भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) बीआर गवई ने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में भारतीय संविधान की ताकत और उसके सामाजिक प्रभाव पर अपने विचार रखे. उन्होंने कहा कि भारतीय संविधान ने देश के सबसे कमजोर तबकों को ना सिर्फ आवाज दी, बल्कि उन्हें बराबरी का हक भी दिया. ऑक्सफोर्ड यूनियन के इवेंट में 'प्रतिनिधित्व से हकीकत तक: संविधान के वादे को जमीन पर उतारना' विषय पर बोलते हुए जस्टिस बीआर गवई ने कहा कि संविधान मानता है कि सब बराबर नहीं हैं और इसका मतलब भी समझाया.
'संविधान बराबरी का दिखावा नहीं करता', CJI बीआर गवई ने ऑक्सफोर्ड में ये क्या कहा?
CJI BR Gavai ने Oxford University में भारतीय संविधान पर बात की. उन्होंने बताया कि किस तरह अछूत माने जाने वाले समुदाय का व्यक्ति देश के सर्वोच्च न्यायिक पद पर पहुंचा. CJI ने Oxford Union के इवेंट में संविधान की खूबियां बताईं.

CJI बीआर गवई भारत के दूसरे दलित चीफ जस्टिस हैं. मंगलवार, 10 जून को उन्होंने ऑक्सफोर्ड में बताया कि संविधान की बदौलत वे दलित समुदाय से आते हुए भी भारत के चीफ जस्टिस बने. NDTV की रिपोर्ट के मुताबिक, CJI गवई ने अपने संबोधन की शुरुआत इन शब्दों से की,
"कई दशक पहले, भारत के लाखों नागरिकों को 'अछूत' कहा गया था. उन्हें कहा गया कि वे अपवित्र हैं. उन्हें बोला जाता था कि वे उनसे ताल्लुक नहीं रखते. उन्हें बताया जाता था कि वे अपनी बात खुद नहीं कह सकते. लेकिन आज हम यहां हैं- जहां उन्हीं लोगों से जुड़ा एक व्यक्ति देश की न्यायपालिका के सर्वोच्च पद पर आसीन होकर खुलकर बोल रहा है."
ऑक्सफोर्ड में बोलते हुए CJI गवई ने प्रसिद्ध लेखिका गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक के मशहूर लेख 'कैन दी सबऑल्टर्न स्पीक?' का जिक्र करते हुए कहा,
"इस पर मैं अपनी बात जोड़ना चाहूंगा: हां, सबऑल्टर्न (निचला तबका) बोल सकते हैं, और वे हमेशा से बोलते रहे हैं. अब सवाल यह नहीं है कि वे बोल सकते हैं या नहीं, बल्कि यह है कि क्या समाज वास्तव में उनकी बात सुन रहा है."
उन्होंने आगे कहा,
"संविधान एक सामाजिक दस्तावेज है. यह जाति, गरीबी, बहिष्कार और अन्याय की कड़वी सच्चाइयों से आंखें नहीं चुराता. यह दिखावा नहीं करता कि हमारे देश में सब लोग बराबर हैं, क्योंकि यह देश गहरी असमानता से जख्मी है. लेकिन, यह दखल की हिम्मत करता है, शक्ति के समीकरण बदलता है और सम्मान लौटाने की कोशिश करता है."
CJI गवई ने आगे बताया कि संविधान निर्माण के दौरान दलित, आदिवासी, महिलाएं, अल्पसंख्यक और कई वंचित समूह सिर्फ मुद्दा नहीं थे, बल्कि सक्रिय रूप से संविधान निर्माण में भागीदार थे. उन्होंने कहा कि इन तबकों ने सिर्फ दया नहीं मांगी, बल्कि नए भारत में अपनी जगह की मांग की. संविधान में दिखना मतलब देश को दिखना, उसके भविष्य में शामिल होना था.
आखिर में उन्होंने 25 नवंबर 1949 को डॉ. भीमराव आंबेडकर के संविधान सभा के आखिरी संबोधन को दोहराया,
"हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र भी बनाना होगा. राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं टिक सकता जब तक कि उसके आधार में सामाजिक लोकतंत्र ना हो. लोकतंत्र का क्या मतलब है? इसका मतलब है एक ऐसी जीवन शैली जो आजादी, समानता और भाईचारे को जीवन के सिद्धांतों के रूप में मान्यता देती है."
उन्होंने डॉ. भीमराव आंबेडकर को याद करते हुए कहा कि असमान समाज में लोकतंत्र तभी चलेगा जब सत्ता सिर्फ संस्थाओं में नहीं, बल्कि समुदायों में भी बराबरी से बंटे.
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