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यूपी की जीत में मोदी-योगी का 2024 का प्लान छुपा है?

केजरीवाल और मोदी-योगी का 2024 का प्लान ये है!

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केजरीवाल और मोदी-योगी का 2024 का प्लान ये है! (फोटो ट्विटर /@myogiadityanath)
एक चश्मा जाति का, एक चश्मा धर्म का, एक चश्मा समीकरणों का, एक चश्मा हैवीवेट नेताओं का, एक चश्मा पोल पंडितों का, एक चश्मा चौराहे के चाणक्यों का. सारे चश्मे उत्तर प्रदेश समेत 5 राज्यों के नतीजों के बाद टूट गए. कागज पर दिखने वाली गोलंबदी और तुकबंदी पीछे छूट गई. क्योंकि 5 राज्यों के नतीजों ने बहुत सारे भ्रम तोड़ दिए, बहुत सारे मिथक भी पीछे छोड़ दिए. कह सकते हैं कि चुनाव और उसके नतीजों को देखने का पूरा नजरिया ही बदल कर रख दिया.
उत्तर प्रदेश और पंजाब यही दो राज्य हैं, जिन्होंने राजनीति की पुरानी समझ को सबसे ज़्यादा चुनौती दी है. आज हम इन दो राज्यों पर पूरा ध्यान लगाकार कुछ सवालों के जवाब खोजने की कोशिश करेंगे. क्योंकि इन सवालों के जवाब पूरे देश की राजनीति की दिशा और दशा तय करने वाले हैं. हम समझेंगे कि आखिर वो कौन से फैक्टर थे जो पश्चिमी यूपी में मजबूत माने जा रहे जयंत-अखिलेश के गठजोड़ पर भारी पड़ गए? रूहेलखंड को छोड़कर तकरीबन हर इलाके में भाजपा 20 कैसे साबित हुई? कांशीराम की खड़ी की दलित-बहुजन राजनीति को उनकी उत्तराधिकारी मायावती ने कैसे खत्म किया ? और ये भी कि क्या अब उत्तर प्रदेश में एक या दो जातियों के आधार पर राजनैतिक गणित सेट करने का ज़माना चला गया?
उत्तर प्रदेश के बाद हम जाएंगे पंजाब. ये समझने कि अपने जीवनकाल में एक पार्टी खड़ी करके दो दो राज्य जीतने वाले चुनिंदा नेताओं की लिस्ट में कैसे शामिल हुए? क्या आम आदमी पार्टी वाकई कांग्रेस का राष्ट्रीय विकल्प बन सकती है या फिर उसकी सफलता पंजाब के बाद दूसरे राज्यों में इक्का-दुक्का सीटें जीतने तक सीमित रहेगी.
यूपी में जब 2017 में पहली बार बीजेपी ने 300 से ज़्यादा सीटें जीतीं, तब सबसे ज्यादा कयास मुख्यमंत्री के चेहरे को लेकर था. बीजेपी गठबंधन के विधायक 325 थे, मगर सीएम चेहरा नहीं मिल रहा था. तब कोई केशव प्रसाद मौर्या का नाम ले रहा था, क्योंकि वो प्रदेश अध्यक्ष थे. कईयों ने मनोज सिन्हा को सीएम बनवा दिया. वो काशी विश्वानाथ मंदिर में पूजा कर रहे थे तभी खबर उड़ी उन्हें सीएम वाली सुरक्षा दे दी गई. मगर दिल्ली के दिल में तो कुछ और ही था. एक फोन कॉल आता है, गोरखपुर का भगवाधारी नेता दिल्ली जाता है. और जब लौट कर आता है तो सीधे मुख्यमंत्री पद की शपथ लेता है.
योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के 21वें मुख्यमंत्री बनते हैं. लेकिन पिछली जीत और इस बार की जीत में एक अंतर है. इस बार सीएम के नाम पर कोई संशय नहीं है, ना ही कोई नाम उछाला जा रहा है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यानाथ के नाम पर चुनाव हुआ और उनका दोबारा मुख्यमंत्री बनना भी तय है. इस कड़ी में सीएम योगी ने पहले कैबिनेट के साथियों के साथ बैठक की और फिर शाम को राज्यपाल आनंदी बेन पटेल को इस्तीफा सौंप दिया. अब नए सिरे से सरकार का गठन होगा. खबर है कि होली से पहले 15 मार्च को लखनऊ में शपथ ग्रहण कार्यक्रम हो सकता है. संभव है कि प्रधानमंत्री मोदी के साथ गृहमंत्री अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा भी कार्यक्रम में मौजूद रहें. रही बात भाजपा कार्यकर्ताओं की, तो वो जगह-जगह बुल्डोजर रोड शो कर रहे हैं. जी हां, बुलडोज़र के साथ रोड शो. होली से पहले ही होली खेली जा रही है.
लंबी खामोशी के बाद अखिलेश यादव का भी ट्वीट आया, उन्होंने लिखा,
उप्र की जनता को हमारी सीटें ढाई गुनी व मत प्रतिशत डेढ़ गुना बढ़ाने के लिए हार्दिक धन्यवाद! हमने दिखा दिया है कि भाजपा की सीटों को घटाया जा सकता है. भाजपा का ये घटाव निरंतर जारी रहेगा.आधे से ज़्यादा भ्रम और छलावा दूर हो गया है बाकी कुछ दिनों में हो जाएगा. जनहित का संघर्ष जीतेगा!

उत्तर प्रदेश के इस नक्शे पर नजर डालिए.
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नक्शा


ज्यादातर इलाके बीजेपी के भगवा रंग में रंगे नजर आएंगे. टैली में जो बीजेपी गठबंधन के खाते में जो 273 की संख्या दिखी, वो कुछ इस तरह से यूपी के नक्शे पर उतर गई.  सपा की सरकार नहीं बनी मगर इस बार लाल रंग की मात्रा जरूर बढ़ी है. 47 से बढ़कर संख्या 125 पहुंच गई है. दोनों के गठबंधन के साथियों की संख्या भी इन्हीं दो रंगों में समाहित हैं. बीच में दो नीले रंग के निशान हैं. ये कांग्रेस की दो सीटें हैं. प्रतापगढ़ की रामपुर खास और महाराजगंज की फरेंदा सीट.
दो जगह पर ग्रे कलर दिख रहा होगा. ये राजा भइया के जनसत्ता दल के प्रभाव वाली प्रतापगढ़ जिले में कुंडा और बाबागंज सीट है. कुंडा में राजा भइया जीते और बाबागंज से उनके प्रत्याशी विनोद कुमार जीते. एक रंग इन रंगों से थोड़ा सा अलहदा है. और इकलौता भी है. ये बलिया की रसड़ा सीट है. जहां बीएसपी के एक मात्र उम्मीदवार उमाशंकर सिंह जीते हैं. 2007 का नक्शा उठाकर देंगे तो कभी पूरे प्रदेश में नीला ही नीला रंग दिखेगा.मायावती तब मुख्यमंत्री थीं.
लेकिन वक्त-वक्त की बात है. आज विधानसभा चुनाव में मायावती का समूचा औरा मात्र इसी सीट पर आकर सिमट गया.
अब इन नतीजों को चरणवार देखते हैं. शुरुआत ऊपर के इलाके - पश्चिमी यूपी से करते हैं.  7 चरणों में हुए यूपी चुनाव के पहले दो चरण में सारी लड़ाई पश्चिमी यूपी में रही. यूपी चुनाव से ठीक पहले किसान आंदोलन का जोर था और कहा जा रहा था कि इस बार पश्चिमी यूपी में बीजेपी को खासा नुकसान होगा. जाट-मुस्लिम गठजोड़ की भी खूब चर्चा हुई. दावा किया गया कि पहले और दूसरे चरण में सपा-आरएलडी गठबंधन को बढ़त मिलेगी. बीजेपी ने फौरन कमान चढ़ाई, कृषि कानून वापस लिए गए.
