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डीपी मिश्र : कहानी उस कांग्रेसी मुख्यमंत्री की, जो बीजेपी का बॉस बनते-बनते रह गया

जिसे इंदिरा का चाणक्य कहा जाता था, लेकिन संजय उससे चिढ़ते थे.

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द्वारका प्रसाद मिश्र का नेहरू से विरोध था. वो मुख्यमंत्री बने तो फिर इंदिरा गांधी के चाणक्य बन गए.

चुनावी मौसम में दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आया है पॉलिटिकल किस्सों की ख़ास सीरीज़- मुख्यमंत्री. आज आपके लिए लाए हैं, एक ऐसे मुख्यमंत्री की कहानी जो नेहरू का विरोधी था, लेकिन जो बाद में इंदिरा गांधी का चाणक्य बन गया. उसका बेटा भी चाणक्य ही बना लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी का. ये कहानी है मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र की.

कहानी MP के कांग्रेसी CM डीपी मिश्र की, जो बीजेपी के बॉस बनते-बनते रह गए। पार्ट-1

8 अगस्त 1951. नागपुर, अंतरिम विधानसभा, मध्य प्रांत. एक आदमी खड़ा होता है और 14 पन्ने का इस्तीफा पढ़ने लगता है. उसका आखिरी वाक्य -


'तिब्बत को चीन को सौंप देने के संताप से सरदार पटेल की आत्मा स्वर्ग में भी छटपटा रही होगी.'

इस्तीफा देने वाला आदमी था डीपी मिश्रा. नेहरू का विरोधी. मगर उनकी बेटी इंदिरा का चाणक्य. और अटल के चाणक्य ब्रजेश मिश्र का पिता.

अंक 1: मोरार जी ने दांव दे दिया


मोरारजी देसाई (बाएं) और श्रीकृष्ण सिन्हा ने नेहरू के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था, लेकिन इसके पीछे दिमाग डीपी मिश्रा का था.
मोरारजी देसाई (बाएं) और श्रीकृष्ण सिन्हा ने नेहरू के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था, लेकिन इसके पीछे दिमाग डीपी मिश्रा का था.

पटेल मरे तो नेहरू का एकछत्र राज हो गया. मगर कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की एक जोड़ी थी जो नेहरू को चुनौती देने की तैयारी कर रही थी. इसमें शामिल थे मुंबई के मोरारजी देसाई और बिहार के श्रीकृष्ण सिन्हा. इनके पीछे दिमाग काम कर रहा था द्वारका प्रसाद मिश्र का. और इसी अभियान को गति देने के लिए उन्होंने नेहरू की खुलेआम आलोचना करते हुए इस्तीफा दिया. फिर एक नई पार्टी बनाई. भारतीय लोक कांग्रेस.

लेकिन ऐन मौके पर मोरार जी और सिन्हा थम गए. जब पत्रकारों ने बंबई में मोरारजी से पूछा कि क्या वे भी इन्ही कारणों से कांग्रेस से त्यागपत्र देना चाहेंगे? मोरारजी बोले - ये मसले इतने बड़े नहीं है कि मैं कांग्रेस से त्यागपत्र दे दूं.’श्रीकृष्ण सिन्हा ने तो कुछ भी बोलने से इनकार कर दिया. अकेले पड़े डीपी चुनाव लड़े. तीन जगहों से. जबलपुर, छिंदवाड़ा और नागपुर. तीनों जगह से हारे. पार्टी की भी छीछालेदार. और फिर डीपी 1954 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में चले गए.

अंक 2: उपचुनाव, यारी और याचिका


डीपी मिश्र (बाएं) के लिए रविशंकर शुक्ल ने नेहरू की नाराजगी मोल ले ली थी.
डीपी मिश्र (बाएं) के लिए रविशंकर शुक्ल ने नेहरू की नाराजगी तक मोल ले ली थी.

1954 में मंडला की नैनपुर-मोहगांव सीट पर उपचुनाव होना था. डीपी मिश्र यहां प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर उतरे. कांग्रेस ने उनके खिलाफ उतारा सुरेंद्रलाल झा को. कांग्रेस हाईकमान को आशंका थी कि यहां मिश्र की उनके दोस्त मध्यभारत के मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल मदद कर सकते हैं. सो इस मदद को रोकने के लिए ऊपर से दो आदमी मन्नूलाल द्विवेदी और तारकेश्वरी सिन्हा विशेष प्रेक्षक बनाके भेजे गए. सो साहब यहां भी चुनाव हार गए. हालांकि बाद में चुनाव याचिका में फैसला उनके पक्ष में आया था. इस याचिका को याद रखिएगा कि क्योंकि इसने मिश्र की इज्जत और उनकी राजनीति को बचाया. मगर एक और चुनावी याचिका ने उनका मुख्यमंत्री बनने का सपना चकनाचूर कर दिया. उसकी कहानी बाद में सुनाएंगे.

