
बीमारी से लौटे इरफान की ये कमबैक फिल्म है. न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर हो गया था इन्हें. उसका इलाज अब भी चल रहा है.
इरफान खान ने चंपक बंसल का रोल किया है. ये आदमी फिल्म में बाप और भाई दोनों है. दो मूड हैं. दो फेज़ हैं. आदमी एक है. लेकिन वो इरफान खान है. इस फिल्म में उन्हें देखकर थोड़ा 'करीब करीब सिंगल' वाला फील आएगा. लेकिन यकीन मानिए ये वाला अलग लेवल है. उनके भाई बने हैं दीपक डोबरियाल. इस आदमी ने फिल्म में क्या मचाया है. जब ये सबसे ज़्यादा सीरियस होकर रो रहे होते हैं, तब भी उन्हें देखकर जनता हंसती हुई पगला जाती है. दोनों भाई दिन में मिठाई की दुकान के टाइटल घसीटाराम के लिए लड़ते हैं और रात को पार्टी करते हुए कन्फेशन कर लेते हैं. सुबह फिर लड़ाई चालू. चंपक की बेटी तारीका जिसे बचपन से विदेश जाना था, उसका रोल किया है राधिका मदान ने. 'पटाखा' वाली. हालांकि यहां उनके फटने का मौका नहीं था. वो स्कूल किड से लेकर कॉलेज गोइंग लड़की दोनों के किरदार को विश्वास करने लायक बनाती हैं. उस किरदार की उम्र के लोगों के साथ एक कनेक्ट बनता है. साथ में करीना कपूर उस ब्रिटिश पुलिसवाली के रोल में हैं, जिसके हत्थे चंपक और गोपी चढ़ जाते हैं. उनके हिस्से का काम कम है लेकिन मजबूत है. फिल्म में आसानी से घुलता है.

फिल्म के एक सीन में चंपक अपने भाई गोपी के साथ. जैसा इनका साथ है, फिल्म में करण-अर्जुन का एक गाना रीमिक्स करके डाला जा सकता था.
फिल्म का म्यूज़िक प्यारा है. जैसे बैकग्राउंड में अलग-अलग मौकों पर 'एक ज़िंदगाी' और 'लाड़की' बजता रहता है. वहां नोटिस करने के बाद आप घर आकर इन गानों को वापस से सुनना चाहते हैं. फिल्म से अलग. जो चीज़ें राजस्थान में घट रही हैं, वहां एक कुछ फोक म्यूज़िक सा बैकग्राउंड में सुनाई देता है. लेकिन वो बिलकुल आखिर में है. कुछ जगहों पर एक्सट्रा चूं-चां सुनाई देती है, जो शायद ये बताने के लिए होती है कि ये सीन फनी है, थोड़ा हंस लीजिए. दिखने में फिल्म बड़ी ब्राइट सी है. हल्का पीलापन लिए हुए. जैसे दुबई का ज़िक्र आता है ये कलर सेपिया हो जाता है. लंदन वाले सीन्स में इमोशन और ठंडक दोनों आप तक पहुंचती है.

फिल्म में तारीका बंसल का रोल करने वाली राधिका मदान. इस बेचारी बच्ची का कसूर बस इतना है कि ये लंदन पढ़ने जाना चाहती है.
फिल्म की गंभीरता को बचाए रखते हुए उसे बोरिंग और झिलाऊ होने से बचा पाना. ये एक अच्छी बात है 'अंग्रेज़ी मीडियम' की. फिल्म का मैसेज साफ है कि वो क्या कहना चाहती है. भरपूर इमोशन है. लेकिन हर जगह जो ह्यूमर का तड़का लगता है न, वो इस फिल्म के फेवर में सबसे ज़्यादा काम करता है. फिल्म जहां भारी होती है, वहां उसे अगली लाइन से मैनेज कर लिया जाता है. लिखावट को लेयर देने की कोशिश की गई है. कोशिश करना और उसमें सफल होना, दो अलग-अलग चीज़ें हैं. हंसी-मजाक में भी सीरियस बात हो रही है, जैसे उमेश शुक्ला की '102 नॉट आउट' में था. फिल्म की अगली सबसे शानदार चीज़ है इरफान और दीपक की केमिस्ट्री. क्या मज़ाल की इन दोनों के स्क्रीन पर होते हुए आप 10 सेकंड से ज़्यादा बिना हंसे रह जाएं. ये फिल्म आपको ठठाकर हंसने का भी मौका देती है मुस्कुराते रहने का भी. साथ में एक ज्ञान भी देती है, जो आप फिल्म को माफ करते हुए ले लेते हैं.

