अंक 1 डीपी मिश्र ने 250 रुपए में खरीदी थी श्यामाचरण के लिए कुर्सी

डीपी मिश्र और रविशंकर शुक्ल दोस्त थे. श्यामाचरण को मुख्यमंत्री बनवाकर डीपी मिश्र ने दोस्ती निभाई थी.
नेतागिरी में पनपने में श्यामाचरण को कुछ वक्त लगा. पिता के देहांत के बाद 32 साल के श्यामाचरण को पार्टी ने टिकट तो दिया, लेकिन दस साल विधायक ही रखा. 67 में मिश्र दोबारा जीते तो सिंचाई विभाग में मंत्री बने. लॉटरी लगी तब, जब गोविंद नारायण सिंह जैसे विधायकों को तोड़कर 1967 में गए थे, वैसे ही 1969 में कांग्रेस लौट आए. राजा नरेशचंद्र सिंह को 13 दिन मुख्यमंत्री रहकर इस्तीफा देना पड़ा. अब कांग्रेस को सरकार बनानी थी. डीपी मिश्र मुख्यमंत्री बनने ही वाले थे. विधायक दल की बैठक भी शुरू हो गई थी. तभी मिश्र के हाथ में एक टेलिग्राम थमाया गया. टेलिग्राम का मजमून ये था कि हाईकोर्ट ने मिश्र को चुनाव प्रक्रिया में कदाचार का दोषी करार दिया है. कैसा कदाचार ? 1963 में हुए कसडोल उपचुनाव में तय सीमा से लगभग 250 रुपए ज़्यादा खर्च किए. मिश्र तब तक एक दूसरी सीट से विधायक हो चुके थे, लेकिन हाईकोर्ट ने उनके छह साल तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी. तब श्यामाचरण का नाम आगे आया. मिश्र इस नाम से बहुत खुश तो नहीं थे, लेकिन उन्हें अपने दोस्त रविशंकर शुक्ल के किए एहसान याद आ गए. उन्होंने श्यामाचरण को मुख्यमंत्री बन जाने दिया. तारीख थी 26 मार्च, 1969.
अंक 2 नेहरू को बाप पर शक था, इंदिरा को बेटे पर

राष्ट्रपति चुनाव में नीलम संजीव रेड्डी को ज्यादा वोट मिले. इसकी वजह से इंदिरा गांधी श्यामाचरण शुक्ला से नाराज हो गईं.
श्यामाचरण को मुख्यमंत्री बनने के 4 महीने के भीतर ही पहला टेस्ट देना पड़ा. 1969 में राष्ट्रपति डॉ ज़ाकिर हुसैन का निधन हो गया. कांग्रेस के ओल्ड गार्ड (सिंडिकेट) के अधिकृत प्रत्याशी थे नीलम संजीव रेड्डी. लेकिन इंदिरा ने नाम आगे कर दिया वीवी गिरी का. कहा, कांग्रेसी अंतरआतमा की आवाज़ सुनें. श्यामाचरण की अंतरआत्मा को जगाने के लिए इंदिरा ने भी फोन किया और छोटे भाई विद्याचरण से भी करवाया. लेकिन श्यामाचरण दिल मज़बूत नहीं कर पाए. और वोटिंग के बाद ये बात सबको मालूम चल गई. मध्यप्रदेश से सबसे ज़्यादा वोट वीवी गिरी को पड़े थे. लेकिन कांग्रेसियों के ज़्यादातर वोट गए थे रेड्डी को. इंदिरा ने इस बात को नोटिस कर लिया. वैसे ही, जैसे नेहरू ने नोटिस कर लिया था कि रविशंकर शुक्ल डीपी मिश्र को प्रश्रय देते थे.
अंक 3 बीवी को पीलिया हुआ तो शहर की सूरत बदली

