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K2 को दुनिया का सबसे क्रूर पहाड़ क्यों कहा जाता है?

इस वक़्त ये चर्चा में क्यों है?

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K2 की चढ़ाई करने गए तीन पर्वतारोही कहां गायब हो गए?
उस अंधेरी रात में शेरपा चिरिंग दोरजे और मौत के बीच बस एक चीज थी, बर्फ़ वाली कुल्हाड़ी. एक बर्फ़ीली चट्टान से लटके चिरिंग को कुछ नहीं दिख रहा था. उन्हें बस भयानक आवाज़ें सुनाई दे रही थीं. ऐसा लग रहा था, मानो पर्वत की देवी तकार डोलसांगमा अपने हरे ड्रेगन पर सवार होकर पहाड़ को मथ रही हों. 

ये 1 अगस्त, 2008 की तारीख़ थी. करीब आधी रात का वक़्त रहा होगा. शेरपा चिरिंग इस वक़्त दुनिया के सबसे ख़तरनाक पर्वत के सबसे भीषण स्ट्रेच पर झूल रहे थे. ख़ुद को बचाने के लिए उन्हें बस एक कुल्हाड़ी का सहारा था. इसी को बर्फ़ में धंसाकर उन्हें ग्रिप बनानी थी. मगर ऊपर से गिर रहे बर्फ़ के टुकड़ों के बीच ये ग्रिप बनाना बहुत मुश्किल था. एक भी चूक होती और कहानी ख़त्म थी. अकेले चिरिंग की नहीं, उनकी पीठ की रस्सी के सहारे नीचे लटके पसांग लामा की भी. 

चिरिंग की तरह पसांग भी पर्वतारोही थे. उस रोज़ पहाड़ से उतरते हुए रास्ते में उन्होंने एक ज़रूरतमंद पर्वतारोही को अपनी कुल्हाड़ी दे दी थी. पसांग ने सोचा था, फिक्स्ड रस्सी के सहारे उतर जाएंगे. मगर ऐवलांच में वो रस्सी टूट गई. पसांग पहाड़ के एक बेहद ख़तरनाक मोड़ पर अकेले फंस गए. अब एक ही उम्मीद थी. ये कि कोई और पर्वतारोही उन्हें रस्सी के सहारे अपनी पीठ से बांधकर नीचे उतरे. इसमें बहुत ख़तरा था. पसांग के पास कुल्हाड़ी नहीं थी. ऊपर से बर्फ के टुकड़े गिर रहे थे. ऐसे में पसांग ग्रिप कैसे बनाते? एक बार भी उनका पैर फिसलता, तो उनके साथ-साथ उन्हें पीठ से बांधने वाले पर्वतारोही की भी मौत तय थी. मगर चिरिंग ने सारा ज़ोखिम समझते हुए भी अजनबी पसांग की मदद की. उन्हें अपने साथ ले आए. 

उस रात चिरिंग और पसांग के पहाड़ से उतरने की कहानी दुनिया की सबसे ख़तरनाक यात्राओं में से एक है. ये उसी तारीख़ की कहानी है, जब उस पहाड़ ने 11 बेहतरीन पर्वतारोहियों की जान ले ली थी. ये कहानी है उस पहाड़ की, जहां जाने वाले के लौटकर आने की कोई गारंटी नहीं होती. दुनियाभर के माउंटेनियर इस पहाड़ को कहते हैं- सैवेज़ माउंटेन. वो बर्बर पहाड़, जो आपको मारने की हर मुमकिन कोशिश करता है. 
चिरिंग दोरजे शेरपा ने उस काली रात पर कैसे विजय पाई, ये कहानी अपने आप में बेमिसाल है.
चिरिंग दोरजे शेरपा ने उस काली रात पर कैसे विजय पाई, ये कहानी अपने आप में बेमिसाल है.


