकिन युद्ध के दूसरे ही दिन उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा. नतीजतन संजान पर अलफ़ ख़ान का क़ब्ज़ा हो गया. और पारसियों को एक बार फिर अपने स्थान से बेदख़ल होना पड़ा. उन्होंने पवित्र आग को अपने साथ लिया और बच्चों और औरतों को लेकर बहरोट के पहाड़ों में चले गए. यहां 12 साल तक छुपकर रहने के बाद उन्होंने वंसड़ा को अपना नया ठिकाना बनाया. यहां क़िस्सा-ए-संजान अपने आख़िरी चैप्टर में पहुंच जाता है. आख़िर में ज़िक्र आता है कि पवित्र अग्नि को लेकर पारसी नवसारी चले गए. हालांकि, उनका एक धड़ा संजान लौटा और उसे फ़िर बसा लिया.

पर्शिया और मंगोल

इस्लाम के आगमन के बाद लगभग दो सदी तक फारस पर अरबों का शासन रहा. इस दौरान तुर्क कबीलों का भी पर्शिया में आगमन हुआ. अब्बासी खिलाफत के समय तुर्क लड़ाकों को गुलामों की तरह फौज में भर्ती किया जाता था. इन्हें मामलुक कहा गया. बाद में ये मामलुक ताकतवर होते चले गए और इन्होने गुलाम वंश की स्थापना की. गुलाम वंश के ही शासक कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली पर राज किया था. वहीं ग़ज़नवी वंश, जिनके एक शासक, महमूद ग़ज़नवी ने भारत पर आक्रमण किया. इस वंश ने भी कुछ वक्त तक ईरान पर शासन किया था. तुर्कों के ताकतवर होने के बाद फारस पर अरबों का कंट्रोल कमजोर होता गया. और 11 वीं सदी में फारस पर सेल्जुक वंश का राज हो गया. ये दौर इस्लाम के गोल्डन पीरियड के तौर पर जाना जाता है. जब पर्शिया में एक बार फिर फारसी भाषा का उदय हुआ. फिरदौसी जैसे लेखकों ने पर्शिया का शाहनामा लिखा. जिसे पर्शिया में वही कद हासिल है, जो भारत में महाभारत को. सेल्जुकों के बाद अगला नंबर आया ख़्वारिज़्म साम्राज्य का. ख्वारिज़्मों का शासन लम्बा नहीं चला. वजह थे मंगोल.

फिरदौसी जैसे लेखकों ने पर्शिया का शाहनामा लिखा.

साल 1218 में 450 मंगोल व्यापारियों का एक कारवां ख़्वारिज़्म शासन वाले एक शहर ओतरार में दाखिल हुआ. ओतरार का गवर्नर था इनलचुक. उसे जब मंगोलों के आने का पता चला. उसने इन सभी को जासूसी के शक में गिरफ़्तार कर लिया. हालांकि ख्वारिज्म और मंगोलों के बीच कोई लड़ाई नहीं थी. लेकिन मंगोलों का रुतबा और चंगेज खान के दुनिया जीतने के इरादे से सारी दुनिया वाक़िफ़ हो चुकी थी. इनलचुक ने 450 मंगोलों को अपने दरबार में बुलाया. आराम से जवाब देने के बजाय मंगोलों ने हेकड़ी दिखानी शुरू कर दी. ये देखकर इनलचुक इतना ग़ुस्सा हुआ कि उसने सभी मंगोल व्यापारियों को मरवा डाला. जब ये खबर चंगेज खान तक पहुंची, उसने अपने तीन दूत ख़्वारिज़्म एम्पायर के सुल्तान मुहम्मद शाह के पास भिजवाकर मांग रखी कि इस गुस्ताखी के लिए इनलचुक को सजा दी जाए. सुल्तान मुहम्मद दो कदम आगे था. उन्होंने एक दूत का सर काट डाला और दो दूतों की दाढ़ी मुड़वा कर उन्हें वापिस चंगेज खान के पास भिजवा दिया.