गृहमंत्री शाह ने घर-घर जाकर प्रचार किया. योगी ने मोर्चा संभाला तो सारे जातिय समीकरण के सामने कानून व्यवस्था का बुल्डोजर खड़ा कर दिया. गर्मी-सर्दी का ऐहसास भी सबसे ज्यादा इसी पश्चिमी यूपी के इलाके में हुआ. और जब नतीजे आए तो साफ हो गया जातीय गोलबंदी पर कानून व्यवस्था का मुद्दा भारी पड़ता दिखा. पहले चरण के 11 जिलों की 58 सीटों में से बीजेपी ने 46 सीटें जीत ली. अखिलेश-जयंत की जोड़ी को तथाकथित रूप से जाटलैंड कहे जा रहे इस इलाके में सिर्फ 9 सीटें मिली. पिछले चुनाव के मुकाबले बीजेपी को सिर्फ 7 सीटों का ही नुकसान हुआ. किसान आंदोलन से उपजी नाराजगी सिर्फ मुजफ्फनगर, शामली, मेरठ और बागपत, चार जिलों में सीमित रही.
दूसरे चरण का चुनाव ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले इलाकों में हुआ. कहा जा रहा था कि यहां समाजवादी पार्टी सबसे अच्छा करेगी. मगर यहां भी बीजेपी को बहुत ज्यादा नुकसान नहीं हुआ. 9 जिलों की 55 सीटों में से 30 सीटें जीत ली. पिछली बार से मात्र 8 सीटों का नुकसान हुआ. मुरादबाद मंडल के आस-पास सपा ने 10 सीटों की गेन जरूर हासिल की. 25 सीटें जीती. मगर यहां भी बीजेपी के मुकाबले 5 सीटें कम रही. क्योंकि बीजेपी ने ज्यादा सीटों वाले शाहजहांपुर, बरेली जैसे जिलों में अच्छी बढ़त बना ली.
उसके बाद आया तीसरा चरण. जिसे यादव लैंड कहा जा रहा ''था''. मैनपुरी, इटावा, कन्नौज वाला इलाका. खुद अखिलेश यादव भी इसी इलाके की करहल सीट पर चुनाव लड़ रहे थे. 16 जिलों की 59 सीटों में 44 सीटें बीजेपी ने जीत ली.  सपा को यहां भी सिर्फ 15 सीटें ही मिली. अखिलेश अपना गढ़ बचाने में भी नाकाम रहे. मैनपुरी, कन्नौज जैसे जिलों में भी बीजेपी ही जीती. बुंदेलखंड के इलाकों में तो स्वीप कर दिया. कानपुर जैसे बड़े जिलों से बीजेपी को बड़ी बढ़त मिलती गई.
चौथे चरण में चुनाव अवध के इलाकों में पहुंचा. वहां बीजेपी ने सपा को साफ कर दिया. 9 जिलों की 59 सीटों में से 55 सीटें जीत ली. पिछली बार से भी 5 ज्यादा. समाजवादी पार्टी सिर्फ 4 सीटों पर सिमट कर रह गई.
पांचवे चरण में  बीजेपी को 13 सीटों का नुकसान हुआ. फिर भी 11 जिलों की 59 सीटों पर 39 सीटें बीजेपी के खाते में गई. समाजवादी पार्टी 18 सीटें ही जीत पाई. 5 चरण के चुनाव के बाद ही बीजेपी ने 200 के आंकड़े को छू लिया. आगे सिर्फ उसे डिसाइसिव लीड लेनी थी.
छठे चरण का चुनाव योगी आदित्यनाथ के गढ़ गोरखपुर के आस-पास. 10 जिलों की 57 सीटों में से 45 सीटें बीजेपी ने जीत ली. सपा को यहां 11 सीटें मिली. पश्चिमी में पहले और दूसरे चरण के चुनाव की चर्चा थी, मगर सबसे अच्छा प्रदर्शन समाजवादी पार्टी ने पूर्वांचल में हुए आखिरी और 7वें चरण में किया. आजमगढ़, गाजीपुर, मऊ जैसे जिलों की सारी सीटें जीत ली. और 9 जिलों की 54 सीटों पर यहां मुकाबला बराबरी पर छूटा. बीजेपी और सपा दोनों को 27-27 सीटें मिली.
