साल 1840. 65 साल के बादशाह ज़फर का दिल एक बार फिर रूमानी हुआ जाता है. 19 साल की जीनत महल से निकाह की तमन्ना है. पूरे चांदनी चौक में अफवाह गरम है कि बुढ़ौती में बादशाह पागल हो गया है. लेकिन ज़फर को इन बातों से मतलब नहीं. अपने दोस्त ग़ालिब का एक शेर उसकी जुबान पर है,
मुग़ल सल्तनत के आख़िरी दिनों में भी चल रहा था साजिशों का खेल
साल 1856 में आगरा से शुरू हुई हैजे की महामारी दिल्ली तक फैल गई. इसी दौरान बहादुर शाह ज़फर के वारिस और मुग़ल गद्दी के हक़दार शहजादे की भी मौत हुई. बेगम ज़ीनत महल अपने बेटे को अगला बादशाह बनाना चाहती थी. इसलिए सवाल उठा कि शहजादे की मौत बीमारी से हुई या उसे ज़हर दिया गया था.

इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब',
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे
बहरहाल बादशाह की ख्वाहिश थी. कैसे न पूरी होती. ज़फर और ज़ीनत का निकाह हुआ. और कुछ सालों बाद बेगम जीनत महल की एक औलाद हुई. बाकी बेगमों की तरह उसकी भी ख्वाहिश थी कि उसकी औलाद बादशाह बने. लेकिन ये मुमकिन नहीं था. गद्दी के वारिसों की लाइन में तीन शहजादे खड़े थे. लेकिन फिर इत्तेफ़ाक़न कुछ ऐसा हुआ कि दो शहजादों की एक-एक कर मौत हो गई. इसके बाद लाइन में तीसरे शहजादे को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया.

इत्तेफाक में इजाफा हुआ जब कुछ दिनों बाद तीन अंग्रेज़ अधिकारियों की मौत की खबर आई. ये वो अधिकारी थे, जिन्होंने उत्तराधिकार के कागजों पर दस्तखत किया था. कुछ वक्त बाद तीसरे शहजादे की भी मौत हो गयी. इत्तेफाक अब हद को छूने लगा था.
इत्तेफाक ने हद ही पार करी तब, जब पता चला कि एक ब्रिटिश अधिकारी ने मरते-मरते तीसरे शहज़ादे की मौत की भविष्यवाणी पहले ही कर दी थी. बेगम ज़ीनत महल के बेटे के लिए ग़द्दी का रास्ता साफ़ हो चुका था. लेकिन क्या ज़ीनत महल के बेटे को ग़द्दी मिली? तो इस सवाल का भी वही जवाब है.
इत्तेफ़ाक से, नहीं!
अब आप कहेंगे भाई कितना इत्तेफ़ाक करवाओगे. तो ये इत्तेफ़ाक था या कुछ और? इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें मुग़ल सल्तनत के आखिरी दिनों में चले शह और मात के खेल को समझना होगा. जब पूरी दिल्ली एक बीमारी, एक महमारी से जूझ रही थी, और शहज़ादे मक्खियों की तरह टपक रहे थे.
मुग़ल शहजादे की मौतशुरुआत 1849 से. बहादुर शाह ज़फर के ज़हन में ग़ालिब का एक शेर है. छलकती हुई ज़बान से वो फ़रमाता है,
जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे
क्या ख़ूब क़यामत का है गोया कोई दिन और
बादशाह ग़मज़दा है. ज़फर के सबसे बड़े बेटे, और मुगलिया सल्तनत के वारिस शहजादे मिर्ज़ा दारा बख्त की जान एक मामूली बुखार ने ले ली है. गम की घड़ी में सहारा एक ही है, बेगम ज़ीनत महल. ये ज़ीनत महल ही थी, जिसने ज़फ़र के साथ ग़म ग़लत किया. बादशाह ज़फर जब गम से बाहर निकले तो उन्होंने सीधे अंग्रेज अंग्रेज़ के नाम एक ख़त लिखा.