सुल्तान को ये हरकत बहुत भारी पड़ी. साल 1219 का अप्रैल महीना. मंगोल सेनाएं ओतरार के क़िले के बाहर खड़ी थीं. बाक़ी शहर का हाल ऐसा था, जैसा खड़ी फसल का टिड्डी दल के हमले के बाद होता है. इनलचुक अपने 20 हज़ार आदमियों को लेकर क़िले के अंदर छिप गया था. कुल दो महीने तक युद्ध चला. और अंत में इनलचुक को पकड़ लिया गया. उसे समरकंद ले जाकर चंगेज खान के आगे पेश किया गया. गेम ऑफ़ थ्रोंस का वो सीन याद है. जब खाल ड्रोगो, खलिसी के भाई के सर पर गरम पिघली चांदी उड़ेलते हुए कहता है, "राजा के लिए ताज़".

ठीक यही सीन साल 1219 में तेमुजिन उर्फ़ चंगेज खान के दरबार में दिखाई दिया. लेखक जेरिमाया कर्टिन की किताब , 'द मंगोल्स' के अनुसार, अंतर बस इतना था कि चंगेज खान ने इनलचुक के कानों और आंख में पिघली हुई चांदी भर दी थी. चंगेज खान यहीं नहीं रुका. बुखारा (आज के उज़बेकिस्तान में) की मस्जिद पर चढ़कर उसने ऐलान किया, "मैं जन्नत से भेजा गया दूत हूं, जो आज तुम सबका फ़ैसला करेगा". इसी ऐलान के साथ शहर में मार काट शुरू हो गई. मंगोल सैनिकों ने पूरा शहर जला दिया. यहां से चंगेज खान समरकंद होते हुए पर्शिया जा पहुंचा. यहां उसने लोगों को ग़ुलाम बनाकर उन्हें अपने बीवी बच्चों में बांट दिया. शहर का वो हाल हुआ कि उसे दोबारा बसने में कई दशक लग गए. ख्वारिज्म एम्पायर के ज़र्रे-ज़र्रे को चंगेज खान की फ़ौज ने नेस्तो नाबूत कर डाला. दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्यों में से एक को मंगोल फ़ौज ने यूं ख़त्म कर दिया जैसे बच्चों का खेल हो.

सुन्नी से शिया और नादिर शाह

मंगोलों के बाद पर्शिया पर कब्ज़ा हुआ तिमुरिद वंश का. जिसके शासक तैमूर लंग के नाम से भारत के लोग अच्छे से वाफ़िक हैं. साल 1398 तैमूर ने दिल्ली पर आक्रमण किया था. तैमूर लंग दिल्ली में केवल 15 दिन रहा. इस दौरान उसके वजीरों और सैनिकों ने दिल्ली को बड़ी बेरहमी से लूटा. फसलों को तबाह किया. ऐसा हाल किया कि दिल्ली 100 साल बाद उबर पाई. तिमुरिद वंश के बाद एक बड़ा वंश हुआ सफ़विद वंश. सफ़विद वंश के दौर में ईरान में एक बड़ा बदलाव हुआ. सफ़विद वंश से पहले ईरान पर सुन्नी मुस्लिम समुदाय का प्रभाव था. सफ़विद वंश के पहले शासक, इस्माइल ने सुन्नी सेक्ट को छोड़कर शिया ब्रांच को अपना लिया. इसी कारण आज भी ईरान में शिया बहुमत में हैं. साल 1722 में सफ़विद वंश का अंत हुआ. इसके बाद आए अफ़्शारिद. इनके भी एक शासक के नाम से आप वाकिफ होंगे. नादिर शाह के दौर में पर्शिया एक बार फिर अपने उरोज तक पहुंचा. और इसी दौरान ईरान की तरफ़ से भारत पर एक और आक्रमण हुआ.

साल 1738 की बात है. मुग़लबादशाह मुहम्मद शाह रंगीला, एक रोज़ बादशाह अपनी आरामगाह में पसरे हुए थे. जश्न हो रहा था. अचानक एक हरकारा दौड़ता हुआ आया और बादशाह को एक चिट्ठी पकड़ाई. बेहद जरूरी सन्देश लाई हुई इस चिठ्ठी को बादशाह ने पकड़ा और शराब के प्याले में डुबोते हुए अर्ज किया, आईने दफ्तार-ए-बेमाना घर्क-ए-मय नाब उला. यानी, बिना मतलब की चिट्ठी को तो शराब में डुबा देना ही बेहतर है. ये देखकर हरकारे के पसीने छूटने लगे. उसने दरख्वास्त की, हुजूर नादिर शाह पहुंचने वाला है. रंगीला के कान में जूं तक ना रेंगी. बोतल से प्याले में शराब उड़ेलते हुए बोले, ‘हनूज दिल्ली दूरस्त’, यानी दिल्ली बहुत दूर है. लेकिन न दिल्ली दूर थी न नादिर शाह ही फौज.

