The Lallantop

'पापा को बताना चाहती हूं कि मेरी बॉडी पर कटे के 12 निशान हैं'

एक बेटी की अपने पिता को चिट्ठी, जिसे वह कभी पोस्ट नहीं करेगी.

Advertisement
post-main-image
credit: Reuters
एक ऐबस्ट्रैक्ट ख्याल: नसें काट लेना आसान होता है. लेकिन इन साबुत नसों के साथ रात-दिन जी पाना बहुत मुश्किल होता है.
पापा घर आए हुए हैं. कहते हैं कि मैं चिड़चिड़ी हो गई हूं. वैसी नहीं रही, जैसी उनकी बिटिया बचपन में हुआ करती थी. उनकी आंखों में मेरे लिए डर दिखने लगा है. डर कि मैं वो नहीं हूं जिसे उन्होंने जाना था. मैं वो नहीं हूं जिसे वो स्कूल छोड़ने जाते थे. मैं वो नहीं हूं जो उनसे खूब लड़ती थी. शायद वो किसी अजनबी के घर में हैं. हम दोनों की फीलिंग बहुत म्यूच्युअल है.
मैं अब चुप रहती हूं. या तो सोती हूं. या ऑफिस चली जाती हूं. हम अब भी बहुत बातें करते हैं. मोहल्ले की. मां की. बाकी रिश्तेदारों की. जब से वो आए हैं, मैं उनके ऊपर हाथ रखकर ही सोती हूं.
बड़ी-बड़ी कोई भी चीज़ नहीं बदली. लेकिन छोटी-छोटी बहुत सारी चीज़ें बदल गई हैं.
मां से ज्यादा मैं पापा से क्लोज रही हमेशा. हम बेस्ट फ्रेंड्स हुआ करते थे. मेरी हर छोटी-छोटी बात, मेरी हर ज़रूरतें. मेरी परेशानियां. सब के लिए मेरे पापा. उनसे ही लड़ती थी. उन्हें ही मनाती थी. हमारे बीच कभी कोई बड़ी लड़ाई नहीं हुई.
मैंने पापा को हमेशा आइडियलाइज़ किया. हमेशा उनके जैसा बनना चाहा. स्ट्रॉन्ग, फनी, जिंदगी के हर पल को एन्जॉय करने वाला इंसान. जो खुद भी खुश रहता है, सबको हंसाता रहता है. बच्चों-सा साफ़ दिल. बहुत कोशिश की. कई सालों तक मैं भी वैसी ही रही. हर मौके के लिए अलग मुखौटे भी जमा कर लिए थे मैंने. फिर एक दिन कुछ हुआ. कुछ ऐसा कि मुझे मेरे सुपरहीरो पापा एक आम इंसान लगने लगे. उनकी वे कमियां दिखने लगीं जो हर किसी में होती हैं. अंधभक्ति छूट रही थी. मैं इसके लिए तैयार ही नहीं थी. डिल्यूजन में जीना हमेशा आसान होता है. 'इग्नोरेंस इज़ अ ब्लिस.' पापा भी इंसान थे. हम सब के जैसे. स्ट्रांगेस्ट वो आज भी हैं. लेकिन वो बूढ़े हो रहे हैं. एक दिन शायद वो मर जाएंगे. मेरी हिम्मतें टूट गईं. 
मैं सुबह सुबह ऑफिस चली जाती हूं. नहीं पता कि मेरे दस बाय दस के घर में पापा पूरे दिन क्या करते हैं. दिनभर में कई दफे मन करता है कि मैं फ़ोन करके उनसे पूछ लूं कि खाना खाया या नहीं. कहीं घूमने गए क्या. किसी पुराने दोस्त से मिले. कुछ भी. पर मैं नहीं फ़ोन नहीं करती. देर रात जब मैं घर आती हूं. पापा उनींदे से बैठे रहते हैं. खाने पर मेरा इंतज़ार करते हुए. मैं रोज़ उनसे कहती हूं. आप खा लिया करिए, मुझे बहुत देर हो जाती है. वो रोज़ मुझसे कहते हैं. कल से. खाना खाते हुए मैं उनको चोर निगाहों से बार बार देखती हूं. एक सांस में पूरा ग्लास पानी उड़ेल लेने वाले बच्चे में मैं अपने पापा ढूंढती हूं. हम दोनों पहले कुछ देर तक चुपचाप खाना खाते हैं. फिर मैं पूछती हूं, आज पूरे दिन क्या किया? उनका चेहरा एकदम से चमक जाता है. जैसे किसी बहुत टफ क्वेश्चन पेपर में एक ऐसा सवाल आ जाए जिसका जवाब उनको आता है. बताते हैं कि आज तुम्हारे शेल्फ से निकाल कर ये वाली बुक पढ़ी. थोड़ी सफाई की. मार्केट तक हो कर आया. यहां पर आम बिलकुल इलाहाबाद वाले रेट में मिल रहे हैं. पड़ोस वाला धोबी भी यूपी का है.
