साल 2017 की बात. जापान के लोगों पर उस साल एक विपदा आन पड़ी. भारी ब्लंडर हो गया था. एक ट्रेन थी. जिसके निकलने का वक्त था, 9 बजकर 44 मिनट और 40 सेकेंड. लेकिन मुआ ड्राइवर ट्रेन को 9 बजकर 44 मिनट और 20 सेकेंड पर ही स्टार्ट कर निकल गया. पूरे 20 सेकेंड की जल्दी. नतीजा- पूरे जापान में हाहाकार. दुनिया भर के चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज़. इस गुनाह -ए- अज़ीम की सफाई कौन देगा? ड्राइवर, ट्रेन कंपनी या खुद सरकार! आखिरकार जब कंपनी सरेआम आकर गिड़गिड़ाई, पूरे जापान से माफी मांगी गई, तब जाकर कहीं मामला शांत हुआ.
ट्रेन 50 सेकेंड लेट हुई, 107 लोग मारे गए!
वक्त की पाबंदी की सनक ने ले ली 107 लोगों की जान.

जापान- सेकेंडो के हिसाब से चलने वाले इस देश की ऐसी कहानियां बहुत हैं. लेट होना गुनाह है और जल्दी करना और भी बड़ा गुनाह. हम लेट लतीफों के लिए तो ये दाद देने की बात है. लेकिन याद रखने लायक एक बात ये भी है कि घड़ी चाहे हम इंसानों ने बनाई हो. वक्त हमने नहीं बनाया. घड़ी के अनुसार चलने का मतलब हमेशा वक्त के हिसाब से चलना नहीं होता. कैसे? ये आपको समझ आएगा एक ट्रेन हादसे की कहानी से, जब घड़ी के चक्कर में जापान में 107 लोगों की जान चली गई.
ट्रेन घुस गई बिल्डिंग मेंक्योटो याद है आपको? जापान के इस शहर का नाम 2014 के आसपास भारत में काफी पॉपुलर हुआ था. काहे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि वो बनारस को क्योटो जैसा बना देंगे. इसी क्योटो के लिए 25 अप्रैल 2005 की सुबह नौ बजकर 3 मिनट पर एक ट्रेन रवाना होती है. ट्रेन जहां से चली, उस स्टेशन का नाम था तकाराज़ुका. यहां से टोक्यो जाने के लिए अमागासाकी नाम के एक स्टेशन पर ट्रेन को लाइन बदलनी होती थी. जिसके लिए तीखा मोड़ काटना पड़ता था. जो जाहिर है थोड़ा जोखिम भरा होता. इसलिए इस जगह पर ट्रेन को अपनी स्पीड एकदम स्लो कर देनी होती थी. लेकिन उस रोज़ मोड़ काटते वक्त ट्रेन सीधे एक बिल्डिंग से जा टकराई. ये दुर्घटना इतनी भीषण थी कि ट्रेन का आकार ‘एल’ बन गया. पहले दो डिब्बे तो बिल्डिंग के अंदर ही घुस गए थे.

इनमें से एक डिब्बे में सवार थे 39 साल के कियोइची योशिडा. योशिडा कुल 4 घंटे तक मलबे में फंसे रहे थे. हालांकि अंत में उन्हें बचा लिया गया था. इस ट्रेन हादसे पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री में वो बताते हैं कि उनके दोनों पैर मलबे के ढेर में एकदम पिस गए थे. सांस चल रही थी क्योंकि एक लैपटॉप उनकी छाती और मलबे के बीच आ गया था. योशिडा ने हिम्मत दिखाते हुए अपने घर वालों को फोन मिलाया. तब तक बचाव दल मौके पर पहुंच गया था. लोगों को बचाने की कोशिश में लगा था. लेकिन इस काम में काफी देर लग रही थी. वो लोग ड्रिल या तेज़ी से काटने वाली किसी मशीन का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे क्योंकि ट्रेन जिस बिल्डिंग में जा घुसी थी, वहां एक कार पार्किंग थी. और कारों से निकला तेल चारों तरफ फ़ैल गया था. जिसमें एक छोटी सी चिंगारी से भी आग लग सकती थी.
बहरहाल कई घंटों की मशक्कत के बाद बचाव कर्मचारी योशिडा तक पहुंच पाए. लेकिन अभी भी संकट टला नहीं था. योशिडा को सीधे मलबे से नहीं निकाला जा सकता था. जैसा पहले बताया उनका पैर मलबे में दब गया था. ऐसे मामलों में खून में मायोग्लोबिन नाम का एक प्रोटीन रिलीज़ होता है. जिससे किडनी फेलियर की संभावना बहुत बढ़ जाती है. इस फिनोमेना को क्रश सिंड्रोम कहते हैं. अगर इस दौरान दबे हुए अंगो से अचानक भार हटाया जाए तो ऊतकों में अत्यधिक ऑक्सीजन रिलीज़ होती है. और इंसान की शॉक से मौत भी हो सकती है. ऐसी मौत को स्माइलिंग डेथ भी कहा जाता है, क्योंकि इस दौरान आदमी अनायास मुस्कुराने लगता है. खुशकिस्मती से योशिडा की किस्मत में ये वाली मुस्कराहट नहीं थी. वो मुस्कुराए लेकिन इलाज के बाद. पूरी तरह ठीक होने के बाद. हालांकि पहले और दूसरे डिब्बे में बैठे सब लोगों की किस्मत ऐसी नहीं थी. कुल 107 लोग मारे गए थे. जिनमें ट्रेन का ड्राइवर भी शामिल था.
गलती किसकी?अब बारी थी इन्वेस्टिगेशन की. जापान में ट्रेन हादसे काफी रेयर होते हैं. पूरा सिस्टम इस तरह तैयार किया गया है कोई भी टेक्नीकल फॉल्ट आए, तो इमरजेंसी ब्रेक्स ट्रेन को अपने आप रोक दें. लेकिन इस सिस्टम में एक चीज का ध्यान नहीं रखा गया था. इंसानी गलती का. और इस मामले में शुरुआती तहकीकात में सारी गलती ड्राइवर की लग रही थी.

