क्या सभी नाज़ी अपराधियों को सज़ा मिल पाई थी?
वर्ल्ड वॉर 2 के बाद कई नाज़ी अमेरिका आ गए थे.

वर्ल्ड वॉर 2 के बाद कई नाज़ी अमेरिका आ गए थे.
एक कमाल की डॉक्यूमेंट्री सीरीज़ है. The Devil Next Door. ये संदिग्ध नाज़ी अपराधी इवान द टेरिबल की कहानी कहती है. पोलैंड में एक जगह है, ट्रेबलिंका. हिटलर 1933 में जर्मनी की सत्ता में आया. हिटलर जर्मनी का शुद्धिकरण करना चाहता था. जो शुद्धता वाली कसौटी पर खरे नहीं उतरते थे, उन्हें मिटाया जाना ज़रूरी था. इस लिस्ट में यहूदी सबसे ऊपर थे. उन्हें साफ़ करने के लिए नई-नई विधियां अपनाई गई. एक तरीका था, कंसन्ट्रेशन कैम्प का. इसमें छांटे गए लोगों को बंद करके रखा जाता. फिर उन्हें गैस चैंबर्स में डालकर मार दिया जाता था. हिटलर के आदेश पर यूरोप के अलग-अलग शहरों में कंसन्ट्रेशन कैंप्स बनाए गए. ऑश्वित्ज़. सोबिबोर. म्युनिख़. ट्रेबलिंका आदि. इवान द टेरिबल इसी ट्रेबलिंका कैंप में गैस चैंबर चलाता था. जो लोग ट्रेन में भरकर लाए जाते, इवान उनका भविष्य तय करता था. वो वहशी था. जब लोग गैस चैंबर की तरफ़ भेजे जा रहे होते, उस समय इवान रास्ते में खड़ा हो जाता. उसके एक हाथ में तलवार होती थी. उससे वो मौत की कतार में जा रहे लोगों पर हमला करता था. इवान किसी को नहीं बख़्शता. जब लोग अपने शरीर से बहते ख़ून को देखकर तड़पते थे, तब वो ज़ोर-ज़ोर से हंसता था. गैस चैंबर में मारने के बाद वो लाशों को भी नहीं छोड़ता था. अनुमान है कि इवान ने ट्रेबलिंका में लगभग दस लाख लोगों को गैस की भट्टी में झोंका था. 1943 का अंत आते-आते नाज़ियों की हालत ख़राब होने लगी थी. मित्र सेनाओं ने उन्हें पीछे धकेलना शुरू कर दिया था. अक्टूबर महीने में वे ट्रेबलिंका पहुंचे. वहां का नज़ारा वीभत्स था. जगह-जगह पर हैवानियत के निशान पड़े हुए थे. जो ज़िंदा बच गए, उनकी हालत दयनीय थी. सबसे हैरान करने वाली बात ये थी कि उन कैंप्स को चलाने वाले नाज़ी पहले ही भाग चुके थे. इवान द टेरिबल का कोई अता-पता नहीं था. उसे अपनी नियति का अंदेशा हो चुका था. 1945 में विश्वयुद्ध का अंत हो गया. हिटलर और उसके प्रोपेगैंडा मिनिस्टर जोसेफ़ गोयबल्स ने आत्महत्या कर ली थी. कई नाज़ी अफ़सर पकड़े भी गए थे. उनके ऊपर न्यूरेम्बर्ग में मुकदमा चला. कुछ को मौत की तो कुछ को उम्रक़ैद की सज़ा मिली. लेकिन ये संख्या कम थी. जिस अनुपात में नाज़ियों ने युद्ध अपराध को अंज़ाम दिया था. उस अनुपात में उन्हें सज़ा नहीं मिली थी. बहुत सारे संदिग्ध न्याय के कटघरे से बचकर निकल चुके थे. इनमें से एक इवान द टेरिबल भी था. ये स्थिति 1977 तक बनी रही. उस साल अमेरिका में आईडी कार्ड मिला. ये इवान द टेरिबल का था. कड़ियां जोड़ने पर पता चला कि फ़ोर्ड कंपनी में काम करने वाला एक शख़्स इवान हो सकता है. उस शख़्स का नाम था, जॉन डिम्यानुक. वो लंबे समय से