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गुजरात की CM जिसे हार्दिक पटेल के कारण इस्तीफ़ा देना पड़ा, अब यहां राज्यपाल बनेंगी

गुजरात के विकास में जो वाहवाही पीएम मोदी ने ली थी, उसके पीछे बड़ा रोल इनका भी था.

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आनंदी बेन पटेल और नरेंद्र दामोदरदास मोदी. अतीत.
तब लोकसभा चुनाव के नतीजे आ चुके थे और बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिला था. डेट थी 16 मई 2014. इसके बाद 21 मई आई. गुजरात के चार बार के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र भाई मोदी ने राज्यपाल कमला बेनीवाल को अपना इस्तीफा सौंप दिया. वजह साफ थी. अब उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनना था. 26 मई को उन्हें शपथ लेनी थी. जाते-जाते नरेंद्र भाई ने अपने उत्तराधिकारी का भी चुनाव कर लिया था. और ये उत्तराधिकारी थीं आनंदी बेन. 73 साल की आनंदी बेन जेठाभाई पटेल जो राज्य की अगली सीएम बनीं. एक ऐसी नेता जो मुख्यमंत्री बनने से पहले सड़क और भवन निर्माण, राजस्व, शहरी विकास और शहरी आवास, महिला एवं बाल कल्याण, आपदा प्रबंधन और राजस्व मंत्री के तौर पर काम कर चुकी थीं. एक ऐसी नेता जो स्कूल टीचर हुआ करती थीं और पॉलिटिक्स में आईं.
अब उन्हें ही नरेंद्र मोदी जैसे हार्डकोर नेता की विरासत संभालनी थी.
मफत भाई पटेल (बाएं) बीजेपी के नेता था.
मफत भाई पटेल (बाएं) बीजेपी नेता हैं. उनकी वाइफ हैं आनंदी बेन.

आनंदी ने नदी में छलांग लगाई और वो घटना उन्हें राजनीति में लाई
आनंदी बेन पटेल की शादी मफत भाई पटेल से हुई थी, जो गुजरात के कद्दावर बीजेपी नेताओं में गिने जाते थे. मफत भाई पटेल, नरेंद्र मोदी और शंकर सिंह वाघेला के अच्छे दोस्त थे. 1987 में आनंदी अहमदाबाद के मोहिनीबा कन्या विद्यालय में प्रधानाचार्य थीं. उनके स्कूल का एक ग्रुप पिकनिक मनाने के लिए नर्मदा नदी के किनारे गया. उनकी दो स्टूडेंट नहाने के लिए नदी में उतरीं और डूबने लगीं. उन्हें डूबता देखकर आनंदी बेन नदी में कूद गईं और दोनों को बचा लिया. राज्य में कांग्रेस की सरकार थी और मुख्यमंत्री थे अमर सिंह चौधरी. उनके कानों तक बात पहुंची तो उन्होंने सरकार की ओर से आनंदी बेन पटेल को वीरता पुरस्कार से नवाजा.
1992 की एकता यात्रा में नरेंद्र मोदी और मुरली मनोहर जोशी ने श्रीनगर में तिरंगा फहराया था.
1992 की एकता यात्रा में नरेंद्र मोदी और मुरली मनोहर जोशी ने श्रीनगर में तिरंगा फहराया जिसमें आनंदी भी शामिल हुई थीं.

उनकी चर्चाओं को देखते हुए नरेंद्र मोदी और शंकर सिंह वाघेला ने मफत भाई पटेल से मुलाकात की और आनंदी को भी सियासत में लाने के लिए कहा. मफत भाई और आनंदी बेन इस बात के लिए राज़ी हो गए. इसके बाद 1987 में बीजेपी ने उन्हें गुजरात प्रदेश महिला मोर्चा का अध्यक्ष बना दिया. 1992 में जब बीजेपी के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने एकता यात्रा निकाली तो आनंदी बेन पटेल गुजरात से इकलौती ऐसी महिला थीं, जो इस यात्रा में शामिल थीं. इसके दो साल बाद 1994 में पार्टी ने उन्हें गुजरात से राज्यसभा का सांसद बनवा दिया. राज्यसभा सांसद का कार्यकाल छह साल का होता है, लेकिन आनंदी ने चार साल बाद ही इस्तीफा दे दिया और 1998 में राज्य में विधानसभा चुनाव में हिस्सा लिया. उन्होंने गुजरात की मांडल सीट से चुनाव लड़ा. जीत हासिल की और फिर केशुभाई पटेल की सरकार में शिक्षा मंत्री बन गईं.
गांधीवादी पिता की संतान जिसमें पहले से ही बगावती तेवर थे
पढ़ाई पूरी करने के बाद आनंदी बेन पटेल स्कूल में बच्चों को पढ़ाने लगी थीं.
पढ़ाई पूरी करने के बाद आनंदी बेन स्कूल में बच्चों को पढ़ाने लगी थीं.