कुल मिलाकर नतीजे एक तरफा बीजेपी के पक्ष में रहे. जानकार इसकी वजह बता रहे हैं कि यादव और मुस्लिम गठजोड़ का जो पोलराइजेशन हुआ, उसके खिलाफ अन्य जातियों का पोलराइजेशन भी हुआ. इसमें कोई संदेह नहीं है कि समाजवादी पार्टी का वोट प्रतिशत 20 से बढ़कर 32 हुआ, मगर बीजेपी का वोट शेयर भी 40 से बढ़कर 42% हो गया. जब दो तरफा लड़ाई होती है तो इतने वोटों का अंतर 100 ज्यादा सीटों का मार्जिन रिफ्लेक्ट करता है. जो हुआ भी. जानकार मान रहे हैं कि बसपा के वोट बैंक में हुई भारी कमी का सीधा फायदा बीजेपी को मिला. जिसने नाराज तबके की भरपाई कर दी.
ए.के. वर्मा ने बताया
हमने चौकने वाला तथ्य ये पाया है कि मायावती का जाटव वोट शेयर 85% से घटकर 40% हो गया है. इसका बड़ा हिस्सा भाजपा के पास गया है लेकिन चौकाने वाली बात यह है कि इसका कुछ हिस्सा सपा में भी गया है.
बीजेपी ने दलित वोटों के लिए खासी मेहनत भी की थी. उत्तराखंड की राज्यपाल रहीं बेबी रानी मौर्या हों या फिर पूर्व आईपीएस असीम अरुण. इन चेहरों के दम पर बीजेपी अपने पाले में जाटव वोटों को लाने में कामयाब रही. सवर्ण वोट तो बीजेपी को बहुतायत संख्या में मिले ही.
टूडेज चाणक्य के मुताबिक बीजेपी को 34% निर्णायक जाटव वोट भी मिले. जाटव वोटर पहले 85% बीएसपी को मिलते थे. वो घटकर सिर्फ 47% ही रह गए.जबकि सपा को सिर्फ 10 फीसदी. इसके प्रमाण के लिए आगरा सबसे बड़ा उदाहरण है. जहां जाटव वोटर बड़ी संख्या हैं और बीजेपी ने वहां की सभी 8 सीटें जीत ली. नॉन जाटव दलित वोटों को तो बीजेपी ने अच्छे से संजो लिया. आकंड़े कहते हैं कि सबसे ज्यादा 45% नॉन जाटव एससी वोट बीजेपी को मिले. बसपा को 28% और सपा को 21%
इसका नतीजा ये हुआ कि बीजेपी ने 86 में से 65 आरक्षित सीटें जीत ली. दलित वोटों के अलावा नॉन यादव OBC वोटरों ने बीजेपी की जीत सुनिश्चित की. टूडेज चाणक्य की मानें तो 64% नॉन यादव ओबीसी वोट बीजेपी को मिले. सपा को 23% और बसपा को सिर्फ 6% ओबीसी वोट मिले.
बीजेपी छोड़ कुछ नेता समाजवादी पार्टी में भी आए थे. मगर ओबीसी वोटों की दावेदारी करने वाले स्वामी प्रसाद मौर्या, धर्म सिंह सैनी जैसे नेता अपनी सीट तक नहीं बचा पाए.
ओबीसी नेताओं की घेरेबंदी, जातीय समीकरणों का जोड़, छोटे-छोटे दलों से गठबंधन, कुछ भी बीजेपी को मात देने में काम नहीं आया. और इसकी बड़ी वजह बताई जा रही है कि जाति-धर्म से इतर बीजेपी ने लाभार्थियों का एक बड़ा वोटबैंक तैयार कर लिया है. जो किसी भी स्थिति में उसके साथ टिका है. यूपी में 15 करोड़ लोगों को सरकारी योजना के तहत मिल रहे राशन का लाभ लिया. जो वोटों में तब्दील हुआ. 40 लाख से ज्यादा पक्के मकान बने, ढाई करोड़ किसानों के खाते में 2 हज़ार रुपये गए, मजदूरों को श्रमिक सम्मान निधि मिली. और इसके अलावा डेढ़ करोड़ से ज्याद महिलाओं को उज्जवला सिलेंडर का लाभ मिला.