नादिर शाह ने करोड़ों के हीरे-जवाहरात, सोना-चांदी, इतना सब कुछ लूटा कि उसके मुंशी पूरी तरह हिसाब भी न कर सके. सब कुछ ले चुकने के बाद भी नादिर शाह का मन नहीं भरा था. आख़िर में उसने मुग़ल दरबार की शान, तख़्त-ए-ताऊस को उठाया और वापिस लौट गया. उसमें जड़े कोहिनूर और तैमूरिया माणिक भी उसके साथ चले गए. और साथ ही चला गया मुग़ल सल्तनत का सारा वैभव और धनधान्य.

नादिर शाह ने भारत को बहुत लूटा.
पर्शिया से ईरान

हमने सातवीं सदी से पहले और सातवीं सदी से 18 वीं सदी तक ईरान का इतिहास देखा. यहां से हम पहुंचते हैं मॉडर्न ईरान में. 1800 के बाद पर्शिया पर पश्चिम का प्रभाव बढ़ता गया. और पर्शिया कमजोर हो गया. 19 वीं सदी में ये ब्रिटेन और रशिया के बीच की लड़ाई में पिसता रहा. फ़ॉरेन इंटरवेंशन से तंग आकर 1872 में पर्शिया में संवैधानिक क्रांति की शुरुआत हुई. नतीजा हुआ कि 1905 में पर्शिया की पहली संसद बनी. रूस और ब्रिटेन हालांकि अभी भी पर्शिया पर प्रभाव के लिए लड़ रहे थे. लिहाजा 1907 में एक एंग्लो रशियन सम्मलेन हुआ. और पर्शिया रूस और ब्रिटेन के प्रभाव वाले इलाकों में बंट गया. प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन पर्शिया को अपना प्रोटेक्टोरेट बनाना चाहता था, लेकिन इसमें वो असफल रहा. साल 1925 में पर्शिया में एक और वंश का राज शुरू हुआ. पहलवी वंश के राजा का नाम था रेज़ा शाह पहलवी. रेज़ा शाह ने 16 साल पर्शिया पर राज किया. लेकिन जब तक इनका राज ख़त्म हुआ, पर्शिया बदल चुका था. साल 1935 में शाह ने पर्शिया का नाम बदलकर ईरान कर दिया. दरअसल, पर्शिया के लोग पहले इस इलाक़े को ईरान ही बुलाते थे. जबकि पर्शिया नाम बाहर के लोगों ने दिया था.

रेज़ा शाह ने 16 साल पर्शिया पर राज किया.
रेज़ा शाह पहलवी को गद्दी क्यों छोड़ना पड़ी?

दरअसल, ईरान की एक रिफाइनरी पर ब्रिटेन का कंट्रोल था. द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ तो ब्रिटेन को डर लगा. कहीं जर्मनी इस रिफाइनरी पर कब्ज़ा न कर ले. ब्रिटेन ने रेज़ा शाह से कहा कि वो जर्मन वासियों को ईरान से बाहर निकाल दे. रेज़ा शाह तैयार नहीं हुए. लिहाजा 1941 में ब्रिटेन और रूस ने मिलकर ईरान पर हमला कर दिया. रेज़ा शाह पहलवी को सत्ता छोड़नी पड़ी. उनके बदले सत्ता पर बिठाया गया, उनके बेटे मुहम्मद रेज़ा शाह पहलवी को. वो ईरान को आधुनिक बनाना चाहते थे. उनकी छवि ईरान में एक लिबरल नेता की थी. वो ब्रिटेन और अमेरिका के ख़ास दोस्त थे. और इस दोस्ती की वजह थी तेल. वो इन्हें सस्ते दामों में तेल बेचते थे. कुछ साल तो शाह ने गद्दी बचाकर रखी. लेकिन 1950 का दशक उनके लिए चुनौतियों से भरा रहा. क्या हुआ इस दशक में?

