साल 1977 का सितंबर-अक्टूबर. बस कुछ महीने पहले आपातकाल ख़त्म हुआ था. इंदिरा गांधी सत्ता से जा चुकी थीं. जनता पार्टी की जीत के साथ मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बन चुके थे. मगर सितंबर की आमद और हरसिंगार के गुंचों के साथ उन पौने दो सालों की महक भी लोकतंत्र की फ़िज़ा में थी. इधर, दिल्ली के दिल में बनी जवाहरलाल यूनिवर्सिटी में भी नया अध्यक्ष चुना गया था. आंध्र प्रदेश का एक 25 साल का लड़का.
सीताराम येचुरी: एक सच्चा लाल-ए-लाल जिसकी मंद मुस्कान के पीछे 'प्रैक्टिकल' वामपंथी था
Sitaram Yechury को बीते तीस सालों के सबसे प्रभावशाली नेताओं की फ़हरिस्त में गिना जाएगा. उनके गुज़रने पर प्रधानमंत्री मोदी से लेकर देश के हर छोटे-बड़े दल के नेता ने उन्हें आख़िरी सलाम कहा है.
JNU छात्रसंघ ने ‘पनिश द गिल्टी’ (दोषियों को सज़ा दो) के लिए बड़ा आंदोलन चलाया. एक रोज़ 500 छात्रों का हुजूम पूर्व-प्रधानमंत्री और तब JNU की चांसलर इंदिरा गांधी के आवास की तरफ़ बढ़ा. सबसे आगे, नया अध्यक्ष — वही लड़का. 1, सफ़दरजंग रोड के बाहर जमकर नारेबाज़ी हुई. 15 मिनट बाद इंदिरा बाहर आईं. उनके साथ ओम मेहता थे, जो आपातकाल के दौरान गृह राज्य मंत्री रहे. उनके बाहर आते ही JNU छात्रसंघ अध्यक्ष ने एक ज्ञापन पढ़ा. छात्रसंघ की मांगों की एक लिस्ट और आपातकाल के दौरान जनता के ख़िलाफ़ इंदिरा सरकार के अपराधों का ब्यौरा. इस तर्ज़ पर छात्रसंघ अध्यक्ष ने बतौर चांसलर इंदिरा का इस्तीफ़ा मांगा. विरोध मार्च के कुछ दिनों बाद इंदिरा गांधी ने इस्तीफ़ा दे दिया.
25 साल के उस यूनिवर्सिटी स्टूडेंट ने देश की पूर्व-प्रधानमंत्री का इस्तीफ़ा ले लिया. इस घटना को 47 बरस बीत गए हैं. आज 12 सितंबर, 2024 के दिन वो शख़्स भारत की राजनीति में अपना अमिट दस्तख़त कर के गुज़र गया. इसी सितंबर, फिर इन्हीं हरसिंगार के गुंचों की महक के बीच.
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व-महासचिव सीताराम येचुरी लंबे समय से फेफड़ों के संक्रमण से जूझ रहे थे. 12 सितंबर को दिल्ली स्थित AIIMS में उनकी देह बीत गई.
‘छात्र’ जीवनचेन्नई में एक तेलुगु भाषी परिवार में जन्म हुआ. 12 अगस्त, 1952 को. पिता आंध्र प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम में इंजीनियर थे और मां भी सरकारी मुलाज़िम थीं. शुरुआती दिन हैदराबाद में बीते. फिर 1969 के तेलंगाना आंदोलन के बाद दिल्ली चले आए. CBSE में 12वीं टॉप की. ऑल इंडिया रैंक- 1.
इसके बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफ़न्स कॉलेज में दाख़िला लिया. ग्रैजुएट हुए, तो अर्थशास्त्र में गोल्ड मेडल के साथ. मास्टर्स की पढ़ाई के लिए वो दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स जा सकते थे. वो एक स्थापित संस्था थी. तब भी. मगर उन्होंने नई-नई बनी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को चुना. यही चुनाव उनके जीवन यात्रा का एक संदर्भ बिंदु बन गया.
