
टाइटैनिक की हीरोइन टीवी पर आई और चैनल बदल दिया गया
बचपन के वो कुछ मौके जब हम असहज हो जाया करते थे.

फोटो - thelallantop
31 दिसंबर 1999. शाम चार बजे से स्टार गोल्ड पर पिच्चर आनी थी. नाम था टाइटैनिक. अंग्रेजी फ़िल्म, हिंदी में डब की हुई. फ़िल्म चालू हुए कुछ डेढ़ घंटे हुए होंगे कि मुझे मेरे जीवन का वो पहला पल मिला, जिसका सामना लगभग हर हिंदुस्तानी बच्चे को करना ही पड़ता है. उसे या तो कमरे से बाहर भेजा जाता है या चैनल बदल दिया जाता है. रिमोट जिसके पास होता है, वो टीवी पर कुछ हद तक मालिकाना हक़ जता सकता था. और इसी फीलिंग के साथ मैंने रिमोट अपने पास रखा हुआ था. टीवी मेरी नहीं थी. मौसी जी की थी. मैं उन्हीं के घर पर था. फ़िल्म अच्छी-भली शुरू हुई. और फ़िर धीरे-धीरे गैरसंस्कारी होती चली गयी. इस हद तक कि केट विंसलेट और डिकेप्रियो कुछ बाकी ही नहीं छोड़ रहे थे. हमसे तो अभी भी कुछ साफ़-साफ़ नहीं लिखा जा रहा है. ऐसे मौकों पर रजाई में दुबका मैं मुंह खोले टीवी देख रहा होता था. और मौसी जी स्वेटर बुनने में एक्स्ट्रा मगन दिखाई देती थीं. ये फ़िल्म ऐसी लग रही थी कि उन्हें स्वेटर बुनने के मौके लगातार मिलते ही जा रहे थे. और फ़िर केट विंसलेट सोफे पर लेट गयी. सामने डिकेप्रियो. हाथ में पेंसिल और काग़ज़ लिए. उसकी तस्वीर बनाने को तैयार. मुझे पहली बार पता चल रहा था कि ऐसे मामले में तस्वीर बनाई जाती है. और तभी जल्दी-जल्दी में दो ऐक्शन हुए. स्टार गोल्ड ने सीन काट दिया. अगले सीन पर मामला आ गया. और मौसी जी उठीं, रिमोट छीना और चैनल बदल दिया. कुछ कहा भी लेकिन याद नहीं है. याद क्या, मैंने सुना ही नहीं था. सुनने की स्थिति में ही नहीं था. मस्तक में क्रांति डोल रही थी. मगर चैनल बदला जा चुका था. अच्छी बात ये हुई थी कि मुझे बाहर नहीं भेजा गया था. और दूसरी अच्छी बात ये हुई थी कि मुझे केट विंसलेट दिख गयी थी.
केट विंसलेट, बला की खूबसूरत. हंसती दिख जाए तो पेट में गुदगुदी होती है. डिकेप्रियो की एकदम पक्की वाली दोस्त. न मैं डिकेप्रियो हो सका, न वो मेरी दोस्त बन सकी. केट विंसलेट की वजह से मुझसे रिमोट छीना गया सो अलग. लेकिन फिर भी मैं केट को वैसे ही चाहता रहा. जैक से भी ज़्यादा. जैक तो आखिर में पानी में डूब गया था. मैं होता तो लकड़ी के उसी टुकड़े पर कूद के बैठ जाता. कितनी तो जगह थी उस पर.
