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कोरोना वायरस का मज़ाक़ उड़ाने वाले तंजानिया के राष्ट्रपति के साथ क्या हुआ?

राष्ट्रपति कोरोना को अफ़वाह कहते. इससे जुड़े ख़तरे को काल्पनिक बताते.

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तंजानिया के राष्ट्रपति जॉन मागुफुली. (तस्वीर: एपी)
आस्था और मूर्खता, दोनों में बहुत अंतर है. आप कितने भी बड़े आस्तिक हों, मगर ईश्वर के भरोसे खाई में नहीं कूद सकते. ये कॉमन सेंस है. लेकिन फ्रांस के महान दर्शनशास्त्री वॉल्टेर कह गए हैं, लु सेन्स कॉम्युन नेस पा सी कॉम्युन. यानी, कॉमन सेंस इज़ नॉट सो कॉमन.
आज हम आपको एक ऐसे इंसान का क़िस्सा सुनाएंगे, जिसपर ये कॉमन सेंस में डब्बा गोल वाली लाइन फिट बैठती है. वो राष्ट्रपति होने के साथ-साथ शायद अपने देश के सबसे मूर्ख आदमी भी हैं. जब कोरोना आया, तो इन्होंने जनता से कहा, टेंशन नक्को. ये बीमारी-वीमारी काल्पनिक बातें हैं. एकमात्र सच्चाई है, ईश्वर. उसका नाम लो, पूजा-पाठ करो. सब ठीक हो जाएगा. देश में लोग कोरोना से मरते रहे, मगर राष्ट्रपति ने कहा, कौन सी बीमारी? कैसी बीमारी? हमारे यहां तो सब बढ़िया है. राष्ट्रपति ने ये तक कह दिया कि उनका देश कोरोना की वैक्सीन नहीं खरीदेगा. क्योंकि वैक्सीन से होता-जाता कुछ है नहीं, नाहक पैसे बर्बाद होते हैं.
Voltaire
फ्रांस के महान दर्शनशास्त्री वॉल्टेर.


करीब एक साल तक कोरोना डिनायल का ये ड्रामा चलता रहा. फिर एक रोज़ राष्ट्रपति को भी कोरोना हो गया. बीमार पड़ते ही वो लापता हो गए. किसी को पता ही नहीं कि राष्ट्रपति कहां गए. अब पता चला है कि दूसरों को ईश्वर पर भरोसा रखने का उपदेश पिलाने वाले राष्ट्रपति अपने इलाज़ के लिए चुपके से विदेश भाग गए. उनकी हालत सीरियस है. वो शायद कोमा में हैं. ये क्या मामला है? इससे भारत का क्या संबंध है? विस्तार से बताते हैं आपको.
रजनीकांत की एक फ़िल्म है- रोबॉट. इसमें रजनी ऐश्वर्या को देखते हुए एक गाना गाते हैं. इसकी पंक्तियां हैं-
किलिमंजारो, लड़की पर्वत की यारों, इसका रूप निहारो.
इस विचित्र लिरिक्स में एक शब्द सुना आपने- किलिमंजारो? साहित्य पढ़ने वालों को शायद इस शब्द पर हेंमिग्वे की एक कहानी याद आ जाए- द स्नोज़ ऑफ़ किलिमंजारो. जिसमें हैरी नाम का राइटर गैंगरीन से मरता हुआ रेस्क्यू जहाज़ की राह देख रहा है.
क्या है किलिमंजारो?
ये है- 19,341 फुट ऊंची बर्फ से ढका एक ज्वालामुखी. अफ़्रीका का सबसे ऊंचा पहाड़. दुनिया का सबसे बड़ा फ्री-स्टैंडिंग माउंटेन. फ्री-स्टैंडिंग माने ऐसा पहाड़ जो किसी पर्वत श्रृंखला का हिस्सा नहीं. वो अकेला, आज़ाद खड़ा है.