मेहसाणा जिले के विजापुर तालुका के खरोद गांव में 21 नवम्बर 1941 को जन्मी थीं आनंदी बेन. सियासत में आने के पीछे उनके पिता जेठाभाई पटेल का बड़ा प्रभाव था. जेठाभाई एक गांधीवादी नेता थे, जो ऊंच-नीच, जातीय भेदभाव और लैंगिक भेदभाव को मिटाने के लिए संघर्ष करते रहते थे. जब गुजरात में पटेल समाज में बाल विवाह की प्रथा आम थी, तब उनके पिता ने समाज से बगावत करके आनंदी बेन का दाखिला स्कूल में करवाया. मां अनपढ़ थीं तो आनंदी स्कूल में जो पढ़कर आतीं अपनी मां को पढ़ातीं. चौथी क्लास तक तो सब ठीक चलता रहा, लेकिन आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें ऐसी स्कूल जाना था, जहां बस लड़के ही लड़के थे.
पिता के हौसले की वजह से 700 लड़कों के बीच अकेली आनंदी पढ़ने जाती थीं. सातवीं तक पढ़ने के बाद उनका दाखिला हुआ यहां से इंटरमीडिएट करने के बाद आनंदी ने ग्रेजुएशन के लिए 1960 में विसनगर के भीलवाई कॉलेज में एडमिशन लिया. सब्जेक्ट के तौर पर साइंस था और अपनी क्लास में वो इकलौती लड़की थीं.
ग्रेजुएशन के बाद एक संस्था 'महिला विकास गृह' के साथ उन्होंने नौकरी शुरू कर दी, जो महिलाओं के उत्थान के लिए काम कर रही थी. इसी दौरान उनकी शादी गुजरात के बीजेपी नेता मफत लाल पटेल से हो गई. पति की सियासत और खुद की आगे की पढ़ाई के लिए आनंदी 1965 में अहमदाबाद आ गईं. पीजी और एमएड करने के बाद आनंदी 1970 में प्राथमिक शिक्षक के तौर पर अहमदाबाद के ही मोहनीबा कन्या विद्यालय में पढ़ाने लगीं, जहां वो बाद में प्रिंसिपल भी बनीं.
जब वाघेला का इस्तीफा हुआ और मोदी के साथ खड़ी रहीं आनंदी बेन
आनंदी को सियासत में लाने वाले बाघेला जब बीजेपी से अलग हुए, आनंदी पार्टी में बनी रहीं.
आनंदी को सियासत में लाने वाले वाघेला जब बीजेपी से अलग हुए तो आनंदी पार्टी में बनी रहीं.