दी हिंदू के लिए शोभना के नैयर ने उनकी प्रोफ़ाइल में लिखा है कि JNU का माहौल उनके लिए भी अजब था. यहां प्रोफ़ेसर छात्रों को नाम से बुलाते थे, ख़ुद भी नाम से बुलाने के लिए कहते थे और छात्रों के साथ सिगरेट पीते थे. यहीं उनके राजनीतिक सफ़र की कली फूटी. इमरजेंसी के दौरान यूनिवर्सिटी में ख़ूब विरोध प्रदर्शन होते थे. वो इसमें भाग लेते थे. चुनांचे गिरफ़्तार भी हुए. गिरफ़्तारी की वजह से PhD पूरी न हो पाई.
इमरजेंसी ख़त्म हुई, तो छात्रसंघ अध्यक्ष बने. एक नहीं, तीन बार. माने छात्रों के बीच पॉपुलर थे. इंदिरा गांधी के इस्तीफ़े से और पॉपुलर हुए. उन्हीं की अध्यक्षता के दौरान वाइस-चांसलर बीडी नागचौधरी से पंगा भी हुआ था. छात्रों ने उन्हें परिसर में घुसने से रोका, तो सरकार ने अनिश्चितकाल तक यूनिवर्सिटी बंद करने का आदेश जारी कर दिया. लेकिन छात्रों और शिक्षकों ने मिलकर सुनिश्चित किया कि विश्वविद्यालय चलता रहे. तमाम क्लासें चलती रहीं, मेस चलता रहा, लाइब्रेरी 24 घंटे खुली रही, यहां तक कि चंदा भी जुटाया. ऐसा लगभग चालीस दिनों तक चला.
ऑब्ज़र्वर्स कहते हैं कि येचुरी और उनके सीनियर प्रकाश करात के शुरुआती प्रयासों की वजह से भी JNU ‘वामपंथियों का गढ़’ बना.
'द प्रैक्टिकल कम्युनिस्ट'येचुरी भरसक मार्क्सवादी थे. मगर जानने वाले कहते हैं कि और कम्युनिस्टों से उलट वो लोकतांत्रिक और व्यावहारिक राजनीति की अनिवार्यता और सीमाओं को भी समझते थे.
CPI(M) का छात्र संगठन SFI तो वो 1974 में ही जॉइन कर चुके थे. साल 1984 तक उन्हें अपने JNU के साथी प्रकाश करात के साथ केंद्रीय समिति में शामिल कर लिया गया. तब वो सिर्फ़ 32 बरस के थे. CPI(M) के उच्च पद पर स्वीकार किए जाने वाले सबसे कम-उम्र के लोगों में से एक. केंद्रीय समिति में शामिल होने के बाद उन्होंने बड़े कम्युनिस्ट ईएमएस नंबूदरीपाद, एम बसवपुन्नैया और बाद में हरकिशन सिंह सुरजीत के साथ बहुत क़रीब से काम किया. आठ साल बाद - 1992 में - उन्हें पोलित ब्यूरो का सदस्य बना दिया गया.
तीनों नेताओं ने येचुरी की क्षमता पहचानी. उन्हें और करात को भविष्य के नेतृत्व के लिए तैयार किया. सोवियत संघ के पतन के बाद दुनिया की सभी सक्रिय लेफ़्ट पार्टीज़ ने अपनी भविष्य के लिए बैठक की. 1992 में CPI(M) की पार्टी कांग्रेस में येचुरी ने तर्क दिया कि सोवियत संघ और पूर्व- यूरोप के समाजवादी देशों के पतन से न तो मार्क्सवाद-लेनिनवाद ख़त्म हुआ है, न ही समाजवाद के आदर्श और न ही इस तथ्य को मिटाया जा सकता है कि समाजवाद ने मानव जीवन और सभ्यता को बेहतर करने में अहम योगदान दिया है.