अंक 3: सागर जैसी साजिश वाले, ये तो बता तेरा नाम क्या



एमपी के मुख्यमंत्री रहे रविशंकर शुक्ल ने डीपी मिश्रा को सागर यूनिवर्सिटी का वीसी बनवाया था.

1952 और फिर उपचुनाव हारने और नेहरू से दुश्मनी के कारण डीपी मिश्र नेपथ्य में चले गए थे. पर उनके दोस्त रविशंकर शुक्ल से ये सब देखा नहीं जाता था. सो वो रह-रहके मिश्र की मदद करते रहते थे. 1956 में उन्होंने डीपी मिश्र को सागर विश्वविद्यालय का कुलपति बनवाया. वो भी तब जब मिश्र ये चुनाव इतिहास के प्रफेसर डॉ. राम प्रसाद त्रिपाठी के हाथों हार चुके थे. रविशंकर शुक्ल ने तब अपने मुख्यमंत्री और कुलाधिपति होने के अधिकार का प्रयोग किया. डॉ. त्रिपाठी का निर्वाचन तकनीकी आधार पर रद्द कर दिया. दोबारा चुनाव के पहले 16 नए सदस्यों को कार्य परिषद में नामित करवाया. फिर चुनाव के वक्त खुद सागर में डेरा डालकर बैठ गए और मिश्र को जितवा के ही माने. मगर उनका ये दांव उन पर भारी पड़ा क्योंकि इसकी खबर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पास पहुंच गई. वो काफी नाराज हुए. एक चिट्ठी लिख डाली जिसमें लिखा था –


'आप कान्यकुब्ज ब्राह्मणों का अधिपत्य बढ़ा रहे हैं.'

Ravishankar Feature
नेहरू ने रविशंकर शुक्ल का टिकट काट दिया और फिर अगले ही दिन हॉर्ट अटैक से उनकी मौत हो गई.

शुक्ल इसके बाद भी नहीं माने. 1957 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए महाकौशल कांग्रेस कमेटी ने प्रत्याशियों की लिस्ट दिल्ली भेजी. इसमें भी डीपी मिश्र का नाम डलवा दिया. 30 दिसंबर, 1956 की शाम रविशंकर इस लिस्ट पर चर्चा के लिए दिल्ली पहुंचे. पर उनका खुद का टिकट काट दिया गया. गवर्नर बन जाने का प्रस्ताव दिया गया. अगले रोज 78 साल के शुक्ल हार्ट अटैक के चलते मर गए.

अंक 4: इंस्पेक्टर ने चुगली न की होती तो अटल के बॉस होते डीपी


श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत के बाद संघ के लोग चाहते थे कि डीपी मिश्रा मुख्यमंत्री बनें. गोलवलकर (दाएं) सहमत नहीं हुए.
श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत के बाद संघ के लोग चाहते थे कि डीपी मिश्रा मुख्यमंत्री बनें. गोलवलकर (दाएं) सहमत नहीं हुए.

बात 1953 की है. जब जनसंघ के गठन के बाद श्यामाप्रसाद मुखर्जी कश्मीर में बंदी बना लिए गए. फिर वहीं जेल में उनका निधन हो गया. अब जनसंघ को एक नए अध्यक्ष की जरूरत थी. आरएसएस के अनेक नेता उस वक्त चाहते थे कि मिश्र को ये जिम्मेदारी सौंपी जाए. पर संघ के सर्वेसर्वा एम.एस. गोलवलकर इस बात से सहमत नहीं हुए. और इसकी वजह था जेल के दिनों का एक इंसपेक्टर.

दरअसल 30 जनवरी 1948 को गांधीजी की हत्या के बाद गोलवलकर भी बंदी बना लिए गये थे. सिवनी के केंद्रीय कारागार में गोलवलकर को एक सहायक भी दिया गया. ये गुप्तचर विभाग का इंस्पेक्टर था. इसे डीपी मिश्र ने ही भेजा था. धीरे-धीरे ये इंस्पेक्टर गुरुजी का विश्वासपात्र बन गया. उसने गोलवलकर के बारे में ऐसी बातें जान लीं, जो गोपनीय के कोष्ठक में लिखी जाती हैं.