1995 का साल गुजरात में बीजेपी के लिए कई मायनों में महत्वपूर्ण था. उस वक्त पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष थे शंकर सिंह वाघेला. बीजेपी के बड़े कद्दावर नेताओं में थे केशुभाई पटेल और गुजरात में संघ की ओर से फ्रंटफुट पर दिख रहे थे नरेंद्र मोदी. चुनाव के लिए तीनों ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया. गुजरात के 1800 गांवों का दौरा करने का नतीजा पक्ष में आया और बीजेपी 182 में से 121 सीटें जीतने में कामयाब रही. जनता पार्टी में रहकर इंदिरा हटाओ-देश बचाओ का नारा लगाने से लेकर गुजरात में बीजेपी की पैठ मजबूत करने वाले शंकर सिंह ये तय मानकर चल रहे थे कि मुख्य मंत्री तो वो बन ही गए हैं, बस औपचारिक ऐलान भर होना है.
जब औपचारिक ऐलान हुआ तो उनके सपनों पर पानी फिर गया और बीजेपी आलाकमान ने केशुभाई पटेल को गुजरात का मुख्यमंत्री घोषित कर दिया. इसके बाद वाघेला ने पार्टी से बगावत कर दी. वाघेला ही अपने दोस्त मफत लाल पटेल को कहकर आनंदी को सियासत में लेकर आए थे, लेकिन जब उन्होंने बगावत की तो आनंदी ने केशुभाई पटेल और नरेंद्र मोदी का साथ दिया और बीजेपी के साथ ही बनी रहीं. इतना ही नहीं, जिस शंकर सिंह वाघेला के रहते हुए उन्हें राज्यसभा सीट मिली थी, उनसे एक कदम आगे बढ़कर उन्हें राज्य में मंत्री बना दिया गया.
वाहवाही मोदी ने लूटी लेकिन दिमाग आनंदी बेन का था
गुजरात के में हुए विकास के पीछे आनंदी बेन पटेल के मंंत्रालय का अहम रोल रहा है.
गुजरात में हुए विकास के पीछे आनंदी बेन पटेल के मंंत्रालय का अहम रोल रहा है.

गुजरात में 2017 में हो रहे चुनाव में बीजेपी का नारा है, "मैं विकास हूं, मैं गुजरात हूं". इस गुजरात को जिस विकास के नारे के साथ जोड़कर गढ़ा गया है, उसके आगे-पीछे चेहरे के तौर पर सिर्फ और सिर्फ मोदी ही नजर आते हैं. हकीकत ये है कि आनंदी बेन ने मोदी की इस इमेज को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. बंगाल से निकालकर टाटा को गुजरात में जमीन देने की बात हो, सरदार सरोवर बांध के लिए किसानों को हटाने का काम हो या फिर भ्रष्टाचार से निजात दिलवाकर ई-जमीन कार्यक्रम, जमीन के स्वामित्व डाटा और जमीन के रिकॉर्ड को कंप्यूटरीकृत करके जमीन के सौदों में होने वाली धांधली की आशंका को कम करने का काम हो, ये सब आनंदी बेन के शहरी और राजस्व मंत्री रहते हुए ही हुआ.
आनंदी की इस योजना ने गुजरात के 52 प्रतिशत किसानों के अंगूठे के निशानों और तस्वीरों का कंप्यूटरीकरण किया. इससे आनंदी दूसरे नेताओं की तुलना में गुजरात में कद्दावर हो गईं. यही वजह थी कि जब नरेंद्र मोदी केंद्र की राजनीति में सक्रिय हो रहे थे, उनकी जगह लेने के लिए बीजेपी नेता भिखू दलसाणिया, सौरभ पटेल, नितिन पटेल और गणपत वसावा आस लगााए बैठे थे लेकिन आनंदी बेन पटेल बाजी मार ले गईं.
घर से ही जब बगावत कर ली तो दूसरों से कैसे डरतीं
बेटी अनार के साथ अानंदी बेन पटेल.
बेटी अनार के साथ अानंदी बेन पटेल.

आनंदी के बेटे हैं संजय और बेटी का नाम है अनार. सियासत में सक्रियता के बाद आनंदी बेन की अपने पति से नहीं बनी और वो उनसे अलग हो गईं. उनकी बेटी अनार ने बीबीसी को बताया था कि उनकी मां पहले से ही क्रांतिकारी विचारों की रही हैं. जब उन्होंने घरवालों के सामने झुकना नहीं सीखा, फिर बाहर तो वो हमेशा से ही निडर बनी रहीं. बचपन का एक किस्सा सुनाते हुए अनार कहती हैं:
"जब मां राजनीति में नहीं आई थीं, उसी समय उनके मामा देवचंद भाई अपने बेटे का बाल विवाह करवाना चाहते थे. पूरे गुजरात में और खास तौर पर पटेल समाज में बाल विवाह आम था. मां ने इसके लिए मना किया, लेकिन मामा नहीं माने और उन्होंने शादी की तैयारियां जारी रखीं. जिस दिन शादी थी, मां ने पुलिस में शिकायत कर दी. शादी वाले दिन घर में पुलिस आई और शादी रुकवा दी. इसके बाद तो बाल विवाह के खिलाफ पूरे गुजरात में आवाज उठने लगी और मां ने हर आवाज का बढ़-चढ़कर समर्थन किया."
कहा जाता है कि अनार का हस्तक्षेप मुख्यमंंत्री कार्यालय तक था.
कहा जाता है कि अनार का हस्तक्षेप मुख्यमंंत्री कार्यालय तक था.

