मेडिकल परीक्षाओं का स्तर सुधारने के लिए लाए गए NEET पर पक्षपात के आरोप क्यों लग रहे हैं?
क्या अंग्रेजी मीडियम वालों को फायदा मिल रहा है?
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पटना में NEET परीक्षा के दौरान छात्र. (फोटो- PTI)
एक वक्त था, जब डॉक्टर बनने की चाह रखने वाले बच्चे 12 वीं की परीक्षा देते इस बात का भी हिसाब लगाते रहते थे कि एंट्रेंस कहां-कहां की देनी है. हर राज्य अपने यहां, अपने तरीके से प्री मेडिकल टेस्ट माने PMT की परीक्षा कराता था. इन सबके अलावा सीपीएमटी की परीक्षा अलग से होती थी जो केंद्र कराता था. बच्चे फॉर्म, एडमिट कार्ड और सेंटर के चक्कर में पिसते रहते थे. अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पैटर्न की परीक्षाओं को लेकर नर्वस रहते थे. इन सबके समाधान की तरह पेश किया गया National Eligibility cum Entrance Test (NEET). लेकिन जिस परीक्षा को रामबाण बताया गया, उसे लेकर हर कोई खुश नहीं था. लेकिन तब कहा गया कि किसी भी सुधार को लागू करते हुए कुछ दिक्कतें आती हैं, जो समय के साथ दूर हो जाएंगी. लेकिन अब इस मामले को लेकर तमिलनाडु में राजनीति गर्म हो रही है. सूबे की विधानसभा में तमिलनाडु को नीट से बाहर करने के लिए बिल भी ले आई है. सरकार एक शोध का हवाला देकर नीट को सामाजिक न्याय के खिलाफ बता रही है. तो आज हम यही समझने की कोशिश करेंगे कि क्या नीट में वाकई पक्षपात हो रहा है? क्या अंग्रेज़ी पढ़ने वालों को स्टेट बोर्ड और क्षेत्रीय भाषा वालों पर तरज़ीह मिल रही है?
क्यों आया था NEET?
देश में मेडिकल परीक्षाओं में एकरूपता लाने के लिए NEET शुरू किया गया था. तर्क दिए गए कि इससे डॉक्टरी की पढ़ाई का स्तर सुधरेगा. NEET वाली चर्चा मनमोहन सिंह की सरकार में शुरू हुई थी. 2012-13 के आसपास. MCI यानी मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया ये आइडिया लाया कि पूरे देश में मेडिकल में दाखिले की एक ही परीक्षा होनी चाहिए. हालांकि इसका विरोध शुरू हुआ. सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर हुई. और फिर NEET परीक्षा को रोक दिया गया. लेकिन मोदी सरकार आने के बाद 2016 में NEET की चर्चा फिर शुरू हो गई. विरोध फिर हुआ. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी कह दिया कि देयर कूड भी नो कोम्प्रोमाइज़ विद इंटेलेक्ट. यानी योग्यता के साथ कोई समझौता नहीं किया जाएगा. और इस तरह से 2017 से देश में मेडिकल कॉलेजों में दाखिले के लिए NEET की परीक्षाएं कराई जाती हैं. जब NEET की परीक्षा होती है या इसके परिणाम आते हैं छात्रों की खुदकुशी वाली खबरें आने लगती हैं. ज्यादा खबरें आती हैं तमिलनाडु से. इस बार भी आ रही हैं. अभी तक तीन स्टूडेंट्स के अपनी जान लेने की खबरें आईं हैं. आज जब हम ये खबर तैयार कर रहे थे तब भी एक खबर आई तमिलनाडु के चेंगालपट्टु से. वहां 17 साल की छात्रा ने खुद को आग लगा ली. वजह ये बताई गई कि NEET में अच्छा परफॉर्म नहीं करने की वजह से परेशान थीं. सुसाइड के मामले रोकने के लिए तमिलनाडु की सरकार ने हेल्पलाइन जारी की है. और मनोचिकित्सकों की टीम तैयार की है.
NEET का विरोध
तो खुदकुशी वाले इन मामलों के बाद तमिलनाडु में फिर से NEET का विरोध शुरू हो गया है. सूबे के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने कहा है कि NEET उन बच्चों के सपने तबाह करने का ज़रिया है जो डॉक्टर बनना चाहते हैं. NEET पर यहां पक्ष और विपक्ष वाली राजनीति भी चल रही है. स्टालिन ने कहा है कि जब तक DMK सत्ता में थी, हमने कभी NEET को तमिलनाडु में लागू नहीं होने दिया था. लेकिन कुछ लोगों ने अपनी निजी फायदे के लिए NEET को राज्य में आने दिया." जाहिर है उनका निशाना AIADMK पर था. तमिलनाडु में NEET चुनावी मुद्दा भी रहा है. सत्ता में आने से पहले डीएमके ने NEET खत्म करने का वादा किया था. तो इसलिए तमिलनाडु सरकार के NEET विरोध में राजनीति देखी जा रही है. इस राजनीति से इतर पहले हम तमिलनाडु सरकार की बनाई कमेटी की रिपोर्ट पर बात करते हैं. मुख्यमंत्री बनने के बाद एमके स्टालिन ने NEET के असर पर अध्ययन के लिए कमेटी बनाई थी. कमेटी के अध्यक्ष थे मद्रास हाईकोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस ए के रंजन. और इसमें शिक्षाविद्द और ब्यूरोक्रेट्स भी शामिल थे. तमिलनाडु में 2017 से NEET लागू हुआ था. इसलिए कमेटी ने 2017 से पहले और बाद में क्या फर्क आया, इसकी स्टडी की है. और रिपोर्ट में जो लिखा है, वो ध्यान से समझा जाना चाहिए.