गांधी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लग गया था. डीपी मिश्रा की पहल पर ही संघ से प्रतिबंध हट पाया था.

और जाहिर है कि फिर यही बातें डीपी मिश्र के कानों तक भी पहुंच गईं. शुरुआत में संघ सुप्रीमो को इसका फायदा हुआ. डीपी के जरिए ही गोलवलकर और भारत सरकार के बीच पत्राचार शुरू हुआ. फिर समझौता हुआ और संघ से प्रतिबंध हटा. गोलवलकर भी जेल से रिहा हुए. इसी अनुभव के चलते गोलवलकर के सामने जब डीपी का नाम आया तो उन्होंने इनकार कर दिया. राजनीति के अध्येता मानते हैं कि गुरुजी नहीं चाहते थे कि कांग्रेस की नर्सरी में पला बढ़ा कोई नेता जो उनके जेल के दिनों के राज जानता हो, संघ की राजनीतिक इकाई का मुखिया बने.

इस कहानी का एक दूसरा पहलू भी है. डीपी वाला. वह अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि 1951 में उन्होंने जनसंघ का अध्यक्ष बनने का प्रस्ताव इसलिए ठुकरा दिया क्योंकि इस पार्टी में पूंजीपतियों का प्रभाव था.

अंक 5: शीला के ससुर ने की मदद, कान्यकुब्ज सिंडीकेट एट वर्क अगेन


उन्नाव के उमाशंकर दीक्षित ऐसे नेता थे, जिनपर इंदिरा गांधी खूब भरोसा करती थीं.
उन्नाव के उमाशंकर दीक्षित ऐसे नेता थे, जिनपर इंदिरा गांधी खूब भरोसा करती थीं.

वापस कांग्रेस की उस वक्त की पॉलिटिक्स पर लौटते हैं. चीन पर नेहरू की नीति की आलोचना कर इस्तीफा देने वाले प्रकरण को अब 12 बरस बीत चुके थे. डीपी के संदर्भ में एक लाभकारी बदलाव हुआ था इन बरसों में. उन्नाव के उमाशंकर दीक्षित नेहरू की किचन कैबिनेट का हिस्सा बन गए थे. नेहरू से ज्यादा उनकी बेटी इंदिरा उमाशंकर पर भरोसा करती थीं. ये वही दीक्षित हैं, जिनकी बहू शीला ने 15 साल दिल्ली के मुख्यमंत्री की गद्दी संभाली.

और यही उमाशंकर डीपी के दोस्त थे. उन्होंने ही डीपी की वापसी की जमीन तैयार की. तब तक मिश्रा निजी बातचीत में नेहरू से खेद भी जता चुके थे. और नेहरू भी 1962 में चीन के हमले के बाद सही नहीं रह गए थे.

इसी वक्त इंदिरा ने डीपी को दिल्ली बुला लिया. केंद्रीय नागरिक परिषद में. जिसकी वह खुद मुखिया थीं. डीपी मिश्रा को इस परिषद में जनसंपर्क का काम मिला. यहां उन्होंने झमक के काम किया. इंदिरा गांधी से घनिष्ठता और बढ़ा ली. इसी दौरान मिश्र की सलाह पर सिनेमाघरों में फिल्म शुरू करने से पहले राष्ट्रगान का चलन शुरू करवाया गया.



डीपी मिश्र की वजह से ही सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान गाने की शुरुआत हुई थी.

संयोग से इसी वक्त रायपुर जिले की कसडोल विधानसभा सीट भूपेंद्रनाथ मिश्र के निधन से खाली हो गई. मार्च 1963 में जब उपचुनाव की घोषणा हुई तो रायपुर कांग्रेस कमेटी ने मिश्र का नाम कसडोल से आगे बढ़ाया. स्थानीय नेतृत्व ने हमेशा की तरह इसका विरोध किया. इस वक्त मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे भगवंतराव मंडलोई. उन्होंने गेंद हाईकमान के पाले में डाल दी. यहां मिश्र के साथ इंदिरा थी हीं. मिश्र को टिकट मिला और वह जीतकर विधायक भी बन गए.

