करीब 98 साल पहले मुंशी प्रेमचंद ने एक कहानी लिखी थी. नमक का दरोगा. कहानी एक ऐसे सरकारी कर्मचारी की है, जो किसी हाल में बेईमानी करने को तैयार नहीं होता. बहरहाल इस समय में ये बात बड़ी अटपटी लगती है. बेईमानी न करने की बात भी और ये भी कि ये आखिर ये नमक का दरोगा क्या होता है. हालांकि कहानी के किरदार कहानी के काल से निकलते हैं. और ये कहानी भी तब की परिस्थितियों के हिसाब से लिखी गई थी.
जब नमक के लिए भारत में बनी थी, ‘ग्रेट वॉल ऑफ इंडिया’!
19 वीं सदी में भारत में नमक की चोरी रोकने के लिए बनाई गयी थी झाड़ियों की दीवार!

सिर्फ कहानी ही नहीं, अलसियत के किरदार भी परिस्थिति से निकलते हैं. 6 अप्रैल,1930 ये वो तारीख थी, जब गांधी अपने अनुयायियों के साथ दांडी पहुंचे और मुट्ठी भर नमक हाथ में उठा लिया. अंग्रेज़ी राज में नमक बनाना या उठा भर लेना भी गैरकानूनी था. गांधी इसी कानून का उल्लंघन कर रहे थे. नमक जैसी मामूली चीज ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ लड़ाई का हथियार बन गई.
हालांकि यहां मामूली हम आज के सन्दर्भ में कह रहे हैं. गरीब का खाना, नमक और रोटी, ये फिकरा हमेशा से चलता आया है. जानिए कहानी एक दीवार की (Great Hedge of India). जिसने नमक और रोटी के इस रिश्ते को तोड़ दिया. साथ ही एक समय पर भारत को दो हिस्सों में बांट दिया. जिसके चलते भारत में लाखों लोग नमक की कमी से होने वाले रोगों से मारे गए. कितने मारे गए, इसका कोई हिसाब नहीं है. लेकिन जब ये दीवार गिराई गई, इसे गिराने वाले अंग्रेज़ अधिकारी, जॉन स्ट्रेचली ने कहा,
“ये ऐसा भयावह सिस्टम था, जिसके लिए किसी भी सभ्य देश में समानांतर मिसाल मिलना नामुमकिन है”
क्या थी इस दीवार की कहानी.
भारत में नमक पर टैक्स का क्या इतिहास है?
शुरुआत करते हैं 1759 से. प्लासी का युद्ध हुए दो साल बीत चुके थे. इस बीच अंग्रेज़ अधिकारियों को कलकत्ता में एक जमीन का पता चला जहां नमक बनाया जाता था. रॉबर्ट क्लाइव ने नमक के कारोबार पर कब्ज़ा करते हुए उस पर टैक्स लगाना शुरू कर दिया. इससे कम्पनी को खूब आमदनी हुई. इसके कुछ साल बाद 1764 में बक्सर की लड़ाई हुई. इस लड़ाई में मिली जीत के साथ ही बंगाल, बिहार और उड़ीसा से मिलने वाले रेवेन्यू पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी का अधिकार हो गया. रॉबर्ट क्लाइव जो तब कंपनी का गवर्नर हुआ करता था, उसे नमक का स्वाद लग चुका था. इसलिए उसने उड़ीसा में पैदा हुए नमक पर मोनोपॉली बना ली. हालांकि ये पैसा कंपनी को न मिलकर सीधे क्लाइव और उसके अधिकारियों की जेब में जा रहा था.लंदन में जब ये बात पता चली , तो कंपनी की तरफ से क्लाइव को फरमान भेजा गया. क्लाइव ने कहा, साल के 12 लाख पकड़ो, और हमें अपना काम करने दो.