खत में दर्ज़ था कि मिर्ज़ा जवान बख्त को उत्तराधिकारी घोषित किया जाए. मुगलिया सल्तनत के वो दिन आ चुके थे कि वारिस चुनने के लिए भी अंग्रेज़ों से परमिशन लेनी होती थी. मिर्ज़ा जवान बख्त, जीनत महल के बेटे थे. जाहिर था कि बेगम अपनी औलाद को बादशाह बनते देखना चाहती थी. लेकिन मुग़ल गद्दी के लिए जवान बख्त से आगे किसी और का नंबर था. ज़फर के तीसरे नंबर के बेटे, मिर्ज़ा फतह उल मुल्क बहादुर, उर्फ़ मिर्ज़ा फकरु का.
मिर्ज़ा फकरु तेज़ तर्रार अंग्रेज़ी बोलते थे. और अंग्रेज़ों से साथ उनकी थोड़ी बनती भी थी. इसलिए कम्पनी के अधिकारियों ने ज़फर के खतों को इग्नोर किया और मिर्ज़ा फकरु को ज़फ़र का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. लेटर ऑफ़ सक्शेसन पर तीन लोगों ने दस्तख़त किए थे. जेम्स थॉमसन, हेनरी एलियट और थॉमस मेटकॉफ. ये साल 1852 सितम्बर महीने की बात है.
कंपनी बहादुर के अधिकारियों की मौतफिर कुछ यूं हुआ कि नवंबर आते-आते मेटकाफ ने बिस्तर पकड़ लिया. शुरुआत पेट दर्द से हुई. मॉर्फ़ीन की ज़बरदस्त खुराक के बावजूद दर्द कम ना हुआ. कुछ दिनों में ही उसकी मौत हो गई. मरने तलक़ मेटकॉफ को शक था कि उसे ज़हर दिया गया है. उसकी बेटी ऐमिली मेटकॉफ भी कहती रही कि हिंदुस्तानी हाकिमों ने उसके पिता को ज़हर दिया है. लेकिन आधिकारिक रिपोर्ट में इसे साधारण मौत माना गया.

मरने के ठीक पहले मेटकॉफ ने एक भविष्यवाणी की. उसने दावा किया कि मुग़ल गद्दी के उत्तराधिकारी, मिर्ज़ा फकरु भी ज़्यादा दिनों तक ज़िंदा ना रहेंगे. कुछ महीने बाद जेम्स थॉमसन, और हेनरी एलियट भी चल बसे. यानी सक्शेसन पर दस्तख़त करने वाले तीनों लोग चंद दिनों के अंतराल में मर गए. नीम हकीम, डॉक्टर बुलाए गए. लेकिन ज़हर दिए जाने का कोई सुराग न मिला. इसके बाद सबकी नज़र मिर्ज़ा फकरु पर लग गई. अगले दो सालों तक जब फकरु को कुछ ना हुआ तो सबको लगा ये सब इत्तेफ़ाकन हुआ है.
उधर फकरु को उत्तराधिकारी बनाए जाने से ज़फ़र एकदम खुश नहीं थे. ना ही बेगम ज़ीनत महल. दोनों ज़ीनत के बेटे, मिर्ज़ा जवान बख्त को उत्तराधिकारी घोषित करने की कोशिश करते रहे. लेकिन अंग्रेजों ने उनकी एक ना सुनी. यही उनका मोडस ओपेरंडी था. पहली शादी से हुए बेटों के अलावा वो किसी को उत्तराधिकारी मानने को तैयार ना थे.
दिल्ली के किले में शक की बीमारी फैल रही थी. हर किसी को साज़िशों की बू आ रही थी. अफ़वाहों का दौर गर्म था. और इस चक्कर में नज़र अन्दाज़ हो रही थी एक असली मुसीबत.
आगरा में हैजा1855-56 की बात है. आगरा में जाड़ों का मौसम अबकी कुछ गर्माहट लिए था. शहर के बाशिंदे खुश थे कि इस बार अलाव कम ना पड़ेगा. लेकिन ये ख़ुशख़बरी महज़ ख़ुशफ़हमी साबित हुई. 21 मई की तारीख, रमज़ान का दिन था. आगरा सिविल लाइंस में रहने वाले रेव्रेंड स्कॉट की तबीयत अचानक ख़राब हो गई. पता चला हैज़ा हुआ है. 18 वीं सदी में पहले भी दो बार हैज़े का प्रकोप हो चुका था. और सिविल लाइन जैसे पॉश इलाक़े में केस आने का मतलब था कि बीमारी ने साफ़ सुथरे इलाक़ों में भी घर कर लिया है.