एक बार फिर ये पहाड़ सुर्ख़ियों में है. इसपर फंसे तीन पर्वतारोहियों को रेस्क्यू करने की सारी कोशिशें नाकाम हो चुकी हैं. इन तीनों में पाकिस्तान का वो नंबर वन माउंटेनियर भी शामिल है, जो कहता था कि आप पहाड़ तभी चढ़ पाएंगे, जब आपकी दिल्लगी हो उनसे. कौन सा पहाड़ है ये? क्या है इसका इतिहास? इसके इतना ख़तरनाक होने के बावजूद क्यों लोग इसे चढ़ने के लिए अपनी जान का जुआ खेलते हैं?
शुरुआत करेंगे 1856 के साल से. तब भारत अंग्रेज़ों का ग़ुलाम था. अंग्रेज़ों का एक प्रॉजेक्ट हुआ करता था उन दिनों- द ग्रेट ट्रिगनोमैट्रिकल सर्वे. इस सर्वे का मकसद था, पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की चोहद्दी मापना. पूरी वैज्ञानिक सटीकता के साथ. ये सर्वे शुरू तो हुआ 1802 में, मगर टॉपिक के लिहाज से हमारा इंट्रेस्ट ईयर है 1856. इस वक़्त इस सर्वे के कमिश्नर थे, लेफ़्टिनंट थॉमस जॉर्ज मॉन्टगोमरी. उन्हें ब्रीफिंग मिली थी कि कश्मीर और चीन के बीच की सीमा आइडेंटिफाई करना. इसके लिए ज़रूरी था कि भारतीय सीमा में पड़ने वाली सारी पहाड़ी श्रृंखलाओं की पहचान हो. उनकी चोटियां चिह्नित की जाएं.
इसी सिलसिले में मॉन्टगोमरी एक दफ़ा पहुंचे माउंट हरमुख. ये कश्मीर के गांदरबल ज़िले में पड़ती है. गांदरबल झील से उठते हुए इस पहाड़ को कश्मीर के हिंदू शिव का घर मानते थे. इसी पहाड़ से एक रोज़ मुआयना कर रहे मॉन्टगोमरी ने बहुत दूर उत्तर की दिशा में एक ऊंची चोटी देखी. उन्होंने इस चोटी को नाम दिया- K1. फिर मॉन्टगोमरी को इस K1 से भी पीछे एक बड़ी चोटी दिखाई दी. इसका नाम रखा गया- K2.
K2 को खोजने वाले थॉमस जॉर्ज मॉन्टेगमरी.
K2 को खोजने वाले थॉमस जॉर्ज मॉन्टेगमरी.


ये दोनों पहाड़ी चोटियां काराकोरम श्रृंखला का हिस्सा थीं. उनके नाम से जुड़े K का मतलब काराकोरम ही था. कहां पड़ती थीं ये? एकदम कश्मीर और चीन की सीमा पर. जहां गिलगित-बाल्टिस्तान है न, वहीं. K1 और K2, ये दोनों नाम अस्थायी थे. बस शुरुआती रेफरेंस के लिए चोटियों की नंबरिंग की गई थी. सर्वेयर्स का मकसद था, चोटी की पहचान करने के बाद स्थानीय लोगों से बातचीत करना. पता करना कि वो उस चोटी को क्या कहकर पुकारते हैं. 
अब यहां एक दिक्कत हो गई. स्थानीय बाल्टी लोगों के पास K1 के लिए तो एक नाम था- माशेरब्रुम. मगर K2 को लेकर कन्फ़्यूजन था. विशालकाय ग्लेशियर्स और ढेर सारे पहाड़ों से घिरी ये चोटी किसी भी स्थानीय गांव से नज़र नहीं आती थी. ऐसे में जब स्थानीय लोगों से पूछा गया, तो उन्होंने इसके लिए टर्म इस्तेमाल किया- छोगोरी. बाल्टी भाषा में इसका मतलब होता है, बड़ा पहाड़. सर्वेयर्स को समझ नहीं आया कि छोगोरी सच में कोई नाम है या बस डिस्क्रिप्शन. बाद में सर्वेयर्स इस सहमति पर पहुंचे कि ये चोटी इतनी रिमोट थी कि शायद उसे किसी ने पहले कभी देखा ही नहीं. इसीलिए आम बोलचाल में उस चोटी के लिए कोई पर्टिकुलर नाम नहीं था. सो इस चोटी को मिला वो अस्थायी नाम K2 ही परमानेंट हो गया. 
K2 की पहचान तो हो गई, मगर अब भी उसकी ठीक-ठीक लोकेशन और ऊंचाई की जानकारी नहीं थी. ये जानकारी जुटाई हेनरी गॉडविन ऑस्टेन ने. वो मॉन्टगोमरी की ही टीम में थे. कई लोग उन्हें अपने दौर का सबसे महान पर्वतारोही कहते हैं. नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर, ख़ासकर काराकोरम को एक्सप्लोर करने, इसके भूगोल का दस्तावेज़ बनाने में हेनरी का काम यादगार माना जाता है. हेनरी ही थे, जो सबसे पहले K2 के बेस पर स्थित ग्लेशियर तक पहुंचे. उन्होंने दुनिया को बताया कि K2 कोई सामान्य पर्वत चोटी नहीं है. ये माउंट एवरेस्ट के बाद दुनिया की दूसरी सबसे ऊंची चोटी है. 
K2 दुनिया की दूसरी सबसे ऊंची चोटी है.
K2 दुनिया की दूसरी सबसे ऊंची चोटी है.