सिद्धांत और गठबंधन के बीच की राजनीतियेचुरी के सबसे सक्रिय साल गठबंधन परिदृश्य के बीच बीते, और वो इसकी अहम कड़ी थे. उन्होंने पार्टी के पूर्व-महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत की ‘गठबंधन विरासत’ को जारी रखा. 1996 में उन्होंने संयुक्त मोर्चा सरकार के लिए कॉमन मिनिमम प्रोग्राम का मसौदा तैयार करने में हाथ लगाया. बाद में 2004 और 2009 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली UPA सरकारों के गठबंधन के पीछे भी उन्हीं का दिमाग़ था.
यहां तक कि 2024 के आम चुनावों से पहले विपक्षी दलों को एक साथ लाने और INDIA ब्लॉक बनाने में भी अगुआ थे.
हालांकि, उनके राजनीतिक क़दमों की दो व्याख्याएं हैं. हार्डलाइनर्स इसी राजनीति को ‘समझौता’ भी कहते हैं.
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येचुरी और करात कॉलेज के समय से ही साथ-साथ थे. यहां तक कि उन्होंने अपनी पार्टी के क़द्दावर ज्योति बसु की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को भी साथ चुनौती दी थी. लेकिन अंततः विचारों और स्टैंड के स्तर पर उनके रास्ते अलग हो गए. भारत-अमेरिका परमाणु समझौते को लेकर उनके बीच मतभेद थे. करात अडिग थे कि उन्हें कांग्रेस का साथ नहीं देना चाहिए. मगर येचुरी ने इसका विरोध किया. उनका मानना था कि वामपंथियों को धर्मनिरपेक्ष सरकार से समर्थन वापस नहीं लेना चाहिए. तर्क दिया कि अगर वो कांग्रेस से अलग हो जाते हैं, तो MNREGA और सूचना के अधिकार जैसी सफलताओं से लेफ़्ट पार्टीज़ का नाम कट जाएगा.
दोनों की ‘फूट’ को और क़ायदे से समझने-जानने के लिए ये वीडियो देख लीजिए:
हिंदुस्तान टाइम्स के सीनियर एडेटिर सौभद्रो चटर्जी ने लिखा है कि येचुरी ने कभी भी वैचारिकी के पार जाकर लोगों से मिलने और पश्चिम के अच्छे लोगों को गले लगाने से पहरेज़ नहीं किया. अपने एक कॉलम में उन्होंने माइकल जैक्सन और उस्ताद अली अकबर ख़ान का जिक्र किया था:
इससे भौतिकवाद और आदर्शवाद के बीच सदियों पुरानी लड़ाई को सुलझाने में मदद मिलेगी, क्योंकि हमें ये समझना ही होगा कि हमारा दिमाग़ मैटर का सर्वोच्च रूप है.
19 अप्रैल, 2015 को विशाखापटनम में पार्टी की 21वीं कांग्रेस में उन्हें पार्टी का पांचवां महासचिव चुना गया. उनसे पहले इस पद पर प्रकाश करात थे, जो तीन बार से चुने जा रहे थे. इसके बाद अप्रैल, 2018 में हैदराबाद में आयोजित 22वीं पार्टी कांग्रेस में येचुरी को फिर से महासचिव चुना गया. अप्रैल, 2022 में तीसरी बार. गुज़रते सालों के साथ येचुरी दिल्ली का सबसे प्रमुख कम्युनिस्ट चेहरा बने.
मगर उनके कमान संभालने के बाद भी पार्टी की इलेक्टोरल छाप में कोई ख़ास असर नहीं आया. इंडियन एक्सप्रेस के मनोज सीजी ने लिखा है कि 2004 में माकपा के पास सर्वाधिक 43 सीटें थीं, वो 2009 में सिकुड़ कर 16 पर आ गई. येचुरी के महासचिव बन जाने के बाद भी इसमें कोई सुधार नहीं आया. 2016 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में पार्टी की सीटें और कम हो गईं. फिर दो साल बाद, पार्टी अपना 25 साल पुराना गढ़ त्रिपुरा भी हार गई.