हालांकि ये वही अनार हैं, जिनकी वजह से आनंदी बेन पटेल को अपने सियासी करियर में कुछ दाग भी झेलने पड़े. अनार की शादी जयेश पटेल से हुई है. जयेश पटेल एक बिजनेसमैन हैं जो वाइल्डवुड्स कंपनी में बिजनेस पार्टनर हैं. ये कंपनी गिर सैंक्चुरी के पास 400 एकड़ में है. कांग्रेस पार्टी ने आरोप लगाया था कि गुजरात सरकार ने 2010-11 में 250 एकड़ जमीन जयेश की कंपनी को 60 हजार रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से बेच दी थी, जबकि जमीन की कीमत 50 लाख रुपए प्रति एकड़ थी. इतना ही नहीं यह जमीन खेती की जमीन थी, जिसे नॉन एग्रीकल्चरल में कन्वर्ट किया गया. इसके अलावा आरोप लगे कि आनंदी बेन की बेटी अनार और बेटे श्वेतांक का प्रशासन के काम में दखल रहता है. ऐसी धारणा बनी कि आनंदीबेन की संतानें सरकार के कामकाज में दखल देती हैं.
और फिर आया साल 2015...
पाटीदार आंदोलन ने आनंदी बेन पटेल की साख को खासा नुकसान पहुंचाया था.
पाटीदार आंदोलन ने आनंदी बेन की साख को खासा नुकसान पहुंचाया था.

आनंदी बेन मई 2014 में गुजरात की मुख्यमंत्री बनीं. एक साल दो महीने तक तो सब ठीक-ठाक चलता रहा. अचानक से गुजरात की राजनीति में 22 साल का युवा सामने आया. नाम था हार्दिक पटेल. उसने पाटीदारों को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने की मांग को लेकर प्रदेश व्यापी आंदोलन शुरू किया. धीमी शुरुआत से शुरू हुए इस आंदोलन ने 22 जुलाई 2015 को जोर पकड़ा, जब मेहसाणा में हार्दिक की अगुवाई में पांच लाख से अधिक पाटीदार एक मंच पर आए और आरक्षण के लिए आंदोलन में शामिल हुए. पांच लाख पाटीदारों का आंदोलन गुजरात सरकार के लिए चिंता की बात थी. 23 जुलाई को विसनगर के प्रदर्शन में हिंसा हो गई. कुछ गाड़ियों में आग लगा दी गई और बीजेपी के विधायक ऋषिकेश पटेल के घर में तोड़-फोड़ हुई.
आंदोलन आगे बढ़ा तो 28 जुलाई को विजापुर और फिर मेहसाणा में प्रदर्शन हुए. इसके बाद पूरे प्रदेश में प्रदर्शन होने शुरू हो गए. 17 अगस्त को पेटलाद और सूरत में प्रदर्शन हुए. शहर के हीरा और कपड़ा बाजार बंद रहे. इसका असर सुरेंद्रनगर, भरूच और वडोदरा में भी पड़ा. सबसे बड़ा आंदोलन 25 अगस्त को अहमदाबाद के जीएमडीसी मैदान में हुआ. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इस आंदोलन में शामिल होने के लिए लगभग 18 लाख लोग आए थे. सरकार ने एहतियात के तौर पर हार्दिक को हिरासत में ले लिया, जिसके बाद लोग अहमदाबाद, सूरत, भरूच, मेहसाणा, ऊंझा, विसनगर समेत कई शहरों में सड़कों पर उतर आए और हिंसा करने लगे.
100 से ज्यादा गाड़ियां और 20 से ज्यादा पुलिस थानों को आग के हवाले कर दिया गया. कई किलोमीटर ट्रेन की पटरियां उखाड़ दी गईं. इसके बाद अहमदाबाद, सूरत, मेहसाणा, ऊंझा और विसनगर में कर्फ्यू लगा दिया गया. आंदोलनकारियों ने 26 अगस्त को गुजरात बंद की घोषणा कर दी. 2002 के दंगे के बाद 13 साल बाद ऐसी स्थिति आई, जब गुजरात में दंगे जैसी स्थिति पैदा हो गई थी और पुलिस को कर्फ्यू लगाना पड़ा था. सेना की तैनाती करनी पड़ी. इसके बाद 40 दिनों तक चले आंदोलन पर काबू पाया जा सका.
...और 2016 ने भी बढ़ाई मुसीबत
ऊना में दलितों की पिटाई का मामला पूरे देश में गूंजा था, जिससे आनंदी बेन सरकार की किरकिरी हुई.
ऊना में दलितों की पिटाई का मामला पूरे देश में गूंजा था, जिससे आनंदी बेन सरकार की किरकिरी हुई.