पता है, K2 का बेस आज भी हेनरी गॉडविन ऑस्टेन के नाम से जाना जाता है. एक दफ़ा ये संभावना भी बनी थी कि शायद उनके नाम पर K2 का भी नामकरण हो जाए. मगर ये दावेदारी रॉयस जियोग्रैफिक सोसायटी ने खारिज़ कर दी. कई लोग कहते हैं कि इसके पीछे वजह थी, हेनरी का प्रेम प्रसंग. उन्हें एक कश्मीरी लड़की से मुहब्बत थी. जिस वक़्त कश्मीर के पहाड़ों का सर्वे शुरू हुआ, उसी दौरान वो इस लड़की से मिले. शादी की. दोनों का एक बेटा भी हुआ. कहते हैं कि हेनरी का एक हिंदुस्तानी लड़की से शादी करना अंग्रेज़ी प्रशासन को बहुत नागवार गुज़रा. हेनरी के बायोग्रफर्स के मुताबिक, अगर उन्होंने ये शादी न की होती, तो शायद K2 भी माउंट ऑस्टेन पुकारा जाता. वैसे ही, 1865 में ब्रिटिश सर्वेयर जनरल ऑफ इंडिया सर जॉर्ज एवरेस्ट के नाम पर 'चोमोलुंगमा' का नाम माउंट एवरेस्ट रखा गया था. 
ख़ैर, इस विषयांतर के बाद फिर से लौटते हैं K2. हमने आपको बताया कि इसे 1856 के साल खोजा गया था. इसपर चढ़ाई की पहली कोशिश हुई 1902 में. इस वक़्त तक किसी को भी नहीं पता था कि K2 की चढ़ाई कैसी होगी. लोगों ने सोचा, जाएंगे और चढ़ जाएंगे. मगर ये एक्सपीडिशन फेल रहा. ग्रुप के एक सदस्य को सांस का इन्फेक्शन हो गया. दूसरे को मलेरिया. इसके बाद भी कई लोगों ने कोशिश की. इनमें अमेरिका के मशहूर पर्वतारोगी चार्ली ह्यूस्टन भी शामिल थे. उनका दिया एक टर्म पर्वतारोही टीमों में आज भी चलता है- द ब्रदरहुड ऑफ़ रोप. माने, आप माउंटेनियरिंग के लिए साथ गई टीम रस्सी से बंधी एक टीम भर नहीं है. वो ब्रदरहुड है. वहां सब एक-दूसरे की जिम्मेदारी हैं. ह्यूस्टन ने दो बार K2 चढ़ने की कोशिश की, दोनों बार नाकाम रहे. 
कई सारे नाकाम एक्सपीडिशन्स के बाद कामयाबी मिली 1954 में. इस बरस इटैलियन पर्वतारोहियों की एक टीम K2 के शीर्ष पर पहुंचने में सफल रही. जिन दो लोगों ने सबसे पहले इस चोटी पर पांव रखा, उनके नाम थे- आकिले कोम्पान्योनी और लिनो लाछेडेल्ली. ये दोनों एक छह सदस्यीय टीम का हिस्सा थे. ये टीम K2 से जुड़े एक कुख़्यात मुहावरे की भी मिसाल मानी जाती है. K2 पर जाने वाले माउंटेनियर्स कहते हैं कि ये पहाड़ आपका बेहतर और बदतर, दोनों चेहरा दिखाती है. कई बार अजनबी आपकी जान बचाते हैं. तो कई बार अपने दोस्त आपको मरने के लिए छोड़कर चले जाते हैं.
K2 पर फतह पाने वाले पहले लोग.
K2 पर फतह पाने वाले पहले लोग.