श्यामाचरण शुक्ल ने एमएन बुच के साथ मिलकर भोपाल की तस्वीर बदल दी.
श्यामाचरण ने बतौर सीएम, अपने पहले कार्यकाल में सिंचाई पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया. उन्हें इसका अनुभव भी था बतौर मंत्री. उन्हीं के ज़माने में तवा और बरगी बांध बने. सिंचाई के लिए बिजली कनेक्शन के नियम आसान हुए. दूसरा काम था टाउन प्लानिंग का, जिसकी प्रेरणा बनी बीवी की बीमारी. भोपाल में उनकी पत्नी पद्मिनी को खराब पानी के चलते पीलिया हो गया. इसके बाद श्यामाचरण ने फैसला किया. शहरों में पेयजल, सैनिटेशन दुरुस्त करने का. और इसके लिए बेहद जरूरी थी टाउन एंड कंट्री प्लानिंग और मास्टल प्लान जैसी चीजें. शुक्ल ने तलब किया काबिल एडमिनिस्ट्रेटर एमएन बुच को. और फिर शानदार नतीजे आए. भोपाल आज जैसा हरा भरा दिखता है, उसके लिए श्यामाचरण को शुक्रिया बोल सकते हैं.
अंक 4 प्रिंस चार्मिंग, जो अपने आकाओं को भूल गया

इंदिरा की वजह से श्यामाचरण शुक्ला की कुर्सी चली गई और इंदिरा के खास पीसी सेठी मुख्यमंत्री बन गए.
श्यामाचरण शुक्ल पढ़ाई लिखाई, पहनावा और बातचीत के तरीके से आधुनिक लगते थे. लेकिन विरोधी कहते थे कि अपनी बॉस इंदिरा की तरह श्यामाचरण भी तंत्र मंत्र का सहारा लेते हैं. कई लोगों ने कहा कि विरोधियों के हमलों से बचाव का ये तरीका था. हमले क्यों. क्योंकि श्यामा सरकार में करप्शन के इल्जाम लग रह थे. कहा गया कि विकास के नाम पर जो ठेके बांटे गए हैं, उनमें बंपर लेन-देन हुआ है. फिर श्यामा चरण ने इंदिरा की हुकुम अदूली भी कर दी. इंदिरा ने छह मंत्रियों की एक लिस्ट भोपाल भिजवाई. इन सबकी छुट्टी होनी थी. श्यामाचरण ने मंत्री हटाए, लेकिन वे नहीं, जिनके नाम दिल्ली से आए थे.

डीपी मिश्र ने भी अपनी ताकत का इस्तेमाल श्यामाचरण शुक्ल के खिलाफ किया था.
उधर दिल्ली में उनके पुराने शुभचिंतक, पिता के दोस्त डीपी मिश्र जिनके आशीर्वाद से वह सीएम बने थे, अब अपनी ताकत का इस्तेमाल श्यामाचरण के खिलाफ कर रहे थे. क्यों. क्योंकि डीपी को पता चल गया था. उपचुनाव में उनके खिलाफ जो अदालती फैसला आया था. उसमें कथित तौर पर श्यामाचरण ने विरोधियों की मदद की थी. 1971 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के कमजोर प्रदर्शन ने रही सही कसर पूरी कर दी और विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले जनवरी 1972 में श्यामाचरण की कुर्सी चली गई. इंदिरा के दरबारी पीसी सेठी सूबे के सीएम हो गए.
अंक 6 मैं संजय की चप्पल नहीं उठाऊंगा

विद्याचरण शुक्ल की संजय गांधी से नज़दीकी बढ़ी और इनाम श्यामाचरण को मिला.
अगले तीन बरस श्यामाचरण के इंतजार में बीते. उधर संजय दरबार में विद्याचरण की हैसियत बढ़ी. इनाम मिला श्यामा को. सेठी दिल्ली बुला लिए गए और दिसंबर 1975 में श्यामाचरण दूसरी बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए. पर एक दिक्कत थी. इमरजेंसी के दौर में श्यामा उस लेवल पर जाकर चाकरी करने को राजी नहीं थे, जैसी पड़ोसी राज्यों के सीएम करते. राजस्थान के हरिदेव जोशी संजय को हाथी पर चढ़ाने के लिए अपने कंधे पर पैर रखवाते. उत्तर प्रदेश में एनडी तिवारी उनकी चप्पल पकड़ते. पर ये रविशंकर शुक्ल के बेटे थे. इनकी अपनी अकड़ थी. और यही श्यामा के खिलाफ जाने लगी.
जब संजय गांधी किसी राज्य की राजधानी में पहुंचते तो सीएम एयरपोर्ट पर कालीन से बिछे नजर आते. लेकिन जब संजय भोपाल पहुंचते तो एयरपोर्ट में श्यामाचरण नहीं उनका कोई मंत्री आता. संजय ने विद्या की वफादारी देखते हुए इसे नजरअंदाज कर दिया. फिर संजय ने कहा कि मध्यप्रदेश राज्य परिवहन अपनी बसों की बॉडी उनकी कंपनी मारुति से बनवाए. श्यामाचरण एक बार फिर कन्नी काट गए. हालांकि वह राज्य में संजय की प्रिय योजनाओं के अमल में लगे थे. लोकसभा चुनाव में भी उन्होंने टिकट वितरण में हाईकमान यानी संजय की ही चलने दी.

