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वामिका गब्बी से लेकर ग़ालिब तक, अंखियों के झरोखों की तरफ क्यों खींचे चले आते हैं लोग?

Mystery of Eyes: आंखों का मिलना, नजरों का टकराना या फिर अंग्रेजी में बोलें तो Eye Contact में ऐसी बला की खूबी होती है कि सामने वाले का सारा फोकस बस एक जगह सिमट जाता है. साइंस कहता है कि जब कोई हमें डायरेक्ट देखता है और हम उसे देखते हैं तो दोनों का ध्यान एक दूजे पर शिफ्ट हो जाता है. फिर आसपास के सारे डिस्ट्रेक्शन बेमानी हो जाते हैं.

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वामिका गब्बी की आखें (फोटो- Wamiqa Gabbi/Instagram)

मेरे नूर-ए-चश्म, बात कुल जमा एक है, कहने के तरीक़े अलग-अलग हैं. खुसरो कहते हैं कि ‘जिन नैनन में पी बसे, दूजा कौन समाय’. मीरा कहती हैं ‘बसो मेरे नैनन में नंदलाल’. ग़ालिब कहते हैं कि ‘दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई. दोनों को इक अदा में रज़ा-मंद कर गई.’ इंस्टाग्राम वाले कहेंगे कि Wow! Wamiqa Gabbi, her eyes are lit. अल पचीनो कहते हैं, ‘The eyes, Chico, they never lie.’ और बाइबल कहती है कि आँख शरीर का दीपक है.

आंख, नेत्र, नयन, लोचन, चक्षु. क्या तिलिस्म बसते हैं इसके इर्द-गिर्द! कि उठे तो मोहब्बत अंगड़ाई ले. नीची हो तो हया, ऊंची हो तो दुआ. दिखाई जाए तो रोष, ब्लिंक की जाए तो शरारत. हम इंसानों की आंखों के करतब क्या कहते हैं? कैसे प्रभावित करते हैं? नज़रें मिलने का मनोविज्ञान क्या होता है? आंखें ख़ूबसूरती का पैमाना क्यों बन गईं? एक-एक कर के समझते हैं.

खूबसूरत आंखों का कहर

समाज खूबसूरती के पैमानों में जिसे फिट करता है, उसके पीछे इसी समाज द्वारा गढ़े गए कुछ नियर टू परफेक्ट एलिमेंट्स छिपे होते हैं. जैसे, एक शानदार फोटो के लिए चाहिए, परफेक्ट लाइटिंग, बढ़िया कैमरा और कलावंत फोटोग्राफर. तयशुदा मानकों से इतर देखें तो विद्वान कह गए हैं कि 

Beauty lies in the eyes of the beholder.

लेकिन जब बात आंखों की खूबसूरती की हो तब बात होती है, आंखों के एलिमेंट्स की. जैसे-  

  • पुतलियां यानी प्यूपिल
  • पलकें यानी आईलैशेस
  • आइरिस और उसका रंग 

अब यही एलिमेंट्स एक कॉम्बिनेशन में बैठ गए तो आंखें ऐश्वर्या राय या वामिका गब्बी जैसी हो सकती हैं. लेकिन ये कॉम्बिनेशन बनता कैसे है, इसे भी समझा जाए. पहले बात करते हैं आईरिस और पुतलियों की.

  • आइरिस. आंखों का रंगीन हिस्सा. जो ब्लैक, ब्राउन, या ब्लू हो सकता है. 
  • पुतली- आईरिस के बीच का छोटा सा ब्लैक डॉट, जो अलग-अलग वातावरण और इमोशन के हिसाब से छोटी-बड़ी होती रहती है. जैसे लाइट कम होगी तो पुतलियां बड़ी हो जाएंगी. लाइट चौंधियाने वाली होगी तो पुतलियां छोटी हो जाती हैं.  

साइंस डायरेक्ट नाम की एक वेबसाइट है, कई विषयों पर शोध करती है. इस पर एक रिसर्च पेपर पब्लिश हुआ ‘ब्यूटी इज़ इन द आईरिस’. इसमें ये कहा गया कि छोटी पुतलियों वाली आंखें लोगों को ज्यादा अट्रैक्टिव लगती हैं. स्टडी में एक प्रयोग किया गया. कई लोगों को दो तरह की कई सारी तस्वीरें दिखाई गईं:

  • पहली फोटो में पुतलियां बड़ी थीं. 
  • दूसरी फोटो में पुतलियां छोटी.

फोटो में चेहरे का एक्सप्रेशन, सेटिंग जैसी सभी चीज़ें बिल्कुल सेम थीं, लेकिन फिर भी करीब 60% लोगों (जिसमें महिलाएं और पुरुष दोनों शामिल हैं) उनका कहना रहा कि छोटी पुतलियों वाली फोटो में आंखें ज्यादा खूबसूरत लग रही थीं. सवाल है कि ऐसा क्यों है? जब पुतलियां छोटी होती हैं, तो आईरिस का रंग और पैटर्न ज़्यादा उभरकर सामने आता है. यही आंखों को वो चमक देता है, जो लोगों को आकर्षित करता है. 