अमेरिका में रह रहा था. जॉन का भरा-पूरा परिवार था. आरोप लगने के बाद उसके ऊपर मुकदमा चला. अमेरिका ने जॉन की नागरिकता छीन ली. फिर उसे इज़रायल में प्रत्यर्पित करने का फ़ैसला आया. क्योंकि इवान के कहर से पीड़ित अधिकतर लोग यहूदी थे. और, वे इज़रायल में रह रहे थे. मुकदमा शुरू हुआ. इज़रायल और जर्मनी में. ये तय करने के लिए कि क्या जॉन ही इवान दे टेरिबल है? इस मुकदमे का क्या परिणाम निकला? ये जानने के लिए आपको पूरी सीरीज़ देखनी होगी. ये कहानी सुनाने के पीछे हमारा एक मकसद है. क्या? जॉन डिम्यानुक के ऊपर मुकदमा चला. हालांकि, वो इकलौता नाज़ी नहीं था, जो युद्ध अपराधों के आरोपी थे. 1945 में नाज़ी पार्टी की सदस्यता 85 लाख लोगों की थी. उनमें से एक लाख से अधिक वैसे लोग थे, जो सीधे तौर पर नरसंहार में हिस्सा ले रहे थे. लेकिन जब सज़ा की बारी आई तो गिनती के लोगों को ही कटघरे में खड़ा किया जा सका. बाकी युद्ध अपराधी कहां गायब हो गए? कैसे उन्होंने पश्चिमी देशों के चाल और चरित्र को प्रभावित किया? और, आज हम आपको ये सब क्यों सुना रहे हैं? सब विस्तार से बताएंगे.
सबसे पहले बैकग्राउंड समझ लेते हैं.
13 जनवरी 1942. लंदन के सेंट जेम्स पैलेस में मित्र राष्ट्रों की बैठक हुई. इस बैठक में आपसी सहयोग बढ़ाने के अलावा एक और ख़ास मुद्दे पर सहमति बनी. ये मुद्दा था, युद्ध अपराध के दोषियों को सज़ा देना. धुरी राष्ट्रों की हार के बाद अलग-अलग मिलिटरी कोर्ट्स की स्थापना की गई. उनमें दोषियों को सज़ा देने का मिशन शुरू हुआ. हालांकि, इन कोर्ट्स का फ़ोकस मित्र राष्ट्रों पर था. यानी, विजेता देश के नागरिकों के ख़िलाफ़ हुए अपराधों पर. अधिकांश पीड़ित यहूदी जर्मनी और उसके नियंत्रण वाले इलाकों के निवासी थे. जर्मनी पराजितों का देश था. इसलिए, ट्रायल्स के दौरान यहूदियों के ऊपर हुए अत्याचार पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया. 1949 में जर्मन कोर्ट्स को नाज़ी क्रिमिनल्स पर मुकदमा चलाने का अधिकार दे दिया गया. अब वे स्वतंत्र थे. 1950 के दशक में कोल्ड वॉर की आंच गर्म होने लगी थी. इसके चलते नाज़ियों से ध्यान हटने लगा. फिर आया साल 1961 का. इज़रायली खुफिया एजेंसी मोसाद ने एडोल्फ़ आइख़मैन को पकड़ा. वो अर्जेंटीना में छिपकर रह रहा था. आइख़मैन फ़ाइनल सॉल्यूशन का मास्टरमाइंड था. उसे किडनैप कर इज़रायल लाया गया. वहां उसके ऊपर केस चला. दोषी पाए जाने के बाद उसे फांसी पर चढ़ा दिया गया. आइख़मैन के मामले ने नाज़ी अपराधियों वाला चैप्टर दोबारा खोल दिया था. लेकिन राह इतनी आसान नहीं थी. जर्मन कानून में एक लोचा था. हत्या जैसे अपराध में केस चलाने की समयसीमा 20 सालों की थी. यानी अगर मर्डर हुए 20 साल हो गए और इस अवधि में केस शुरू नहीं हुआ तो अपराध ख़त्म मान लिया जाता था. दबाव बढ़ने के बाद इसे बढ़ाकर 30 साल किया