लेकिन अब सरकार ने अन्य एक्ट से जुड़े कई अन्य छोटे-मोटे आर्थिक अपराधों को भी डिक्रिमिनलाइज़ करने की बात की है. इसमें शामिल हैं, नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट, 1881 का सेक्शन 138. इंश्योरेंस एक्ट, 1938 का सेक्शन 12. SARFAESI, 2002 का सेक्शन 29. PFRDA एक्ट, 2013 का सेक्शन 26 (1) और 26 (4). वग़ैरह-वग़ैरह.
# स्पेशल मेंशन (‘नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट, 1881’ का सेक्शन 138)-
इस सबमें सबसे ज़्यादा वाद-विवाद जिस आर्थिक-अपराध के डिक्रिमिनलाइज़ होने पर हो रहा वो ‘नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट, 1881’ के सेक्शन 138 में वर्णित है. जिसके अनुसार-
किसी चेक के बाउंस या डिसऑनर होने पर चेक काटने/देने/उसपर साइन करने वाले व्यक्ति पर आपराधिक मुकदमा दर्ज़ किया जा सकता है. इसमें दो साल की सज़ा और चेक की राशि के दोगुने अमाउंट तक के जुर्माने का प्रावधान है.
जितने इसके डिक्रिमिनलाइज़ेशन के पक्ष में तर्क हैं, उतने विपक्ष में. गोवा और महाराष्ट्र बार काउंसिल शुरू से ही इसके डिक्रिमिनलाइज़ होने पर आपत्ति है. उनका कहना है कि इसे 'छोटा अपराध' नहीं कहा जा सकता.
हैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा ज़िंदां से घबरावेंगे क्या (सांकेतिक तस्वीर: PTI)
उनका और बाकी विरोध करने वालों का तर्क है कि-
क्रेडिट देने वाले व्यापारियों के लिए उस स्थिति में कोई सुरक्षा नहीं है जब ग्राहक डिफ़ॉल्ट कर जाए. EMI की इंस्टॉलमेंट को भी पोस्ट-डेटेड चेक का ही सहारा रहता है. उनकी भी शील्ड हट गई समझो.
पक्ष में ये तर्क दिया जा सकता है कि-
2013 की जनहित याचिका (पीआईएल) से पता चला था कि 270 लाख पेंडिंग अदालती मामलों में से लगभग 40 लाख चेक बाउंस के मामले थे. 2018 में कुल लंबित केसेज़ के लगभग 20 प्रतिशत केस चेक बाउंस वाले थे. तो क्या इनको कुछ अलग तरह से प्रोसेस करके कोर्ट का समय और संसाधन बचाया नहीं जा सकता.
# क्या डिक्रिमिनलाइज़ेशन मतलब, अब जो चाहे करो?
डिक्रिमिनलाइज़ का शब्दशः अर्थ हुआ,’किसी कार्य को वैधता प्रदान करना’. तो क्या अब छोटे-मोटे आर्थिक अपराध लीगल हो जाएंगे? उत्तर है: नहीं!
यहां पर डिक्रिमिनलाइज़ का मतलब ये कतई नहीं है कि अब इन अपराधों या आर्थिक अनियमितताओं के प्रति किसी व्यक्ति या संस्था की कोई जवाबदेही रहेगी ही नहीं और जिसका जो मन आएगा करेगा. बल्कि ये केवल सरकार द्वारा सिस्टम को सुगम और प्रगतिशील बनाने के लिए उठाए जा रहे कुछ कदम हैं. डिक्रिमिनलाइज़ किए जा चुके और किए जाने वाले आर्थिक अपराधियों पर अब भी मुकदमा चलाया जा सकेगा.
बस फ़र्क इतना है कि अब ये अपराध क्रिमिनल श्रेणी से हट कर सिविल केस की श्रेणी में आ जाएंगे. इससे फ़ायदा ये होगा कि अगर कोई कंपनी या व्यक्ति बदनियती से नहीं बल्कि अनजाने में या किसी टेक्निकल कारणों के चलते कोई ग़लती करता है तो इस वजह से उसको क्रिमिनल नहीं कह दिया जाएगा.
फ़र्ज़ कीजिए रामपुर के रामलाल ने लखनऊ के चुन्नू से दो लाख का सामान ख़रीदा. बदले में रामलाल ने चुन्नू को दो लाख का एक चेक थमा दिया. जब अगले दिन चुन्नू ने वो चेक अपने बैंक में डाला तो रामलाल के बैंक ने, रामलाल के अकाउंट में पैसे ना होने के चलते, चुन्नू का चेक वापस कर दिया. इसी को कहते हैं चेक बाउंस होना. जो कि है एक अपराध. यानी चुन्नू भाईसाहब रामलाल को क्रिमिनल कोर्ट तक घसीट सकते हैं और फिर क्रिमिनल कोर्ट, रामलाल के दोषी पाए जाने पर उससे उचित दंड देगी.