आंखों का रंग 

अब किसी की आइरिस नीली, किसी की भूरी, और किसी की हरी. ऐसा क्यों होता है? असल में हमारे शरीर में एक खास केमिकल होता है जिसे मेलेनिन कहते हैं. ये न केवल हमें सूरज की हानिकारक UV रेज़ से बचाता है, बल्कि हमारी त्वचा और आंखों के रंग को भी तय करता है. शरीर में जितना ज्यादा मेलेनिन होगा, स्किन उतनी ही डार्क होगी. वैसे ही, आंखों में मौजूद आईरिस में भी मेलेनिन होता है. आईरिस में दो परतें होती हैं. बैक लेयर और फ्रंट लेयर. 

  • जब दोनों बैक और फ्रंट लेयर में मेलेनिन की मात्रा ज्यादा होती है. तब व्यक्ति की आंखें ब्राउन रंग की होती हैं. गाने का पता नहीं पर ये वाला ब्राउन रंग मेलेनिन ने ही बनाया है. इट्स योर बॉय मेलेनिन.
  • जब फ्रंट लेयर में मेलेनिन की मात्रा कम होती है तब आंखों का रंग नीला हो जाता है. 
  • और जब इस फ्रंट लेयर में मेलेनिन की मात्रा ऑलमोस्ट न के बराबर होती है तो आंखों का रंग हरा या ग्रे हो जाता है. ये आंखों के सबसे रेयर कलर होते हैं. और ये उपजे हैं मेलेनिन डेफिशिएंसी से. है न मज़े की बात.  

साइंस डायरेक्ट के रिसर्च पेपर 'ब्यूटी इज़ इन द आइरिस' में कलर के बारे में भी बात की गई है. इसके मुताबिक 60% से ज्यादा पुरुषों को नीली आंखों वाली महिलाएं आकर्षक लगती हैं. जैसे Alexandra डडैरियो. ब्लू आइज़ के अलावा ग्रे, ब्राउन और ग्रीन आईज भी पुरुषों को काफी पसंद आती हैं. आंखों के रंग के मामले में पुरुषों और महिलाओं की पसंद काफी अलग है. महिलाओं को सबसे ज्यादा भूरी आंखों वाले पुरुष पसंद आते हैं. 

Eye color
आंखों के विभिन्न रंग (PHOTO-Wikipedia)

तो कॉम्बिनेशन ये है. छोटी पुतलियां, गहरी आंखें और उन आंखों की चमक में उभरते आइरिस के रंग की खूबसूरती. ख़ुदा बचाए तिरी मस्त मस्त आंखों से,फ़रिश्ता हो तो बहक जाए आदमी क्या है. लेकिन आंखें देखकर लोग दीवाने क्यों हो जाते हैं? इस कॉम्बिनेशन में पलकों का बड़ा रोल है. समाज की कंडीशंड समझ कैसी पलकों को परफेक्ट मानती है? 

इस पर कई रिसर्च और सर्वे हुए हैं. हर बार एक ही समस्या पलकों की सही लंबाई क्या हो, इसे कैसे तय किया जाये. क्योंकि ऐसा एक पलकों का साइज़ नहीं है जो सब पर फबे. इसका जवाब मिला गणित में. कई रिसर्च के बाद विशेषज्ञ इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पलकों की लंबाई आंखों की चौड़ाई के अनुपात में होनी चाहिए. लेकिन ये अनुपात कितना होना चाहिए? इसपर विस्तार से साइकोलॉज़ी टुडे नाम की वेबसाइट पर एक आर्टिकल छपा, ‘What’s the most attractive eyelash length?’. 

इसके मुताबिक, वे आंखें ज़्यादा अच्छी लगती हैं जिनमें पलकों की लंबाई और आंखों की चौड़ाई का अनुपात महिलाओं के लिए 1:4 से लेकर 1:3 के आस-पास हो. वहीं पुरुषों के लिए ये है करीब 1:10 से लेकर 1:4 के बीच. ये वो मानक हैं जिन्हें इस समाज में सुंदर माना गया है, प्रचलित पैमानों के हिसाब से. अब समझते हैं कि आंखें कैसे विचार या भावनाओं की अभिव्यक्ति का साधन बन जाती हैं. कैसे कुछ लोग हमारी आंखें देखकर अंदाजा लगा लेते हैं कि मन में क्या चल रहा है.

निगाहों पर नज़रें 

दिमाग में insula cortex नाम का एक हिस्सा होता है जो हमारे इमोशंस को मैनेज करता है. हमें महसूस होने वाले लगभग ज्यादातर इमोशंस जैसे ख़ुशी, गुस्सा, प्यार, नफरत सब यहीं से मैनेज होते हैं. कई रिसर्च कहते हैं कि insula cortex के रिस्पॉन्स हमारे चेहरे के एक्सप्रेशंस पर गहरा असर डालते हैं. यही वजह है कि हमारी फीलिंग्स हमारे चेहरे और ख़ासकर हमारी आंखों में झलकती है. 