महिला वोटरों का दोबारा कमल खिलाने में बड़ा योगदान माना जा रहा है. क्योंकि 59.6% पुरुषों के मुकाबले 62.2%  महिला ने वोट किया. 43 जिलों में महिलाओं का वोटिंग परसेंट ज्यादा रहा. उन्होंने कानून व्यवस्था
और कोरोना काल में मिले राशन पर ऐतबार जताते हुए कमल का बटन दबाया. नतीजा सबके सामने है. अब यहां से सवाल आता है कि योजनाओं के लाभार्थियों का लाभ क्या बीजेपी को 2024 में भी मिलेगा?
किस तरह के पॉलिटिकल इक्वेशन तैयार हो रहे हैं? इसके लिए भी हमने एक्सपर्ट से बात की. ए.के. वर्मा ने बताया
एक तीसरे श्रेणी का मतदाता देश में आ गया है जिसे हम मोदी वोटर्स कह सकते हैं जिसकी संख्या करीब 9 % के आस पास मां सकते हैं. इसका कारण मोदी की मन की बात है. वो हर महीने देश की जनता से बात करते हैं. ऐसा कोई पीएम नहीं हुआ आज तक जो इस तरह जनता से जुड़ता है.
जाहिर है 2024 के लिए इन नतीजों से बीजेपी के हौसले बुलंद हुए हैं. यूपी का चुनाव योगी के लिए था, लेकिन याद तो रैलियों में मोदी के नाम पर मांगा था. खुद 200 सीटों को कवर करते हुए पीएम मोदी ने 32 रैलियां की थी,
बीजेपी ने 200 में से 160 सीटें जीत ली. साफ है कि पीएम मोदी का जादू वोटरों पर जस का तस बरकरार है.
इसके बाद साफ है कि बीजेपी अब पूरी तैयारी से 2024 की बिसात बुनने में लग जाएगी. दो साल बाद क्या होगा ? ये अभी से कहना मुश्किल है. मगर हां जुलाई में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में अब बीजेपी अपना राष्ट्रपति आसानी से बनवा ले जाएगी. यूपी की खाली हुई 11 राज्यसभा सीटों में से बीजेपी फिर से 7 सीटें जीतने की स्थिति में आ चुकी है.
अब चलते हैं पंजाब पर. दिल्ली जैसी जीत अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी ने पंजाब में भी दर्ज की. पंजाब में विधानसभा की 117 सीट हैं. आम आदमी पार्टी को मिली हैं 92 सीट. यानी बहुमत के आंकड़े 59 से भी 33 सीट ज्यादा. रीजन वाइज़ पंजाब को 3 हिस्सों में बांटा जाता है. दक्षिण  का आधा हिस्सा मालवा. उत्तर पश्चिम का हिस्सा मांझा और उत्तर का बचा हुआ हिस्सा दोआबा. सबसे बड़ा रीजन मांझा ही है. इसमें विधानसभा की 69 सीटें हैं. यहां 66 सीटों पर आम आदमी पार्टी को जीत मिली है. यानी  लगभग पूरे मालवा में एकतरफा आम आदमी पार्टी को वोट मिले हैं. इस रीजन में ही आम आदमी पार्टी को बहुमत मिल गया है. 25 सीटों पर तो AAP के उम्मीदवारों को 50 फीसदी से ज्यादा वोट पड़े हैं. 40 -40 हजार के मार्जिन से उम्मीदवार जीते हैं.
मालवा किसानों का इलाकों का है. किसान आंदोलन का भी सबसे ज्यादा असर मालवा रीजन में ही था. लेकिन मालवा रीजन में 22 किसान संगठन 'संयुक्त समाज मोर्चा बनाकर लड़ रहे थे. ऐसा लग रहा था कि शायद किसानों के वोट डिवाइड होंगे. एकतरफ किसी एक पार्टी को नहीं जाएंगे. लेकिन ऐसा होता नहीं दिखा.  चुनावी पंडितों की तमाम थ्योरीज़ गलत साबित हुई. आम आदमी पार्टी को किसानों के वोट भी पड़े.