उस रोज़ जब ट्रेन तकाराज़ुका स्टेशन से 9 बजकर 3 मिनट पर रवाना हुई, वो पहले से लेट चल रही थी. ड्राइवर ने स्टेशन पर रेड सिग्नल का ध्यान न रखा और ट्रेन का ऑटोमैटिक ब्रेक ऑन हो गया. इस चक्कर में ट्रेन 15 सेकेंड लेट हो गई. इसके अगले स्टेशन पर भीड़ के चलते देरी बढ़कर 50 सेकेंड के लगभग हो गई. जिसने ड्राइवर की घबराहट को और बढ़ा दिया. ट्रेन को चलाने वाली कंपनी की सख्त हिदायत थी कि किसी हालत में ट्रेन 28 सेकेंड से ज्यादा लेट न हो. इसके चलते ड्राइवर ने ट्रेन की स्पीड तेज़ कर दी. और इसी चक्कर में उससे एक और गलती हो गई. ज्यादा स्पीड के कारण अगले स्टेशन पर ट्रेन स्टॉपिंग लाइन से आगे जाकर रुकी. और उसे पीछे प्लेटफार्म तक ले जाने में कुछ सेकेंड और खर्च हो गए.
कुल मिलाकर देरी अब डेढ़ मिनट से ज्यादा की हो चुकी थी. इसलिए ड्राइवर ने ट्रेन को फुल स्पीड में दौड़ाना शुरू कर दिया. अगला स्टेशन था अमागासाकी. जैसा पहले बताया यहां लाइन बदलने लिए ट्रेन को एक तीखा मोड़ काटना था. जिसके लिए स्पीड कम करनी जरूरी थी. लेकिन देरी के डर से घबराया हुआ ड्राइवर वक्त पर स्पीड कम नहीं कर पाया. जहां ट्रेन को 70 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से चलना चाहिए था, वो 116 की स्पीड से चल रही थी. इसी वजह से ट्रेन सीधे जाकर बिल्डिंग से टकरा गई और हादसा हो गया.
वक्त की पाबन्दी की सनकयहां तक आपको सारी गलती ड्राइवर की लगेगी. लेकिन इस हादसे का कारण सिर्फ वो नहीं था. एक कारण और भी था.- जापान का वक्त की पाबंदी को लेकर सनकीपन की हद तक चले जाने का कल्चर. भारत में जहां हम कई बार मेट्रो के लिए 20-20 मिनट इंतज़ार करते हैं. जापान में पूरा सिस्टम इस तरह तैयार है कि एक मिनट भी बर्बाद न होने पाए. लोगों को ट्रेन बदलनी हो तो एक से उतरते ही तुरंत दूसरी तैयार होनी चाहिए. इसलिए एक ही स्टेशन पर आने वाली कई ट्रेनों के बीच कई बार मिनटों का फासला रखा जाता है. जिससे एक-एक सेकेंड का महत्त्व काफी बढ़ जाता है.

जिस ट्रेन का हादसा हुआ उसे चलाने वाली कम्पनी तो इससे एक कदम और आगे थी. JR वेस्ट नाम की इस कम्पनी में नियम था कि एक बार किसी ड्राइवर से देरी हुई या कुछ भी गलती हुई, तो उसे दुबारा ट्रेनिंग के लिए भेज दिया जाएगा. इस ट्रेनिंग को डे-शिफ्ट एजुकेशन का नाम दिया गया था. जो असल में ट्रेनिंग न होकर मानसिक प्रताड़ना थी. कर्मचारियों को इस दौरान टॉयलेट साफ़ करने, घास काटने जैसे काम करने होते थे. हाथ से लम्बी-लम्बी रिपोर्ट लिखनी होती थी, जिस दौरान मैनेजर गालियां देता था. एक बार इसमें फंस गए तो आपको ये तक पता न होता था कि आप दुबारा काम पर कब लौट पाएंगे.
हादसे के बाद पता चला कि उस ट्रेन का ड्राइवर भी एक बार री-ट्रेनिंग के लिए भेजा जा चुका था. और इसी डर से संभवतः उसने टाइम कवर करने के लिए ट्रेन की स्पीड तेज़ की. ट्रेन जब पटरी से उतरी उसने ब्रेक मारने की कोशिश भी की थी. लेकिन हड़बड़ाहट में उसने इमरजेंसी ब्रेक के बदले सर्विस ब्रेक दबा दिए. जो इस परिस्थिति के लिए नाकाफी थे.
बाद में इस हादसे की जिम्मेदारी लेते हुए में JR वेस्ट कंपनी के अध्यक्ष ताकेशी काकिउचि ने तुरंत अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था. साल 2009 में एक और अधिकारी मसाओ यामाज़ाकी के ऊपर लापरवाही का केस चला. लेकिन कोर्ट ने उन्हें दोषी मानने से इंकार कर दिया. जिस बिल्डिंग से ये ट्रेन टकराई थी, उस जगह पर एक स्मारक बनाया गया है. और आज भी बिल्डिंग का एक हिस्सा ज्यों का त्यों रखा गया है.
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