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भारत को ज्ञान देने वाले जस्टिन ट्रूडो ने कनाडा में इमरजेंसी क्यों लगा दी?

किसान आन्दोलन पर मोदी को ज्ञान देने वाले ट्रूडो ने इमरजेंसी क्यों लगाई?

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किसान आन्दोलन पर मोदी को ज्ञान देने वाले ट्रूडो ने इमरजेंसी क्यों लगाई? (फोटो-AFP)
आज से 34 बरस पहले, यानी 1988 में, कनाडा ने एक कानून बनाया था. इमरजेंसीज़ ऐक्ट. मज़मून ये कि अगर देश या देश के लोगों पर भारी विपत्ति आएगी, तब इसे लागू किया जाएगा. तीन दशक लंबा समय होता है. इस दौरान जाने कितनी मुसीबतें आईं और चली गईं होंगी, मगर कनाडा ने इमरजेंसीज़ ऐक्ट लागू नहीं किया. इस धैर्य का बांध अब टूट चुका है. कनाडा ने अपने इतिहास में पहली बार इमरजेंसीज़ ऐक्ट लगा दिया है. अपने लोगों को अपने ही लोगों से बचाने के लिए. इस आपदा का नाम है, फ़्रीडम कॉन्वॉय. या, फ़्रीडम रैली. ये रैली अमेरिका आने-जाने वाले ट्रक ड्राइवर्स के लिए वैक्सीन मेनडेट लागू होने के बाद शुरू हुई थी. शुरुआत में प्रोटेस्ट मामूली दिख रहा था, लेकिन धीरे-धीरे इसका दायरा बढ़ता गया. प्रोटेस्टर्स की संख्या भी और उनकी मांगें भी. कनाडा को राष्ट्रीय आपातकाल लगाने की ज़रूरत क्यों पड़ी? इस ऐक्ट से क्या कुछ बदल जाएगा? और, क्या ये ऐक्ट लगाकर सरकार प्रोटेस्ट को खत्म करा पाएगी? कनाडा के बाद बात होगी जापान की. सुनाएंगे, एक संगठन की कहानी, जिसके नाम में बड़ा विरोधाभास छिपा है. काम, आतंक फैलाना और नाम में आर्मी. 70 और 80 के दशक में जापानी रेड आर्मी ने दुनियाभर में कई भयानक आतंकी हमले किए. जानेंगे, जापान की पुलिस इन हमलों के आरोपियों को अब क्यों तलाश रही है? शुरुआत कनाडा से. कनाडा में प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने नेशनल इमरजेंसी लगा दी है. ये अगले 30 दिनों तक लागू रहेगी. इस सख़्ती को समझने के लिए पहले बैकग्राउंड जान लेते हैं. 15 जनवरी 2022 को कनाडा सरकार एक नियम लेकर आई. कहा गया कि कनाडा में घुसने वाले ट्रक ड्राइवर्स को कोरोना वैक्सीनेशन का प्रूफ़ देना होगा. अगर नहीं दे पाए तो 14 दिनों तक क़्वारंटीन में रहना पड़ेगा. एक हफ़्ते बाद अमेरिका ने सेम नियम लागू कर दिया. कनाडा में 90 फ़ीसदी से अधिक ट्रक ड्राइवर्स कोरोना वैक्सीन की तय डोज़ ले चुके हैं. सरकार इस आंकड़े को सौ फीसदी तक ले जाना चाहती है. इसी वजह से वैक्सीन की अनिवार्यता का नियम लाया गया था. इस नियम का भारी विरोध हुआ. ट्रक ड्राइवर्स के एक धड़े ने इसको मानने से मना कर दिया. उनका तर्क ये था कि वे अधिकतर समय ट्रक के अंदर रहते हैं. बाहरी दुनिया से उनका संपर्क नहीं के बराबर होता है. कोविड प्रोटोकॉल्स की चलते पहले ही बहुत नुकसान हो चुका है. अब सरकार की मनमानी नहीं चल सकती. उनका दूसरा तर्क व्यक्तिगत चयन की आज़ादी से जुड़ा था. माय बॉडी, माय चॉइस. कोरोना वैक्सीन की अनिवार्यता को यूरोप के कई हिस्सों में व्यक्तिगत आज़ादी पर हमले के तौर पर देखा जा रहा है. कई देशों में दंगे भी हुए हैं. कनाडा में ट्रक ड्राइवर्स ने इस नियम के ख़िलाफ़ रैली निकाली. उनका काफ़िला राजधानी ओटावा की तरफ़ चला.  