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इस बीच 2005 से 2017 तक सीताराम राज्यसभा के सदस्य भी रहे. पार्टी नियमों और आंतरिक विरोध की वजह से उन्हें तीसरा कार्यकाल नहीं मिल पाया. संसद के इतिहास में भी उन्हें एक ‘शार्प पार्लियामेंटेरियन’ के तौर पर याद किया जाएगा. उनके तीखे भाषणों में हास्य और बुद्धिमता का बैलेंस सुनाई देता था. उनका एक फ़ेवरेट डायलॉग था:
राज्यसभा का रंग लाल है और लोकसभा का हरा. इसीलिए अगर लोकसभा किसी दोषपूर्ण विधेयक को हरी झंडी देती है, तो राज्यसभा को उसे लाल बत्ती दिखानी चाहिए.
भाजपा के दिग्गज रहे अरुण जेटली ने उनके विदाई भाषण में कहा था कि येचुरी ने सदन में बहस का स्तर को बढ़ाने में योगदान दिया है. अगर वो बहस में कुछ कहते थे, तो और लोगों को भी उनके मानक पर खरा उतरना पड़ता था.
‘सबके मित्र’अपनी मंद मुस्कान और सज्जन व्यक्तित्व के लिए जान गए कॉमरेड येचुरी ज़माने तक कांग्रेस-विरोधी ख़ेमे का चेहरा रहे, और ज़माने तक बीजेपी-विरोधी ख़ेमे का भी. बावजूद इसके, उनकी मित्रता पार्टी-लाइन से परे थी. वो उन दुर्लभ कम्युनिस्ट नेताओं में से एक थे, जिनसे भाजपा के नेता भी बात कर सकते थे. 2022 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी एक तस्वीर बहुत वायरल हुई थी. दोनों हाथ पकड़े हंस रहे थे.
दी प्रिंट के एडिटर-इन-चीफ़ शेखर गुप्ता ने 2009 में येचुरी का इंटरव्यू लिया था. NDTV के लिए. उसमें विचार और आदर्शों पर येचुरी ने कहा था,
विचारधारा और आदर्शवाद. मुझे लगता है, ये बहुत क़रीब से गुथे हैं. आदर्शवाद आपको बदलाव की तलाश करने के लिए प्रेरित करता है. अब, जो बदलाव होना चाहिए, वही विचारधारा है. और मुझे लगता है कि कम से कम मेरे मामले में, दोनों एक हो गए हैं.
मार्क्सवाद के लिए येचुरी कहते हैं कि मार्क्सवादी होने के लिए आपको लगातार बदलते रहने की ज़रूरत है... जो बदलता नहीं, वो मार्क्सवाद नहीं.
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लगातार कॉलम्स और ओपीनियन पीस लिखने के साथ येचुरी ने कई किताबें भी लिखी हैं. मसलन, 'लेफ़्ट हैंड ड्राइव', 'वॉट इज़ दिस हिंदू राष्ट्र', 'सोशलिज़्म इन 21 सेंचुरी', 'कम्युनलिज़्म बनाम सेक्युलरिज़्म', वग़ैरह. आज की तारीख़ में ऐसे कम नेता हैं, जो सक्रिय राजनीति में रहते हुए इतना पढ़ते-लिखते हैं.
सीताराम येचुरी के नाम में भले ही सीता-राम हो, मगर वो ख़ुद को एक नास्तिक कहते थे. उनका कोई अंतिम संस्कार नहीं किया जाएगा. उनके परिवार ने जानकारी दी है कि उनका शरीर माकपा के दिल्ली हेडक्वॉर्टर में रखा जाएगा, फिर शिक्षण और शोध के लिए AIIMS को दान कर दिया जाएगा.
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