1993 की जनवरी की 18 तारीख. यह केंद्र और कांग्रेस का नरसिम्हा राव युग था. उन्होंने अपने टेक्सटाइल मिनिस्टर को आदेश दिया कि वो अपना इस्तीफ़ा सौंप दे. 43 साल के इस मिनिस्टर को सियासत में आए 2 दशक से ज्यादा हो चुके थे. राव के इस कदम का उसे पहले से ही अंदेशा था. उसने बिना किसी हुज्जत के अपना इस्तीफ़ा सौंपा और अपने गृह राज्य की तरफ रवाना हो गया. सड़क मार्ग से. और रास्ते में उसे वायु मार्ग पर शुरू हुई एक अदावत याद आ गई.

नरसिम्हा राव के कहने पर 18 जनवरी, 1993 को टेक्सटाइल मंत्री अशोक गहलोत ने पद से इस्तीफा दे दिया और राजस्थान चले गए.
तो क्या हुआ जो प्रेस में छपा था कि मंत्री काम में फिसड्डी था. जबकि वही प्रेस कुछ महीने पहले दिल्ली हाट खोलने के फैसले पर उसके कसीदे पढ़ रही थी. वो जादूगर था. उपमा के स्तर पर नहीं. सचमुच में. नजर का भरम जानता था. और ये भी जानता था कि खेल के पीछे का खेल क्या होता है. वो आज इस खेल का महारथी है.
अंक एक- एक तांत्रिक की वक्रदृष्टि

चंद्रास्वामी ने ही नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री बनने की भविष्यवाणी की थी.
अशोक गहलोत का सियासी करियर पॉलिटिक्स के डार्क हॉर्स की गाथा है. वो राजनीतिक तौर पर बहुत ही अप्रभावी माली बिरादरी से आते हैं. इसके बाजवूद उन्होंने गांधी परिवार की नजर में अपनी प्रासंगिकता को कभी कम ना होने दिया. लेकिन 1993 में गांधी परिवार की प्रासंगिकता सवालों के घेरे में थी. नरसिम्हा राव सत्ता के शीर्ष पर थे और एक तांत्रिक के अहसान तले दबे थे. तांत्रिक जो सबसे ज्यादा सत्ता का तंत्र समझता था. जिसे आलोचक त्रिपुंड वाला दलाल कहते थे. जिसने रिटायरमेंट की तैयारी करते राव के प्रधानमंत्री बनने की भविष्यवाणी की थी. ये चंद्रास्वामी थे. राव सरकार में जिनका ऐसा रसूख कि कई मंत्री सरेआम उनके पांव छुआ करते थे.

चंद्रास्वामी और अशोक गहलोत के रिश्तों में शुरुआत से ही खटास थी.
अशोक गहलोत और चंद्रास्वामी एक रोज एक ही फ्लाइट पर सवार थे. चंद्रास्वामी के साथ उनके कई चेले भी थे. चंद्रास्वामी थोड़ी-थोड़ी देर के बाद तिरछी निगाहों से देखे जा रहे थे. उन्हें उम्मीद थी दूसरे मंत्रियों की तरह ही गहलोत भी उनका सिजदा करेंगे. ऐसा हुआ नहीं. यह दोनों के बीच रिश्तों में खटास की शुरुआत थी. इसके कुछ महीनों बाद राजस्थान के पाली जिले में कांग्रेस का एक कार्यक्रम होने जा रहा था. कांग्रेस के कद्दावर नेता वीसी शुक्ला और अशोक गहलोत को इस कार्यक्रम में बुलाया गया था. पार्टी का कार्यक्रम था तो गहलोत ने आने के लिए हामी भर दी. कुछ दिनों बाद उन्हें पता लगा कि चंद्रास्वामी भी इस कार्यक्रम में आने वाले हैं. उन्होंने कार्यक्रम में आने से मना कर दिया. गहलोत के इस कदम से चंद्रास्वामी बेहद नाराज हुए. फिर कुछ हफ्तों बाद गहलोत को राव मंत्रिमंडल से रुखसत होना पड़ा.