28 जनवरी को ये काफ़िला राजधानी के अंदर पहुंच गया. उन्होंने ऐतिहासिक इमारतों के बाहर डेरा डाल दिया. धीरे-धीरे इस रैली में दूसरे कट्टर लोग भी शामिल हो गए. उन्होंने फ़ंडिंग शुरू कर दी. प्रधानमंत्री ट्रूडो को गद्दार बताने लगे. उनसे इस्तीफ़े की मांग की. कनाडा में लागू हर किस्म के कोविड प्रोटोकॉल्स को हटाने की बात करने लगे. फिलहाल, इस प्रोटेस्ट का तीसरा हफ़्ता चल रहा है. प्रदर्शनकारी पूरी तैयारी के साथ आए हैं. उन्हें कनाडा की विपक्षी पार्टियों के साथ-साथ डोनाल्ड ट्रंप और इलॉन मस्क जैसे मशहूर लोगों का समर्थन भी मिला है. प्रोटेस्टर्स ने विरोध के कई तरीके आजमाए. मसलन, सैकड़ों ट्रक ड्राइवर्स एक साथ हॉर्न बजाकर विरोध जता रहे थे. इससे ओटावा के लोग परेशान थे. बाद में कोर्ट ने इस पर रोक लगाई. इसके अलावा, उन्होंने कई अहम रास्तों को भी ब्लॉक कर दिया. इससे राजधानी की सप्लाई लाइन बाधित हुई. अमेरिका और कनाडा के बीच व्यापार पर भी इसका ख़ासा असर पड़ा है. प्रदर्शनकारी मांगें मानी जाने तक वापस लौटने के लिए तैयार नहीं हैं. सरकार अपील करके हार मान चुकी है. ओटावा के मेयर ने इमरजेंसी लगाकर भी देख ली, लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ. प्रोटेस्ट अब ओटावा से निकलकर कनाडा के अलग-अलग हिस्सों में फैल चुका है. आख़िरकार, कोई चारा ना देखकर 14 फ़रवरी को प्रधानमंत्री ट्रूडो ने नेशनल इमरजेंसी लगाने का ऐलान कर दिया. कनाडा के इमरजेंसीज़ ऐक्ट में चार तरह के आपातकाल का ज़िक्र है. पहला, पब्लिक वेलफ़ेयर इमरजेंसी. दूसरा, पब्लिक ऑर्डर इमरजेंसी. तीसरा, इंटरनैशनल इमरजेंसी, और, चौथा, वॉर इमरजेंसी. इस दफ़ा पब्लिक ऑर्डर इमरजेंसी लागू की गई है. इसे तब लागू किया जाता है, जब कनाडा की सुरक्षा पर ख़तरा आन पड़े. इसमें सरकार को क्या-क्या करने के अधिकार मिलते हैं? - स्थानीय नियमों और कानूनों का पालन कराने का अधिकार रॉयल पुलिस को मिल गया है. - अगर लोगों के इकट्ठा होने से शांति भंग होती है तो ऐसी सभाओं में भाग लेने पर रोक रहेगी. - सरकार ऐसी इमारतों और इंफ़्रास्ट्रक्चर को विशेष सुरक्षा देगी, जो अर्थव्यवस्था के लिए अहम हैं. - सरकारी एजेंसियां सड़कों को ब्लॉक करने वाली गाड़ियों को खींचकर हटा सकेंगी. प्रोटेस्ट में शामिल गाड़ियों का इंश्योरेंस रद्द किया जा सकेगा. - इन सबके अलावा, वित्तीय संस्थाओं को प्रोटेस्ट से जुड़े लोगों के बैंक अकाउंट बंद करने का अधिकार मिल गया है. इसके लिए कोर्ट के आदेश की ज़रूरत नहीं होगी. जो कोई इन नियमों का उल्लंघन करेंगे, उनके ऊपर चार लाख रुपये तक का ज़ुर्माना लग सकता है या पांच साल तक के लिए जेल भेजा जा सकता है. जस्टिन ट्रूडो ने कहा कि फिलहाल मिलिटरी उतारने का कोई प्लान नहीं है. उन्होंने