आंदोलन और जन संघर्ष में तपकर निकली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानी CPM. इस पार्टी ने पश्चिम बंगाल पर लगातार 34 साल तक शासन किया. तब पूरे देश में इंदिरा और राजीव के व्यक्तित्व का जादू चलता था, लेकिन इनकी आभा बंगाल पहुंचकर फींकी पड़ जाती थी. इन दो प्रधानमंत्रियों की हत्या से पैदा हुई सहानुभूति का कांग्रेस को पूरे देश में फायदा मिला, लेकिन बंगाल में लेफ्ट के पितामह ज्योति बसु ने अपना 'किला' अपने रणनीतिक कौशल से अभेद्य रखा.
जब टाटा ने वर्कर्स के लिए करोड़ों का घाटा उठा लिया
कहानी सिंगूर आंदोलन की, जिसने टाटा को बंगाल छोड़ने पर मजबूर किया

मंडल-कमंडल की राजनीति का भी दौर आया. अति पिछड़ी जातियों को आरक्षण के मुद्दे पर पूरे देश में घमासान मचा. लेकिन बंगाल की लेफ्ट सरकार ने हिन्दी पट्टी के इन तमाम मुद्दों को बंगाल पर हावी नहीं होने दिया. जो बीजेपी ममता बनर्जी के शासन में बंगाल में प्रचंड वेग से आगे बढ़ी है, वो बीजेपी आडवाणी की रथयात्रा और राम मंदिर आंदोलन के दौर में भी बंगाल में अपनी जड़ ना डाल पाई?
आखिर क्यों? बंगाल में ये सब कैसे हो पा रहा था? और फिर ऐसा क्या हुआ कि 2006 के बाद इस राज्य में CPM कभी सत्ता में नहीं लौट पाई? इसके अलावा आज जानेंगे उस आंदोलन के बारे में भी जिसने बंगाल की राजनीति को हमेशा के लिए पलट दिया.
1977 से 2006 तक अगर बंगाल की राजनीति CPIM के इर्द-गिर्द ही घूमती रही, तो इसकी बड़ी वजह थे मुख्यमंत्री ज्योति बसु के भूमि सुधार से जुड़े फैसले. भारत में हरित क्रांति के दौरान अमीर और गरीब की खाई बढ़ी. बंगाल भी इससे अछूता नहीं था. बड़ी संख्या में भूमिहीन गरीब मजदूर थे, जो जमींदारों के खेतों में बंधुआ मजदूरी कर अपनी जिंदगी बमुश्किल चला रहे थे. असंतोष बढ़ता तो ये बंदूक उठाकर माओवादी हो जाते.

सीएम ज्योति बसु ने दो ऐसे फैसले लिए जिनसे मजदूरों की किस्मत बदल गई. ये फैसले भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में अखबारों की सुर्खियां बने थे.
पश्चिम बंगाल सरकार ने भूमि सुधार करते हुए तय किया कि एक व्यक्ति अधिक से अधिक कितनी जमीन रख सकता है. तय सीमा से अधिक की जमीन सरकार ले लेगी. इससे सरकार के पास जमीदारों की लाखों एकड़ जमीन आई, इस जमीन को सरकार ने भूमिहीन किसानों को दे दिया. बंगाल सरकार का दूसरा बड़ा कदम था, 'ऑपरेशन बर्गा'. इसके तहत भू-स्वामियों की जमीन पर उनके बटाईदारों को हक़ दिया गया. बताया जाता है कि इससे 15 लाख बंटाईदारों को फायदा हुआ और 11 लाख एकड़ जमीन बंटाईदारों के कब्जे में आ गई.
आमतौर पर कम्युनिस्टों की सरकार को गरीबों, मजदूरों, किसानों की सरकार कहा जाता है, ज्योति बसु की सरकार केवल और केवल इसी दिशा में काम भी कर रही थी.