प्रशासन ने सिविल लाइन इलाक़े को क्वॉरंटीन कर दिया. लेकिन इससे क्या होता. असली मुसीबत कहीं और पनप रही थी. 25 मई को आगरे की जेल में हैज़े के तीन केस निकले. 15 जून यानी आज की तारीख आते-आते केस इतने बढ़ गए कि सिकंदरबाद में अकबर के मक़बरे से लेकर ताजमहल तक को क्वॉरंटीन सेंटर बनाना पड़ा. जुलाई आते-आते बीमारी इटावा, बरेली और फर्रुखाबाद तक फ़ैल चुकी थी.
साल 1856 तक पूरे उत्तर भारत के इलाके में हैज़ा फ़ैल चुका था. हजारों लोग मारे गए. जो बचे वो जान बचाने के लिए इधर-उधर भागे. इस चक्कर में जहां-जहां ये लोग पहुंचे, हैज़ा वहां-वहां पहुंच गया. उत्तर में मुल्तान और दक्षिण में मद्रास तक हैज़ा पसर गया. उसी साल ईरान में करबला में भी हैज़े ने दस्तक दी. मद्रास के सिविल सर्जन, डॉक्टर WR कॉर्निश लिखते हैं कि संभवतः हिंदुस्तान से ईरान पहुंचने वाले शियाओं से ज़रिए ही हैज़ा करबला तक पहुंचा था.
आंकड़ों के हिसाब से तब आगरा और आसपास की जनसंख्या मिलाकर, 10 लाख के आसपास थी. अगस्त 1856 तक 22 हजार लोगों को हैजा हो चुका था और लगभग साढ़े 8 हजार लोग मारे जा चुके थे.
दिल्ली में हैजे की दस्तकजहां दिल्ली के पड़ोस में बीमारी काल बन रही थी. बादशाह बहादुर शाह ज़फर राजनीति में उलझे हुए थे. हैजे के इक्का दुक्का मामलों को छोड़कर दिल्ली में कोई खास खबर भी नहीं थी. फिर जुलाई में दिल्ली में जोरों की बारिश हुई और सारी दिल्ली पानी में डूब गई. जब पानी उतरा, चारों तरफ कीचड़ और गन्दगी पसर गई. हैजे के लिए माकूल माहौल था.

शम्स उर रहमान फारुकी की एक नायाब किताब है, “कई चांद थे सरे आसमान”. इसमें फारुकी लिखते हैं कि महामारी ने वो रूप लिया कि सीनियर कंपनी अधिकारी भी लोगों को उनके हाल पर छोड़कर भाग गए. नीम-हकीमों ने जितनी हो सकती थी, कोशिश की. लेकिन उससे भी क्या होता.
फिर आई 9 जुलाई की तारीख. चुस्त दुरुस्त मिर्ज़ा फकरु, जिन्हें अगला बादशाह होना था. उस सुबह पेट में दर्द और हल्के बुख़ार के साथ उठे. शाही हकीम ने एक काढ़ा तैयार किया लेकिन उससे भी कोई असर ना हुआ. दोपहर तक उल्टियां होने लगीं. शाम होते होते मिर्ज़ा फकरु बेहोश हो चुके. संभवतः ये हैज़ा था. लेकिन ये भी सच था कि शाही परिवार में और किसी की तबीयत ख़राब ना हुई थी. एक और बात गौर करने लायक़ सुनिए, तब अहसानुल्ला ख़ां शाही हकीम हुआ करते थे.
एक किताब है, “द मेमोवार ऑफ़ हैरिएट टाइटलर”. इसमें टाइटलर लिखती हैं, अहसानुल्ला ख़ां ने एक बात उन्हें बताया था कि वो किसी भी आदमी को ज़हर देकर मार सकते हैं. और इस तरह कि पता भी ना चले. यहां तक कि ज़हर कब तक असर करेगा, इसकी टाइमलाइन भी वो बता सकते थे. बहरहाल उस रोज़ शाही हकीम अहसानुल्ला ख़ां ने मिर्ज़ा फकरु का इलाज किया. लेकिन अगली सुबह तक वो दुनिया से रुखसत हो चुके थे.
साजिश या इत्तेफाकबादशाह के लिए ये एक और दुःख की घड़ी थी. लेकिन ये भी हुआ कि बेगम ज़ीनत महल के बेटे के लिए रास्ता साफ़ हो गया. अब ये इत्तेफ़ाक था या साज़िश? इसके लिए एक्स्प्लनेशन दिया जाता है कि चूंकि हैज़ा फैला था तो ऐसे में शहज़ादे का मरना कोई हैरत की बात नहीं. आधिकारिक रिकार्ड्स में भी इसे हैजे से हुई मौत ही माना गया.
किन्तु-परन्तु की गुंजाइश होती, मुग़ल गद्दी के लिए अगर-मगर होता. लेकिन 1857 की क्रांति दस्तक दे चुकी थी. और जब तक क्रांति खत्म हुई, कोई सर ही ना रहा कि जिस पर मुग़ल सल्तनत का ताज सजता.अंग्रेजों ने मौक़ा देखकर बादशाह के आगे की लाइन ही काट दी. और ज़ीनत के बेटे मिर्ज़ा जवान बख्त को उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया. 1858 में ज़फर और ज़ीनत को कैद कर रंगून भेज दिया गया.
जो शहजादे-शहजादियां बचे थे, खूनी दरवाजे पर उनका क़त्ल कर दिया. जब तक हैज़ा ठीक हुआ 1860 आ चुका था. मुग़ल सल्तनत को खत्म कर मॉनर्की का अंत कर कर दिया गया. एक और इत्तेफाक देखिए, भारत में मॉनर्की को ख़त्म बताकर अगले ही दशक में विक्टोरिया को एम्प्रेस ऑफ इंडिया घोषित कर दिया गया. इत्तेफाकों का दौर ख़त्म हो चुका था. अब बारी हिप्पोक्रेसी की थी.