इसके कुछ हफ्तों बाद आया कामराज प्लान. मध्यप्रदेश के सिटिंग सीएम भगवंतराव मंडलोई को इस्तीफा देना पड़ा. मंडलोई के हटने के बाद एक बार फिर नए मुख्यमंत्री की तलाश शुरू हो गई. डीपी ने सबसे पहले नेहरू को खुश किया. उनके खास और पूर्व मुख्यमंत्री काटजू का नाम प्रस्तावित किया. आम सहमति का राग अलापा. मगर ऐसा हुआ नहीं. काटजू के सामने आ गए विदिशा के तखतमल जैन. तय हुआ कि चुनाव होंगे. डॉ. काटजू पीछे हट गए. डीपी इसी समय आगे आ गए.


डीपी मिश्र और कैलाश नाथ काटजू दोनों ही उपचुनाव जीतकर विधानसभा में पहुंच गए थे.
मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर काटजू (दाएं) पीछे हट गए. इसके बाद डीपी मिश्रा का नाम फाइनल हुआ.

मुकाबला अब तखतमल वर्सेज डीपी मिश्र था. पर ये लड़ाई इतनी आसान नहीं थी. जीत के लिए सारे हथकंडे अपनाए गए. पहली बार विधायकों की बाड़ेबंदी हुई. मिश्र ने तुरुप के पत्तों की तरह 18-20 विधायकों को सागर में एक गुप्त स्थान पर रखा. उन्हें चुनाव के वक्त सड़क मार्ग से भोपाल लाया गया. मुकाबला कड़ा था. जब गिनती हुई तो तखतमल के साथ 64 विधायक थे. जबकि डीपी के साथ 83. और इसी 19 विधायकों के फासले के साथ वो हो गया, जिसकी हसरत रविशंकर शुक्ल ने पाली थी. कि मेरे बाद मेरा दोस्त द्वारका प्रसाद सीएम बने. जिसके लिए वह विधायकी का टिकट मांगने दिल्ली गए थे और फिर लौटे ही नहीं.

अंक 6: मोतीलाल की साखी

30 सितंबर 1963 को डीपी मिश्र ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी.

30 सितंबर, 1963. भोपाल का मिंटो हॉल. मध्य प्रदेश के राज्यपाल हरि विनायक पाटस्कर राज्य के नए मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र को शपथ दिलवा रहे हैं...तो क्या अब द्वारका प्रसाद की जिंदगी का ढर्रा बदलने वाला था. नेहरू से दुश्मनी और फिर इंदिरा से दोस्ती के बाद सीएम की वो कुर्सी तो मिल गई थी, जिसके लिए उनके यार रविशंकर शुक्ला कुर्बान हुए थे. मगर उस रुटीन का क्या. मुंह में क्रेवन ए सिगरेट. हमेशा ड्राई क्लीन किए कपड़े. दिन में एक बार यारों संग ब्रिज (ताश के पत्तों का एक खेल) खेलना. बिना अप्वाइंटमेंट किसी से न मिलना. बिना एसी वाले दफ्तरों और डाक बंगलों में न रुकना. और विलायती कुत्तों का शौक पालना.

पर ये शौक पैदाइशी थे क्या. जवाब है नहीं. मिश्र के पिता अयोध्या प्रसाद यूपी के उन्नाव जिले के रहने वाले थे. मगर खेती पर नहीं अटके रहे. रायपुर जाकर ठेकेदारी की. द्वारका प्रसाद भी पापा के शहर में नहीं अटके इलाहाबाद में लॉ की पढ़ाई की और नेहरू के पापा मोतीलाल का आशीर्वाद भी पाया. उस वक्त का एक वाकया सुनिए.

डीपी मिश्र: जो इंदिरा गांधी के चाणक्य बताए जाते थे लेकिन संजय गांधी उनसे चिढ़ते थे। पार्ट 2

सन 1928. भारत में साइमन कमीशन का विरोध चल रहा था. लाहौर में विरोध का जिम्मा संभाला लाला लाजपत राय ने. अंग्रेजों ने लाठी चार्ज किया और लालाजी नहीं रहे. डीपी मिश्र ने इसके विरोध में 'लोकमत' में संपादकीय लिखी. इस पर पं. मोतीलाल नेहरू ने कहा कि भारत का सर्वश्रेष्ठ फौजदारी वकील भी इससे अच्छा अभियोग पत्र तैयार नहीं कर सकता. पर मिश्र के लेखन का असली रूप सामने आया 1942 में. तब जब वो जेल में बंद थे. जेल में रहते हुए उन्होंने महाकाव्य 'कृष्णायन' रच डाला. उसमें कृष्ण के जन्म से लेकर स्वर्गारोहण तक की कथा सुना डाली. मिश्र इसी कलम की ताकत की बदौलत श्री शारदा मासिक और दैनिक लोकमत जैसे अखबारों में पत्रकार भी रहे.