किलिमंजारो पर बर्फ़ का होना एक अजूबा है. क्योंकि किलिमंजारो पड़ता है इक्वेटर के पास. इक्वेटर माने धरती को उत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध में बांटने वाली काल्पनिक रेखा. इक्वेटर के पास ख़ूब गर्मी पड़ती है. इसीलिए किलिमंजारो पर बर्फ़ होना अचंभा था. ये बर्फ़, ये पहाड़ अफ़्रीका की सबसे सेलिब्रेटेड निशानियों में शुमार हो गया.
Mount Kilimanjaro
किलिमंजारो, अफ़्रीका का सबसे ऊंचा पहाड़.


कहां है किलिमंजारो?
पूर्वी अफ़्रीका में एक देश है- तंज़ानिया. इक्वेटर लाइन के बिल्कुल दक्षिण में बसा हुआ एक बड़ा देश. इसके दक्षिण में है मोजॉम्बिक. उत्तरपूर्व में है केन्या. दक्षिणपश्चिम में है ज़ाम्बिया. और पश्चिम में पड़ता है, डेमोक्रैटिक रिपब्लिक ऑफ़ कॉन्गो. तंज़ानिया की उत्तरी सीमा मिलती है, अफ़्रीका की सबसे विशाल झील लेक विक्टोरिया से. यही झील नील नदी का सबसे प्रमुख स्रोत है.
जिस बरस यूरोप ने भारत को खोजा था, उसी बरस तंज़ानिया की भी डिस्कवरी हुई थी. यानी 1498 में. भारत और तंज़ानिया, दोनों में एक और सेम पिंच है. हम दोनों को खोजने वाला जहाज़ी एक ही था- वास्को डि गामा. सदियों तक ये देश यूरोपीय मुल्कों की कॉलोनी रहा. कभी पुर्तगाल, तो कभी जर्मनी इसके आका बने रहे. पहले विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन को इसका कंट्रोल मिल गया.
इस दौर में तंज़ानिया कहलाता था, तेंगनिका. ये देश आज़ाद हुआ 1961 में. दो बरस बाद हिंद महासागर में बसे उसके एक पड़ोसी द्वीप जंज़ीबार को भी आज़ादी मिल गई. अब तेंगनिका और जंज़ीबार ने एक होने का फ़ैसला किया. 1964 में इन दोनों भूभागों का एकीकरण हुआ और नया देश कहलाया- यूनाइटेड रिपब्लिक ऑफ़ तंज़ानिया. आप तंज़ानिया की इंग्लिश स्पेलिंग देखिए- Tanzania. इस स्पेलिंग में शुरुआती तीन शब्द, यानी Tan तेंगनिका से लिए गए हैं. अगले तीन शब्द, यानी Zan को उठाया गया है जंज़ीबार से. दोनों को मिलाकर बना, तंज़ानिया. यानी तंज़ानिया नाम में इन दोनों भूभागों का मिश्रण है. इस अरेजमेंट में जंजीबार है तो तंज़ानिया का हिस्सा, मगर उसके पास आंशिक स्वायत्तता है.
तंज़ानिया का राष्ट्रपिता?
आज़ादी के बाद तंज़ानिया एक रिपब्लिक बना. इसके पहले राष्ट्रपति बने, जूलियस न्येरेरे. आप न्येरेरे को तंज़ानिया का राष्ट्रपिता कह सकते हैं. उन्होंने तेंगनिका के स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व किया. फिर जंजीबार और तेंगनिका के यूनिफ़िकेशन में मुख्य भूमिका निभाई. राष्ट्रपति बनकर उन्होंने एथनिक विविधता वाले तंज़ानिया में राष्ट्रीय पहचान विकसित की. उसे अफ़्रीका के कई और देशों की तरह एथनिक वॉयलेंस और सिविल वॉर की चपेट में आने से बचाया. आम लोगों की परवाह करने वाली आर्थिक नीतियों पर ज़ोर दिया. राष्ट्रहित को सर्वोच्च वरीयता दी.
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तंज़ानिया के पहले राष्ट्रपति बने, जूलियस न्येरेरे. (तस्वीर: एएफपी)


कोल्ड वॉर के दौर में भी न्येरेरे ने गुटनिरपेक्षता बनाए रखी. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी न्याय और मानवाधिकार जैसे मुद्दों के लिए खड़े रहे. इतना ही नहीं, जब न्येरेरे को लगा कि उनकी आर्थिक नीतियां सफल नहीं हो रहीं, तो 1985 में उन्होंने अपनी मर्ज़ी से सत्ता छोड़ दी.