गया. फिर लिमिट वाला क्लाउज़ हमेशा के लिए हटा लिया गया. इसके अलावा, आरोपी के ख़िलाफ़ सबूत लाने की पूरी ज़िम्मेदारी केस दायर करने वाले पक्ष की होती थी. अधिकतर मामलों में सरकारें कोई मदद नहीं करती थी. नाज़ियों ने मैदान छोड़ने से पहले अधिकतर रेकॉर्ड्स जला दिए थे. इसका नुकसान ये हुआ कि नीचे के स्तर पर काम करने वाले नाज़ी बेकसूर होकर घूमते रहे. उनका जीवन पहले की तरह चलता रहा. कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाया. जॉन डिम्यानुक का केस एक अपवाद था. हालांकि, उसने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा आराम से गुज़ार लिया था. वो रिटायर होने की उम्र में अदालत पहुंचा था. जो अदालत तक नहीं पहुंचे, वे कहां गए? 1945 में अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने ऑपरेशन पेपरक्लिप चलाया. इसके तहत, हिटलर के लिए काम करने वाले वैज्ञानिकों को अमेरिका लाया गया. इसके दो मकसद थे - पहला, नाज़ियों के सीक्रेट हथियारों का पता लगाना. और दूसरा मकसद था, उन वैज्ञानिकों को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना. इस काम में अमेरिका अकेला नहीं था. ब्रिटेन, फ़्रांस और सोवियत संघ ने भी अपने-अपने फायदे के लिए नाज़ी वैज्ञानिकों को बाहर निकाला. उन्हें सज़ा नहीं होने दी. कुछ उदाहरणों से समझते हैं. वर्नर वोन ब्राउन एक रॉकेट इंजीनियर थे. उन्होंने अमेरिका के लिए पहली बैलिस्टिक मिसाइल ‘रेडस्टोन’ बनाई. वो नासा के स्पेस प्रोग्राम के अहम किरदार थे. ब्राउन को नासा के फ़ाउंडिंग फ़ादर्स में गिना जाता है. उन्हें अमेरिका में नायक का दर्ज़ा मिला है. लेकिन ब्राउन का एक नॉट सो गुड इतिहास भी है. ब्राउन नाज़ी थे. उन्होंने हिटलर के लिए रॉकेट बनाए थे. ब्राउन ने कंसन्ट्रेशन कैंप्स में बंद क़ैदियों से ज़बरदस्ती मज़दूरी भी करवाई थी. उनके सारे गुनाहों को अमेरिका ने पूरी तरह भुला दिया. एक नाम ह्यूबर्टस स्ट्रगहोल्ड का है. स्ट्रगहोल्ड डॉक्टर थे. हिटलर के शासन के दौरान उन्होंने डकाउ कैंप के क़ैदियों पर वीभत्स प्रयोग किए थे. अमेरिका में उन्हें ब्रूक्स एयरफ़ोर्स के मेडिकल डिविजन का मुख्य वैज्ञानिक बनाया गया. कालांतर में उन्हें स्पेस मेडिसिन का जनक कहा गया. मेंगेले जुड़वां बच्चों पर क्रूर प्रयोग करने के लिए कुख्यात था. उसे अर्जेंटीना भागने में रेडक्रॉस ने मदद की थी. बाद में वो ब्राज़ील चला गया. उसने आराम से अपनी ज़िंदगी गुजारी. एक मामला क्लाउस बार्बी का था. उसे ‘लियोन का कसाई’ कहा जाता है. बार्बी फ़्रांस में यहूदियों के नरसंहार का दोषी था. उसे अमेरिका ने अपना जासूस बनाकर रखा. जब फ़्रांस ने उसे सौंपने का दबाव बनाया तो उसे बोलिविया भगा दिया गया. बोलिविया में वो सरकार के सलाहकार के तौर पर काम कर रहा था. वो पुलिस को टॉर्चर करने की तरक़ीबें सिखाता था. उसने बोलिविया में तख़्तापलट में भी मदद की. जब उसका काम ख़त्म हो गया, तब उसे फ़्रांस भेज दिया गया. 