अंक 7: प्यारे बेटे, शटर गिरा दो


सीएम बनने के बाद डीपी मिश्रा ने अपने बेटे की कपड़े की दुकान बंद करवा दी थी.
सीएम बनने के बाद डीपी मिश्रा ने अपने बेटे की कपड़े की दुकान बंद करवा दी थी.

मिश्र जब मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने अपने बड़े बेटे की एक अच्छी-खासी चलती दुकान बंद करवा दी. ये दुकान भोपाल में हमीदिया अस्पताल के बाहर जानकी फार्मेसी नाम से थी. मिश्र नहीं चाहते थे कि कोई ये आरोप लगाए कि दवाइयों की सरकारी खरीद या हमीदिया अस्पताल की जरूरतें जानकी फार्मेसी में पूरी की जा रही है. मिश्र कहते थे -


'राजनीति करने वाले लोगों को कभी व्यापार नहीं करना चाहिए. साथ ही राजनीति में शीर्ष पर बैठे लोगों को व्यापारियों को राजनीति में नहीं आने देना चाहिए.'

अंक 8: डीपी, शास्त्री इज डेड, रीच डेल्ही

डीपी मिश्र ने अपनी किताब द पोस्ट नेहरू एरा, पॉलिटिकल मेमोयर्स में लिखा -


11 जनवरी, सन 1966 की सवेरे साढ़े पांच बजे थे, जब मेरा टेलीफोन बजा. उधर की लाइन पर इंदिरा गांधी थीं. उन्होंने बताया कि बीती रात को ताशकंद में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का निधन हो गया है और मैं तत्काल दिल्ली पहुंच जाऊं.'

डीपी मिश्रा दिल्ली पहुंचे. सभी कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की एक बैठक बुलाई. इसमें ज्यादातर ने नए प्रधानमंत्री के लिए इंदिरा का नाम लिया. उस वक्त कांग्रेस के ताकतवर राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे के कामराज भी यही चाहते थे. मोरार जी की भी दावेदारी थी. वोटिंग हुई और इंदिरा पीएम बनीं.


शास्त्री की मौत के बाद इंदिरा ने डीपी को फोन कर दिल्ली बुलाया. वोटिंग हुई और इंदिरा प्रधानमंत्री बनीं.

एक साल बाद हुए 1967 के चुनाव. इंदिरा फिर पीएम बनीं. मगर पार्टी में वह कमजोर हो चली थीं. कामराज और निजलिंगप्पा की जोड़ी अब मोरार जी पर मुहब्बत लुटा रही थी. ऐसे में इंदिरा गांधी ने अपनी सेना जुटानी शुरू की. इसमें कश्मीर माफिया था. यानी वो शीर्ष अफसर जिनका कश्मीर कनेक्शन था. डीपी धर, पीएन हक्सर जैसे खुर्राट ब्यूरोक्रेट. राजनीति के स्तर पर इंदिरा ने डीपी का साथ लिया.

फिर तय हुआ समाजवाद की आड़ लेकर ओल्ड गार्ड को ठिकाने लगाने का सियासी अभियान. प्रिवी पर्स पर स्टैंड हो या बैंकों का राष्ट्रीयकरण. या फिर तनाव का चरम बिंदु. राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस कैंडिडेट के उलट अपना कैंडिडेट उतारना. इंदिरा ने डीपी धर और डीपी मिश्रा के साथ सब दांव सही चले.


कांग्रेस में संजय गांधी की एंट्री के बाद डीपी मिश्रा और इंदिरा के रास्ते अलग-अलग हो गए.
कांग्रेस में संजय गांधी की एंट्री के बाद डीपी मिश्रा और इंदिरा के रास्ते अलग-अलग हो गए.