1977 में बंगाल के सीएम बने ज्योति बसु साल 2000 तक 85 साल से ज्यादा उम्र के हो चुके थे. इसीलिए साल 2000 में सीपीएम ने बुद्धदेव भट्टाचार्य को सीएम बनाया. साल 2001 का विधानसभा चुनाव बुद्धदेव के नेतृत्व में लड़ा गया और सीपीएम फिर प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई. बुद्धदेव फिर मुख्यमंत्री बने.
एक कमी जो वामपंथी सरकार को खल रही थीबंगाल सरकार में सब कुछ अच्छा चल रहा था. लेकिन बुद्धदेव भट्टाचार्य को कहीं न कहीं एक कमी खटक रही थी. ये कमी थी बंगाल में उद्योगों की. और इस कमी के चलते सीपीएम को राज्य की विधानसभा से लेकर दिल्ली की संसद तक में विपक्षियों के ताने सुनने पड़ते थे. इसके लिए सीधे तौर पर कम्युनिस्ट सरकार को जिम्मेदार ठहराया जाता था. बुद्धदेव ने इस कमी से निजात पाने के लिए एक योजना तैयार की. वे बड़ी कंपनियों को बंगाल लाने के लिए माहौल बनाने लगे. कहने लगे कि नई जनरेशन ज्यादा शिक्षित है और वो खेती-किसानी की तरफ ज्यादा रुख नहीं करेगी, वह नौकरी और रोजगार चाहेगी, ऐसे में राज्य को निवेश की जरूरत है.
हालांकि, बुद्धदेव भट्टाचार्य ये अच्छे से जानते थे कि बंगाल में उद्योग लाने का फैसला एक कम्युनिस्ट सरकार के लिए तलवार की धार पर चलने से कम साबित नहीं होगा. ऐसा इसलिए क्योंकि बंगाल में 62 फीसदी से ज्यादा का क्षेत्र खेती योग्य भूमि में आता है. यानी राज्य के किसी भी क्षेत्र में अगर कोई बड़ी कम्पनी खोली जाती है तो ये लगभग तय था कि उसमें खेती वाली जमीन जरूरआती. इन्हीं सब बातों को देखते हुए बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अगले चुनाव तक इंतजार किया.

2006 में प्रचंड बहुमत से फिर विधानसभा चुनाव जीतने के बाद उन्होंने राज्य में गुजरात और महाराष्ट्र जैसे पश्चिमी राज्यों की तरह तेज औद्योगीकरण पर काम शुरू कर दिया. उन्होंने वो कदम उठाया जो राज्य की राजनीति और उनकी पार्टी की विचारधारा के एकदम विपरीत था. 18 मई 2006 को उन्होंने हुगली जिले के सिंगूर इलाके की करीब 1000 एकड़ जमीन को टाटा के नैनो कार के कारखाने के लिए देने का ऐलान कर दिया. ये वो जमीन थी, जहां हजारों किसान अपने मन की फसल उगा रहे थे. कम्युनिस्ट शासित बंगाल में ये एक ऐसा ऐलान था जिसने राज्य की राजनीति पर नजर रखने वालों को हैरत में डाल दिया. क्योंकि बिग कैपिटल और बिग एस्टेबलिशमेंट का विरोध करने वाली लेफ्ट सरकार का ये बड़ा रेडिकल शिफ्ट था.

सिंगूर के लोगों में इस फैसले से नाराजगी थी क्योंकि सरकार उनकी खेती वाली जमीन ले रही थी. हालांकि, सरकार का दावा था कि टाटा को दी जाने वाली 90 फीसदी जमीन ऐसी है जिसपर केवल एक फसल ही उगाई जाती है. किसानों के डर की एक वजह ये भी थी कि कुछ साल पहले हल्दिया में शुरू हुई कुछ विकास परियोजनाओं के लिए सरकार ने जिन लोगों की जमीन ली थी, उनमें से ज्यादातर को अब तक न तो पूरा मुआवजा मिला था और न ही सरकार ने उनके पुनर्वास की दिशा में कोई पहल की थी.

25 मई 2006 को टाटा कंपनी के अधिकारी सिंगूर की जमीन देखने पहुंचे. ये पहला दिन था जब सिंगूर के लोगों ने भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन की शुरुआत की. लोगों ने टाटा के अधिकारियों का रास्ता रोक दिया. काफी मशक्कत के बाद पुलिस ने रास्ता खुलवाया.
17 जुलाई 2006 को पश्चिम बंगाल औद्योगिक विकास निगम ने हुगली के डीएम को जमीन के अधिग्रहण को लेकर एक प्रस्ताव दिया. जिसके बाद अधिग्रहण की कार्रवाई शुरू हो गई. 3000 किसानों ने हुगली के डीएम ऑफिस के बाहर प्रदर्शन शुरू कर दिया.
लोगों की आवाज को दरकिनार करते हुए सरकार ने प्रभावित किसानों को भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 की धारा 9(1) के तहत नोटिस जारी कर दिए. इससे किसानों में ये आशंका घर करने लगी कि वाम मोर्चे की सरकार अंग्रेजों के जमाने में बने भू-अधिग्रहण कानून के जरिए जबरिया उनकी जमीन छीन लेगी और पूंजीपतियों को दे देगी.