NEET के असर पर अध्ययन
कमेटी ने माना है कि NEET से तमिल मीडियम की स्कूलों और गरीब बच्चों का नुकसान हो रहा है. फायदा शहरी बच्चों का हो रहा है. इंडियन एक्सप्रेस में रितिका चोपड़ा की इस डिटेल्ड रिपोर्ट है. रपट के मुताबिक तमिलनाडु सरकार की कमेटी ने लिखा है कि NEET से पहले ग्रामीण अंचल के 61 फीसदी बच्चे मेडिकल में दाखिला लेते थे. NEET आने के बाद ये घटकर 51 फीसदी रह गया है. यानी पहले के मुकाबले अब गांवों से कम स्टूडेंट डॉक्टर बन पाते हैं. फर्क इसका भी पड़ता है कि बच्चों ने पढ़ाई कौन से बोर्ड से की है. अंग्रेज़ी मीडियम या सीबीएसई की स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को NEET आने के बाद फायदा हो रहा है. NEET लागू होने से पहले तमिलनाडु में मेडिकल में दाखिला लेने वाले छात्रों में सीबीएसई बोर्ड वालों की तादाद 1 फीसदी से भी कम होती थी. अब इनकी हिस्सेदारी बढ़कर करीब 39 फीसदी हो गई. स्टेट बोर्ड का औसत घट गया है. पहले 98 फीसदी की हिस्सेदारी थी, अब 59 फीसदी रह गई है. तमिल मीडियम वालों को नुकसान हो रहा है तो फायदा अंग्रेज़ी मीडियम वाले उठा रहे हैं. अंग्रेज़ी मीडियम वाले पहले 85 फीसदी थे. अब तमिलनाडु में NEET पास करने वाले 98 फीसदी बच्चे अंग्रेज़ी मीडियम से होते हैं. तमिल मीडियम स्कूल के बच्चों की हिस्सेदारी पहले 15 फीसदी होती थी. अब ये घटकर 2 फीसदी रह गई है.
गरीब छात्रों पर असर
कमेटी ने इस बात का भी अध्ययन किया कि गरीब छात्रों पर NEET का क्या असर रहा है. और ये पाया कि ढाई लाख तक आमदनी वाले परिवारों के पहले 47 फीसदी बच्चे मेडिकल परीक्षा पास करते थे. अब ये आंकड़ा घटकर 41 फीसद रह गया है. तमिलनाडु वाली कमेटी ने एक बात और मानी है. कि NEET पास कर पाने वाले 99 फीसदी बच्चों को कोचिंग लेनी पड़ती है. यानी बिना कोचिंग के सिर्फ 1 फीसदी स्टूडेंट्स ही पास हो पाते हैं. जाहिर है ये आंकड़ें तमिलनाडु के लिए हैं. पूरे देश में NEET का क्या असर हुआ है, इसके लिए हमारे पास किसी कमेटी की रिपोर्ट नहीं है. लेकिन अगर एक राज्य से इस तरह के आंकड़े मिलते हैं तो अध्ययन पूरे देश में होना चाहिए. NEET से पहले तमिलनाडु में बोर्ड परीक्षा के अंकों के आधार पर ही मेडिकल कॉलेज में दाखिल होता था. 2017 में जब नीट अनिवार्य कर दिया गया था, तब भी अध्यादेश लाकर सरकार ने तमिलनाडु को नीट से बाहर रखने की कोशिश की थी. अब तमिलनाडु सरकार फिर से एक बिल लेकर आई है. सोमवार को तमिलनाडु विधानसभा में बिल पेश किया गया. बिल में सरकार ने NEET के विरोध की वजह बताई. इसमें लिखा है कि NEET से MBBS या मेडिकल के उच्च अध्ययन में विभिन्न सामाजिक वर्गों के प्रतिनिधित्व को कमतर आंका गया है. सिर्फ समाज के कुछ वर्गों को ही फायदा मिल रहा है. इस बिल को राष्ट्रपति की मंजूरी लेनी होगी क्योंकि ये संसद के बनाए किसी कानून के विरुद्ध जाता है. यानी ज्यादा कुछ अभी होना नहीं है. लेकिन अगर एक राज्य से NEET को लेकर इस तरह की चिंताएं उठती हैं तो उन पर गंभीरता से केंद्र की सरकार को विचार करना चाहिए.
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