1972 तक वो इंदिरा गांधी के राजनीतिक सलाहाकार के तौर पर काम करते रहे. मगर फिर आया संजय गांधी का युग और यहीं से इंदिरा और डीपी मिश्र के रास्ते अलग हो गए. मिश्र ने संजय गांधी के बारे में अपनी किताब में भी लिखा,


'मैं अब किसे अपना नेता मानता- संजय गांधी को? मोतीलाल नेहरू के साथ मैं काम कर चुका था और उन्हें अपना पहला नेता मानता था. वहां से संजय गांधी तक गिरकर नीचे आना मुझे समझ नहीं आया. एक वक्त था जब महात्मा गांधी, मोतीलाल नेहरू को नेताओं का प्रिंस कहा करते थे और आज संजय गांधी दिल्ली की धमाचौकड़ी के प्रिंस कहे जाते हैं. इन सब घटनाओं ने ही ही मुझे इंदिरा को नमस्ते कहने के लिए मजबूर कर दिया.'

आप इतना मगन हो किस्सा सुन रहे हैं. ये भी तो पूछिए. डीपी तो मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. ये सलाहकार वगैरह तो ठीक है. उस कुर्सी का क्या हुआ. चलिए फिर फ्लैशबैक में चलते हैं.

अंक 9: राजमाता का बदला


डीपी मिश्रा ने रजवाड़ों के खिलाफ बयान दिया और फिर राजमाता विजयराजे सिंधिया ने इसका बदला ले लिया.
डीपी मिश्रा ने रजवाड़ों के खिलाफ बयान दिया और फिर राजमाता विजयराजे सिंधिया ने इसका बदला ले लिया.

पचमढ़ी. कभी मध्य प्रांत की ग्रीष्मकालीन राजधानी रही. डीपी मिश्रा बतौर सीएम राजकाज यहीं से चलाते थे मई-जून के तपते महीनों में. यहीं पर 1966 में युवक कांग्रेस का एक अधिवेशन हुआ. यूथ कांग्रेस संयोजक, मझौली से विधायक और कृषि राज्यमंत्री अर्जुन सिंह के नेतृत्व में.

यहां डीपी ने निशाना साधा रजवाड़ों पर. बोले -


'ये रजवाड़े कभी भी कांग्रेस के नहीं हो सकते. क्योंकि मूलत: ये लोग लोकतंत्र विरोधी हैं. चूंकि लोकतंत्र में हम किसी को मना नहीं कर सकते इसलिए इन्हें हमें पार्टी में लेना पड़ा. पर हम इनको निष्क्रिय कर देंगे. इनका भरोसा नहीं किया जा सकता.'

सामने ये सब सुन रही थीं ग्वालियर रियासत की राजमाता विजयाराजे सिंधिया. इस प्रकरण को याद करते हुए सिंधिया ने अपनी आत्मकथा में लिखा-


'मैंने तय कर लिया था. ये टिप्पणी हवा में नहीं जाएगी.'

विजयाराजे सिंधिया ने अपने बेटे माधवराव सिंधिया के साथ मिलकर डीपी के खिलाफ काम करना शुरू कर दिया.
विजयाराजे सिंधिया ने अपने बेटे माधवराव सिंधिया के साथ मिलकर डीपी के खिलाफ काम करना शुरू कर दिया.

ग्वालियर की कांग्रेसी सांसद सिंधिया ने इसके बाद डीपी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. बेटे माधव राव सिंधिया के साथ. पहली ईंट खिसकी होम टर्फ ग्वालियर पर. सितंबर 1966 में वहां एक बड़ा छात्र आंदोलन हुआ. पुलिस ने गोली चला दी. विजयराजे तब इस मसले पर मिश्र से मिलने भोपाल पहुंचीं. सचिवालय ने लंबा इंतजार करवाया. और फिर आखिरी बेइज्जती सीएम के चैंबर में हुई. द्वारका प्रसाद की आदत थी महिलाओं के आने पर खड़े होने की. मगर विजयराजे आईं तो वो अंदर के कमरे में चले गए ताकि उन्हें खड़ा न होना पड़े. सांसद के घुसते ही डीपी भीतर के कमरे से वापस आए और दुआ सलाम के पहले ही ये बोले-


'छात्र आंदोलन के अलावा कुछ और चर्चा करनी हो तो बताइए.'

सिंधिया समझ गईं. चर्चा के दिखावे का वक्त बीत गया है. मगर अभी चुनाव सर पर थे. सो उन्होंने 1967 तक इंतजार किया. अपने इलाके में टिकट वितरण पर उनकी फिर कांग्रेस वेटरन से ठन गई. सिंधिया अपने लोगों के लिए टिकट चाहती थी और मिश्र कांग्रेस संगठन की राय के हिसाब से चल रहे थे. उन्होंने तंज में कहा भी, आपकी रियासतें कब की चली गईं. ये संगठन आपका जेबी नहीं है.


