10 लाख नौकरियां. साढे़ चार लाख करोड़ रुपये का निवेश. ये सब चीन में आयोजित एक समिट में हुआ है. नाम, द फ़़ोरम ऑन चाइना-अफ़़्रीका कॉपरेशन (FOCAC)या फ़़ोकैक. इसकी शुरुआत साल 2000 में हुई. उसके बाद हर तीन बरस पर इसकी बैठक होने लगी. 2024 में फ़़ोकैक का नौवां संस्करण हुआ है. इसमें अफ़़्रीका के 54 में से 53 देशों ने हिस्सा लिया. एस्वातिनी को नहीं बुलाया गया. क्योंकि वो ताइवान को मान्यता देता है. ये वन चाइना पॉलिसी के ख़िलाफ़़ है. आइए समझते हैं.
China इन देशों में साढ़े 4 लाख करोड़ क्यों खर्च कर रहा है? FOCAC Summit की पूरी कहानी!
2024 की अफ़्रीका समिट में चीन ने अफ़्रीकी देशों में लगभग साढ़े चार लाख करोड़ रुपये का निवेश करने का वादा किया है. चीन, अफ्रीका में इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहा है?
- FOCAC की पूरी कहानी.
- इस बार की समिट में क्या खास हुआ?
- और, इससे भारत को क्यों चिंता करनी चाहिए?
माना जाता है कि मानव सभ्यता की शुरुआत अफ़्रीका से हुई. होमोसेपियंस वहां आज से लगभग साढ़े 3 लाख साल पहले से रह रहे हैं. वहीं से निकल कर वे दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में गए. धीरे-धीरे इंसानों ने तरक्की की. मानचित्र ईजाद किया. इसी मानचित्र में इंसानों ने महाद्वीपों को बांटा और उनका नामकरण किया.
अफ़्रीका आकार के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा महाद्वीप है. मगर ये सिर्फ़ आकार में बड़ा नहीं था, बल्कि बेशकीमती संसाधनों की भी प्रचुरता रही. इसलिए, लंबे अरसे तक इस महाद्वीप ने गुलामी का दंश सहा. यूरोप के औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी देशों ने दशकों तक राज चलाया. स्थानीय लोगों को ग़ुलाम बनाया गया. सभ्य बनाने के नाम पर उनका दोहन हुआ. संसाधनों की भारी लूट हुई.
फिर समय बदला. दुनिया बदली. अफ़्रीका महाद्वीप के देश एक-एक कर आज़ाद होने लगे. उन्होंने अपनी किस्मत की डोर अपने हाथों में ले ली.
अफ्रीका और चीन के रिश्ते
ये 2024 का साल है. चाल-चरित्र बदला-बदला दिख रहा है. अफ़्रीका पश्चिमी देशों से दूर हो रहा है. पिछले कुछ बरसों में वहां के देश रूस और चीन के करीब आए हैं. चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. उसकी नज़र महाशक्ति वाली कुर्सी पर है. जिसपर कोल्ड वॉर के बाद से अमेरिका का एकछत्र अधिकार रहा है. अब चीन उस एकाधिकार को चुनौती दे रहा है. और, इसमें अफ़्रीका की भूमिका काफ़ी अहम होने वाली है.
यूं तो चीन-अफ़्रीका संबंधों की मज़बूती 1950 के दशक में ही दिखने लगी थी. जब उसने अफ़्रीकी देशों में चल रहे आज़ादी के आंदोलन का समर्थन किया. 1970 के दशक में ताइवान की जगह चीन को यूनाइटेड नेशंस में शामिल कर लिया गया. UN सिक्योरिटी काउंसिल में वीटो का अधिकार मिला. इसमें अधिकतर अफ़्रीकी देशों ने चीन का सपोर्ट किया था.
उसी दशक में चीन ने अफ़्रीका में इंफ़्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स में पैसा लगाना शुरू किया. 1976 में तंज़ानिया-ज़ाम्बिया के बीच रेल नेटवर्क अफ़्रीका में चीन का पहला प्रोजेक्ट था. 1990 के दशक में चीन ने निवेश बढ़ाना शुरू किया. 2000 में उसने फ़ोरम ऑन चाइना-अफ़्रीका कॉपरेशन (FOCAC) बनाया.
आइडिया ये था कि इससे चीन और अफ़्रीका के संबंध मज़बूत होंगे. मगर समय के साथ इसका स्वरूप बदला. चीन, इस मंच के ज़रिए अफ़्रीकी देशों को बड़े-बड़े कर्ज़े देने लगा. कभी निवेश तो कभी आर्थिक मदद के नाम पर. 2000 से 2018 के बीच उसने अफ़्रीकी देशों में लगभग 14 लाख करोड़ रुपये का निवेश किया. 2009 से वो अफ़्रीका का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर बना हुआ. इंटरनैशनल मॉनेटरी फ़ंड (IMF) की रिपोर्ट के मुताबिक़, अकेले 2023 में दोनों पक्षों के बीच लगभग 24 लाख करोड़ रुपये का व्यापार हुआ. अफ़्रीका ज़्यादातर कच्चा माल सप्लाई करता है. जबकि उसको चीन से फ़िनिश्ड प्रोडक्ट्स हासिल होते हैं. ये चीन के लिए दोहरे फ़ायदे वाली बात है.
चीन को क्या फ़ायदे मिलते हैं?
अफ़्रीका दुनिया की ज़रूरत का 90 फीसदी कोबाल्ट और प्लेटिनम सप्लाई करता है. 75 फीसदी कोल्टन भी अफ़्रीका से मिलता है. ये धातु इलेक्ट्रॉनिक प्रोडक्ट्स का अभिन्न हिस्सा हैं. इस सप्लाई चेन में चीन सबसे बड़ा प्लेयर है. माइनिंग सेक्टर में भी उसका प्रभुत्व है. उसने अफ़्रीका में बहुत सारी रिफ़ाइनरीज़ स्थापित की हैं.