ऐसा ही हुआ उस कामयाब इटैलियन टीम के साथ. 31 जुलाई, 1954 को जब आकिले और लिनो K2 के शीर्ष पर पहुंचे, तो आकिले की हिम्मत जवाब दे गई थी. उन्होंने लिनो से कहा कि रात यहीं गुजारते हैं. मगर चोटी पर रुकने का मतलब था, मरना. इसलिए लिनो ने आकिले को अपनी कुल्हाड़ी दिखाई. धमकाया कि फौरन नीचे चलो, वरना काट दूंगा. पूरे रास्ते लड़ते-झगड़ते, गिरते-पड़ते आख़िरकार दोनों नीचे बेस कैंप पहुंचे. बर्फ़ के कारण लिनो के बायें हाथ का अंगूठा कट गया था. आगे की पूरी ज़िंदगी इस टीम के बीच दुश्मनी रही. लोगों ने एक-दूसरे पर मुकदमे ठोके. 
जुलाई 1954 में हुए उस पहले कामयाब समिट के बाद से अबतक सैकड़ों लोगों ने K2 पर चढ़ने की कोशिश की. मगर अब तक केवल 280 लोग ही इसके शीर्ष तक पहुंच सके हैं. जबकि माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वालों की संख्या चार हज़ार के करीब है. इस तुलना से आपको समझ आ गया होगा कि K2 चढ़ना कितना मुश्किल है. एक भी चीज आपके फेवर में नहीं, तो मौत सुनिश्चित है. याद है, एपिसोड की शुरुआत में हमने आपको अगस्त 2008 की एक कहानी सुनाई थी. उस महीने एक ही दिन में 11 लोग K2 पर मारे गए थे. वो दिन K2 के इतिहास में सबसे जानलेवा दिन माना जाता है.
क्यों है K2 इतना ख़तरनाक? इसका जवाब है, भूगोल. K2 ऊंचाई में एवरेस्ट से 800 फीट छोटा है. मगर इसकी टोपोग्रफी काफी दुर्गम है. एवरेस्ट चढ़ते हुए बहुत खड़ी चढ़ाई वाली चट्टानें मिलती हैं. मगर फिर वो फ्लैट हो जाती हैं. मगर K2 में फ्लैट हिस्सा बहुत छोटा है. करीब 24 हज़ार फीट पर जाकर ये ज़रा सा फ्लैट होता भी है, तो वहां भी ऐवेलांच और पत्थर गिरने का ख़तरा हमेशा बना रहता है. इस हिस्से को कहते हैं, डेथ ज़ोन. यहीं पर पहाड़ का एक कुख़्यात हिस्सा पड़ता है, इसे कहते हैं- बोटलनेक. 
K2 बोटलनेक.
K2 बोटलनेक.