ये भी कहा कि इमरजेंसी वाले नियम पूरे कनाडा में लागू हैं, लेकिन इन पर अमल प्रोटेस्ट वाले इलाकों में ही होगा. यानी, सबसे ज़्यादा असर ओटावा में देखने को मिलेगा. क्योंकि यही प्रोटेस्ट का केंद्र बन चुका है. क्या ट्रूडो का प्लान कामयाब होगा? सरकार के ऐलान के साथ ही कनाडा में नेशनल इमरजेंसी लागू हो चुकी है. लेकिन इसे वैधानिक बनाने के लिए सात दिनों के अंदर संसद से पास कराना ज़रूरी है. कुछ पार्टियों ने चिंता जताई है कि इमरजेंसी के फ़ैसले से स्थिति और बिगड़ सकती है. ऐसे में प्रस्ताव पास कराने में ट्रूडो को थोड़ी मुश्किल आ सकती है. अगर प्रस्ताव पास हो जाता है तो इमरजेंसी 30 दिनों तक लागू रहेगी. अगर सरकार उससे पहले इसे आगे नहीं बढ़ाती है या निरस्त नहीं करती है तो ये एक महीने बाद अपनेआप ख़त्म हो जाएगी. मतलब ये कि इसे लंबे समय तक खींचा नहीं जा सकता. सरकार के पास माहौल को संभालने के लिए बहुत कम समय है. कनाडा की फ़्रीडम रैली राजधानी से निकलकर देशव्यापी हो चुकी है. कई स्थानों पर पुलिस ने हथियार भी बरामद किए हैं. जानकारों का कहना है कि अगर इस समय सुनियोजित ढंग से आगे बढ़ने की ज़रूरत है. अगर इसे बातचीत के ज़रिए सुलझा लिया जाए तो ज़्यादा बेहतर होगा. वरना हालात गृहयुद्ध में बदल सकते हैं. प्रधानमंत्री ट्रूडो की एक और बात पर आलोचना हो रही है. ट्रूडो ने भारत में चल रहे किसान आंदोलन का समर्थन किया था. उन्होंने कहा था कि कनाडा हर तरह के शांतिपूर्ण प्रोटेस्ट को प्रश्रय देता रहेगा. लेकिन जब उनके यहां प्रोटेस्ट हुए तो वे ठंड नहीं रख पाए. आपने कनाडा के इमरजेंसीज़ ऐक्ट की कहानी सुनी. अब इसका इतिहास भी जान लेते हैं. संक्षेप में. कनाडा में 1988 से पहले वॉर मीज़र्स ऐक्ट हुआ करता था. पहले इसी ऐक्ट के तहत आपातकाल लगाए जाते थे. वॉर मीज़र्स ऐक्ट 1914 में अस्तित्व में आया था. इसके तहत, पहली बार, फ़र्स्ट वर्ल्ड वॉर, दूसरी बार सेकेंड वर्ल्ड वॉर तीसरी बार 1970 के अक्टूबर क्राइसिस के दौरान इमरजेंसी लगाई गई थी. आप सोच रहे होंगे, वर्ल्ड वॉर के दौरान इमरजेंसी की बात तो समझ में आती है, मगर शांतिकाल में क्यों? दरअसल, 1960 के दौर में कनाडा के क्यूबेक प्रांत में आज़ादी की मांग उठी. उसी दौरान फ़्रंट डे लिबरेशन डु क्यूबेक (FLQ) नाम का एक संगठन चर्चा में आया. FLQ हर तिकड़म भिड़ाकर मांग मनवाना चाहती थी. उसने कनाडा में कई जगह हिंसक हमले भी किए. केंद्र सरकार ने FLQ को चरमपंथी संगठन घोषित कर दिया. अक्टूबर 1970 में FLQ ने ब्रिटिश डिप्लोमैट जेम्स क्रॉस और क्यूबेक के लेबर मिनिस्टर पियरे लापोर्ते का अपहरण कर लिया. FLQ को क्यूबेक में अच्छा-खासा समर्थन मिला हुआ था. कनाडा की सरकार को डर हुआ कि ये आगे चलकर बड़ा ख़तरा बन सकता है. फिर उन्होंने नेशनल इमरजेंसी लगाई थी. जेम्स क्रॉस को दो महीने के बाद रिहा कर दिया गया, लेकिन लापोर्ते की हत्या कर दी गई थी. एक दिलचस्प बात पता है? उस समय कनाडा के प्रधानमंत्री थे, जस्टिन ट्रूडो के पापा पियरे ट्रूडो. अभी इतना जान लीजिए कि 1970 में लगी इमरजेंसी के दौरान लगभग पांच सौ लोगों को गिरफ़्तार किया गया. उनमें से कईयों पर कभी कोई चार्ज़ नहीं लगाया गया. इसको लेकर वॉर मीज़र्स ऐक्ट की भारी आलोचना हुई. कहा गया कि ये लोगों की स्वतंत्रता के साथ खिलवाड़ है. फिर 80 के दशक में इसे हटाने की मांग चली. 