फिल्म के एक सीन में करीना कपूर. इन्हें कहानी में अलग से जोड़ा जाता है, ताकि पिता बने इरफान को सही दिखाया जा सके और बच्चों को गलत.
फिल्म में एक सीन है, जहां तारीका और उसका बेस्ट फ्रेंड केमिस्ट्री लैब में कोई एक्सपेरिमेंट कर रहे होते हैं. तारीका कर देती है गड़बड़. ऐसे में उसका मदद के लिए वो लड़का आता है. लेकिन आने से पहले वो आगे-पीछे, दाएं-बाएं टीचर को देखता है. ये टीचर को देखने वाला पॉइंट जो है, वो ही इस फिल्म को खास बनाता है. डिटेलिंग. लेकिन ऐसा हर सीन में नहीं है. कुछ चीज़ें तो ज़्यादा ही फिल्मी और अनरियल हो जाती हैं. जैसे लंदन में जाकर ब्लैक लिस्ट हो जाना. नाम बदलकर दुबई के रास्ते लंदन पहुंचना. पैसे से भरे बस्ते के लिए 'भागमभाग' मचाना.

दीपक डोबरियाल. इन्होंने गोपी का रोल किया है. इस फिल्म का सबसे वॉचेबल हिस्सा यही हैं. सुपरफनी.
ये फिल्म बेसिकली एक बाप-बेटी की कहानी दिखाती है. अगर कोई रेफरेंस पॉइंट चाहते हैं, तो 'बागबान' का इग्ज़ांपल ले सकते हैं. लेकिन इन दोनों फिल्मों में ज़मीन आसमान का अंतर है. लेकिन ये फिल्म बाप और बेटी में से सिर्फ बाप का पक्ष और कहानी दिखाती है. मतलब वो भी ज़रूरी है कि हम जानें कि हमारे मम्मी-पापा ने हमारे लिए कितनी दिक्कतें झेली हैं. लेकिन बेटी वाली साइड को फ्रीडम के नाम पर बड़े सतही तरीके से दिखाया गया है. इसी चक्कर में फिल्म कंज़रवेटिव हो जाती है. बाप का लालच है कि बेटी उसके पास रहे, तो फिल्म के मुताबिक ये ठीक है. लेकिन जब बेटी चाहती है कि वो पढ़ने के लिए लंदन जाए, तो वो गलत. मां-बाप को तो आप कुछ कह नहीं सकते क्योंकि उसे तो ब्लासफेमस (ईशनिंदा) मान लिया जाएगा. इसलिए सारी गलतियां बेटी तारीका के सिर मढ़ दो और गिल्ट भी उसी के हवाले कर दो. ये भारतीय जनता को लुभाने का प्रयास है लेकिन मेंटैलिटी में गड़बड़ी है.

फिल्म में जितनी तोहमतें इस बच्ची के ऊपर लाद दी गई हैं, उस लिहाज़ से फिल्म का नाम 'अंग्रेज़ी मीडियम' नहीं गिल्टी होना चाहिए था.
फिल्म में बिखराव बहुत है. फिल्म कई मौकों पर अलग-थलग सी पड़ जाती है. खिंची हुई भी लगती है. उसको बस फिल्म का ह्यूमर कोशंट संभालता है. लेकिन लालच बुरी बला है, इसलिए 'जितना मिला काफी है'.
इंडिया में बहुत कम ऐसी फिल्में बनती हैं जिनके सीक्वल ओरिजिनल फिल्म से बेटर हों. 'तनु वेड्स मनु' के बाद 'मीडियम' फ्रैंचाइज़ी भी कुछ उसी जोन में है. फिल्म डेवलप होने में समय नहीं लगाती. तुरंत लोड हो जाती है. आपको अंटे में लेने के बाद फिल्म ज्ञान-गंगा बहा देती है. इमोशनल करने की कोशिश करती है, हंसाती है और मज़े-मज़े में खत्म हो जाती है. इतना फील छोड़कर कि आप घर जाकर कुछ मिनट तक अपने मम्मी-पापा से (कंफर्ट लेवल देखकर) चिपटे रहेंगे. लेकिन शुरू से लेकर आखिर तक ये रहती सिनेमा ही है.