सारा दिन अकेले रहने के बाद जब कोई बात करने को मिल जाता है. इंसान अपनी पेशाब का रंग भी उसको बताना चाहता है.
मैं उनको देखती रहती हूं. बीच-बीच में फ़ोन का लॉक खोलती बंद करती हूं. जितना उस वक़्त में मैं चाह रही होती हूं कि पापा बोलते रहें. उतना ही उस वक़्त मैं उस जगह से भाग जाना चाहती हूं. मैं उनसे ये ऊपरी बातें नहीं करना चाहती.
मैं उन्हें बताना चाहती हूं कि मेरे पूरे जिस्म पर कुल 12 कटे के निशान हैं. मैं बताना चाहती हूं कि जब चोट लगती है तो मम्मी या पापा कोई भी याद नहीं आता. मैं बताना चाहती हूं कि आपने कभी मुझे नहीं मारा इसलिए मैं जानती ही नहीं थी कि कोई हाथ उठाए तो कैसा लगता है. मैं बताना चाहती हूं कि मेरी नाक पर और आंखों के नीचे जो चोट के निशान हैं. उन्हीं की वजह से मैं दो साल पहले होली पर घर नहीं आई थी. मैं बताना चाहती हूं कि मैं अन्दर से बहुत पहले ही मर चुकी हूं. कुछ भी महसूस नहीं होता अब मुझे. बहुत मुश्किल है ये मेरे लिए. अपने खुद के वज़न को ढो पाना. बड़ी महनत से खुद को हर रोज़ सुबह जिंदा रहने की वजहें देती हूं.
शायद उनके अन्दर भी ऐसा बहुत कुछ होगा जो वो मुझे बताना चाहते होंगे.
उनकी आंखों में जेन्युइन चिंता दिखती है जब मैं एक घंटे बाद वॉशरूम से बाहर निकलती हूं. मेरी सूजी लाल आंखें उनको भी दिख जाती हैं. लेकिन हम इस बारे में कभी बात नहीं करते. पापा पूछने लगते हैं कि मेरे घर से करोल बाग जाने का रास्ता क्या है. अभी दो दिन पहले उन्होंने पूछ लिया कि मैं ठीक तो हूं ना. कहते हैं, अगर कोई प्रॉब्लम है तो मैं उनसे शेयर करूं. उनकी बातें सुन कर मेरा वात्सल्य जाग जाता है. दुलार आ जाता है उन पर. ऐसा लगता है कोई बच्चा अपनी मां से उसकी उदासी की वजह पूछ रहा है. मां नहीं बता सकती. क्योंकि बच्चा अभी बहुत छोटा है मां की परेशानियां समझने के लिए. मेरे पापा भी बहुत छोटे हैं उम्र में मुझसे. बहुत मासूम हैं. मैं उनसे उनकी मासूमियत नहीं छीनना चाहती. शायद यही रीज़न है कि मैं उनको अपनी दुनिया में आने ही नहीं देना चाहती. वो खूब बोलते हैं. एक से एक जोक्स मरते हैं. जोकरों जैसी हरक़तें करते हैं. हम खूब हंसते हैं.
रोल बदल गए हैं. वो बिलकुल छोटे से बच्चे हो गये हैं. मैं उनकी मां हो गयी हूं. अब शायद वो मुझे आइडियलाइज़ करते हैं. बहुत सारी चीज़ें वो देख कर भी नहीं देखना चाहते. क्योंकि उनको डर है कि उनकी ये अंधश्रद्धा ना टूटे. बेहतर है कि अब हम 12 महीने साथ में नहीं रहते.

Advertisement
Advertisement
Advertisement
Advertisement