कैसे पड़ा ये नाम
पूर्वी लद्दाख से होते हुए श्योक नदी में मिलने वाली गलवान नदी बहती है यहां. इसका नाम गुलाम रसूल गलवान के नाम पर रखा गया है. इसी नदी की वजह से इस जगह को गलवान घाटी कहा जाता है.

रसूल बैले ने 'इकॉनमिक टाइम्स' में लिखते हुए गुलाम रसूल गलवान के बारे में पूरी जानकारी दी है. रसूल बैले गुलाम रसूल गलवान के परिवार से हैं. गलवान उनकी मां के परनाना थे. उन्होंने वो घटना भी बताई है, जिसके बाद घाटी का नाम गलवान रखा गया. रसूल बताते हैं कि गलवान का जन्म साल 1878 के आस-पास हुआ था, ऐसा पढ़ने को मिलता है. उनकी मां ने उन्हें अकेले पाला-पोसा. वो एक सरकारी अधिकारी के यहां घर का काम वगैरह देखकर पैसे कमाती थीं. थोड़े बड़े होने पर गलवान भी उनकी मदद करने में लग गए.
35 साल तक यात्रा करने वाले गुलाम रसूल गलवान
थोड़े बड़े होने पर वो उस इलाके में आने वाले यूरोपी यात्रियों के साथ गाइड के तौर पर जाने लगे. वो उस इलाके को समझने और वहां ट्रेवल करने में इन खोजियों और यात्रियों की मदद करते थे. रसूल बैले के अनुसार, गुलाम रसूल गलवान ने कई मशहूर लोगों के साथ काम किया. जैसे मेजर गॉडविन ऑस्टिन. वो व्यक्ति, जिसने काराकोरम पर्वत की ऊंचाई नापी थी. उनके नाम पर ही इसे माउंट गॉडविन ऑस्टिन भी कहा जाता है. 1890 से लेकर 1896 तक वो सर फ्रांसिस यंगहसबैंड नाम के डिप्लोमैट के साथ थे, जिन्होंने ब्रिटेन और तिब्बत के बीच 1904 का समझौता तैयार किया था. ये तिब्बती पठार, पामीर पहाड़ और मध्य एशिया के रेगिस्तानों की खोज में निकले थे. इसमें गलवान ने उनकी बहुत मदद की.

इस तरह के कई हस्तियों के साथ घूमते हुए गुलाम रसूल गलवान ने अपनी पूरी जिंदगी बिता दी. 1925 में उनकी मौत हुई. लेकिन उससे पहले वो एक ऐसी किताब लिख गए, जिसमें उन्होंने अपने सभी यात्रा वृत्तांतों को सहेज दिया था. इस किताब का नाम है सर्वेन्ट ऑफ़ साहिब्स. इसकी भूमिका सर फ्रांसिस यंगहसबैंड ने लिखी है, जिनके साथ घूमते हुए गुलाम रसूल गलवान ने कई साल बिताए थे. इस किताब की खासियत ये है कि ये गुलाम रसूल की टूटी-फूटी अंग्रेजी में उनके यात्रा वृत्तांतों को बताती है. गुलाम रसूल गलवान ने अपनी 35 साल की यात्राओं में अंग्रेजी, लद्दाखी, उर्दू, और तुर्की भाषाओं का इस्तेमाल सीख लिया था. बाद में वो लेह में ब्रिटिश कमिश्नर के मुख्य सहायक के पद तक भी पहुंचे.

रसूल बताते हैं कि जब 1892 में चार्ल्स मरे वहां आए, तो गलवान उनके साथ यात्रा पर निकले थे. चार्ल्स डनमोर के सातवें अर्ल (राजा की बराबरी वाला पद) थे. डनमोर आयरलैंड में एक जगह का नाम है. इन्हीं के साथ जब गुलाम रसूल गलवान निकले, तब उनकी उम्र बमुश्किल 14 साल थी. इस यात्रा के दौरान उनका काफिला एक जगह अटक गया. वहां सिर्फ ऊंचे पहाड़ और खड़ी खाइयां थीं. उनके बीच से नदी बह रही थी. किसी को समझ नहीं आ रहा था कि यहां से कैसे निकला जाए. तब 14 साल के गलवान ने एक आसान रास्ता ढूंढ निकाला, और वहां से काफिले को निकाल ले गए.
लद्दाखी इतिहासकार अब्दुल गनी शेख के मुताबिक़, गलवान की ये चतुराई देखकर चार्ल्स बहुत प्रभावित हुए और उस जगह का नाम गलवान नाला रख दिया. गलवान के नाम पर. अब वही जगह 'गलवान घाटी' कहलाती है.

‘गलवान’ शब्द के पीछे की कहानी
गुलाम रसूल गलवान मूल रूप से कश्मीरी थे. गलवान वहीं की एक जनजाति है. अपनी किताब 'सर्वेन्ट ऑफ साहिब्स' में गुलाम रसूल बताते हैं कि गलवान नाम के पीछे की कहानी क्या है. कश्मीर की पहाड़ियों में महाराजा के कई घोड़े चराने जाया करते थे. कुछ लोग इनकी निगरानी करने के लिए रखे गये थे. इन्हीं में से एक लुटेरा बन गया, जिसका नाम था कर्रा गलवान. कर्रा का मतलब होता है काला और गलवान का मतलब लुटेरा. वो अमीरों के घर लूटता था और पैसे गरीबों में बांट देता था.
उसे महाराजा ने कैद करवा लिया था. इसके बाद उसके परिवार के लोग वो जगह छोड़कर चले गए. इस डर से कहीं महाराजा उन्हें भी कैद न कर ले.
'कश्मीर ऑब्जर्वर' के अनुसार, कश्मीरी भाषा में 'गलवान' शब्द का मतलब घोड़े रखने वाला होता है. सर वॉल्टर लौरेंस की किताब 'द वैली ऑफ कश्मीर' (कश्मीर घाटी) में वो लिखते हैं कि पहले गलवान घोड़े (टट्टू भी) चराकर आजीविका कमाते थे. लेकिन बाद में उन्होंने घोड़ों को चुराना शुरू कर दिया और उनकी पूरी जनजाति इसके लिए कुख्यात हो गई.
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