Insula cortex के अलावा हमारे दिमाग में कुछ और हिस्से भी होते हैं जैसे सुपीरियर टेम्पोरल सलकस और फ्यूज़ीफॉर्म जायरस. ये हमें सामने वाले के फेशियल एक्सप्रेशंस को समझने और डिकोड करने में मदद करता है. इसीलिए हम किसी की आंखों में देखकर उसके दिमाग में चल रही फीलिंग्स पढ़ पाते हैं. एक रिसर्च पेपर है, ‘Seeing emotions in the eyes’.

इसके मुताबिक जब लोगों को अलग-अलग इमोशंस दर्शाती आंखों की तस्वीरें दिखाई गईं तो कई केसेस में लोगों ने बिलकुल सटीक और सही इमोशन डिकोड किया. सबसे आसानी से लोग ख़ुशी, दुःख, calmness जैसे इमोशन जज कर पाए. यानी ये बात पूरी तरह वैज्ञानिक है कि लोग आंखों में झलकते इमोशंस को पढ़ पाते हैं. ये एक बड़ा कारण है कि अभिनय में आंखों का बड़ा महत्व होता है. चाहे सिनेमाई अभिनय हो या थियेटर ड्रामा. मिसाल के तौर पर हम इरफ़ान की आंखें, अमरीश पुरी की आंखों की बात करते, सराहते आए हैं. 

ये तो हुई बात, आंखों के जरिये होने वाले संवाद की. लेकिन आंखों का एक पहलू आई कॉन्टैक्ट भी है.   

नैनों से नैना टकराये

पर बात ये है कि आई कॉन्टैक्ट का असर क्या होता है. जब नज़र से नज़र मिलती है तो एक हूक सी क्यों उठती है सीने में? या कि स्नेह का सोता क्यों फूटता है? हमारे रिश्ते, हमारे बोलने के तरीके, हमारी फीलिंग्स कैसे आई कॉन्टैक्स से प्रभावित होती हैं? 

जब दो लोग एक-दूसरे की आंखों में देखते हैं, तो एक ट्रस्ट पैदा होता है. भरोसा. कैसे? अभी हमने समझा कि आंखों के जरिये आप सामने वाले के मन को कुछ हद तक पढ़ सकते हैं. अगर बातें और आंखों से झलकते एहसास का तार जुड़ा हो तो एक अश्योरेंस मिलती है. एक दूसरे को समझने का एहसास पनपता है. 

दूसरी बात ये कि आई कांटेक्ट पूरी अटेंशन कैप्चर करने की क्षमता रखता है. जैसे अगर कोई हमें डायरेक्ट देखता है और हम उसे देखते हैं तो दोनों का ध्याना एक दूजे पर पूरी तरह फ़ोकस हो जाता है. बाक़ी व्यवधान किनारे हो जाते हैं. बीबीसी के एक आर्टिकल ‘Why meeting another’s gaze is so powerful’ के मुताबिक लोग आई कॉन्टेक्ट के बेस पर लोगों को जज भी करते हैं. 

कुछ कल्चर्स में किसी की आंखों में देखने से आप ज्यादा इंटेलिजेंट, सच्चे, और भरोसेमंद लगते हैं. लेकिन ज्यादा आई कॉन्टेक्ट कई बार अनकंफर्टेबल या अजीब लग सकता है. रिसर्च के अनुसार, आदर्श आई कॉन्टेक्ट तीन सेकंड का होता है. इससे ज़्यादा करोगे तो घूरना कहलाएगा.

कुछ मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि आई कॉन्टैक्ट से ये भी लगने लगता है कि सामने वाली की पर्सनैलिटी आपसे मिलती जुलती है. इससे भी एक कनेक्शन, एक भरोसा पैदा होता है, हालांकि इसके विज्ञान पर पूरा अध्ययन अभी होना बाक़ी है. आई कॉन्टेक्ट का असर सिर्फ दिमाग पर नहीं होता. इससे हमारे कुछ फिजिकल फीचर्स में भी बदलाव आता है. 

कुछ एक्सपर्ट मानते हैं कि  जब कोई किसी की आंखों में देखता है, तो उसकी पुतलियां सामने वाले की पुतलियों से सिंक हो जाती हैं. यानी दोनों की पुतलियां एक साथ फैल सकती हैं या सिकुड़ सकती हैं. ये इंसानी इंटरेक्शन का एक अहम हिस्सा है. आंखों का संपर्क हमें दूसरों को समझने और कनेक्ट करने में मदद करता है, यूं ही नहीं इसे ‘विंडो टू द सोल’ कहा जाता है. इसलिए नौकरी के इंटरव्यू में हों या पटना के प्रदर्शन में, आंख मिलाकर बात करिए.

वीडियो: आसान भाषा में: आखिर ऐसा क्या है आंखों में जो लोग खिंचे चले आते हैं?