यहां लिथियम का भी बड़ा भंडार है. इसका इस्तेमाल बैटरी बनाने में होता है. चीन, इलेक्ट्रिक कार की रेस में आगे निकलना चाहता है. इसके लिए उसको लिथियम की ज़रूरत है.
अफ़्रीका महाद्वीप में कुल जमा 54 देश हैं. अधिकांश देश वन चाइना पॉलिसी का समर्थन करते हैं. वे संगठित तौर पर सबसे बड़ा पावर ब्लॉक हैं. UN और दूसरे अंतरराष्ट्रीय संगठनों में उनका समर्थन चीन को फ़ायदा मिल सकता है.
चीन के व्यापारिक हितों के लिए भी अफ़्रीका फायदेमंद है. वो चीन के लिए बड़ा बाज़ार बनकर उभरा है. यूरोप और अमेरिका चीनी प्रोडक्ट्स पर टैरिफ़ बढ़ा रहे हैं. ऐसे में अफ़्रीका उसके लिए विकल्प मुहैया करा सकता है. 2030 में दुनिया की कुल नौजवान आबादी का 42 फीसदी हिस्सा अफ़्रीका में होगा. आने वाले समय में ये भी चीन के लिए मददगार साबित होगा.
चीन और अफ़्रीका के रिश्तों का इतिहास
जैसा कि हमने पहले भी बताया, अफ़्रीका और चीन के बीच डिप्लोमेटिक संबंधों की शुरुआत 1950 के दशक में हो चुकी थी. 1955 में इंडोनेशिया में बांडुंग सम्मेलन आयोजित किया गया. मकसद था, एशियाई और अफ़्रीकी देशों के रिश्ते मज़बूत करना. इसमें नए-नए आज़ाद हुए देशों ने हिस्सा लिया. इस सम्मेलन में इंडोनेशिया के तत्कालीन राष्ट्रपति सुकर्णो और भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने अहम भूमिका निभाई. चीन के सर्वेसर्वा माओ ज़ेदोंग ने इसका इस्तेमाल अफ़्रीकी देशों से दोस्ती मज़बूत करने के लिए किया.
1960 के दशक में अफ़्रीका के कई देशों में आज़ादी की तहरीक चली. चीन ने इनकी आज़ादी का समर्थन किया. जो नए देश वजूद में आए, चीन ने उनकी मदद भी की. इसका सबसे बड़ा उदाहरण तजारा रेललाइन थी. लगभग 2 हज़ार किलोमीटर लंबी. ये ज़ाम्बिया और तंज़ानिया को जोड़ती है. पैसे के अलावा चीन ने 50 हज़ार से ज़्यादा मज़दूर और इंजीनियर भेजे थे. 1963 से 1965 के बीच चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री जो एनलाई ने 10 अफ़्रीकी देशों का दौरा किया.
1980 और 90 के दशक में अफ़्रीका के साथ चीन के रिश्ते मज़बूत हुए. 1989 से 2002 के बीच अफ़्रीका और चीन के बीच व्यापार 8 हज़ार करोड़ रुपये से बढ़कर 80 हज़ार करोड़ रुपये तक पहुंच गया था. 1993 में चीन ने अफ़्रीका से पेट्रोलियम आयात करना शुरू किया. 2000 के साल में चीन ने अपनी गो आउट पॉलिसी के तहत चीन में निवेश करना शुरू किया. इसी साल चीन ने फ़ोरम ऑन चाइना-अफ़्रीका कोऑपरेशन (FOCAC) की स्थापना की. इसका पहला सम्मलेन चीन की राजधानी बीजिंग में हुआ.
2009 में अफ़्रीका, चीन का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बन गया. 2013 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने वन बेल्ट वन रोड (OBOR) की शुरुआत की. क्या था इसका मकसद? लगभग 2000 साल पहले सिल्क रोड चीन को मध्य एशिया से होते हुए यूरोप को जोड़ता था. अलग-अलग संस्कृतियों के लोग एक-दूसरे से मिलते थे. चीन उसी तरह का एक रूट आज ज़िंदा करना चाहता है, जिस पर चल कर उसका व्यापार और प्रभाव दोनों दुनियाभर में पहुंच सके. इसे चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का ड्रीम प्रोजेक्ट माना जाता है. अफ़्रीकी देशों ने बढ़-चढ़कर OBOR की सदस्यता ली.
2019 में चीन के वुहान से कोरोना महामारी पूरी दुनिया में फैली. अफ़्रीका भी इससे अछूता नहीं रहा. उस दौर में चीन ने मेडिकल केयर और वैक्सीन से मदद की. 2021 में FOCAC समिट ऑनलाइन रखी गई थी. कोविड की बाध्यताओं के चलते. फिर 2022 में दुनिया तेज़ी से बदली. फ़रवरी में रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ. इसने दुनिया को दो धड़ों में बांट दिया.अक्टूबर 2023 से चल रही इज़रायल-गाज़ा जंग ने इस खाई को और बड़ा किया. इसी उथल-पुथल के बीच फ़ौकेक की नौवीं समिट हो रही है.
2024 की अफ़्रीका समिट में चीन ने लगभग साढ़े चार लाख करोड़ रुपये का निवेश करने का वादा किया है. वो इससे पहले भी कई लाख करोड़ रुपये लोन और मदद के नाम पर दे चुका है. कई अफ़्रीकी देश उसी कर्ज़ की वजह से डिफ़ॉल्ट भी कर गए. यानी, चीन को पैसा वापस लेने के लिए दूसरी विधियां अपनानी पड़ेंगी.
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