90 का दशक भारत के लिए लैंड मार्क दशक माना जाता है. कम से कम आर्थिक तौर पर. आकंड़ों से इतर जानना चाहते हैं तो 70 या 80 के दशक में पैदा हुए लोगों से पूछिए.
मिडिल क्लास हों या रईस, एक चीज की कमी सबके लिए थी, चॉइस. कार लेनी हो तो सिर्फ 3 मॉडल थे. उनमें से एक तय करना मुश्किल था कि सबसे खराब कौन सा है. लैंडलाइन के लिए 10 साल तक का वेट करना पड़ सकता था. और कम्प्यूटर या कैमरा जैसे उपकरणों की तो पूछिए ही मत.
कोका कोला और IBM को धंधा समेट कर भागना क्यों पड़ गया था?
1978 में कोका कोला और IBM ने भारत से अपना कारोबार समेट लिया था. जानिये क्या थी वजह

अमेरिका में 1977 में होम कम्यूटरों की शुरुआत हो चुकी थी. और 90 के दशक में जब भारत में कम्यूटर के इस्तेमाल को बढ़ावा देने की बात हुई तो कर्मचारी आंदोलन पर उतर रहे थे. 21 वीं सदी में जैसे ये डर है कि AI और रोबोट भविष्य में नौकरी खा जाएंगें. वैसे ही तब डर था कि एक कम्यूटर 10 लोगों का काम कर देगा तो बचे 9 लोगों को क्या होगा उसी दौर में लिब्रलाइजेशन का फायदा उठाकर भारत में दो कंपनियों ने एंट्री की. कोका-कोला और IBM. कोक का कम्पीटीशन पेप्सी और कैम्पा कोला जैसे ब्रांड्स थे. वहीं IT सेक्टर में विप्रो जैसी कंपनियां खड़ी थीं. इसलिए भारतीय बाजार में पैठ बनाने के लिए दोनों कंपनियों को काफी जद्दोजहद करने पड़ी.
हालांकि कहानी कुछ और भी हो सकती थी. कोका कोला और IBM को भारत में बिजनेस का 25 साल लम्बा अनुभव था. आजादी के कुछ साल बाद ही दोनों कंपनियां भारत में एंटर हो चुकी थीं. लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि 1978 में दोनों कंपनियों ने भारत से बोरा बिस्तर बांध लिया.
IBM ने ऐसा क्यों किया, ये आगे आपको बताएंगे. कोका कोला के लिए वजह थी, उसकी सीक्रेट रेसिपी. वही सीक्रेट रेसिपी जिसको लेकर इंटरनेट पर कहानियां चलती हैं कि कोका कोला ने इसे एक तहखाने में छुपा कर रखा है. जिसके बारे में गिनती भर लोगों के अलावा कोई नहीं जानता. क्या है इस सीक्रेट रेसिपी की असलियत? कैसे इसके चलते कोक ने भारत में अपना कारोबार बंद कर दिया? कैसे हुई IBM की रुखसती? चलिए जानते हैं
IBM में भारत का सवालिया कारोबारशुरुआत IBM से. आज ही के दिन यानी 16 जून, साल 1911 में IBM की स्थापना हुई थी. आने वाले सालों में कंपनी इतनी बड़ी बन गयी कि इसे बिग ब्लू कहा जाने लगा. दरअसल न्यू यॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में चुनिंदा ब्लू स्टॉक थे. और उनमें से एक IBM भी थी. दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में इसका नंबर आठवां होता था.

भारत में IBM की एंट्री हुई साल 1952 में. प्रधानमंत्री नेहरू भारत में उन्नत तकनीकों को लाना चाहते थे. इसलिए उन्होंने IBM को भारत में व्यापार का न्योता दिया. शुरुआत में कम्यूटरों का काम गिना चुना होता था, इसलिए इनका इस्तेमाल IIT, IIM या रिसर्च के कामों के लिए ज्यादा होता था.