इस वक़्त तक तंज़ानिया कहने को तो रिपब्लिक था. मगर उसके राजनैतिक सिस्टम में केवल एक ही पार्टी की जगह थी. इसका नाम था- पार्टी ऑफ दी रेवॉल्यूशन. ये पार्टी तेंगनिका और ज़ंजीबार, दोनों के राजनैतिक प्रतिनिधियों को मर्ज करके बनाई गई थी.
न्येरेरे के रिटायरमेंट के 7 साल बाद 1992 में तंज़ानिया के संविधान में एक ज़रूरी बदलाव हुआ. वन-पार्टी शासन का नियम हटाकर बहुदलीय व्यवस्था लाई गई. 1995 में यहां पहली बार बहुदलीय चुनाव हुए. ऐसा लगा कि तंज़ानिया में लोकतंत्र मज़बूत हो रहा है. मगर ये भरोसा ग़लत साबित हुआ. तंज़ानिया, ख़ासतौर पर जंजीबार का सेमी-ऑटोनॉमस इलाका चुनावी धांधलियों का गढ़ बन गया. धांधली के मुद्दे पर कई बार हिंसा भी हुई. लोकतंत्र में बाधा के अलावा तंज़ानिया पॉलिटिकल क्लास के भ्रष्टाचार का भी अड्डा बन गया.
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1985 में जूलियस न्येरेरे ने अपनी मर्ज़ी से सत्ता छोड़ दी. (तस्वीर: एएफपी)


हम तंज़ानिया का ये अतीत आज क्यों बांच रहे हैं?
आपको याद है. शुरुआत में हमने एक राष्ट्रपति का ज़िक्र किया था. जो कोरोना को बेसिर-पैर की अफ़वाह मानता था. कहता था, ईश्वर के आगे हाथ जोड़ने से बीमारियां ठीक हो जाती हैं. मगर जब अपनी बारी आई, तो राष्ट्रपति इलाज़ के लिए चुपचाप विदेश भाग गए. ये प्रसंग तंज़ानिया से ही जुड़ा है.
इन राष्ट्रपति का नाम है, जॉन मागुफुली. वो 2015 से ही तंज़ानिया के राष्ट्रपति हैं. उनका प्रचलित नाम है- बुलडोज़र. 2015 में राष्ट्रपति बनने के समय लोग दाद देते हुए उनको बुलडोज़र पुकारते थे. तब बुलडोज़र मतलब था सख़्त नेता. जो भ्रष्टाचार मिटाएगा. काम करके दिखाएगा. मागुफुली ने भ्रष्टाचार तो कुचला. मगर इत्तेफ़ाक ऐसा कि करप्शन के मामलों में बस उनके दुश्मनों और विरोधियों ने ही सज़ा पाई. दोस्तों और सहयोगियों का करप्शन बेचारे मागुफुली को नज़र ही न आया.
इसके अलावा मागुफुली ने जो एकमात्र बड़ा काम किया, वो था नागरिक अधिकारों पर बुलडोज़र चलाना. तंज़ानिया में उनकी आलोचना करने, उनके कामकाज पर सवाल उठाने का मतलब था कि किसी दिन सादी वर्दी वाले पुलिस अधिकारी रात-बिरात आपके घर पहुंचेंगे. आपको किडनैप करके कहां ले जाएंगे, पता ही नहीं लगेगा. वहां मागुफुली की नीतियों पर सवाल उठाने वाले कई पत्रकारों का यही अंज़ाम हुआ है. कई पत्रकार तो सालों से लापता हैं. मागुफुली कई अख़बारों, न्यूज़ चैनलों और रेडियो स्टेशनों में ताला लटकवा चुके हैं.