मोहम्मद मोसादिक के साथ सत्ता संघर्ष शुरू हुआ. मोसादिक ईरानी राष्ट्रवादी नेता थे. 1951 में मोसादिक ईरानी ऑइल इंडस्ट्री पर ऐसा बिल लेकर आए जो अंग्रेज़ी हितों को नुकसान पहुंचा रहा था. इससे जनता में उनका समर्थन बढ़ा. मोसादिक की ताकत भी बढ़ी. 1951 में वो ईरान के पीएम बन गए. शाह को देश छोड़कर भागना पड़ा. लेकिन ये नाटक ज़्यादा नहीं चल पाया. 1953 में अमेरिका और ब्रिटेन ने मिलकर मोसादिक का तख्तापलट कर दिया. तख्तापलट में CIA का अहम् रोल था. उन्होंने मो

सादिक के बदले जनरल फजलुल्लाह जहेदी को प्रधानमंत्री बनाया. और रेज़ा शाह पहलवी की ईरान में एक बार फिर वापसी हो गई.

शाह की वापसी के साथ फिर ईरानी तेल का दोहन शुरू हुआ. इससे ईरान आर्थिक मोर्चे पर कमज़ोर पड़ा. जनता में असंतोष बढ़ने लगा. 1963 में ईरान में ‘सफ़ेद क्रान्ति’ की शुरुआत हुई. इसमें ईरान के आधुनिकीकरण की बात कही गई. शाह धर्म और शासन को अलग रखने की बात करते. वो हिजाब विरोधी भी थे. इसलिए धार्मिक नेताओं के निशाने पर रहते. इन्हीं धार्मिक नेताओं में से एक थे अयातुल्ला रुहुल्लाह ख़ोमैनी. इन्होंने शाह की नीतियों के ख़िलाफ़ झंडा बुलंद किया हुआ था. धीरे-धीरे रुहुल्लाह ख़ोमैनी को जनता की सहानुभूति मिली. उनकी लोकप्रियता बढ़ी. शाह को अपनी कुर्सी पर ख़तरा महसूस हुआ. सो उन्होंने ख़ोमैनी को देश निकाला दे दिया. पहले इराक़ और फिर फ्रांस में उन्होंने समय बिताया. इस दौरान उनके लेख और भाषण ईरान पहुंचते रहे. जिसके चलते शाह के ख़िलाफ़ देश में माहौल बनता गया. इस आग में तेल का काम किया शाह की एक पार्टी ने.

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शाह की पार्टी और ईरानी क्रांति

साल 1971 की बात है. पर्शियन साम्राज्य की 2500 वीं सालगिरह पड़ रही थी. शाह ने तय किया कि ऐसा भव्य जलसा कराएंगे कि पूरी दुनिया देखती रह जाएगी. मंत्रियों ने सुझाया कि राजधानी तेहरान में जलसा रखना ठीक होगा. लेकिन शाह ने कहा नहीं. जलसा दूर रेगिस्तान में रखा जाएगा, जहां पर्शिया के पहले सम्राट सायरस का मक़बरा था. शाह का हुक्म था. हुक्म की तामील हुई. पर्सेपोलिस नाम की जगह पर तीस किलोमीटर के इलाक़े को ख़ाली करवाया गया. इंसानों से नहीं, सांप बिच्छुओं से. फिर पेड़ लगाए गए. एक रनवे बनाया गया. और राजधानी से पर्सेपोलिस तक एक 600 किलोमीटर की रोड बनाई गई. अब बारी थी शामियाने लगाने की. 50 के आसपास शामियाने लगाए गए. शामियाने से मतलब यहां महज़ टेंट न समझिए. इन शामियानों को सजाने के लिए इतना रेशम लगा था, कि ज़मीन पर फैला दें तो 37 किलोमीटर तक पहुंच जाए. हर शामियाने में दो बेडरूम, दो बाथरूम और एक सलून बना हुआ था. शामियानों के बीच लगा हुआ था पानी का एक फ़व्वारा. आसपास 10 हज़ार पेड़. जिनमें चहचहाने के लिए 50 हज़ार गौरेया यूरोप से लाई गईं. सिक्योरिटी का टाइट बंदोबस्त किया गया.