DP Mishra Vijay Raje
विजयाराजे सिंधिया की लाख कोशिशों के बाद भी डीपी मिश्र का सितारा बुलंदी पर रहा.

सिंधिया ने बगावत कर दी. ग्वालियर के आसपास के जिलों में अपने प्रत्याशी उतार दिए. उन दिनों पोस्टर चिपकते थे. राजमाता का आशीर्वाद प्राप्त कैंडिडेट. विजयराजे और बेटे माधवराव ने खूब प्रचार किया. लेकिन डीपी का सितारा अभी बुलंदी पर था. 1967 के दौर में जब पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस कमजोर हुई थी. कई राज्यों में विरोधी दलों के गठजोड़ वाली संविद सरकारें बनी थीं. तब भी मध्यप्रदेश में दो बैलों की जोड़ी का जलवा बरकरार रहा. कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में 167 सीटें मिलीं. इसके बाद हुए उपचुनावों और नगर पालिका चुनावों में भी कांग्रेस का जलजला दिखा.

इसके बाद राजमाता समझ गईं कि ये जंग अकेले नहीं लड़ी जा सकती. उनके जनक्रांति दल नाम के मोर्चा के विधायक काफी नहीं थे डीपी का राज खत्म करने को. जनसंघ का साथ पाने के बावजूद. ऐसे में उन्होंने सदियों पुरानी युक्ति अपनाई. बैरी के घर भेदी खोजो. और ये खोज पूरी हुई डीपी के मंत्री और ब्रिज पार्टनर रहे गोविंद नारायण पर. गोविंद डीपी से खफा चल रहे थे. उन्हें मुख्यमंत्री पद का प्रलोभन दिया गया. विधायकों संग टूटकर इस पाले में आने पर.


गोविंद नारायण और डीपी मिश्रा में आपस में नहीं बनती थी. विजयाराजे सिंधिया ने इसका फायदा उठाया.
गोविंद नारायण और डीपी मिश्रा में आपस में नहीं बनती थी. विजयाराजे सिंधिया ने इसका फायदा उठाया.

मगर लालच को सार्वजनिक करने के लिए सिद्धांत का वर्क चढ़ाना पड़ता है. गुलाबी चना घोटाला ने वो काम किया. क्या था ये घोटाला. कांग्रेस पार्टी ने चंदा जुटाने के नाम पर गुलाबी चना व्यापारियों को पहले से बंद निर्यात की छूट दे दी थी. तय ये हुआ था कि इसके बदले व्यापारी प्रति बोरी 10 रुपये कांग्रेस को चंदा देंगे. इसमें छीछालेदर तब हुई जब अधिकारियों ने खाद्य मंत्री गौतम शर्मा के घर पर ही वसूली के लिए ऑफिस बना डाला. और फिर बात प्रेस में आ गई.

इसको आधार बनाकर 19 जुलाई 1967 को गोविंद नारायण सिंह ने 36 विधायकों समेत कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया. फिर विधानसभा में शिक्षा विभाग के बजट पर हुई वोटिंग के दौरान विपक्षी पाले में बैठ गए और सरकार गिरवा दी और खुद सीएम बन गए. डीपी को लग रहा था था कि राजभवन में कांग्रेसी बैठा है. उनके त्यागपत्र के बाद विधानसभा भंग कर दी जाएगी. मगर कांग्रेस संगठन के दिल्ली में बैठे लोग तब अपनी ही प्रधानमंत्री निपटने में लगे थे. ऐसे में दिल्ली से कोई मदद नहीं आई और सब काम संविधान मुताबिक हुए. राजमाता सिंधिया का बदला भी पूरा हुआ. डीपी राज खत्म. गोविंद नारायण डेढ साल सिंधिया के हुकुम बजाते हुए जब छक गए तो कांग्रेस में लौट गए. उसकी विस्तृत कहानी आप गोविंद नारायण वाले ऐपिसोड में सुनेंगे.

अंक 10:  249 रुपये के चक्कर में सीएम कुर्सी गंवाई


249 रुपये की वजह से डीपी मिश्रा की कुर्सी चली गई और फिर श्यामाचरण शुक्ला सीएम बने.
249 रुपये की वजह से डीपी मिश्रा की कुर्सी चली गई और फिर श्यामाचरण शुक्ला सीएम बने.

