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हॉलीवुड मूवी डंकर्क की कहानी के पीछे है वो घटना, जहां ब्रिटेन गुलाम बनते-बनते बचा था

सेकेंड वर्ल्ड वॉर से जुड़ा है किस्सा.

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डायरेक्टर क्रिस्टोफर नोलन ने 'इनसेप्शन', 'इंटरस्टेलर', 'बैटमैन दि डार्क नाईट' और 'मैन ऑफ़ स्टील' जैसी सुपरहिट फिल्में बनाई हैं. इनकी सारी फ़िल्में सुपरहीरोज़ और सांइस फ़िक्शन के इर्द-गिर्द होती हैं. लेकिन फिल्म डंकर्क  (Dunkirk) से पहली बार क्रिस्टोफर कोई वॉर ड्रामा लेकर आए हैं. हम कह सकते हैं कि उनका ये प्रयोग सफल रहा. लोगों को डंकर्क ख़ासी पसंद आ रही है. 1940 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश और फ्रेंच सैनिक फ्रांस के एक समुद्र-तट पर फंसे थे. उन्हें जर्मनी की सेना ने फंसा रखा था. ये कहानी जर्मन सेना के चंगुल से इन ब्रिटिश सैनिकों के बच निकलने की है.
सच्ची घटना पर आधारित इस फ़िल्म में कई चीज़ें हैं जो फ़िक्शनल हैं. इस घटना की असल कहानी जाननी बहुत ज़रूरी है. ज़रूरी इस लिहाज़ से क्योंकि अगर सैनिक बच निकलने में कामयाब न होते तो ग्रेट ब्रिटेन को नाज़ी जर्मनी के सामने हथियार डालने को मजबूर हो जाता.
https://www.youtube.com/watch?v=XRtZUkAR2u4

क्या हुआ उन सैनिकों का जो बच निकलने में सफल नहीं हुए?

असल में डंकर्क, शहर का नाम है. जबकि ये ऑपरेशन जिसमें सैनिक बच निकलने में कामयाब रहे, उसका नाम था ऑपरेशन डायनेमो. 4 जून, 1940 को जब आखिरी बोट डंकर्क से निकली. जिस बोट पर सारा दारोमदार था. इसके बाद 40 हज़ार फ्रेंच और 40 हज़ार ब्रिटिश सैनिकों को जर्मनी ने अपने कब्ज़े में कर लिया. शॉन लोंग्डेन ने अपनी किताब 'डंकर्क: द मैन दे लेफ़्ट बिहाइंड' में बताया है कि इन युद्धबंदियों को कितना कुछ झेलना पड़ा था. सैनिक घायल थे, उन्हें मेडिकल ट्रीटमेंट भी नहीं दिया गया. वो नाली का पानी और सड़ा हुआ खाना खाने को मजबूर थे.
वो 3 लाख लोग जो बचकर निकल गए वो हीरो बन गए और जो पकड़ में आ गए उन्हें भुला दिया गया. युद्धबंदियों से ज़बरदस्ती मार्च करवाया जाता था. भेड़-बकरियों की तरह गाड़ियों में भरकर इन्हें पोलैंड के खेतों में ले जाया जाता. नाज़ी सुरक्षाकर्मी अपनी निगरानी में इनसे खेतों में काम करवाते.
20 मई को ब्रिटिश सैनिक 'चार्ली वाइट' पकड़े गए थे. ये उन सैनिकों में से एक थे जिनसे पोलैंड के खेतों में काम करवाया गया था. जिसके बदले में इन्हें कभी खाना मिलता तो कभी नहीं मिलता. कई-कई दिन भूखे पेट दर्द में सोना पड़ता. 1944-45 में कड़ाके की सर्दी में इन्हें ज़बरदस्ती मार्च करवाया गया. पोलैंड से लेकर बर्लिन से कुछ दूरी तक किए गए इस मार्च में वो हज़ारों मील चले. चार्ली की हालत इतनी खराब हो गई थी कि यूं कह लीजिए कि वो बस मरे नहीं. आखिरकार उन्हें उन सेनाओं में से एक सेना ने बचा लिया जो द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन का साथ दे रहे थे.
https://www.youtube.com/watch?v=BscssO8_K0g
चार्ली वाइट ने अपनी किताब 'Survivors Of The Long March: Five Years as a POW' में अपने दो लंबे मार्च के बारे में लिखा है. एक जो उन्होंने तपती गर्मी में 1940 में किया था जब वो पकड़े गए थे. इस समय वो फ़िज़िकली फिट थे. लेकिन दूसरे मार्च के वक्त 1945 में कड़क ठंड थी. उनका शरीर भी दुर्बल हो गया था क्योंकि वो पांच साल कैदी बनकर बिता चुके थे. जिसमें उन्होंने मेंटल ट्रॉमा देने वाली कई चीज़ें अपनी आंखों के सामने घटित होते देख ली थी. चाहे वो डर हो, अंधेरी कोठरी में बिताए दिन हों, भुखमरी की हालत हो, या अपने साथियों को मरते देखना और उन्हें सड़क किनारे दफ़नाना हो. वो पांच साल चार्ली के ज़हन में ताउम्र रहे.
एक जर्मन कमांडर को युद्धबंदी 'पर्पल एंपरर' बुलाते थे. वो उनसे कहा करता था, 'तुम में से किसी ने अगर खिड़की से बाहर मुंह भी निकाला तो मैं उसे गोली से उड़ा दूंगा.' एक सैनिक नहीं माना. उसने कहा कि वो खिडकी से बाहर झांकेगा और उसने ऐसा किया भी. उस जर्मन कमांडर ने अपने कहे मुताबिक उस लड़के को गोली मार दी. ये सब हर समय होता रहता था. इन युद्धबंदियों को इसी बीच जीना था. जीवन की इस सच्चाई को मानकर आगे बढ़ना था.
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ऑपरेशन डायनेमो