अब क्यों एक तरफा आम आदमी पार्टी को वोट पडे़, इसका थोड़ा विश्लेषण करते हैं. इस पंजाब के चुनाव में इस बार हमने देखा कि तमाम दिग्गज नेताओं को जनता ने हरवा दिया. मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी अपनी दोनों सीटों से हार गए. चन्नी से पहले पंजाब के सीएम रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह हार गए. पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू हार गए. सिरोमणि अकाली दल के संस्थापक प्रकाश सिंह बादल, जिन्होंने 1957 में पहला चुनाव लड़ा था. वो भी हार गए. उनके बेटे सुखबीर सिंह बादल हार गए. और इस ट्रेंड से ये समझ आता है कि ट्रेडिशनल पार्टीज़ से जनता का मोहभंग हुआ है.
जनता ने एक नई पार्टी को आजमाना चाहा है. वो पार्टी जो चुनाव में कह रही थी कि हमें एक मौका देकर देख लीजिए. दूसरी तरफ, आम आदमी पार्टी के गिनाने के लिए शासन का दिल्ली मॉडल था. अरविंद केजरीवाल ने पंजाब की रैलियों में दिल्ली की स्कूलों-अस्पतालों की व्यवस्था पर खूब बात की.
तीसरा फैक्टर भगवंत मान को सीएम उम्मीदवार बनाना भी माना जा सकता है. अरविंद केजरीवाल को पंजाब की पार्टियां बाहरी बता रही थीं. कांग्रेस के चरणजीत सिंह चन्नी की तरफ से भी केजरीवाल के बाहरी होने पर तंज कसे गए.
भगवंत मान को सीएम उम्मीदवार घोषित करने से शायद केजरीवाल को बाहरी होने का नुकसान नहीं झेलना पड़ा.
ये तो हुई जीतने वाली पार्टी की बात. अब हारने वालों पर आते हैं. कांग्रेस को पिछले बार कैप्टन अमरिंदर सिंह की अगुवाई में 77 सीटें मिली थी. इस बार मिलीं कुल 18 सीटें. इसकी सबसे बड़ी वजह ये ही मानी जा सकती है कि पूरे 5 साल कांग्रेस खुदसे लड़ती ही रहीं. पहले सिद्धू और कैप्टन अमरिंदर सिंह. फिर कैप्टन ने पद छोड़ा और चन्नी सीएम बने तो सिद्धू और चन्नी में शीत युद्ध सा चलता रहा. कांग्रेस अपना घर ही नहीं संभाल पाई. अब आते हैं शिरोमणि अकाली दल पर.
अकाली दल का मजबूत बेस रहा है मालवा रीजन. जहां कृषि कानूनों को लेकर रोष था. अकाली दल ने कृषि कानूनों को लेकर बीजेपी से गठबंधन तोड़ा, किसानों को अपीज़ करने की भी खूब कोशिश हुई, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. अकाली दल को पिछली बार 15 सीटें मिली थीं, इस बार मिली हैं तीन. और बीजेपी का हाल तो पंजाब में पहले से दिख रहा था. बीजेपी ने कैप्टन अमरिंदर की पार्टी से गठबंधन किया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. सिर्फ 2 सीटें मिलीं.
इस नतीजे से हमें कुछ और भी संकेत मिलते हैं. चुनाव से पहले कहा जा रहा था कि चरणजीत सिंह चन्नी के दलित होने से दलित वोट कांग्रेस की तरफ जाएंगे, लेकिन ऐसा कुछ नतीजे में नहीं दिखता है.
पंजाब में डेरा पॉलिटिक्स काफी हावी होती है. डेरा के समर्थक डेरा प्रमुख के कहने पर वोट करते रहे हैं, लेकिन वो चीजें भी इस बार नहीं दिखी. 42 फीसदी वोट आम आदमी पार्टी को मिली हैं.
भाजपा अभी से गुजरात की तैयारियों में लग गई है. क्या यूपी के सबक पार्टी वहां काम में लेगी, कुछ हफ्तों में नज़र आ जाएगा. और यहीं ये भी मालूम चलेगा कि आम आदमी पार्टी ने पंजाब की जीत से कितना सीखा है. भारत की राजनीति में दो बड़े ब्रैंड्स का उदय  2013-2014 में हुआ था. भाजपा अपनी राजनीति का लोहा मनवा चुकी है. अब बस ये देखना है कि आम आदमी पार्टी ऐसा कर पाती है या नहीं.

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