मामला बढ़ा तो लोकल के नेताओं ने किसानों के नेतृत्व किया. टीएमसी के लोकल नेता बेचाराम मन्ना, सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर ऑफ इंडिया यानी एसयूसीआई कम्युनिस्ट पार्टी के नेता शंकर जना और तृणमूल के विधायक रबीन्द्रनाथ भट्टाचार्जी सहित कई नेता किसानों के पक्ष में आगे आए. उन्होंने ‘सिंगूर कृषि जमीन रक्षा समिति’ बनाई और भूमि अधिग्रहण के खिलाफ लड़ाई तेज कर दी. रोज कहीं न कहीं प्रदर्शन होने लगे, हाइवे पर चक्का जाम शुरू हो गए.
कैसे किसानों का आंदोलन एक जन आंदोलन बन गया?आंदोलन बड़ा रूप ले चुका था, इधर सरकार पीछे हटने को तैयार नहीं थी और दूसरी ओर तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी भी किसानों के पक्ष में मैदान में उतर चुकी थीं. 25 सितंबर 2006 को वही हुआ जिसका डर था. सिंगूर की जमीन पर जबरदस्ती सरकार ने कब्जा कर लिया और टाटा को सौंप दी. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इस दौरान जमकर बवाल हुआ, कई महिलाओं और बच्चों सहित तीन सौ से अधिक लोगों पर रैपिड एक्शन फ़ोर्स और पुलिस के जवानों ने बेरहमी से हमला किया. करीब 78 प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया, जिनमें 25 से ज्यादा महिलाएं भी थीं. ममता बनर्जी और विधायक रवींद्रनाथ भट्टाचार्य को हिरासत में लिया गया.
इसके बाद आंदोलन और तेज हो गया सिंगूर से लेकर कोलकाता तक किसानों के समर्थन में मार्च और रैलियां होने लगीं. इनमें बंगाल के कई एनजीओ, यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर, ट्रेड यूनियन के लोग शामिल होते. सुप्रीम कोर्ट के कई पूर्व जस्टिस और पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने भी सरकार से आग्रह किया कि टाटा को कहीं और वैकल्पिक भूमि दे दी जाए.

इसी बीच 28 सितंबर 2006 को एक प्रदर्शनकारी राजकुमार भूल जो कि 25 सितंबर को पुलिस के हमले में घायल हुए थे, उनकी मौत हो गई. इससे आंदोलन और तेज हुआ, 1 अक्टूबर 2006 को विजयदशमी की रात सिंगूर के लोगों ने अपने घरों में लाइट नहीं जलाई. 3 अक्टूबर को सिंगूर इलाके के सैंकड़ों गांवों ने पूरे दिन चूल्हा न जलाकर सरकार का विरोध किया.

कई बार पूरे राज्य में बंद आयोजित किए गए. कई विश्वविद्यालयों की फैकल्टी ने किसानों को जबरन उनकी जमीन से हटाने के विरोध में बंगाल के गवर्नर को लेटर लिखा. बंगाल में टाटा समूह के अन्य प्रतिष्ठानों के बाहर भी प्रदर्शन होने लगे. मेधा पाटकर सहित कई सामाजिक कार्यकर्ता भी बंगाल पहुंचे जिन्हें सिंगूर नहीं जाने दिया गया और हिरासत में ले लिया गया.
जाहिर था कि अब ये महज किसानों का आंदोलन न होकर एक जन आंदोलन बन चुका था, और इसलिए खुद पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने भी अपनी पार्टी की सरकार को सिंगूर पर फिर से विचार करने का मशविरा दिया. लेकिन बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार टस से मस नहीं हुई.

यही नहीं, किसानों को अन्य तरीकों से परेशान किया जाने लगा. वॉटर पंपिंग स्टेशन तोड़े जाने लगे जिससे किसानों को सिंचाई के लिए पानी न मिल सके. प्रशासन किसानों को अधिग्रहित की हुई जमीन पर बुवाई करने से रोकने लगा. ट्यूबवेल्स का पानी बंद किया जाने लगा. ममता बनर्जी के सिंगूर जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया.
ममता बनर्जी की भूख हड़तालवामपंथी सरकार को न झुकता देख आखिरकार 4 दिसंबर, 2006 को ममता बनर्जी ने कोलकाता के एस्प्लेनेड इलाके में भूख हड़ताल शुरू कर दी. उधर, पुलिस की ज्यादती और भूमि अधिग्रहण के विरोध में पांच बुजुर्ग महिलाओं सहित 15 किसानों ने सिंगूर में आमरण अनशन शुरू कर दिया.

