बात 1999 के लोकसभा चुनाव की है. मनमोहन सिंह नरसिम्हा राव सरकार में वित्त मंत्री रहे थे. पार्टी के बड़े नेताओं में उनकी गिनती होती थी. नई-नई पार्टी की कमान संभाली सोनिया गांधी के साथ भी मनमोहन के संबंध अच्छे थे. मनमोहन को लगा चुनावी राजनीति में उतरने का ये सही वक्त है. उन्हें दक्षिणी दिल्ली की लोकसभा सीट से टिकट भी मिल गया. लोग कहने लगे कि इस सीट पर तो मनमोहन का जीतना तय. पहली वजह इस सीट पर मध्यमवर्गीय आबादी का बहुमत था जिन्हें आर्थिक उदारीकरण का लाभ मिला था. दूसरी वजह सिंह जैसे राष्ट्रीय नेता के सामने बीजेपी के राज्य स्तर के नेता वीके मल्होत्रा खड़े थे. फिर इस सीट में मुस्लिम और सिखों को मिलाकर आबादी भी 50 फीसदी से ज्यादा थी.

2004 में सोनिया गांधी खुद प्रधानमंत्री नहीं बनीं. लेकिन सरकार में ज्यादा अनुभवी प्रणब मुखर्जी की जगह उन्होंने मनमोहन सिंह को बतौर प्रधानमंत्री चुना.
फिर शुरू हुआ चुनावी अभियान. ग्राउंड की लड़ाई. और फिर आई दिक्कत. पैसे की दिक्कत. उस चुनाव में मनमोहन को चुनाव लड़ने के लिए पार्टी से 20 लाख रुपये मिले थे. मगर ये नाकाफी थे. विधायकों, पार्षदों और कार्यकर्ताओं को सक्रिय रखने के लिए और पैसे की जरूरत थी. मनमोहन को लग रहा था कि उनको टिकट सीधा सोनिया गांधी से मिला है तो कार्यकर्ता उनके साथ होंगे. पर ऐसा हो नहीं रहा था. फिर मनमोहन अपने उसूलों के चलते चंदा लेने को तैयार नहीं थे. वो चुनावी फाइनैंसरों से मिलते तक नहीं थे.
एक दिन उनको चुनाव लड़ा रहे दिल्ली के एक नेता ने आकर कहा- हम चुनाव हार रहे हैं. कार्यकर्ता साथ नहीं दे रहे. वो पैसा मांगते हैं. कार्यालय खोलना है. लोगों को नाश्ता पानी करवाना है. बिना पैसे के ये सब कैसा होगा. इन सब बातों को सुनकर आखिर मनमोहन ने इस सिस्टम के आगे घुटने टेक दिए. उन्होंने फाइनैंसरों से मिलना शुरू किया. चंदा इकट्ठा हुआ. चुनाव में तेजी आई. चुनाव बाद करीब 7 लाख रुपये बचे जो मनमोहन ने पार्टी को लौटा दिए. मगर जो नहीं बचा वो थी सीट. मनमोहन सिंह चुनाव हार गए थे. करीब 30 हजार वोटों से.
बीजेपी के विजय मल्होत्रा को 261230 वोट मिले. जबकि मनमोहन को 231231 वोट मिले.

पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह
मनमोहन के लिए ये चुनावी हार एक धक्के की तरह थी. उनको लगने लगा कि उनका चुनावी करियर शुरू होने के साथ ही खत्म हो गया. मगर ऐसा नहीं था. मनमोहन अपनी राज्यसभा सीट पर बने रहे. सोनिया गांधी के सलाहकार के रूप में काम करते रहे. और इसका फल उनको 2004 में मिला. प्रधानमंत्री बनकर. मगर पहली चुनावी हार का असर मनमोहन पर इस कदर हावी रहा कि उन्होंने 2004 में चुनाव लड़ने से साफ इनकार कर दिया था. ये हार उनमें इस कदर घर कर गई थी.
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