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तंज़ानिया के मौजूदा राष्ट्रपति जॉन मागुफुली. (तस्वीर: एपी)


पत्रकारों जैसा ही हाल विपक्ष का भी है. सुरक्षा कारणों का बहाना बनाकर उन्हें रैली नहीं करने दिया जाता. विपक्षी नेताओं को कभी भी अरेस्ट कर लिया जाता है. कइयों पर गोलियां भी चलती हैं. ऐसी ही एक मिसाल हैं, टुंडु लिसू. वो तंज़ानिया की मुख्य विपक्षी पार्टी के नेता थे. छह से ज़्यादा बार उन्हें गिरफ़्तार किया गया. किस इल्ज़ाम में? राष्ट्रपति मागुफुली के अपमान के आरोप में. टुंडु कहते थे कि उनका पीछा किया जा रहा है. उनकी जान ख़तरे में है. ये ख़तरे वाली आशंका 7 सितंबर, 2017 को सच साबित हो गई. टुंडु संसद सत्र में हिस्सा लेकर घर लौट रहे थे. रास्ते में कुछ हमलावरों ने दिनदहाड़े उनपर गोली चलाई. ये इकलौता मामला नहीं है. पिछले कुछ सालों में वहां कई विपक्षी नेता गायब किए जा चुके हैं.
पत्रकार और विपक्षी नेता अकेले भुक्तभोगी नहीं हैं. आम नागरिकों का भी यही हाल है. दो-तीन साल पहले वहां एक गाना चला. इसमें एक सवाल था. कि क्या हमारे देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बची है. गाना बनाने वाले को तुरंत ही सवाल का जवाब भी मिल गया. कैसे? पुलिस ने इस गाने के बिनाह पर उसे अरेस्ट कर लिया. उसके गाने को भी बैन कर दिया गया. ऐसा ही हाल हुआ IMMMA नाम की एक कंपनी का. ये कंपनी लॉ फर्म थी. सरकार पर दायर होने वाले केस प्रोसेस करती थी. शायद यही वजह थी कि एक रोज़ कुछ अज्ञात हमलावरों ने इस फर्म के दफ़्तर पर बम फोड़े.
आलोचक कहते हैं कि राष्ट्रपति जॉन मागुफुली 'तानाशाह इन मेकिंग' हैं. कुछ अन्य आलोचक इस स्टेटमेंट को ग़लत बताते हैं. उनका कहना है कि मागुफुली को 'डिक्टेटर इन मेकिंग' कहना ग़लत है. उनको सीधे डिक्टेटर ही कहना चाहिए.
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तंज़ानिया के विपक्षी नेता टुंडु लिसू. (तस्वीर: एपी)


मगर हमारा फ़ोकस मागुफुली इन-जनरल नहीं हैं. हमारा मुद्दा है, एक पर्टिकुलर एरिया. इसका नाम है- कोरोना वायरस. कोरोना पर मागुफुली की पॉलिसी इतनी भीषण थी कि लोगों ने कहा, कोरोना से ज़्यादा ख़तरनाक तो ख़ुद मागुफुली हैं. क्या है इस बयान की वजह?
कोरोना की शुरुआत से ही मागुफुली का बर्ताव विचित्र था. बोलते थे, कोरोना अफ़वाह है. इससे जुड़े ख़तरे काल्पनिक हैं. मागुफुली का कहना था कि तंज़ानिया के लोगों को ईश्वर पर भरोसा रखना चाहिए. उनका ईश्वर सजीव है, वो तंज़ानिया को हर बला से बचाएगा. इसीलिए लोगों को चाहिए कि बढ़िया खाएं और ख़ूब प्रार्थना करें. उन्होंने लोगों को एक हर्बल टी का भी नाम बताया. कहा ये वाली चाय पीने और गर्म पानी की भाप लेने से वो बिल्कुल स्वस्थ रहेंगे.