इसी बीच 18 दिसंबर की सुबह 18 साल की प्रदर्शनकारी तापसी मलिक का जला हुआ शव उस इलाके में मिला जहां टाटा को जमीन देने के बाद फेंसिंग की गई थी. लोकल पुलिस ने कथित तौर पर इसे आत्महत्या करार दिया, लेकिन किसानों के तीखे विरोध के बाद इसकी जांच सीबीआई को सौंपी गई.

उधर, ममता बनर्जी की भूख हड़ताल को 24 दिन हो चुके थे लेकिन बंगाल सरकार अब भी पीछे हटने को तैयार नहीं थी. तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम, प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह और पूर्व प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पत्र लिखकर ममता से भूख हड़ताल खत्म करने की अपील की, उन्होंने 25 दिन बाद भूख हड़ताल खत्म की. हालांकि, आंदोलन जारी रहा.
जुलाई 2007 को तापसी मलिक हत्याकांड को लेकर सीबीआई ने खुलासा किया कि ये एक पूर्व नियोजित हत्या का मामला है. इसका मास्टमाइंड लोकल सीपीएम नेता सुह्रद दत्ता और देबू मलिक हैं. इन्होंने किसानों को डराने के लिए तापसी की हत्या करवाई थी.

सिंगूर आंदोलन चलता रहा और साल 2008 आ गया, टाटा का प्लांट बनकर तैयार हो गया. और उसमें काम भी शुरू हो गया. अक्सर कहा जाता है कि किसी से भी दुश्मनी ले लो, लेकिन पड़ोसी से बैर न भला. टाटा का नैनो प्लांट तो शुरू हो गया था, लेकिन पड़ोसियों से बैर की कीमत उन्होंने चुकानी पड़ रही थी. सिंगूर में टाटा के प्लांट के बाहर कुछ महीनों से हर रोज वर्कर्स को पीटा जाता था, उन्हें धमकाया जाता था. प्लांट जा रहे इंजीनियरों को गाड़ियां रोक कर घंटों परेशान किया जाता था. अक्सर कारखाने के गेट पर धावा बोल कर उसे तोड़ने की कोशिश भी की जाती थी. दुर्गापुर हाइवे पर जाम लगवा दिया जाता था जिसमें कंपनी के बड़े अधिकारी घंटों फंसे रहते थे. आये दिन प्लांट का सामान चोरी होने लगा था. यानी टाटा से जुड़े लोगों को जिस भी तरह से परेशान किया जा सकता था, वह सब सिंगूर में हो रहा था.
रतन टाटा ने जब आखिरी चेतावनी दे दीकई महीने ये सब देखने के बाद रतन टाटा ने 22 अगस्त 2008 को आखिर इस मसले पर एक बयान दिया. कहें तो ये उनकी सीधी चेतावनी थी. उन्होंने कहा,
'कुछ लोग सोचते हैं कि टाटा सिंगूर प्लांट को छोड़कर नहीं जाएगा. अगर कोई इस गलतफहमी में है कि टाटा ने सिंगूर प्लांट को बनाने में करीब 1500 करोड़ रुपये का निवेश किया है, इसलिए वो इसे छोड़ नहीं सकता, तो ऐसा सोचना बिलकुल गलत है. मैं बता देना चाहता हूं कि हम अपने लोगों की रक्षा के लिए वहां से हट भी सकते हैं. मैं अपने लोगों को पश्चिम बंगाल नहीं भेज सकता, अगर उन्हें पीटा जाता रहा और वहां इसी तरह हिंसा होती रही. इसके अलावा अगर राज्य के किसी भी वर्ग को ये लगता है कि हम उनका शोषण कर रहे हैं, तो सबसे पहले यह पूरी तरह से झूठ है, लेकिन अगर यह भावना है, तो हम सिंगूर से बाहर निकल जाएंगे.'
रतन टाटा के बयान के अगले ही दिन से उड़ीसा, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, गुजरात और कई अन्य राज्यों ने उन्हें अपने यहां नैनो प्लांट लगाने का खुला निमंत्रण दे दिया.
उधर, ममता बनर्जी का रतन टाटा को जवाब था, 'इस सबसे हम ब्लैकमेल नहीं होने वाले.'