पाटीदार आंदोलन को एक साल भी नहीं बीता कि ऊना में दलितों की पिटाई का मुद्दा जोर पकड़ने लगा. गिर सोमनाथ के ऊना कस्बे के मोटा समाधियाला गांव में मरी हुई गाय की चमड़ी उतारने के आरोप में एक दलित परिवार की 11 जुलाई को पिटाई कर दी गई. पूरे गुजरात के दलित इस मुद्दे पर एकजुट हो गए और प्रदेश भर में जगह-जगह आंदोलन हुए. 22 जुलाई से शुरू हुआ ये आंदोलन तीन दिनों तक पूरे प्रदेश में चला, जिसमें कई जगहों पर हिंसा और आगजनी हुई. आनंदी बेन सरकार ने मामले की जांच सीआईडी को सौंपी लेकिन दलित समुदाय के 25 लोगों ने सरकार का विरोध करते हुए आत्महत्या की कोशिश की. इस घटना से एक साल के अंदर ही पूरा गुजरात दो बार उबलता दिखाई दिया.
आनंदी बेन और अमित शाह कैसे पास दिखते रहे और दूर होते रहे
मंच पर एक साथ दिखते अमित शाह और आनंदी बेन पटेल के बीच दूरियां बढ़ने की खबरें आई थीं.
मंच पर साथ दिखते अमित शाह और आनंदी बेन के बीच दूरियां बढ़ने की खबरें आई थीं.

इन दोनों ही घटनाओं ने आनंदी बेन की सरकार की चूलें हिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इससे पहले भी जब आनंदी बेन पटेल मुख्यमंत्री बनी थीं तो कहा जा रहा था कि अमित शाह भी गुजरात के मुख्यमंत्री बनने की लाइन में हैं. जब उन्हें पीछे छोड़कर आनंदी मुख्यमंत्री बन गईं तो अमित शाह से उनके रिश्तों की खटास सतह पर दिखने लगी. आनंदी बेन और शाह एक मंच पर, एक साथ आना पसंद नहीं करते थे. आते भी थे तो उनके बीच की दूरियां साफ दिखती थीं. इसी बीच दिसंबर 2015 में राज्य में स्थानीय निकाय के चुनावों में बीजेपी को भारी नुकसान हुआ.
नगर निगम चुनावों में तो बीजेपी नगरपालिका की 56 में 40 सीटों पर जीत गई, लेकिन जिला पंचायत चुनाव की 31 सीटों में से कांग्रेस ने 21 पर जीत हासिल की और बीजेपी को सिर्फ 9 सीटें ही मिलीं. इस चुनाव नतीजों के बाद आनंदी बेन और शाह के गुट के बीच टिकट बंटवारे को लेकर हुई खींचतान भी सामने आ गई. इसमें बीजेपी को नुकसान हुआ था. वहीं दोनों ही आंदोलनों ने आग में घी डालने का काम किया था. पाटीदार आंदोलन उग्र हुआ तो बीजेपी के खिलाफ नारेबाजी हुई. बीजेपी की अंदरूनी कलह भी बाहर आ गई. धारी से बीजेपी विधायक नलिन कोटडिया ने आंदोलन का समर्थन कर दिया, जिससे आनंदीबेन सरकार हाशिए पर खड़ी हो गई. यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने ऊना के मुद्दे को जिस तरह से राज्यसभा में उठाया, उससे पूरे देश का ध्यान गुजरात और वहां की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल की तरफ आ गया. वहीं गुजरात सरकार पूरी तरह से बैकफुट पर आ गई.
और फिर अचानक से 1 अगस्त 2016 को फेसबुक पर एक पोस्ट नजर आई. फेसबुक प्रोफाइल थी गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल की. 