1969 में गोविंद नारायण वाली संविद सरकार गिर गई. गोविंद खुद समर्थकों समेत कांग्रेस में लौट आए. सिंधिया का पलिटिकल मैनेजमेंट फेल हो गया. सबको लगा कि डीपी फिर सीएम बन जाएंगे. शपथ की बातें होने लगीं. मगर तभी एक चुनावी याचिका पर फैसला आ गया था. ये याचिका लगाई थी कमल नारायण शर्मा ने, जो 1963 में कसडोल सीट पर हुए उपचुनाव में मिश्र के प्रतिद्वंदी थे. इसी उपचुनाव में जीत के बाद मिश्र सीएम बने थे.

कमल नारायण ने डीपी पर वित्तीय अनियमितता के आरोप लगाए थे. और जबलपुर हाई कोर्ट ने इसे सही माना. कोर्ट ने पाया कि कसडोल चुनाव में मिश्र ने निर्धारित खर्च सीमा से 249 रुपये और 72 पैसे ज्यादा खर्च किए थे. कोर्ट ने मिश्र को छह साल के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया. अब नैतिकता की मार थी. इसलिए डीपी को पीछे हटना पड़ा. और सीएम बने श्यामाचरण शुक्ल.



डीपी मिश्र और रविशंकर शुक्ल अच्छे दोस्त थे. इसी वजह से डीपी मिश्र ने रविशंकर के बेटे श्यामाचरण के लिए जगह बना दी थी.

भोपाल के पुराने पंछी बताते हैं कि डीपी के जाने के पीछे भी उनके दोस्त रवि बाबू के बेटे श्यामाचरण थे. कसडोल चुनाव में श्यामाचरण ही डीपी मिश्रा के इलेक्शन एजेंट थे. और कथित तौर पर उन्होंने ही कमल नारायण को ऐसे बिल पहुंचवाए थे, जिनके चलते कोर्ट में मिश्र पर ज्यादा खर्च का इल्जाम सही सिद्ध हो पाया.

अंक 11: मेरी पेंशन से पैसे काट लो सरकार

भोपाल से अटे और दिल्ली में डटे डीपी मिश्रा संजय गांधी काल के बाद सूबे में लौट आए थे. गांधी परिवार को अब उनकी जरूरत नहीं थी. या शायद थी. पर दो लोगों के बीतने के बाद. संजय गुजरे. फिर इंदिरा भी. राजीव भी अपने प्रधानमंत्रित्व काल के आखिरी बरसों में थे. बेतरह राजनीतिक संकटों से घिरे थे. तब उनके खास अर्जुन सिंह बोले, आप मिश्रा जी से सलाह करिए. डीपी आए. मन की कही सुनी. मगर अब वो तेल था, न वो धार.


कांग्रेस में जब संजय गांधी की चलने लगी, तो डीपी मिश्रा की कांग्रेस में वापसी हो गई.
कांग्रेस में जब संजय गांधी की चलने लगी, तो डीपी मिश्रा की कांग्रेस में वापसी हो गई.

जिंदगी की शाम ढलान पर थी अब. जिस सूबे के अखबार उनकी खबरों रंगे होते थे. उनमें वह लौटे. मगर एक विवाद के चलते. विवाद क्या. डीपी बीमार थे. उनके इलाज का 15 हजार का बिल आया. जिसका भुगतान मध्य प्रदेश सरकार ने किया. इसकी खबर अखबारों में छपी तो हल्ला कटा. डीपी इससे इतने दुखी हुए कि पेंशन से ये रकम लौटाने का बयान दे डाला. फिर कुछ महीनों बाद 5 मई 1988 को उनका निधन हो गया. दिल्ली में.

कहानी यहां खत्म हो जानी चाहिए. मगर अभी कफन का किस्सा बाकी है. वरिष्ठ पत्रकार दीपक तिवारी की किताब राजनीतिनामा में इसका बयान है. इसके मुताबिक मौत के बाद डीपी का शव जबलपुर लाया गया. राजकीय सम्मान के नाम पर खानापूर्ति की गई. शवयात्रा में भी बमुश्किल कुछ सैकड़ा लोग जुटे. मुख्यमंत्री के अगले एपिसोड में कहानी उस नेता की, जो डीपी का चेला था. फिर राजमाता का प्यादा बन गया.




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