मागुफुली का दावा था कि तंज़ानिया कोरोना मुक्त है. ये दावा सरासर ग़लत था. इसलिए कि तंज़ानिया ने कभी कोरोना का डेटा ही नहीं दिया दुनिया को. कोरोना मरीज़ों की उसकी गिनती 509 पर आकर अटक गई. उससे आगे कभी बढ़ी ही नहीं. WHO उससे डेटा मांगते हुए गिड़गिड़ाता रहा, मगर मागुफुली टस-से-मस न हुए. बोले कि सोशल डिस्टेन्सिंग और मास्क वगैरह फ़ालतू के चोंचले हैं. इनकी कोई ज़रूरत नहीं तंज़ानिया को. उन्हें कोई मास्क पहने दिख जाता, तो भड़क जाते. बिना मास्क लगाए घूमने वालों की तारीफ़ करते. अफ़्रीकी देशों ने जब कोरोना जांच वाली किट भिजवाई तंज़ानिया, तो मागुफुली ने मज़ाक उड़ाया. उनके लिए ये टेस्ट किट कूड़े से भी बेकार थी.
ऐसा ही रवैया वैक्सीन पर भी था उनका. तंज़ानिया की हेल्थ मिनिस्ट्री ने राष्ट्रपति से कहा कि पूरी दुनिया वैक्सीन हासिल करने की कोशिश कर रही है. हमें भी थोड़ा हाथ-पैर हिलाना चाहिए. इसपर राष्ट्रपति का जवाब था कि वैक्सीन तो पश्चिमी देशों की साज़िश हैं. वैक्सीन के नाम पर वेस्टर्न मुल्क अफ़्रीका की दौलत लूटना चाहते हैं. मागुफुली के मुताबिक, अगर वैक्सीन सच में असरदार होती तो एड्स, टीबी, मलेरिया और कैंसर जैसी बीमारियों की भी वैक्सीन बन जातीं.
WHO से लेकर तंज़ानिया के पड़ोसी, सब परेशान थे. सबका मानना था कि तंज़ानिया बहुत विस्फ़ोटक स्थिति में है. कोरोना के चलते यहां बहुत मौतें हो रही हैं, मगर जानकारी बाहर नहीं आने दी जा रही है. राष्ट्रपति की मूर्खताओं पर तंज़ानिया की जनता भी सिर धुन रही थी. सोचिए, राष्ट्रपति लोगों से चर्च की शरण में जाने को कह रहे थे. और चर्च, जिसका काम ही है ईश्वर को हर चीज का समाधान बताना, वो लोगों को साइंस याद दिला रहा था. मास्क और सोशल डिस्टेन्सिंग को प्रमोट कर रहा था.
राष्ट्रपति मागुफुली का ये ख़तरनाक ड्रामा करीब एक बरस चला. फिर फरवरी 2021 में एकाएक उनका स्वर बदल गया. उन्हें एकाएक ब्रह्मज्ञान हुआ कि कोरोना सच में एक बीमारी है. ये बात है 21 फरवरी, 2021 की. इस रोज़ मागुफुली का बयान आया. इसमें उन्होंने देशवासियों से सावधानी बरतने की अपील की थी. कहा कि फेस मास्क पहनना शुरू कर दो.
राष्ट्रपति के इस हृदय परिवर्तन का राज़ था, कोरोना से हुई कुछ हाई-प्रोफ़ाइल मौतें. इनमें एक नाम था, सेइफ़ शरीफ़ हमाद. वो जंज़ीबार के उप-राष्ट्रपति थे. फरवरी 2021 में कोरोना से उनकी मौत हो गई. इसके अलावा राष्ट्रपति मागुफुली के चीफ़ सेक्रेटरी की भी कोरोना से मौत हो गई. 21 फरवरी को इन्हीं चीफ़ सेक्रेटरी के अंतिम संस्कार पर राष्ट्रपति ने जनता से सावधानी बरतने की अपील की. मगर इस अपील में भी उन्होंने कोरोना का नाम नहीं लिया. कहा, एक सांस की बीमारी है. वो हमारे देश के लिए बड़ी चुनौती बन गई है. मास्क पहनिए. और तीन दिन तक प्रार्थना कीजिए. ताकि हमारी सम्मिलित प्रार्थना इस बीमारी को हरा दे.
