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कोरोना डायरीज: लॉकडाउन ड्यूटी में इन लेडी पुलिस ने शायद ग़लत किया, पर सोचिए आप क्या करते?

‘अरे कोरोना से तो तब मरेंगे न जब भीतर से जिंदा बचेंगे...’

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बड़े शहरों से अपने-अपने गांवों क़स्बों की तरफ़ मजदूर निकल पड़े हैं. सरकारें रोक रही हैं लेकिन मजदूर दो वक़्त की रोटी को भरोसा मानकर रुकना नहीं चाह रहे. कुछ नहीं है तो पैदल ही चल दे रहे हैं (तस्वीरें सांकेतिक हैं)
सांकेतिक तस्वीर
सांकेतिक तस्वीर

नाम- धरा (बदला हुआ नाम)
काम- पुलिस कांस्टेबल
पता- इलाहाबाद (मेरे से प्रयागराज नहीं बोला जाता सर)

दो साल पहले जब पुलिस में भर्ती हुई तो गांव में बाबू ने जलेबी बंटवाई थी. घर के दालान में चूना हुआ. रिश्ता लेकर रोज़ अगुआ लोग आते थे. बाबू को दहेज नहीं देना था. सोचा था सरकारी नौकरी वाली लड़की से बड़ा दहेज क्या होगा. लेकिन शादी तय हुई पुलिसवाले से. मेरे बैच में ही भर्ती हुआ था. बाबू को दहेज़ देने के लिए ज़मीन बेचनी पड़ी. बाबू हमेशा कहते थे ‘पुरखों की ज़मीन कभी नहीं बेचूंगा’. उस दिन बाबू बैंक से पैसा लेकर आए तो हम दोनों रोए.

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अभी मेरी ड्यूटी बॉर्डर सीलिंग में लगी है. ट्रेनिंग में हम अपने सीनियर से सुनते थे ‘दंगों की ड्यूटी’ के बारे में. मुझे कभी ऐसी ड्यूटी नहीं मिली. इससे पहले एक महिला VIP के साथ थी. उनके बंगले के बाहर अहाते में रहना पड़ता था. अब ड्यूटी पर जाने से पहले स्टेशन से सबके हाथ सैनिटाइज़ कराए जाते हैं. नया मास्क और पॉकेट सैनिटाइज़र मिलता है. लाठी लेके खड़े रहना पड़ता है.


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न्यूज़ में देखा था कि दिल्ली बम्बई से मजदूर पैदल चले आ रहे हैं. विश्वास करना मुश्किल हो गया था सर कि लोग लगातार इतने दिन चलेंगे कैसे? रास्ते में खाएंगे पिएंगे क्या? बच्चों को कहां से खिलाएंगे?

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लेकिन कल रात के एक डेढ़ बजे होंगे. दूर से तीन चार लोग आते दिखाई दिए. ख़ाली अंधेरी सड़क पर भूत जैसे चले आ रहे थे. बैरीकेडिंग के पास आए तो पता चला मजदूर परिवार है. उसमें एक नई ब्याहता औरत भी थी. कुछ महीने का बच्चा कपड़े में बांधकर गले में लटका रखा था. सब थके हुए थे. औरत की आंख नहीं खुल पा रही थी. इसकी जगह मैं होती तो? ये कपड़े में मेरा अपना बच्चा बंधा होता तो?

मैं बैरीकेडिंग के इस पार से खड़ी की खड़ी रह गई. मजदूर औरत बच्चे समेत वहीं बैठ गई. मेरे साथी दूर से पूछताछ कर रहे थे. मेरे मन में जाने क्या आया कि मैं दौड़कर गई उस औरत का सिर अपने हाथ में ले लिया. बच्चा रो रहा था. औरत रो रही थी और मेरे आंसू नहीं थम रहे थे. मुझे लगा मेरी बड़ी बहन मायके आई है. वो भी आती है तो सब रोते हैं.


मेरे साथी पुलिसवाले ने दूर से चिल्लाकर कहा –‘अरे मरना है क्या, दूर हटो उससे’
मैंने कहा ‘अरे कोरोना से तो तब मरेंगे न जब भीतर से जिंदा बचेंगे...’
मुझे मालूम है कि मैंने ग़लत किया. लेकिन उस औरत और उसके बच्चे के साथ कितना सही हुआ था? हमें अपने नुकसान में ही सही-ग़लत पता चलता है.
मैं घर से चली थी तो जेब में 6 रोटियां रख ली थीं. नमक तेल लगाकर. औरत और बाक़ी लोगों को वही दे दी. सबने खाया. पानी पिया. औरत मेरी गोद में ही झपकी ले रही थी.
वहां से सबको सरकारी सेंटर ले जाने वाली टीम ले गई. लेकिन तब से हर दिन लोग चले आ रहे हैं. जाने कहां-कहां से आ रहे इन लोगों का चेहरा देखती हूं तो मुझे अपना चेहरा याद आता है. जब पहली बार फिजिकल टेस्ट में फेल हुई थी और पुलिस में भर्ती होते-होते रह गई थी. तब मैं भी ऐसे ही घर लौटी थी.
'हां ये स्पष्ट आदेश हैं कि किसी भी शख्स के नज़दीक नहीं जाना है. उन्हें निर्धारित जगह भेजना है. लेकिन वो शख्स ककहां से आ रहा है कैसे आ रहा है? कुछ इसका भी तो ख़याल करना चाहिए
'हां ये स्पष्ट आदेश हैं कि किसी भी शख्स के नज़दीक नहीं जाना है. उन्हें निर्धारित जगह भेजना है. लेकिन वो शख्स ककहां से आ रहा है कैसे आ रहा है? कुछ इसका भी तो ख़याल करना चाहिए

अब मैं हर दिन जेब में रोटियां रख ही लेती हूं घी-नमक लगा के.
कोट-
कोरोना इंसानों से ज़्यादा इंसानियत का दुश्मन है. इंसानियत बची रहेगी तो कल फिर सब पहले जैसा हो जाएगा.


 

कोरोना डायरीज. अलग अलग लोगों की आपबीती. जगबीती. ताकि हम पढ़ें. संवेदनशील और समझदार हों. ये अकेले की लड़ाई नहीं है. इसलिए अनुभव साझा करना जरूरी है. आपका भी कोई खास एक्सपीरियंस है. तस्वीर या वीडियो है. तो हमें भेजें. corona.diaries.LT@gmail.com

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