आपने रेत वाली घड़ी देखी है. कुछ-कुछ उसी आकार की एक बेहद संकरी घाटी है ये बोटलनेक. इसके ठीक ऊपर एक अस्थिर बर्फ़ीली चट्टान है. इसे कहते हैं- सेराक. इस सेराक से लगातार बर्फ़ के बड़े-बड़े टुकड़े गिरते रहते हैं. कइयों का आकार तो घर जितना बड़ा होता है. अगर आप इसकी चपेट में आए, तो मरना पक्का है. ऐसा नहीं कि आप रफ़्तार में चलकर इस जगह को पार कर लें. इतनी ऊंचाई पर तेज़ रफ़्तार से चलना, मतलब स्लो डेथ. क्योंकि ठंड के चलते आपके फेफड़ों में खून पहुंचाने वाली नसें सिकुड़ जाती हैं. आप तेज़ चलेंगे, तो तेज़ सांस लेंगे. इससे फेफड़े पर दबाव बढ़ेगा. ऐसा हुआ तो दिमाग में खून लीक हो सकता है. 
इसके अलावा यहां का मौसम भी एवरेस्ट से कहीं ज़्यादा निर्मम है. कहते हैं कि यहां मौसम का कोई अनुमान ही नहीं लगा सकते आप. कई-कई हफ़्तों तक यहां बर्फ़ीले तूफ़ान आते रहते हैं. कई बरस तो ऐसे बीते, जब केवल ख़राब मौसम के चलते कोई भी K2 पर नहीं चढ़ सका. इन्हीं वजहों से K2 में मरने वालों का प्रतिशत ज़्यादा है. एवरेस्ट में मॉर्टेलिटी रेट है 5 पर्सेंट, वहीं K2 में इसका औसत है 27 पर्सेंट. औसतन, K2 चढ़ने की कोशिश करने गए चार लोगों में से एक ज़िंदा वापस नहीं लौटता. वहीं एवरेस्ट में ये संख्या 34 में से एक है. शायद इसीलिए माउंटेनियर्स कहते हैं कि आप कितने भी बड़े नास्तिक हों, लेकिन K2 पर पहुंचकर आपकी आस्था जग जाएगी. जब सब ख़त्म होता दिखेगा, तब आप भी पहाड़ की उस देवी के आगे प्रार्थना करने लगेंगे. 
K2 चढ़ने वालों के पास केवल दो महीने होते हैं एक्सपीडिशन के लिए- जुलाई और अगस्त. क्योंकि ये यहां के हिसाब से सबसे गर्म महीना होता है. इसके अलावा एक विकल्प विंटर क्लाइंबिंग भी है. विंटर क्लाइंबिंग मतलब ठंड के मौसम में पहाड़ चढ़ना. एवरेस्ट पर पहली कामयाब विंटर क्लाइंबिंग हुई थी 1980 में. तब से ही पर्वतारोही K2 पर भी विंटर क्लाइंबिंग की नाकाम कोशिश कर रहे थे. करीब चार दशक तक ये कोशिशें चलती रहीं. कई जानकारों ने मान लिया कि सर्दियों में K2 पर चढ़ना नामुमकिन है. मगर फिर आया जनवरी 2021. 
विंटर में K2 पर चढ़ाई करने वाली पहली टीम.
विंटर में K2 पर चढ़ाई करने वाली पहली टीम.


इस महीने की 16 तारीख़ को एक कमाल हो गया. नेपाल से आई शेरपाओं की एक टीम को K2 चढ़ने में कामयाबी मिली. शेरपा तिब्बत और नेपाल के सबसे ऊंचे इलाकों में रहने वाला एक समुदाय है. वो पहाड़ को देवता मानते हैं. माउंटेनियरिंग उनके ख़ून में है. इसीलिए दुनियाभर के पर्वतारोही एक्सपीडिशन्स पर शेरपाओं को साथ ले जाते हैं. रास्ता दिखाने, सामान ढोने और ज़रूरत पड़ने पर रेस्क्यू करने के लिए. जब एक्सपीडिशन कामयाब होता है, तब शेरपाओं के योगदान पर कम ही बात होती है. इस लिहाज से देखिए, तो जनवरी 2021 में नेपाली शेरपाओं की K2 फतेह, उनका पहली बार सर्दियों में वहां पहुंचना, बहुत ऐतिहासिक है.
इसी हिस्ट्री मेकिंग के बाद K2 से फिर एक बुरी ख़बर आई है. नेपाली शेरपाओं की ही तरह सर्दी में K2 पर चढ़ने की कोशिश कर रहे तीन पर्वतारोही गायब हैं. ये तीनों माउंटेनियर हैं, आइसलैंड के जॉन स्नोरी. चिले के हुआन पाब्लो. और, पाकिस्तान के अली सदपारा. ख़बरों के मुताबिक, ये तीनों चढ़ाई पर गए थे. 5 फरवरी की शाम जब ये तीनों 8,000 मीटर की ऊंचाई पर थे, तो बेस कैंप से इनका संपर्क टूट गया. कई घंटों तक जब इनसे संपर्क नहीं हो सका, तो 6 फरवरी को इन्हें लापता घोषित कर दिया गया.
तीन पर्वतारोहियों की टीम K2 में गायब है.
तीन पर्वतारोहियों की टीम K2 में गायब है.