लेकिन अब जब सरकार इसे अपराध की श्रेणी से हटा देगी तो चुन्नू भईया ज़्यादा से ज़्यादा रामलाल को सिविल कोर्ट में धकेल सकेंगे. और दंड नहीं सिर्फ़ जुर्माने में बात आई गई हो जाएगी. साथ ही रामलाल कोई क्रिमिनल भी नहीं माने जाएंगे.
तो डिक्रिमिनलाइज़ेशन का आर्थिक अपराधों के संदर्भ में एक मतलब ये भी हुआ कि केस अब सिविल कोर्ट में चलेगा न कि क्रिमिनल कोर्ट में.
# क्या अंतर है दोनों कोर्ट्स में-
क्रिमिनल मुकदमे वो अपराध होते हैं जिनका सीधा प्रभाव पूरे समाज पर होता है. इन मुकदमों में अभियुक्त के खिलाफ कोई व्यक्ति या संस्था नहीं बल्कि सरकार स्वयं मुक़दमा फाइल करती है और केस लड़ती है. इसके अंदर ज़्यादातर गंभीर अपराध जैसे मर्डर, किडनैपिंग, मारपीट आदि शामिल होते हैं.
वहीं दूसरी ओर दीवानी या सिविल मामले साधारण मसले होते हैं. इनका और इनके निर्णयों का असर दो व्यक्तियों या संस्थाओं तक सीमित रहता है. सिविल मामलों के अंतर्गत अभियुक्त, पीड़ित पक्ष को उसके नुकसान का हर्ज़ाना भर देना पड़ता. इसके अंतर्गत आने वाले अधिकांश मामले ज़मीन-जायज़ाद, तलाक वग़ैरह के होते हैं.
सुप्रीम कोर्ट की वकील विजया लक्ष्मी बताती हैं-
विजया लक्ष्मी
ऐसा हमेशा नहीं कहा जा सकता कि सिविल मामलों में सिर्फ़ हर्जाना ही भरना पड़ता है और कारावास नहीं होता. लेकिन ये ज़रूर है कि इन मामलों में कारावास लास्ट रिजॉर्ट, यानी अंतिम विकल्प होता है. मतलब पहले दोषी को हर्ज़ाना भरने को कहा जाएगा. कुछ समय दिया जाएगा. फिर भी वो हर्ज़ाना नहीं भरता तो उसकी प्रॉपर्टी अटैच की ज़ा सकती है. और सब कुछ कर-कुरा कर भी अगर कोर्ट हर्ज़ाना वसूलने में असफल रहती है तब उसके पास दोषी को जेल भेजने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता. जबकि क्रिमिनल मुकदमे में सज़ा कोर्ट के विवेक पर निर्भर है.
यानी अगर रामलाल और चुन्नू के उदाहरण को आगे बढ़ाया जाए तो, ‘नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट, 1881’ के सेक्शन 138 के अनुसार अगर कोर्ट चाहती तो दोष साबित होने के बाद पहली ही बार में रामलाल को दो साल की सज़ा भी देती और उसपर दो लाख रुपए का जुर्माना भी लगा देती.
विजया लक्ष्मी आगे बताती हैं-
साथ ही सिविल मामलों की सुनवाई के दौरान आरोपी का कोर्ट में उपस्थित होना ज़रूरी नहीं होता, उसका वकील पर्याप्त होता है. जबकि क्रिमिनल मामलों में यदि आरोपी सुनवाई के दौरान उपस्थित नहीं रहता तो ये भी एक अपराध माना जाएगा. हाँ, अगर सूचित करके और आज्ञा लेकर अनुपस्थित रहे तो कोई दिक्कत नहीं है.
यूं सरकार द्वारा 138 के डिक्रिमिनलाइज़ेशन का मतलब ये है कि सरकार की नज़रों में अब रामलाल ने चुन्नू का व्यक्तिगत तौर पर तो नुकसान किया है लेकिन इसके कोई सामजिक दुष्परिणाम नहीं हैं. इसलिए अब सरकार या किसी सरकारी संस्था, जैसे पुलिस का का कोई सीधा हस्तक्षेप इस केस ने नहीं रहेगा.
# जिन नियामक संस्थाओं और कानूनों में बदलाव प्रस्तावित हैं-
मोदी सरकार, जिन 28 अपराधों को डिक्रिमिनिलाइज़ करने की बात कर रही है वो अलग-अलग एक्ट में से लिए गए हैं. हम आपको उन एक्ट के बारे में भी थोड़ी बहुत जानकारी दे देते हैं. जब डिक्रिमिनिलाइज़ हुए अपराधों के बारे में पता चलेगा तो उसके बारे भी आपको ज़रूर बताएंगे. पिंकी प्रॉमिस.