अगले 2 दशकों तक सब कुछ बढ़िया चला. फिर साल 1973 में सरकार ने फॉरेन एक्सचेंज रेगुलेशन एक्ट (FERA) क़ानून में कुछ संशोधन किए. जिसके अनुसार विदेशी कंपनियों को भारत में कारोबार करने के लिए 60% हिस्सेदारी अपने भारतीय हिस्से को देनी थी. यानी मालिकाना हक़ भारतीय कंपनी के पास होना था. लगभग इसी समय IBM के रेलवे के साथ लेन-देन में कई गड़बड़ियां पाई गई. जिसके चलते संसद की पब्लिक एकाउंट्स कमिटी, PAC ने IBM पर एक जांच भी बिठा दी.
PAC के हेड थे हीरेन्द्रनाथ मुखर्जी. उन्होंने पाया कि IBM सरकार को उल्लू बना रही थी. वो कैसे?
उस दौर में भारत में 200 कम्प्यूटर से ज्यादा न होंगे. इनमें से 160 IBM के थे. जिन्हें IBM ने भारत में लीज़ पर दिया था. इसके लिए IBM प्रति महीना 50 हजार रुपया किराये का वसूलती थी. इसके अलावा हजारों यूनिट रिकॉर्डर, पंचिंग वेरिफिकेशन मशीन भी थीं, ये सब भी लीज़ पर दी जाती थीं. चूंकि ये सभी अमेरिका से मंगाकर पुणे के प्लांट में तैयार किए जाते, इसलिए प्रॉफिट मार्जिन का कहीं कोई हिसाब नहीं था. मतलब अमेरिकन IBM अपने भारतीय हिस्से को मशीन बेचती और इसमें जो मुनाफा होता, उसे बिलकुल सीक्रेट रखा जाता. जिसकी सरकार को कोई भनक नहीं थी.
सरकार को क्यों हुआ IBM पर शक?सरकार का शक तब बढ़ा, जब पता चला कि कंपनी अमेरिका से पुराने और बेकार सिस्टम्स को भारत में किराए पर दे रही थी. अमेरिका में जिन मशीनों को जंक बताकर फेंक दिया जाता, उनसे कम्पनी भारत में लाखों कमा रही थी.

भारत सरकार के डिपार्टमेंट ऑफ इलेक्ट्रॉनिक्स के अनुसार, हर ऐसी मशीन पर कंपनी को प्रति वर्ष 300% मुनाफा हो रहा था. डिपार्टमेंट ने उनसे किराए में कमी करने को भी कहा. लेकिन चूंकि IBM लगभग अकेली प्लेयर थी, इसलिए उनके कानों में जूं भी न रेंगी.
इसकी वजह थी IBM का नाम. IBM की सर्विस भरोसेमंद मानी जाती थी. कोई दिक्कत हो, फ़ोन उठाओ और घंटे के अंदर IBM का बंदा आपके सामने होता. IBM की कम्पीटीटर का नाम था इंटरनेशनल कम्प्यूटर्स लिमिटेड, ICL. जो एक ब्रिटिश कंपनी थी. IBM को टक्कर देने के लिए ICL ने भारत इलेक्स्ट्रोनिक्स के साथ कोलैबोरेशन भी किया. लेकिन IBM की सर्विस के सामने वो कहीं नहीं ठहरते थे.
सिंगापोर में IBM के डिपो हुआ करते थे. इसलिए कोई पार्ट ख़राब हो तो वो भी मिनटों के नोटिस पर मंगाए जा सकते थे. इसी चक्कर में IBM को किसी चीज का डर न था. उन्हें पता था भारत में उनके बिना कम्प्यूटर सर्विस देने वाला और कोई नहीं.
इस हेकड़ी को तोड़ने का काम किया, तब जायंट किलर के नाम से मशहूर हुए जॉर्ज फर्नांडिस ने. जॉर्ज सोशलिस्ट नेता थे. ट्रेड यूनियन लीडर हुआ करते थे. 1960 के दौरान बंबई में उन्होंने श्रमिकों के साथ मिलकर कम्यूटर के खिलाफ आंदोलन भी चलाया था. एक बार तो इलेक्शन के दौरान उन्होंने ये तक कह दिया था कि “भारत को ब्रा और टूथपेस्ट बनाने के लिए विदेशी टेक्नोलॉजी की जरुरत नहीं.”