चंद्रास्वामी की नाराजगी की वजह से अशोक गहलोत को केंद्रीय मंत्रिमंडल से बाहर होना पड़ा.
गहलोत दिल्ली से राजस्थान लौट आए. इसके कुछ महीनों बाद 1993 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा. इस समय कांग्रेस में हरिदेव जोशी, परसराम मदेरणा, शिवचरण माथुर जैसे कई खेमे सक्रिय थे. मदेरणा प्रदेश कांग्रेस कमिटी के चीफ हुआ करते थे. उनकी सदारत में कांग्रेस 1990 और 1993 के विधानसभा चुनाव हार चुकी थी. गहलोत ने उसकी कुर्सी पर नजर गढ़ा दी. साथ लिया ऐसे व्यक्ति को, कभी जिसका तख्तापलट किया था. मदेरणा की मदद से. हरिदेव जोशी. पूर्व मुख्यमंत्री. जो अब नेता प्रतिपक्ष थे.

राजस्थान में अपनी जड़ें जमाने के लिए अशोक गहलोत को साथ मिला हरिदेव जोशी का.
क्या डील हुई. ये कि जोशी जिन्हें नरसिम्हा राव ने विधायक दल के त्रिकोणीय संघर्ष में नवल किशोर शर्मा और मदेरणा के ऊपर वरीयता दी थी, उनके दरबार में गहलोत के नाम पर वीटो न हो. और गहलोत 1996 के लोकसभा चुनाव में जोशी के लोगों का ख्याल रखें .
अंक दो- लेकिन मैडम चाहती हैं कि...
1998 के नवंबर महीने में राजस्थान में फिर विधानसभा चुनाव हुए. तब तक अटल बिहारी वाजपेयी सरकार पोकरण में परमाणु बम धमाके कर चुकी थी. प्याज के दाम आसमान पर थे. राजस्थान में जाट आरक्षण आंदोलन उफान पर था. अशोक गहलोत जोधपुर के सांसद और प्रदेश कांग्रेस के सदर थे. चुनाव लड़वा रहे थे. 200 में 160 विधानसभाओं में रैली की. महंगाई के नाम पर भैरो सिंह सरकार को घेरा. भैरो सिंह शेखावत राजपूत थे. जाट-राजपूत अदावत के नाम पर जाटों को भी कांग्रेस के पक्ष में साधने में कामयाब रहे. नतीजे आए तो बीजेपी का सूपड़ा साफ़ हो चुका था. 200 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस 153 सीटें जीतने में सफल रही.

अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस ने 200 में से 153 सीटों पर जीत हासिल की थी.
अब बारी थी कांग्रेस विधायक दल नेता, यानी भावी मुख्यमंत्री के चुनाव की. पहला दावा था, जाट नेताओं का. आरक्षण आंदोलन ने जाटों को नई राजनीतक चेतना से लैस किया था. अब सरकारी नौकरी के अलावा वो सरकार में भी अपना हिस्सा मांग रहे थे. परसराम मदेरणा इसी समुदाय से आते थे. पुराने कांग्रेसी थे. मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार. दूसरे थे नटवर सिंह. जाट होने के अलावा गांधी परिवार के करीबी. और ये फैक्टर अब मायने रखता था क्योंकि राव-केसरी दौर बीत चुका था और अब सोनिया कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष थीं.

सोनिया गांधी ने अशोक गहलोत के नाम पर मुहर लगा दी और फिर गहलोत राजस्थान के मुख्यमंत्री बन गए.
30 नवम्बर 1998 की दोपहर जयपुर में कांग्रेस विधायक दल की बैठक शुरू हुई. लेकिन उससे घंटों पहले यानी सुबह से ही खासाकोठी के एक होटल में चहल-पहल शुरू हो चुकी थी. राज्य के कांग्रेस प्रभारी माधव राव सिंधिया के अलावा गुलाब नबी आजाद, मोहसिना किदवई और बलराम जाखड़ इस होटल में रुके हुए थे. जाखड़ एक खास मामला सुलझाने के लिए होटल से बाहर गए हुए थे. बाकी के नेता बारी-बारी से नए चुने हुए विधायकों को तलब कर रहे थे. मुख्यमंत्री किसे बनाया जाए, इस सवाल पर राय ली जा रही थी. विधायकों की पसंद जानने के बाद उन्हें एक लाइन में जवाब दिया जाता. जिसके शुरूआती शब्द थे, "मैडम की इच्छा है कि..."
फिर शुरू हुई विधायक दल की औपचारिक बैठक. इसके लिए तमाम विधायकों के अलावा सूबे के कांग्रेस अध्यक्ष अशोक गहलोत भी पार्टी दफ्तर पहुंचे थे. नेता का चुनाव अभी बाकी था, मगर गहलोत के चारों तरफ पुलिस का सुरक्षा घेरा 'मैडम की इच्छा' की चुगली खा रहा था. फिर विधायक आते और मीटिंग के लिए हॉल में घुसने से पहले उन्हें मिलते और तोहफे थमाते. कंघे से लेकर रुमाल तक, मिठाई के डिब्बे से लेकर कलम तक. अशोक गहलोत हर चीज को चौड़ी मुस्कान के साथ स्वीकार कर रहे थे.

