"वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो कि न याद होमोमिन ख़ां मोमिन लिख गए हैं. ग़ालिब के समकालीन.
वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो।"
क़रार प्यार में होता है, सरहदों पर होता है, व्यापार में होता है. आज हम भी बात करेंगे एक क़रार पर ही. क़रार, जो तीन देशों के बीच हुआ.
एक देश, जिसकी फ़ितरत थी गुलाम बनाने की. एक देश, जिसने अपना हक़ छीनकर लिया था. और एक देश, जिसकी जद्दोजहद थी पहचान बनाने की.
गोरखा पैक्ट-1947. साल 47 में यूनाइटेड किंगडम, भारत और नेपाल के बीच हुआ क़रार. क़रार, जिसमें ज़िक्र था गोरखाओं सैनिकों का. क़रार, जिस पर अब ‘बदला-बदला’ नेपाल फिर से बात करना चाहता है. जिसके लिए उनके विदेश मंत्री प्रदीप कुमार कह रहे हैं कि ये अपनी तार्किकता खो चुका है.
कहां से शुरू करें?
"वो बयान शौक़ का बरमला तुम्हें याद हो कि न याद हो।"हां, यहां से शुरू करते हैं.
सैम मानेकशॉ पहले इंडियन आर्मी ऑफिसर थे, जिन्हें फील्ड मार्शल रैंक पर प्रमोट किया गया था. फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ. द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटिश इंडियन आर्मी की तरफ से लड़े थे. भारत-पाकिस्तान युद्ध-1971 के वक्त वो चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. बहादुर इतने कि ‘सैम द ब्रेव’ के नाम से बुलाए जाते थे. अभी उन पर एक पिच्चर भी पाइपलाइन में है, जिसमे विकी कौशल फील्ड मार्शल मानेकशॉ का रोल करेंगे.
सैम मानेकशॉ ने एक बार कहा था –
“हर इंसान का कोई न कोई डर तो होता है. कुछ लोग होते हैं, जिनको तमाम डर होते हैं. लेकिन फिर भी अगर कोई कहे कि उसे कोई डर नहीं, तो वो या तो झूठा है, या गोरखा.”गोरखा. या जिसे ठस नेपाली में कहते हैं गोरखाली.

कौन हैं गोरखा?
नेपाल की पहाड़ी जाति. पहाड़ी ‘लड़ाका’ जाति. गोरखाओं को दो बातों के लिए ख़ास तौर पर जाना जाता रहा है- साहस और वफादारी. ये फिज़िकली और मेंटली काफी स्टॉन्ग होते हैं. यही वजह थी कि अंग्रेजों ने 1857 के भी पहले से गोरखा सैनिकों की अपनी सेना में प्रमुखता से भर्ती शुरू कर दी थी.गोरखाओं की पहचान उनके एक ख़ास हथियार से भी होती है- ‘खुकरी’. 16 से 18 इंच का एक चक्कू. धारदार. आगे से कुछ कर्व लिया हुआ. खुकरी लेकर गोरखे दुश्मन पर टूट पड़ते. आपने शायद जेपी दत्ता की फिल्मों में देखा हो सैनिकों की बंदूक के आगे खुसा हुआ बड़ा सा चाकू. यही है खुकरी.

अंग्रेजों के खुकरी घोंपने वाले गोरखा
1814 की बात है. ईस्ट इंडिया कंपनी की जड़ें भारत में गहरा रही थीं. अब उनकी नज़र नेपाल पर थी. धीरे-धीरे उन्होंने सरहदों पर खिसकना शुरू किया. लेकिन ये गोरखों की धरती थी. नंगी खुकरियां लेकर गोरखे टूट पड़े. सॉफिस्टिकेटेड अंग्रेजों ने ये खुल्ला युद्ध पहले कभी न देखा था. साल भीतर ही उन्हें समझ आ गया कि ये दांव उल्टा पड़ रहा है. लेकिन अंग्रेजी सेना भी संख्या बल और धन बल में आगे थी. गोरखा सेना के लिए भी ज़्यादा दिन टिके रहना मुश्किल था.लिहाज़ा 1815 में संधि हुई. सुगौली संधि. ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के राजा के बीच. इस संधि के मुताबिक नेपाल के कुछ हिस्सों को ब्रिटिश भारत में शामिल करने, काठमांडू में एक ब्रिटिश प्रतिनिधि की नियुक्ति तय हुई. साथ ही ये तय हुआ कि ब्रिटेन की सैन्य सेवाओं में गोरखाओं की भर्ती की जाएगी.