24 अगस्त 2008, ममता बनर्जी ने एक बार फिर सिंगूर का रुख किया और नैनो प्लांट के बाहर नई मांग के साथ आंदोलन शुरू कर दिया. उनका कहना था वे शांति बनाए रखेंगी. अब उनकी केवल ये मांग थी कि सरकार और टाटा कंपनी बस उन लोगों की 400 एकड़ जमीन वापस कर दे, जो अपनी जमीन देने के लिए राजी नहीं थे और मुआवजा लेने से इनकार कर दिया था.

कुछ ही घंटे बाद ममता बनर्जी शांतिपूर्ण आंदोलन के अपने वादे से मुकर गईं. आंदोलन के तीसरे दिन, तृणमूल समर्थकों ने कारखाने के गेटों पर जबरदस्त हमला किया. प्लांट में जा रहे वर्कर्स को पीटा. 28 अगस्त 2008 की दोपहर में प्लांट के कर्मचारियों को घर ले जाने वाली बसों के बाहर निकलने और शाम की शिफ्ट के लिए प्लांट में आने वाली बसों को रोक दिया गया. करीब 4 घंटे ये सब चलता रहा. इस नाकाबंदी में जापानी एक्सपर्ट्स की एक गाड़ी भी फंसी रही. शाम होते-होते लोकल माओवादी नेता पूर्णेंदु बोस ने घोषणा की कि अब से किसी भी कर्मचारी को कारखाने के परिसर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी जाएगी.

आज ही के दिन यानी 29 अगस्त 2008 को प्लांट के वर्कर्स ने भी ऐलान कर दिया कि वे तब तक काम नहीं करेंगे, जब तक प्लांट के बाहर आंदोलन खत्म नहीं होगा. बस, इसके बाद काम ठप हो गया और लखटकिया कार नैनो का प्लांट बंद हो गया.
सिंगूर में स्थित बिगड़ता देख 3 सितंबर को बंगाल सरकार ने तत्कालीन गवर्नर गोपालकृष्ण गांधी से बात की और मध्यस्थता करने का प्रस्ताव दिया. गांधी ने ममता बनर्जी से बात की. कोलकाता में बंगाल सरकार और ममता के नेतृत्व वाले विपक्ष के नेताओं बीच बातचीत शुरू हुई.कई दौर की बातचीत के बाद 7 सितंबर को राजभवन से एक बयान जारी हुआ. कहा गया 'सरकार उन किसानों से बात करेगी जिन्होंने मुआवजा नहीं लिया है’.

14 सितंबर, 2008 को पश्चिम बंगाल सरकार ने सिंगूर के किसानों के लिए और बेहतर मुआवजे की घोषणा की. लेकिन, शायद तब तक बहुत देर हो चुकी थी और रतन टाटा सिंगूर छोड़ने का मन बना चुके थे.
3 अक्टूबर, 2008 को टाटा ने सिंगूर के नैनो प्लांट को छोड़ने का आधिकारिक ऐलान कर दिया. और नया प्लांट गुजरात के साणंद में लगाने का फैसला किया.

सिंगूर का दो साल से ज्यादा समय से चल रहा आंदोलन इसके साथ ही खत्म हो गया. नफे और नुकसान की बात करें तो इस आंदोलन से ममता बनर्जी की राजनीतिक जमीन उपजाऊ हुई. 2006 के चुनाव में 30 सीटों पर सिमट गई उनकी पार्टी ने 2011 के विधानसभा चुनाव में 184 सीटें जीती. सीपीएम जिसने भू-सुधार के नाम पर पश्चिम बंगाल में 34 साल तक शासन किया. उसके लिए सिंगूर पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा साबित हुआ, 2011 के चुनाव में उसे महज 40 सीटें ही मिलीं.
चुनाव में मिली हार के बाद बुद्धदेव भट्टाचार्य ने माना कि सिंगूर में उनसे गलती हुई. बुद्धदेव का साफ़ कहना था कि उन्होंने किसानों से जमीन लेने से पहले उनसे सही से संवाद स्थापित नहीं किया, उनके पास बैठकर उनकी चिंताओं पर बातचीत नहीं की, बस यही उनकी सरकार से गलती हो गई.
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