लोकसभा चुनाव के लिए बांटे गए टिकट में भी संजय गांधी की ही चली थी.
नतीजे आए तो राज्य की 40 में से सिर्फ एक सीट जीती थी कांग्रेस. छिंदवाड़ा. और इससे पहले कि आप तुक्का लगाएं, मैं बता दूं. विजेता कमल नाथ नहीं थे. यहां जीते थे कांग्रेसी नेता गार्गी शंकर मिश्र. वो बात और है कि 1980 में इन्हीं का टिकट काट संजय ने छिंदवाड़ा कानपुर के कारोबारी के बेटे कमलनाथ को सौंप दिया.

डीपी मिश्र ने इंदिरा गांधी के कान भरे और फिर नेता प्रतिपक्ष बन गए अर्जुन सिंह.
श्यामाचरण की कहानी आगे बढ़ाते हैं. जनता पार्टी सरकार आई तो सब कांग्रेसी राज्य सरकारें निपटीं. फिर विधानसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस बुरी तरह हारी. खुद मुख्यमंत्री श्यामाचरण राजिम सीट से चुनाव हार गए. उनके पुराने मित्र और शत्रु, डीपी फिर एक्टिव हो गए. पर्दे के पीछे से ही. उन्होंने इंदिरा को सलाह दी. कांग्रेस को अर्जुन सिंह के हाथ में सौंप दो. और ऐसा ही हुआ. अर्जुन नेता प्रतिपक्ष बन गए.
अंक 7 तू मेरा भाई नहीं है ?
जनता पार्टी के राज में कांग्रेस इंदिरा और ब्रह्मानंद रेड्डी के बीच बंटी. शुक्ला बंधु भी बंटे. श्यामाचरण रेड्डी की तरफ गए, तो विद्याचरण इंदिरा की तरफ. फिर रेड्डी कमजोर हुए तो श्यामाचरण ने लौटना चाहा. लेकिन अर्जुन सिंह ने सब जगह कह दिया संजय श्यामाचरण से खफा हैं. अब किसी कांग्रेसी की हिम्मत न हो कि मध्य प्रदेश में रेड्डी-इंदिरा गुट के एक होने के बाद भी श्यामाचरण के करीब जाए.

जब कांग्रेस बंटी तो दोनों भाई श्यामाचरण और विद्याचरण दोनो के रास्ते अलग-अलग हो गए.
आलम ये कि रायपुर कांग्रेस ने 1980 के विधानसभा चुनाव के लिए तैयार लिस्ट में श्यामाचरण का नाम भेजा. दिल्ली में बैठे विद्या को इसकी खबर हुई तो उन्होंने प्रेस में बयान दिया-
'श्यामाचरण के लिए कांग्रेस में कोई जगह नहीं.'फिर संजय मरे और राजीव आए तब भी श्यामाचरण की वापसी नहीं हो पाई. वजह, राजीव के एमपी में कान थे अर्जुन सिंह. और इसी के चलते विद्याचरण भी राजीव कैबिनेट से बाहर हो लिए. एक और बागी वीपी सिह संग जनमोर्चा में हो लिए. और तब राजीव ने बड़े भाई को याद किया.