टाइम मैगज़ीन ने लिखा, ये दुनिया की सबसे आलीशान पार्टी है. दुनिया के तमाम अख़बारों और पत्रिकाओं में पार्टी के चर्चे हुए. इसे दुनिया की सबसे महंगी पार्टी का तमग़ा मिला. गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड बुक में नाम दर्ज हुआ और होता भी क्यों नहीं. ईरान की पुलिस का मालिक खुद पार्टी में मौजूद था, इसलिए पार्टी रोकता कौन. पार्टी पूरे 3 दिन तक चली. दुनिया की सबसे बेहतरीन पार्टी देने के बाद शाह पहेलवी खुश थे. पैसा ज़रूर कुछ खर्च हुआ था, लेकिन शाह को इस बात की कोई चिंता नहीं थी. ख़ासकर तब जब इस शोशेबाजी से उन्हें ईरान के तेल के नए ग्राहक मिल गए थे. जैसा पहले बताया टाइम मैगज़ीन ने इस पार्टी पर हुए कुल खर्चे की रक़म 100 मिलियन डॉलर बताई. लेकिन आगे जाकर शाह को अहसास हुआ कि ये पार्टी उन्हें इससे कहीं ज़्यादा महंगी पड़ गई है.

पहेलवी की बेगम फ़राह डीबा अपने संस्मरणों में लिखती हैं. "इस पार्टी की तैयारियों में जिस बात ने मुझे सबसे ज़्यादा परेशान किया वो था प्रेस से निपटना. आए दिन ऐसी बातें छप रही थीं कि देश भूखा है और शाह अपने दोस्तों के साथ दावत उड़ा रहे हैं". अयातुल्लाह खोमैनी, जो शाह के सबसे बड़े आलोचक थे और उस समय देश से बाहर रह रहे थे, उन्होंने भी इस पार्टी को लेकर शाह पर जमकर निशाना साधा. इस जलसे की खबर जैसे-जैसे फैली, जनता में शाह के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा बढ़ता गया. शाह लिबरल होने का दावा करते थे. इस पार्टी ने उनकी एक असंवेदनशील शासक की छवि को और पुख़्ता कर दिया. वेस्ट की ओर शाह के झुकाव के कारण भी लोगों में भारी नाराजगी थी. लोग प्रदर्शन के लिए जुटने लगे. शाह की पुलिस ने लोगों को जेल में डाला लेकिन विद्रोह रुका नहीं. औरतें बुर्का पहनकर सड़क पर निकलने लगीं. बुर्के पर क़ानूनी पाबंदी नहीं थी, लेकिन अघोषित रूप से बुर्का पहनने वाली महिलाओं को भेदभाव झेलना पड़ता था. इसलिए बुर्का ईरान की क्रांति का एक बड़ा सिम्बल बना.

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फरवरी 1979 में ख़ोमैनी 14 साल बाद देश वापस लौटे. देश लौटते ही उन्होंने जनमत संग्रह करवाया और इस्लामी गणतंत्र की स्थापना की. उन्होंने ख़ुद को सुप्रीम लीडर घोषित किया. और बन गए अयातुल्ला रुहुल्लाह ख़ोमैनी. इस्लामिक क्रांति के बाद शाह और उनकी पत्नी ईरान छोड़कर चले गए. 1980 में अब्दुल हसन बानी इस्लामिक रिपब्लिक ईरान के पहले राष्ट्रपति चुने गए. यहां रुहुल्लाह ख़ोमैनी ने इस्लामिक क्रान्ति लाई तो पड़ोसी मुल्क के तानाशाह सद्दाम हुसैन को सत्ता का डर सताने लगा. इसी डर के चलते उन्होंने ईरान पर हमला बोल दिया. इराक़-ईरान युद्ध अगस्त 1988 तक चला. अंतिम तक लड़ाई का कोई नतीजा नहीं निकल सका. आख़िरकार, इराक़ को पीछे हटना पड़ा. अमेरिकी मदद के बावजूद इराक़ मनमाफ़िक नतीज़ा हासिल नहीं कर पाया. इसलिए, इसको ईरान के लिए मनोवैज्ञानिक और रणनीतिक जीत माना गया. एक साल बाद अयातुल्ला रुहुल्लाह ख़ोमैनी का निधन हो गया और अली ख़ामेनेई को ईरान का दूसरा सुप्रीम लीडर बनाया गया. और अब भी अयातुल्ला अली ख़ामेनेई का शासन ईरान में जारी है.

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