इसी बीच फ्रांसिसी सेना की हालत भी खराब थी. 10 मई को जब सैनिक बचकर निकलने की कोशिश कर रहे थे, उसी बीच जर्मन हमला कर रहे था. जिस कारण फ्रांस ने पैदल सेना के 24 डिवीज़न को खो दिया. 7 में से 6 मोटरयुक्त डिवीज़न ध्वस्त हो गए. पहले फ्रांस के पास 4 आर्म्ड डिवीज़न थे. जिसमें हर एक में 200 टैंक थे. अब उसके पास 3 आर्म्ड डिवीज़न बचे थे. हर एक में मात्र 40 टैंक रह गए थे.
फ्रांसियों के पास कोई साफ़ योजना नहीं थी. उस समय फ्रांस के प्रधानमंत्री रहे पॉल रेनॉड चाहते थे कि डंकर्क में जैसा ऑपरेशन हुआ वैसा ही एक ऑपरेशन हो और सैनिक बचकर नॉर्थ अफ्रीका निकल जाएं. जहां आर्मी की सुरक्षा के लिए फ्रेंच फ्लीट मौजूद थी. लेकिन बाद में इसे कैंसिल कर दिया गया. कसम खाली कि अपनी धरती पर रहकर ही लड़ते रहेंगे और उसकी रक्षा करेंगे.
5 जून से 7 जून के बीच फ्रांसिसी जितने दम से लड़ सकते थे, वो लड़े. उन्होंने जर्मन सैनिकों की गति ज़रा धीमी कर दी. लेकिन फिर भी वो जर्मन्स को रोक नहीं पाए और 14 जून को पेरिस उनके शिकंजे में आ गया. डंकर्क के होने के बाद जर्मन्स ने महज़ 18 दिन में फ्रांस पर कब्ज़ा कर लिया.
अब नाज़ियों के सामने ब्रिटेन अकेला खड़ा था. वो अगला देश हो सकता था जिस पर नाज़ी कब्ज़ा कर लेते. कुछ लोग ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विनस्टन चर्चिल से दुखी थे. वो किसी भी हालत में समझौता करने को राज़ी नहीं था. हिटलर ने ब्रिटिश पर हमला करने का प्लान बना रखा था. जिसका कोड-नेम 'ऑपरेशन सी लायन' था. लेकिन उसे पता था कि ऐसा कुछ करना बहुत महंगा होगा. रिस्की होगा. तो उसने इंतज़ार करना ठीक समझा. इंतज़ार ब्रिटेन की तरफ़ से शांति समझौते का.
चर्चिल ने ब्रिटेन को बचाने के लिए जान लगा दी. उसने अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूज़वेल्ट से अपने अच्छे रिश्तों का इस्तेमाल करना शुरू किया. जुलाई में जब हिटलर के बॉम्बर्स ने ब्रिटेन के शहरों पर बम गिराने शुरू कर दिए. चर्चिल ने अपने देश को तीन महीने लंबे चलने वाले युद्ध के लिए तैयार कर लिया. जिसे आगे चलकर 'बैटल ऑफ ब्रिटेन' कहा जाना था. सितंबर तक ब्रिटेन ने जर्मनी के 20 हवाई जहाज़ खराब कर दिए. 60 जहाज़ ध्वस्त कर दिए. हिटलर के पास जर्मन पर आक्रमण रोकने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा था.


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