1983 में. उसे उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई गई. आठ बरस बाद जेल में ही उसकी मौत हो गई. एडोल्फ़ आइख़मैन को अर्जेंटीना भागने में वेटिकन ने मदद की थी. 1960 के दशक में अर्जेंटीना की सरकार नाज़ी समर्थक थी. उन्होंने आइख़मैन समेत कई नाज़ी अपराधियों को अपने यहां शरण दी. नाज़ी अपराधी कई और देशों में भी पहुंचे. 1970 में ऑस्ट्रिया की सरकार में चार मंत्री नाज़ी थे. चिली में अगस्तो पिनोशे की सरकार ने नाज़ियों को टॉर्चर कैंप चलाने के लिए रिक्रूट किया था. कोल्ड वॉर के दौर में अमेरिका कम्युनिस्ट विचारधारा के ख़िलाफ़ लड़ रहा था. नाज़ी पार्टी की बुनियाद कम्युनिस्ट-विरोध पर रखी गई थी. अमेरिका को लगा कि कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ लड़ाई में ये लोग सबसे बड़ा हथियार साबित होंगे. उसे ये भी डर था कि अगर वे सोवियत संघ के हाथ लग गए तो उसी का नुकसान हो सकता है. इसके चलते उसने नाज़ियों को अपने यहां छिपाए रखा. 1979 में अमेरिका जस्टिस डिपार्टमेंट ने ऑफ़िस ऑफ़ स्पेशल इन्वेस्टिगेशंस (OSI) की स्थापना की. इसे नाज़ियों को अमेरिका से निकालने के लिए बनाया गया था. रिपोर्ट्स के अनुसार, वर्ल्ड वॉर के बाद लगभग दस हज़ार नाज़ी अमेरिका पहुंचे थे. OSI सिर्फ़ तीन सौ को बाहर निकाल पाई. 2006 में जस्टिस डिपार्टमेंट की रिपोर्ट पूरी हुई. इसमें सरकार और नाज़ियों की मिलीभगत की पूरी जानकारी थी. इस रिपोर्ट को चार सालों तक छिपाकर रखा गया. 2010 में रिपोर्ट न्यू यॉर्क टाइम्स के हाथ लगी. फिर पता चला कि किस तरह से CIA ने कुछ सबसे ख़तरनाक नाज़ी अपराधियों को अमेरिका में सुरक्षित पनाह दी.
आज हम ये कहानी क्यों सुना रहे हैं?
दरअसल, चिली में राष्ट्रपति पद के चुनाव हो रहे हैं. पहले राउंड के चुनाव के बाद दक्षिणपंथी उम्मीदवार होज़े अंतोनियो कास्त जीत के प्रबल दावेदार माने जा रहे थे. उन्हें चिली की यहूदी आबादी का समर्थन भी मिल रहा था. 19 दिसंबर को दूसरे राउंड का चुनाव होना है. उससे पहले एसोसिएटेड प्रेस (AP) ने चौंकाने वाला खुलासा किया है. एपी की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि होज़े के पिता माइकल कास्त नाज़ी थे. वो 1950 में जर्मनी से चिली आए थे. रिपोर्ट पब्लिश होने के बाद होजे ने बयान जारी किया. उन्होंने कहा कि वो दशकों पुरानी बात है. अभी मुझे बस इतना पता है कि मैं, मेरे पिता और मेरा पूरा परिवार नाज़ियों से घृणा करता है. उनकी सफ़ाई का कितना असर हो पाएगा, ये तो चुनाव के नतीजे ही बता पाएंगे. हालांकि, ये ज़रूर है कि एपी की रिपोर्ट ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद गायब हुए नाज़ियों के इतिहास का चैप्टर फिर से खोल दिया है.