पाकिस्तान ने इन तीनों की तलाश के लिए एक हवाई टीम भेजी है. मगर तीन दिन की कोशिशों के बाद भी ये टीम उन तीनों पर्वतारोहियों को लोकेट नहीं कर सकी है. 8 फरवरी को जब रेस्क्यू ऑपरेशन दोबारा शुरू किया गया, तब तक मौसम और बिगड़ चुका था. काफी तेज़ हवाएं चलने लगीं. विजिबिलिटी बेहद कम हो गई. पहाड़ के ऊपरी हिस्से भी घने बादलों से ढके हैं. ऐसे मौसम में हवाई टीम अपना काम नहीं कर सकती. 
माउंटेनियर अली सदपारा पाकिस्तान के सबसे टॉप पर्वतारोही हैं. दुनिया में आठ हज़ार मीटर से अधिक की ऊंचाई वाली केवल 14 चोटियां हैं. इनमें से आठ पर चढ़ चुके थे अली सदपारा. 2016 में जिन तीन पर्वतारोहियों ने पहली बार सर्दी के मौसम में नंगा पर्वत की चढ़ाई की थी, उनमें अली सदपारा भी थे. 
K2 पर फंसे उन तीनों पर्वतारोहियों की गुमशुदगी को चार दिन बीत चुके हैं. कोई बुरा अंदेशा जताना बुरा तो लगता है, मगर मौसम और बाकी हालात देखकर उनके लिए अंदेशा मज़बूत हो रहा है. एकबार फिर लोग सोच रहे हैं कि क्यों ये पर्वतारोही एक पहाड़ के लिए जान दांव पर लगाते हैं. क्यों वो सारा जोख़िम जानते हुए भी K2 जाते हैं. 
रेनहोल्ड मेसनर.
रेनहोल्ड मेसनर.


इसका जवाब शायद वही है, जो कभी रेनहोल्ड मेसनर ने दिया था. मेसनर को 20वीं सदी का महानतम माउंटेनियर माना जाता है. वो K2 को 'माउंटेन ऑफ द माउंटन्स' कहते हैं. 1979 में इसकी चोटी पर चौथी दफ़ा चढ़ने के बाद उन्होंने कहा था- इस पहाड़ को किसी आर्टिस्ट ने बनाया है. मगर ये ख़ूबसूरती देखना बला का मुश्किल काम भी तो है. कई उकता कर छोड़ देते हैं. जैसे 1909 में ड्यूक ऑफ एबरुज़ी ने बीच रास्ते से लौटते हुए झल्लाकर कहा था कि अगर कभी कोई इस पहाड़ की चोटी पर पहुंचा, तो माउंटेनियर नहीं, पायलट होगा. कई लोग झल्लाते नहीं. बार-बार कोशिश करते हैं. कहते हैं, ये पहाड़ इतना क़ीमती है कि इसपर चढ़ते हुए जान भी चली जाए, तो चली जाए. जिसके भीतर माउंटेनियरिंग का पैशन होगा, वो ही इस जुनून को समझ पाएगा. 

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