राजीव गांधी ने मोतीलाल वोरा को सीएम की कुर्सी से हटा दिया और 12 साल बाद कांग्रेस में वापस लौटे श्यामाचरण एक बार फिर मुख्यमंत्री बने.
अगस्त 1988 को श्यामाचरण को कांग्रेस में वापस लिया गया. फिर नवंबर 1989 में जब लोकसभा चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हारी तो राजीव ने कई राज्यों के मुख्यमंत्री बदले. एमपी में भी मोतीलाल वोरा नपे. और ताज सजा एक बार फिर 12 साल के बाद श्यामाचरण के सिर. कुछ ही महीनों में विधानसभा चुनाव हुए. यहां भी लोकसभा चुनाव सी गत हुई कांग्रेस की. सुंदर लाल पटवा के नेतृत्व में बीजेपी ने 220 सीटें जीतीं. कांग्रेस 56 पर सिमटी. श्यामाचरण नेता प्रतिपक्ष बने. 1993 में कांग्रेस सत्ता में लौटी. श्यामा ने फिर सीएम की कुर्सी पर दावा ठोंका. मगर इस बार अर्जुन सिंह ने दिग्विजय को आगे कर उन्हें मात दी.
अंक 8 बेटे के फेर में भाई भटके

नरसिम्हा राव ने जनता दल से कांग्रेस में लौटे विद्याचरण को मंत्री बना दिया था.
राजीव के बाद आए नरसिम्हा राव. अब तक विद्याचरण भी जनता दल में सत्ता का स्वाद चख कांग्रेस में लौट चुके थे. राव ने उन्हें मंत्री बनाया. श्यामाचरण के हिस्से 1993 के बाद सिर्फ विधायकी रह गई थी. ऐसे वक्त में दिग्विजय ने परिवार में फूट का इंतजाम किया. ताकि उन्हें अर्जुन सिंह जैसी दिक्कतें न उठानी पड़ें.
सार्वजनिक रूप से दिग्गी विद्या चरण को सीएम ऑफ रायपुर कहते. लेकिन व्यक्तिगत बातचीत में श्यामाचरण के बेटे अमितेष को समझाते, जब तक चाचा की जगह पापा नहीं पहुंचेगे, तुम्हारा करियर नहीं बनेगा. सच्चाई ये थी कि दोनों शुक्ल भाइयों का करियर ढलान पर था. विद्याचरण को लोकसभा जीतने के लाले पड़े थे. श्यामाचरण ने जरूर 1998 में अपनी राजिम सीट बचाई. अगले साल दिग्विजय ने विद्याचरण के दावे को किनारे कर श्यामाचरण को महासमुंद सीट से दिकट दिलवा दिया. श्यामाचरण जीतकर दिल्ली पहुंचे. उनकी खाली हुई राजिम सीट पर बेटे अमितश को विधायकी मिल गई.

श्यामाचरण जब सांसद बनकर दिल्ली पहुंचे तो दिग्विजय सिंह ने खाली सीट उनके बेटे अमितेष को दिला दी और अमितेष विधायक बन गए.
और फिर इसी के दम पर पुत्र 2000 में बने छत्तीसगढ़ में जोगी सरकार का मंत्री बना. दिग्विजय का साथ यहीं तक था. क्योंकि जब छत्तीसगढ़ बना, तब एक बार फिर श्यामाचरण ने नए राज्य का सीएम बनने के लिए हाथ पैर मांगे. मगर सोनिया के संकेत पर दिग्गी पुरानी दुश्मनी भुला अजीत जोगी के पीछे खड़े हो गए.

श्यामाचरण शुक्ल की मौत 2007 में हुई. 2013 में झीरम घाटी में हुए नक्सली हमले में विद्याचरण शुक्ल भी मारे गए.
2007 में श्यामाचरण शुक्ल दुनिया से चले गए. विद्याचरण शुक्ल भी बेहद खौफनाक ढंग से मरे. 2013 में छत्तीसगढ़ की झीरम घाटी में हुए नक्सल हमले में. महेंद्र कर्मा आदि के साथ. मुख्यमंत्री के अगले ऐपिसोड में कहानी उस नेता की, जो रक्षा मंत्री से जाकर बोला, मेरे यहां बम गिरवा दो. जिसने रजिस्टर की नकल नष्ट करने के लिए चार महीने तक गद्दार की तोहमत झेली, जबकि वो वफादारी दिखा रहा था.
वीडियो में देखिए उस मुख्यमंत्री की कहानी, जिसके बारे में नेहरू ने पूछा था कि ये ''बटलोई'' कौन है, जो मुख्यमंत्री बन गया?