बलराम जाखड़ ने विरोधियों खास तौर पर परसराम मदेरणा को मना लिया और मदेरणा मान गए.
उधर जाखड़ सुबह होटल से जिस काम के लिए रवाना हुए थे, उसे पूरा कर वापस आ गए. अपने रिश्तेदार परसराम मदेरणा को मनाने का काम. मदेरणा ने विधानसभा अध्यक्ष के पद के बदले मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दावा छोड़ दियया. सबने मैडम की इच्छा को मान लिया. अशोक गहलोत प्रदेश के नए मुख्यमंत्री थे.
कांग्रेस पर नजर रखने वाले पत्रकार रशीद किदवई की इस पर टिप्पणी पढ़िए. -
'गहलोत को कुर्सी सौंपना सोचा-समझा राजनीतिक फैसला था. सोनिया कांग्रेस में अपनी पकड़ मजबूत कर रही थीं. ऐसे में राजस्थान में प्रभावशाली जाति के प्रभावशाली नेता का सीएम की कुर्सी पर होना, आगे चलकर खतरा साबित हो सकता था. ऐसे में मदेरणा का पत्ता कटना ही था.'अशोक गहलोत तुरुप का इक्का साबित हुए थे. और जब यही अशोक सियासत में दाखिल हुए थे तो कोई उन्हें दुक्की भी मानने को तैयार नहीं था.
अंक-3 इंदिरा ने खोजा संजय का गिलीबिली

अशोक गहलोत के पिता जादूगर थे.
अशोक गहलोत जोधपुर के एक सामान्य घर में पैदा हुए. पिता लक्ष्मण सिंह दक्ष अच्छे जादूगर थे. देश में घूम-घूमकर जादू दिखाते. अशोक भी पिता के साथ घूमे. स्टेज पर जादू भी दिखाया. पढ़ाई में भी ठीक-ठाक ही थे. जिंदगी वैसी ही थी जैसी अमूमन होती है. 12 वीं के बाद जोधपुर की जयनारायण व्यास यूनिवर्सिटी में दाखिला ले लिया. पढ़ने का शौक था. उसी के फेर में जोधपुर के गांधी शांति प्रतिष्ठान के चक्कर लगाने लगे. यहां गांधी जी का लिखा पढ़ते. गांधी के विचार अच्छे लगे. कांग्रेस ज्वाइन कर ली. लेकिन सियासत वाली नहीं, सेवा वाली.
1971 के युद्ध के दौरान लाखों की तादाद में शरणार्थी भारत आ रहे थे. मशहूर गांधीवादी डॉ. सुब्बाराव कई शिविरों में सेवा के काम में लगे हुए थे. अशोक गहलोत भी पहुंच गए. सेवा भारती के कारकून के तौर पर. काम में जुटे हुए थे. एक दिन शिविर में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का दौरा हुआ. 20 साल के अशोक पर नजर पड़ी. छोकरा मेहनती लगा. बोला कांग्रेस ज्वाइन कर लो. चुनाव लड़ने लायक उम्र हासिल करने में अभी पांच साल का वक्त था. खुद को मांजने के लिए वर्धा चले गए. गांधी आश्रम में रहे. घर लौटे तो गांधीवादी हो चुके थे. सूरज डूबने से पहले खाना खाने लगे. खद्दर पहनने लगे.