इस बयान के कुछ रोज़ बाद एक अजीबोगरीब घटना हुई. राष्ट्रपति मागुफुली एकाएक नज़र आना बंद हो गए. 27 फरवरी को उन्हें आख़िरी बार देखा गया. इस बात को दो हफ़्ते से ज़्यादा का वक़्त हो चुका है. इतने दिनों से मागुफुली पब्लिक में नज़र नहीं आए हैं. ये बड़ी विचित्र बात है. देश का राष्ट्रपति कहां है, किसी को पता नहीं. उनकी सरकार, साथी मंत्री और प्रवक्ता भी इस मुद्दे पर चुप हैं. कोई कुछ नहीं बता रहा.
बीते रोज़ इसी ग़ुमशुदगी से जुड़ी एक ख़बर आई है. पता चला है कि मागुफुली को कोरोना हो गया है. वो इलाज़ करवाने चुपचाप विदेश चले गए हैं. पहले उन्होंने केन्या में इलाज़ करवाया. मगर हालत और बिगड़ी, तो वो इलाज़ के लिए कहीं और चले गए. कहां? हमारे देश, भारत में.
John Magufuli
ख़बरों के मुताबिक, मागुफुली चुपके से भारत में इलाज़ करवा रहे हैं.


किसने दी है ये ख़बर?
आपको याद है, तंज़ानिया के विपक्षी नेता टुंडु लिसू. जिनके ऊपर 2017 में जानलेवा हमला हुआ था. उन्होंने ही मागुफुली से जुड़ा ये अपडेट दिया है. टुंडु लिसू ने बताया कि उन्हें मेडिकल और सिक्यॉरिटी सूत्रों से ये जानकारी मिली है. टुंडु के मुताबिक, राष्ट्रपति की स्थिति बेहद गंभीर है. वो 10 मार्च से ही कोमा में हैं.
टुंडु ने इससे जुड़ा कोई साक्ष्य नहीं दिया है. मगर इतने दिनों से राष्ट्रपति की ग़ुमशुदगी, उनसे जुड़े सवालों पर तंजानियन सरकार की चुप्पी, इन संकेतों से लगता है कि ये ख़बर सच हो सकती है. इस ख़बर से जुड़ी एक अपुष्ट कन्फर्मेशन केन्या से भी आई है. वहां 'नेशन' नाम का एक अख़बार है. उसने सूत्रों के हवाले से बताया कि अफ़्रीका का एक लीडर केन्या की राजधानी नैरोबी स्थित एक अस्पताल में भर्ती था. उसे वेंटिलेटर पर रखा गया था.
मागुफुली भारत में हैं?
राष्ट्रपति मागुफुली भारत में हैं या नहीं, इसपर भारत ने भी फिलहाल कोई आधिकारिक बयान नहीं दिया है. कुल मिलाकर काफ़ी रहस्य बरता जा रहा है इसपर. इस चुप्पी की सबसे बड़ी वजह तो शायद मागुफुली के पुराने बयान ही हैं. उन्होंने जनता को ईश्वर के भरोसे छोड़ दिया. कहा, प्रार्थना में बड़ी ताकत होती है. उससे बीमारी ठीक हो जाती है. सोचिए, अगर विदेश में इलाज़ करवाने वाली बात सही निकलती है, तो इसका क्या मतलब होगा. कि अपनी बारी आई, ख़ुद की जान पर बनी, तो राष्ट्रपति ईश्वर के भरोसे नहीं बैठे रहे. वो जिस साइंस का माखौल उड़ाते थे, अपने इलाज़ के लिए उसी विज्ञान की शरण में गए.
तंज़ानिया की जनता को अपने राष्ट्रपति की स्थिति जानने का पूरा अधिकार है. अभी तो ये भी नहीं मालूम कि राष्ट्रपति की ग़ैर-मौजूदगी में देश का कामकाज किसके भरोसे है. तंज़ानिया की छह करोड़ आबादी इस तरह अंधेरे में नहीं रखी जा सकती. बहुत देर से ही, मगर कम-से-कम अब वहां सरकार को कोरोना से निपटने पर गंभीरता दिखानी चाहिए. कोरोना संक्रमण और इसके चलते मारे गए लोगों का सही डेटा जारी करना चाहिए. WHO और अफ़्रीकन यूनियन जैसी संस्थाओं से मदद लेनी चाहिए. नटशेल में कहें, तो साइंस को उसका काम करने देना चाहिए.