इसके बाद अंग्रेजी सेना में गोरखाओं की भर्ती होने लगी. 1857 में जब भारत में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हुआ तो गोरखा अंग्रेजों की तरफ से भारतीय क्रांतिकारियों के ख़िलाफ लड़े थे. क्योंकि उस समय गोरखे ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन थे. इसके बाद गोरखे अंग्रेजों की फौज में रहे. उनकी तरफ से दो विश्वयुद्ध भी लड़े. और क्या भौकाल से लड़े कि अंग्रेजों ने इन्हें नया नाम दे डाला- मार्शल रेस (Martial Race).
गोरखा सोल्जर पैक्ट-1947
फिर आता है 1947. भारत को अंग्रेजी शासन से आज़ादी मिलती है. अंग्रेज अपना टीन-तंबू लेकर भारत से निकलते हैं. लेकिन अंग्रेजों के पास ये टीन-तंबू के अलावा एक चीज और थी- 10 गोरखा रेजीमेंट. जिनमें उन्होंने गोरखाओं की भर्ती की थी. ये रेजीमेंट अंग्रेजी सेना के साथ जाएंगी? या आज़ाद भारत की सेना में रहेंगी?इसके लिए हुआ एक क़रार. गोरखा सोल्जर पैक्ट – 1947.
"कभी हम भी तुम भी थे आश्नां तुम्हें याद हो कि न याद हो।"गोरखा किस तरफ रहेंगे, ये फ़ैसला उन पर ही छोड़ा गया. नतीजा- 10 में से छह रेजीमेंट ने भारतीय सेना के साथ रहना पसंद किया. चार रेजीमेंट गईं अंग्रेजों के साथ. पैक्ट में तय हुआ कि –
“भारतीय और ब्रिटिश सेनाओं में गोरखाओं को समान अवसर, समान लाभ, समान स्थायित्व दिया जाएगा. कोई भेद नहीं. गोरखाओं के हितों का ध्यान रखा जाएगा.”और भी बातें तय हुईं –
# भारतीय और ब्रिटिश सेनाओं में गोरखा सैनिकों की नियुक्ति नेपाली सिटिज़न के तौर पर ही होगी.करीब 50 साल तक ये व्यवस्थाएं चलती रहीं.
# उनकी सभी धार्मिक और सांस्कृतिक भावनाओं का ख़्याल रखा जाएगा.
# समान वेतन, समान भत्ते. पेंशन के भी हक़दार.
# हर तीन साल में लंबी छुट्टी. अपने देश जाने के लिए.

क्यों नाख़ुश हुए गोरखा?
2000 के अल्ले-पल्ले एक बड़ा खुलासा हुआ. कि ब्रिटिश सेना से रिटायर हुए गोरखाओं को बरसों से समान पेंशन नहीं मिल रही थी. उनसे ज़्यादा पेंशन अंग्रेज रिटायर्ड को मिल रही थी. ये भी आरोप लगे कि कुछ गोरखा सैनिकों को रिटायरमेंट के बाद ब्रिटेन छोड़ने तक को कह दिया गया. मामला अदालत तक गया.2007 में ब्रिटिश सरकार अपनी तरफ से एक मसौदा लेकर आई. कहा कि 1997 के बाद जो भी गोरखा रिटायर हुए हैं, उन्हें अंग्रेजों के बराबर पेंशन मिलेगी. साथ ही ब्रिटेन में रहने का अधिकार भी.
लेकिन जो गोरखा 1997 से पहले रिटायर हुए, उनका क्या? तो 2009 में ब्रिटिश संसद ने एक प्रस्ताव पारित किया. कहा कि ऐसे गोरखा सैनिक, जिन्होंने कम से कम चार साल सेना को दिए और 1997 से पहले रिटायर हुए, उन्हें भी ब्रिटेन में रहने का अधिकार मिले.