इंदिरा की नज़र अशोक गहलोत पर पड़ी और उन्होंने गहलोत को कांग्रेस में शामिल होने का ऑफर दिया.
1972 में बीएससी की पढ़ाई पूरी कर चुके थे. रोजगार था नहीं. घरवालो ने जोधपुर से 50 किलोमीटर दूर पीपाड़ कस्बे में खाद-बीज की दुकान खुलवा दी. धंधा चला नहीं. घर आ गए. आगे की पढ़ाई के लिए फिर से दाखिला ले लिया. इस बार एमए (अर्थशास्त्र) में. कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई से जुड़ गए. यूनिवर्सिटी में चुनाव भी लड़ा.महासचिव की पोस्ट पर. हार गए. लेकिन सियासत जारी रही.
साल 1973. संजय गांधी का प्रभाव तेजी से कांग्रेस में बढ़ रहा था. युवाओं की पूछ बढ़ रही थी. अशोक गहलोत को NSUI का राज्य अध्यक्ष बना दिए गए. आपातकाल के दौरान संजय ने युवा कांग्रेस को काम दिया. गांव-गांव जाकर बीस सूत्री कार्यक्रम का प्रचार करो. अशोक गहलोत ने जमकर मेहनत की. संजय से करीबी बनी. जादू की कला जानने की वजह से संजय और उनके दोस्त 'गिली-बिली' नाम से बुलाते थे.
अंक 4 बाइक बेचकर नेतागिरी
सियासत में इस चीज का बहुत महत्व है कि आप कितने गतिशील रहते हैं. कोई पैदल, कोई बाइक पर तो कोई कार या जहाज पर. लेकिन सियासत शुरू करने के लिए किसी को अपनी गति, अपना वाहन कुर्बान करना पडे तो. गहलोत के साथ भी ऐसा हुआ.

अशोक गहलोत सीधे संजय गांधी से टिकट लेकर आए और जोधपुर से चुनाव लड़ा. बाद में वो राजीव गांधी के भी करीबी रहे.
संजय गांधी का गिली बिली अब चुनाव लड़ रहा था. आपातकाल खत्म हो चुका था. कांग्रेस लोकसभा हार चुकी थी. जनता पार्टी के राज में विधानसभा चुनाव लड़ने को कांग्रेसी खोजे नहीं मिल रहे थे. तब अशोक ने मौके को भांपा. जोधपुर की सरदारपुरा सीट से लड़ने के लिए संजय से टिकट ले आए। उम्र थी 26 साल और पूंजी के नाम पर सिर्फ एक बाइक थी. उसे चार हजार में बेच दिया. जैसे-तैसे करके चुनाव लड़ा. सामने थे जनता पार्टी के माधो सिंह. उनसे 4,329 के अंतर से चुनाव हार गए. यानी बोहनी खराब. मगर किसके लिए खराब की इसका खूब महत्व था.
केंद्र की जनता पार्टी सरकार तीन साल हिचकोले खाने के बाद डूब गई. 1980 में नए सिरे से चुनाव हुए. इस बार संजय ने उन्हें जोधपुर से लोकसभा का टिकट दिया. चुनाव लड़ने के लिए इस बार भी कुछ खास पैसा नहीं था.
अशोक के एक दोस्त थे रघुवीर सैन. उनके सैलून में कार्यालय खोला गया. जोधपुर के सोजती गेट का यह सैलून आज भी उनकी अड्डेबाजी की जगह है. खुद की बाइक बेच दी थी. सो प्रचार के लिए रघुवीर की बाइक का इस्तेमाल हुआ. खुद के पोस्टर खुद चस्पा किए. नतीजे आए. जनता पार्टी के बलबीर सिंह कच्छावा को 52,519 वोट से हराया. दिल्ली पहुंच गए.

दिल्ली पहुंचने के बाद अशोक गहलोत की नज़दीकी इंदिरा गांधी से और भी बढ़ गई.
दिल्ली में रहने के दौरान इंदिरा गांधी से नजदीकी बढ़ी. सादी जीवनशैली और गांधीवादी मूल्यों में आस्था रखने वाले नौजवान के तौर पर इंदिरा को पसंद थे.कभी-कभी राहुल और प्रियंका को जादू का खेल भी दिखा दिया करते. इस नजदीकी का फायदा मिला. सितंबर 1982 में मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ. इंदिरा मंत्रिमंडल में ले लिए गए. नागरिक उड्डयन मंत्रालय का उप-मंत्री बनाया गया. उम्र थी महज 31 साल.
अब तक अशोक गहलोत का सियासी ग्राफ सीधी रेखा में ऊपर चढ़ा था. बीच में कोई झटका नहीं. आलाकमान की नजर में अच्छे कार्यकर्ता थे. अभी एक सियासतदां के तौर पर अशोक गहलोत का उभरना बाकी था. अभी उन्हें दिल्ली से राजस्थान लौटना था. वो मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी का तख्तापलट करने जा रहे थे. अभी उन्हें एक तख्तापलट का शिकार होना था. एक और चुनावी हार भी अभी उनके खाते में लिखी जानी थी. और राजस्थान की सियासत के जादूगर का तमगा भी अभी उनके नाम के आगे चस्पा होना था. लेकिन यह सब मुख्यमंत्री के अगले एपिसोड में.