जार्ज फर्नांडिस ने विदेशी कंपनियों को भगाया!जॉर्ज की एंट्री हुई 1977 में इमरजेंसी के ख़त्म होने के बाद. चुनाव हुए. जनता पार्टी की सरकार बनी. जार्ज फर्नांडिस सूचना मंत्री बनाए गए. कुछ वक्त वाद उन्हें उद्योग मंत्रालय का कार्यभार सौंप दिया गया. कार्यभार संभालते ही जॉर्ज ने सभी विदेशी कंपनियों को नोटिस थमा दिया. कंपनियों के लिए 1973 में हुए FERA संशोधन का पालन अनिवार्य बना दिया गया. बाकी कंपनियां तो तैयार हो गई. लेकिन IBM और कोका कोला अड़ गए.

चूंकि सर्विस के लिए IBM का कोई ऑप्शन नहीं था इसलिए जॉर्ज के इस कदम से कम्प्यूटर का इस्तेमाल करने वाले उद्योग और संस्थान घबराए. IBM का जाना तय लग रहा था इसलिए उन्होंने सरकार से कोई बीच का रास्ता निकाले की सिफारिश की. इसके बाद जॉर्ज फर्नांडिस ने IBM और कोका कोला के अधिकारियों को मिलने के लिए बुलाया. हैरानी की बात कि IBM अपने कंप्यूटर वाले बिजनेस की मालकियत अपने भारतीय हिस्से को बेचने के लिए तैयार भी हो गई. लेकिन इसके पीछे कारण कुछ और था.
दरअसल इंदिरा सरकार ने IBM की कारस्तानियों को देखते हुए विदेशों से सेकेण्ड हेंड मशीनों के इम्पोर्ट की इजाजत दे दी थी. ये मशीनें IBM की नई मशीनों के बेहतर काम कर रही थीं.IBM की मशीन में एक घंटे काम का खर्चा 800 रूपये आता था, जबकि इम्पोर्ट की गई मशीनों में ये काम 250 रूपये में हो जाया करता. इन सबके चलते IBM के कंप्यूटर वाले बिजनेस का मुनाफा कम हो गया था. और इसीलिए वो इस बिजनेस का 60 प्रतिशत हिस्सा भारतीय कंपनी को देने को तैयार हो गए. लेकिन असली पैसा सर्विस में और बाकी छोटे डिवाइसेस के बिजनेस में था. और उसे भारतीय कम्पनी को बेचने के लिए IBM हरगिज़ तैयार नहीं थी.
कोका कोका की सीक्रेट रेसिपीदूसरी तरफ कोका कोला की दिक्कत उसकी सीक्रेट रेसिपी से जुड़ी थी. एक सीक्रेट सॉस जो फाइनल प्रोडक्ट का केवल 4% था. लेकिन कोक का फेमस स्वाद उसी की वजह से आता था. और कोक इसके बिलकुल छुपा के रखना चाहता था.

एक सवाल ये भी है कि आज तक यानी 2022 में भी कोक अपनी रेसिपी को इतना छुपाकर क्यों रखता है. जबकि वो चाहे तो इसका पेटेंट भी करा सकता है. अपनी कांच वाली बोतल का आकर कोक ने पेटेंट कराकर रखा है. कोक अपनी रेसिपी का पेटेंट क्यों नहीं कराता, इस सवाल के जवाब के लिए थोड़ा पीछे चलना होगा. कोक की शुरुआत हुई 1880 में. जॉन पेम्बर्टन ने इसकी रेसिपी तैयार की. 1891 में ऐसा कैंडलर ने इस फॉर्मूले को ख़रीदा और कोका कोला कम्पनी की शुरुआत कर दी.
1919 में अर्नेस्ट वुडरफ ने कंपनी को खरीदने की पेशकश की. इसके लिए उन्हें बैंक से लोन चाहिए था. और बैंक वाले लोन के लिए कुछ गिरवी रखने को कह रहे थे. तब वुडरफ ने बैंक को गिरवी के लिए कोक की रेसिपी की एक मात्र कॉपी ही दे दी. 1925 में रेसिपी को गिरवी से छुड़ाने के बाद सालों तक इसे सीक्रेट रखा गया. फिर साल 2011 में कोक ने इसे एक वॉल्ट में रख दिया.