1988 में संसद ने इमरजेंसीज़ ऐक्ट पास कर दिया. इसके बाद वॉर मीज़र्स ऐक्ट ख़ुद-ब-ख़ुद निरस्त हो गया. कनाडा पर हमारी नज़र बनी रहेगी. फिलहाल इस चैप्टर को यहीं पर विराम देते हैं. अब चलते हैं जापान की तरफ़. दूसरा वर्ल्ड वॉर ख़त्म होने के बाद जापान की नियति अमेरिका तय कर रहा था. अमेरिका विजेता देश था. उसने जापानी नागरिकों के अधिकारों में कटौती की. साथ ही, अमेरिका जापान का इस्तेमाल दूसरे युद्धों के लिए भी कर रहा था. इससे लोग नाराज़ हुए. 1960 के दशक में इस ज्यादती के ख़िलाफ़ ख़ूब सारे प्रोटेस्ट हुए. इन प्रदर्शनों में यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स की बड़ी भूमिका थी. शुरुआत में उन्हें आम जनता का सपोर्ट मिला. मगर जब पुलिस ने विरोध को कुचलना शुरू किया तो प्रदर्शनकारी अंडरग्राउंड होने लगे. इन्हीं प्रोटेस्ट्स से निकले कुछ लोगों ने फ़रवरी 1971 में जेपनीज़ रेड आर्मी (JRA) की नींव रखी. JRA को द हॉली वॉर ब्रिगेड, द एंटी-वॉर डेमोक्रेटिक फ़्रंट और एंटी-इम्पीरियलिस्ट इंटरनैशनल ब्रिगेड के नाम से भी जाना जाता है. JRA का मकसद था, जापान की सरकार और राजतंत्र का तख़्तापलट करना और पूरी दुनिया में क्रांति लाना. इस संगठन के तार फ़िलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन (PLO) से भी जुड़े थे. शुरुआती दौर में JRA का फ़ोकस तीन बिंदुओं पर था. हथियार इकट्ठा करना, पैसा जुटाना और ख़ास लोगों को किडनैप करना. हथियारों से वे जापान और अमेरिका के अहम ठिकानों पर हमला करने वाले थे. पैसा जुटाने के लिए बैंकों में डाका डालने की प्लानिंग थी. और, उनका सबसे बड़ा मकसद जापान के प्रधानमंत्री को किडनैप करना था. इसके बदले में वे अपने लोगों को रिहा कराने के बारे में सोच रहे थे. JRA ने 1970 और 80 के दशक में कई कुख्यात कामयाबियां हासिल कीं. मसलन, 1972 में इज़रायल में तेल अवीव एयरपोर्ट के बाहर मशीनगन से हमला. इस हमले में सौ से अधिक लोग मारे गए थे. 1972 में जापान में असामा-सांजो लॉज में लोगों को बंधक बनाना. ये संकट दस दिनों तक चला. पुलिस को इसे खाली कराने में ख़ूब मशक्कत करनी पड़ी थी. इस घटना में दो पुलिसवाले मारे गए थे. 1974 में नीदरलैंड्स में फ़्रेंच दूतावास पर क़ब्ज़ा. 1975 में मलेशिया में अमेरिकी दूतावास पर क़ब्ज़ा. इसके अलावे भी JRA का नाम कई और आतंकी घटनाओं में आया. इसमें प्लेन हाईजैकिंग से लेकर बम विस्फ़ोट जैसी भीषण घटनाएं शामिल थीं. 