ये सारे फैसले ब्रिटिश सेना में रहे गोरखा सैनिकों के लिए बड़ी जीत तो थी. लेकिन इससे गोरखाओं के साथ होता आ रहा भेदभाव भी खुलकर सामने आ गया. इसके बाद से ही ये मांग उठने लगी थी कि 1947 में हुई संधि पर फिर से विचार किया जाए.
भारत से तनाव क्यों बढ़ा?
"वो नए गिले वो शिकायतें वो मज़े मज़े की हिकायतेंभारत में गोरखा सैनिकों के साथ भेदभाव की बात तो नहीं उठी, लेकिन हालात बिगड़े अब आकर. जब भारत-नेपाल के बीच सबकुछ ठीक नहीं चल रहा. सीमा विवाद तक की नौबत आ गई है. तब 15 मई को आर्मी चीफ जनरल मनोज नरवणे ने एक बयान दिया. कहा कि चीन के उकसावे में आकर नेपाल लिंपियाधुरा-कालापानी-लिपुलेख में भारत का विरोध कर रहा है.
वो हर एक बात पे रूठना तुम्हें याद हो कि न याद हो।"
नेपाल को ये बात चुभ गई. उनका कहना रहा कि भारत के आर्मी चीफ को हम अपने यहां भी जनरल का दर्ज़ा देते हैं, भारत की सेना में भी गोरखाओं की अच्छी-ख़ासी संख्या है. नेपाल को लेकर उनकी ये बात ठीक नहीं.
* नेपाल के आर्मी चीफ को भी भारत में जनरल का दर्ज़ा दिया जाता है. यानी ये जेस्चर म्युचुअल है.
यहीं से बढ़ता-बढ़ता तनाव अब यहां तक आ गया कि नेपाल के विदेश मंत्री ने सार्वजनिक तौर पर कह दिया कि 1947 की संधि अब अप्रासंगिक हो गई है. इस पर दोबारा विचार करने की काफी ज़रूरत है. उनका कहना है कि गोरखा सैनिकों के हितों की रक्षा नहीं की जा रही है. इसलिए प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली विचार कर रहे हैं कि ब्रिटेन से बात करके 1947 की संधि को एक द्विपक्षीय समझौते में बदलने के प्रयास करें. साथ ही उनका ये भी कहना है कि तमाम बार नेपाल सरकार भारत से बात करने की कोशिश कर चुकी है, लेकिन भारत की ओर से ही बात करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई गई.
इस बीच नेपाल में प्रतिबंधित संगठन कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल के नेता नेत्रा विक्रम चांद उर्फ बिप्लव ने भी कह दिया है कि नेपाल को चाहिए कि वे गोरखा सैनिकों को देश में ही बुलाए और यहीं रखे. उनके इस बयान के बाद ये भी साफ हो गया है कि दूसरे देशों में गोरखा सैनिकों को लेकर नेपाल में राजनीति भी शुरू हो गई है.
लेकिन क्या ये सब इतना आसान होगा? भारतीय सेना में गोरखा सैनिकों का इतिहास सात दशक से भी ज़्यादा पुराना है. गोरखा सैनिक, गोरखा रेजीमेंट भारतीय सेना का अभिन्न हिस्सा हैं. गोरखा रेजीमेंट ने भारत को फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ से लेकर जनरल बिपिन रावत तक तमाम बड़े अधिकारी दिए, तमाम बहादुर सैनिक दिए. 1947 में गोरखा सोल्जर पैक्ट के दौरान जब गोरखा सैनिकों को विकल्प दिया गया था तो अधिकतर ने भारतीय सेना को चुना था, क्योंकि उन्हें यहां अपनापन लगता था. बात क़रार से शुरू हुई थी, लेकिन ये बात क़रार से कहीं आगे की है.
"सुनो ज़िक्र है कई साल का कि किया इक आप ने वादा था
सो निबाहने का तो ज़िक्र क्या तुम्हें याद हो कि न याद हो।"
भारतीय सेना प्रमुख जनरल एमएम नरवणे ने चीन-नेपाल सीमा विवाद पर क्या कहा?