कोका कोला अपनी रेसिपी को पेटेंट क्यों नहीं कराती?सीक्रेट रखने की जहां तक बात है. तो कंपनी के अनुसार किसी एक वक्त पर केवल दो लोगों के पास कोक का पूरा फार्मूला होता है. ये दोनों लोग कभी एक साथ ट्रेवल नहीं कर सकते. उसी तरह जैसे अमेरिका के राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति कभी साथ ट्रेवल नहीं करते. इन दो लोगों में से किसी एक की मृत्यु हो जाए तो दूसरे को उसका उत्तराधिकारी चुनना होता है, जो कंपनी का ही कोई एक व्यक्ति होगा. इसके अलावा इन दोनों की पहचान भी सीक्रेट का हिस्सा है.
1893 में रेसिपी को पेटेंट कराया था. लेकिन आगे चलकर उसमें कुछ बदलाव हुए और पुराने पेटेंट की अवधि समाप्त हो गई. कंपनी नया पेटेंट इसलिए दाखिल नहीं करती क्योंकि इसके लिए कम्पनी को अपनी रेसिपी रिव्यू के लिए सब्मिट करनी पड़ेगी. और पेटेंट मिल भी गया तो भी पेटेंट नियमों के अनुसार 20 साल बाद रेसिपी पब्लिक को अवेलेबल हो जाएगी. इसलिए कंपनी ने पेटेंट कराने के बजाय इसे सीक्रेट रखना बेहतर समझा.
हालांकि ये सब बातें ये सीक्रेट रेसिपी को बचाने से ज्यादा, कोका कोला की मार्केटिंग स्ट्रेटेजी का हिस्सा हैं. अगर ये सीक्रेट रेसिपी किसी के हाथ लग भी जाए तो भी कोक का कुछ न बिगड़ने वाला. क्योंकि कोक में इस्तेमाल होने वाली ख़ास कोको लीफ का कंट्रोल भी कंपनी के पास ही है.
सरकारी कोलाअब वापिस अपनी मेन कहानी पर चलते हैं. कोक नए FERA क़ानून से इसलिए बचना चाह रही थी क्योंकि ऐसा करने पर उसकी सीक्रेट रेसिपी बाहर आने का खतरा था. कोक को बनाने के जो सीक्रेट सॉस था उसे अमेरिका से इम्पोर्ट किया जाता था, जिसके लिए इम्पोर्ट लाइसेंस लगता था. नए नियमों के अनुसार कोक को 60% हिस्सा भारतीय कंपनी को देना होता और साथ-साथ टेक्निकल जानकारी भी साझा करनी पड़ती. इस टेक्नीकल जानकारी में कोक की रेसिपी भी शामिल थी. जिसे कोक किसी कीमत पर शेयर नहीं कर सकती थी.

कोक और IBM, दोनों कंपनियों ने नए कानूनों का पालन करने के बजाय भारत से निकलने में बेहतरी समझी. IBM के जाने से भारत में विप्रो जैसी कंपनियों को स्पेस मिला. लेकिन चूंकि उन्हें केवल भारतीय बाजार में अपनी सर्विस बेचनी थी, इसलिए कम कम्पीटीशन के चलते ये कंपनियां तकनीकी तरक्की नहीं कर पाई. ये सब हुआ 1991 में लिब्रलाइजेशन के बाद.
कोक के जाने के बाद सॉफ्ट ड्रिंक के नए विकल्प भी बाजार में आए. मसलन कैम्पा कोला, थम्स अप, ड्यूक. यहां तक की सरकार ने भी अपना एक कोला लांच किया. सरकार का मतलब यहां सरकारी कंपनी से है. मॉडर्न फ़ूड नाम की कंपनी ने डबल सेवन (77) नाम से एक कोला लॉन्च किया. जिसे सरकारी कोला भी कहा जाता था. लेकिन डबल सेवन मार्केट में ज्यादा दिन टिक नहीं पाया. कंपनी को साल दर साल घाटा होता गया और धीरे-धीरे 77 बिकना बंद ही हो गया. 1993 में कोक ने भारत में रीएंट्री की. और उसके बाद जैसा कि कहते हैं, रेस्ट इज़ हिस्ट्री.