1990 के दशक में जापान सरकार ने JRA पर शिकंजा कसना शुरू किया. JRA में शामिल लोग पकड़े जाने लगे. फ़ंडिंग कम पड़ने लगे. ग्रुप की फ़ाउंडर फ़ुसाको शिगेनोबु छिपकर रहने लगी. साल 2000 में उसे ओसाका से गिरफ़्तार कर लिया गया. अगले बरस उसने JRA को भंग करने का ऐलान कर दिया. 2006 में टोक्यो की एक अदालत ने फ़ुसाको को 20 साल की क़ैद की सज़ा सुनाई. फ़ुसाको शिगेनोबु की रिहाई में चार साल बचे हैं. जापान को आशंका है कि JRA जैसा संगठन फिर से खड़ा हो सकता है. इसलिए, टोक्यो पुलिस ने उसके सात ज़िंदा मेंबर्स को पकड़ने की कोशिश तेज़ कर दी है. JRA के कई सदस्य अभी भी जापान में रह रहे हैं. इनमें से कई संगीन अपराधों में वांछित हैं. कई तो ऐसे हैं जिन्हें सौदेबाजी के तहत छोड़ना पड़ा था. पुलिस ने ऐसे लोगों के संबंध में जानकारी जुटाने के लिए वीडियो बनाकर बड़े बिलबोर्ड्स पर चलवाए हैं. पुलिस ने चेतावनी दी है कि अगर JRA के लोग आपके आस-पास हो सकते हैं. मामला अभी खत्म नहीं हुआ है. इसलिए, सावधानी बरतें और जब उनके बारे में कुछ पता चले तो हमें सूचित करें. इतने सालों के बाद आरोपियों का चेहरा काफी बदल गया होगा. इसके लिए तकनीक के सहारे संभावित तस्वीरें तैयार की गईं है. जापान पुलिस की ये कोशिश कितनी सफ़ल होती है, ये देखने वाली बात होगी. अब दुनियाभर की सुर्खियां जान लेते हैं. पहली सुर्खी यूक्रेन संकट से जुड़ी है. रूस के हमले को लेकर संशय बरकरार है. हालांकि, तैयारियों में कोई कमी नहीं आई है. जान लेते हैं कि संकट किस मोड़ तक पहुंचा. - अमेरिका ने यूक्रेन की राजधानी किएव में अपना दूतावास बंद कर दिया है. उसने अपना दफ़्तर पश्चिमी यूक्रेन में शिफ़्ट कर दिया है. अमेरिकी एजेंसियों ने चेतावनी दी थी कि रूस का पहला हमला किएव पर होगा. अमेरिका पहले ही अपने नागरिकों को यूक्रेन छोड़ने के लिए कह चुका है. - जर्मनी के चांसलर ओलाफ़ शोल्ज़ 14 फ़रवरी को किएव में थे. 15 को वो मॉस्को पहुंच रहे हैं. वो युद्ध टालने के लिए पुतिन को मनाने की कोशिश करेंगे. - भारत ने अपने नागरिकों, विशेषकर स्टूडेंट्स, को यूक्रेन से निकलने के लिए कहा है. लोगों को यूक्रेन की यात्रा से बचने की सलाह भी दी गई है. इसके अलावा, यूक्रेन में रह रहे नागरिकों को भारतीय दूतावास के संपर्क में रहने के लिए कहा गया है. फिलहाल, भारत किएव में अपना दूतावास चालू रखेगा. आज की दूसरी और अंतिम सुर्खी पाकिस्तान से है. मुल्तान की एक अदालत ने सोशल मीडिया स्टार क़ंदील बलोच की भाई मोहम्मद वसीम को बरी कर दिया है. 2016 में सम्मान के नाम पर क़ंदील बलोच की हत्या कर दी गई थी. क़ंदील सोशल मीडिया पर तस्वीरें और वीडियोज़ पोस्ट किया करतीं थी. वो कट्टर समाज को आधुनिकता के दौर में ले जाना चाहती थी. ये पाकिस्तान के कठमुल्लाओं को नागवार गुज़रा. उन्होंने वसीम को भड़काया. वसीम ने गला घोंटकर अपनी बहन को मार दिया. बाद में उसने प्रेस कॉन्फ़्रेंस में हत्या की बात स्वीकार कर ली. 2019 में वसीम को हत्या का दोषी पाया गया और उसे आजावीन जेल की सज़ा सुनाई गई थी.

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