# RBI एक्ट, 1934. इसका मुख्य कार्य और उद्देश्य है भारत के बैंकिंग सिस्टम को रेगुलेट करना. इसके तहत देश के केंद्रीय बैंक, रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया को काफी शक्तियां दी गई हैं.
RBI. बोले तो बैंक्स का मॉनिटर. (तस्वीर: PTI)# कंपनीज़ एक्ट, 2013. पहले इसका नाम था, कंपनीज़ एक्ट, 1956. क्यूंकि ये 1956 में अस्तित्व में आया. तबसे अब तक इसमें कई दफा संशोधन हो चुके हैं. 2019 और 2020 के संशोधन का ज़िक्र तो हम ऊपर भी कर चुके हैं. इस एक्ट के तहत ही देश में किसी कंपनी को स्थापित किया जा सकता है. साथ ही ये एक्ट किसी कंपनी के ऑपरेशन और रेगुलेशन के दौरान भी उसपर लागू रहता है.
# बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट, 1949. जैसे कंपनीज़ एक्ट, कंपनियों के लिए है वैसे ही बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट, बैंक्स के लिए. बैंक्स फ़ायदे में रहें लेकिन कायदे में भी रहें, इसके लिए ज़रूरी है ये एक्ट. RBI एक्ट की तरह ही बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट से भी आरबीआई को बैंक्स पर नज़र रखने में मदद मिलती है. RBI, जो कि बैंक्स के लिए एक नियामक संस्था है. मतलब बैंक्स की क्लास मॉनिटर टाइप.
# SARFAESI एक्ट, 2002. फुल फ़ॉर्म: सिक्योरटी एंड रिकंस्ट्रक्शन ऑफ़ फाइनेंशियल एसेट्स एंड इनफोर्समेंट ऑफ़ सिक्योरिटीज इंट्रेस्ट एक्ट) जितना लंबा इस एक्ट का नाम है उतना ही गहरा इसका काम है. अगर बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट RBI को बैंक्स का बॉस बनाती है तो SARFAESI एक्ट बैंक्स को उसके क़र्ज़दारों का. ये एक्ट बैंक्स और बाकी फाइनेंशियल संस्थाओं को अधिकार देता है, किसी दिवालिया या डिफॉल्टर संस्था या व्यक्ति की घरेलू या कमर्शियल प्रॉपर्टी को नीलाम करने का.
#इंश्योरेंस एक्ट, 1938. ये एक्ट है, ताकि देश के इंश्योरेंस सेक्टर को सरकार द्वारा नियमित और नियंत्रित किया जा सके. हालांकि इस कानून के अलावा भी कई और क़ानून और संस्थाओं को इंश्योरेंस सेक्टर को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है. जिसमें LIC एक्ट 1956, जनरल इंश्योरेंस बिजनेस एक्ट 1972 शामिल है. संस्थान की बात करें तो IRDA, इंशोरेंस सेक्टर के लिए वही है जो बैंकिंग के लिए RBI है. मतलब मॉनिटर. IRDA का फुल फ़ॉर्म इंश्योरेंस रेगुलेटरी एंड डिवेलपमेंट अथॉरिटी. इसका गठन 1999 में हुआ था.
#पीएफआरडीए एक्ट, 2013. इस एक्ट का उद्देश्य वृद्धावस्था की आय को सुरक्षा देना और पेंशन को प्रमोट करना है. ये एक्ट नेशनल पेंशन स्कीम (NPS) के खाताधारकों के हितों की रक्षा भी करती है. फुल फ़ॉर्म पेंशन फंड रेगुलेटरी एंड डिवेलपमेंट अथॉरिटी एक्ट, 2013. और गवर्निंग बॉडी पेंशन फंड रेगुलेटरी एंड डिवेलपमेंट अथॉरिटी.
नियामक संस्था SEBI के चेयरमैन अजय त्यागी. (तस्वीर: PTI)ऊपर के सभी एक्ट्स में हमने सम्बंधित रेगुलेटरी अथॉरिटी के बारे में भी जानकरी दी है. एक अथॉरिटी बच गई है. नाम है SEBI. फुल फ़ॉर्म सिक्योरिटीज़ एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ़ इंडिया. भारत में स्टॉक मार्केट और सिक्योरटी एक्सचेंज पर नज़र रखने वाली. मतलब हर्षद मेहता टाइप लोगों पर. 12 अप्रैल, 1988 को स्थापित हुई SEBI का मुख्य उद्देश्य मार्केट में मौजूद इन्वेस्टर्स के हितों को रक्षा करना है.