तो इसका मजमून ये था कि आनंदी बेन ने मुख्यमंत्री पद से अपने इस्तीफे की पेशकश की थी. उन्होंने पार्टी के बड़े नेताओं से आग्रह किया था कि उन्हें पद से मुक्त किया जाए.
इसके बाद वो मीडिया के सामने आईं और कहाः
"पार्टी में 75 वर्ष की आयु के बाद वरिष्ठ कार्यकर्ताओं, नेताओं ने स्वैच्छिक निवृत्ति स्वीकार करके अभूतपूर्व परंपरा आरंभ की है. मेरे भी नवंबर में 75 साल पूरे होने हैं लेकिन 2017 के अंत में गुजरात में चुनाव होने हैं. इसके अलावा हर दो साल पर होने वाला 'वायब्रेंट गुजरात समिट' भी जनवरी 2017 में है. नवनियुक्त मुख्यमंत्री को पूरा समय मिले इसलिए मैंने दो महीने पहले पार्टी के वरिष्ठ नेतृत्व से अपने आपको मुक्त करने की विनती की थी. मैं पत्र के माध्यम से फिर से पार्टी नेतृत्व से मुझे मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी से मुक्त करने की विनती करती हूं."
उम्र की दुहाई देकर आनंदी बेन पटेल ने अपना इस्तीफा सौंप दिया, जबकि वजहें कुछ और थीं.
उम्र की दुहाई देकर आनंदी बेन ने अपना इस्तीफा सौंप दिया जबकि वजहें कुछ और थीं.

आनंदी बेन ने फेसबुक पोस्ट पर 75 की उम्र की पार्टी पॉलिसी की दुहाई देते हुए जिम्मेदारियों से हटना चाहा. लेकिन गुजरात के सियासी हलकों में अब भी यही चर्चा है कि आनंदी बेन की ये फेसबुक पोस्ट अचानक नहीं आई थी. इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी ने आनंदी बेन को राज़ी किया था, जिसके बाद ही इस्तीफे की पेशकश सामने आई थी. बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने इस्तीफे को संसदीय बोर्ड के सामने रखने को कहा था. 3 अगस्त को संसदीय बोर्ड ने इस्तीफा स्वीकार कर लिया जिसके बाद आनंदी ने राज्यपाल ओपी कोहली से मिलकर उन्हें इस्तीफा सौंप दिया.
आनंदी बेन इस साल फिर चर्चा में तब आईं, जब बीजेपी सांसद सुब्रमण्यन स्वामी ने उनसे जुड़ा एक ट्वीट लिखा. जब बीजेपी की ओर से राष्ट्रपति पद के लिए नाम तलाशे जा रहे थे तो स्वामी ने उनका नाम राष्ट्रपति के लिए सुझाया था और इसके लिए उन्होंने ट्वीट भी किया था.
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हालांकि इस ट्वीट के बाद भी आनंदी बेन का नाम राष्ट्रपति की रेस में शामिल नहीं हो पाया. इस तरह से गुजरात की इकलौती महिला मुख्यमंत्री और कभी नरेंद्र मोदी के विश्वासपात्रों में शुमार आनंदी बेन का राजनैतिक करियर अपने ढलान पर आ गया. फिर तारीख आई 19 जनवरी 2018.  बीजेपी के आलाकमान ने एक बार फिर आनंदीबेन पटेल से बात की. उन्हें मध्यप्रदेश का राज्यपाल बनने का ऑफर दिया गया. सियासत में किनारे पर चल रहीं आनंदीबेन के लिए इससे बेहतर कोई मौका नहीं था. गुजरात के राज्यपाल अोमप्रकाश कोहली मध्यप्रदेश के राज्यपाल का अतिरिक्त कार्यभार देख रहे थे. पद खाली था और आनंदीबेन पटेल भी. आनंदीबेन पटेल ने राज्यपाल बनने की हामी भर दी, जिसके बाद मध्यप्रदेश के राज्यपाल के तौर पर उनका नाम अनाउंस कर दिया गया.
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