कुछ साल कंपनी शांत रही. लेकिन फिर जब उन्होंने देखा, नमक सिर्फ नमक नहीं बल्कि सोना है, 1772 में उन्होंने वारेन हेस्टिंग्स को गवर्नर जनरल बनाकर भेजा, और नमक के कारोबार को कंपनी के कब्ज़े में ले लिया. हेस्टिंग्स ने नमक के कारोबार का पूरा सिस्टम बनाते हुए रेट फिक्स किए और नमक पर टैक्स की शुरुआत भी कर दी. शुरुआत में एक मन नमक की कीमत 2 रूपये रखी गई. जल्द ही कम्पनी को फायदा दिखने लगा और 1784-85 के बीच नमक से उन्हें करीब 62 लाख का मुनाफा हुआ. अब तक सब कुछ ठीक था. लेकिन फिर लालच में आकर 1788 में नमक पर टैक्स बढ़ाकर सवा दो रूपये प्रति मन कर दिया गया. इस तरह नमक की कीमत 4 रूपये प्रति मन पहुंच गई. जिसके चलते आम लोगों के लिए नमक खरीदना दूभर हो गया.
इसकी सबसे ज्यादा मार बंगाल में पड़ रही थी. सो इस मुश्किल से पार पाने के लिए नमक की स्मगलिंग शुरू हो गई. पश्चिम में कच्छ के रण और आसपास के इलाकों पर रजवाड़ों का कंट्रोल था. इसलिए वहां अंग्रेज़ चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते थे. वहां से नमक स्मगल कर बंगाल में लाया जाने लगा. सम्गलिंग रोकने के लिए कंपनी ने पूरे बंगाल में कुछ कस्टम पोस्ट और सुरक्षा चौकियां बनाई. 1823 में आगरा के कमिश्नर जॉर्ज सौंडर्स ने गंगा और यमुना के किनारे कुछ कस्टम चौकियां बनाई. जो मिर्जापुर से अलाहबाद तक बनाई गई थीं. ऐसी ही चौकियां अलाहबाद से नेपाल तक बनी थी. ताकि पश्चिम से पूर्व की तरफ होने वाली नमक की समग्लिंग रोकी जा सके. (Inland Customs Line)
हालांकि इन चौकियों का कोई फायदा न हुआ. क्योंकि एक तो हर इलाके में अलग-अलग कस्टम चौकियां बनाई गयी थी. जिनका कोई एक सिस्टम न था. दूसरा इन चौकियों से बाकी चीजों के ट्रेड में रुकावट होती थी. और सबसे बड़ा सरदर्द था वो खर्च जो इन चौकियों की देखरेख में आता था. 1834 के आसपास इन कस्टम चौकियों को चलाने के लिए हर साल करीब 8 लाख खर्च हो रहे थे. इन चौकियों की निगरानी में 7 हजार लोग लगे थे. तैनात किए जाने ये लोग अक्सर भारतीय होते थे. और ये बात एक और मुसीबत का सबब थी.
इस्लामबाद से उड़ीसा तक बनाई दीवारनमक का दरोगा में एक पात्र है, वंशीधर. वंशीधर जब नमक का दरोगा तैनात होता है, उसके पिता उससे कहते हैं,
“नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है. निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए. ऐसा काम ढूंढ़ना जहां कुछ ऊपरी आय हो. मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चांद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है. ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है.”
यानी चौकियों में तैनात ऐसे दरोगा खूब घूस खोरी करते थे. और इसके चलते अंग्रेज़ों को खूब घाटा हो रहा था. विडम्बना ये थी कि कुछ लोगों की जहां मौज़ हो रही थी वहीं, बंगाल के लाखों लोग, नमक की कमी से होने वाली बीमारियों ने मारे जा रहे थे. मरते लोगों की ब्रिटिशर्स को फ़िक्र न थी, लेकिन रेवेन्यू में होने वाला लॉस वो स्वीकार नहीं कर पा रहे थे. इसलिए 1857 की क्रांति के बाद, जब प्रशासन का जिम्मा ब्रिटिश सरकार के हाथ में आया, उन्होंने इस समस्या का हल ढूंढने के लिए एक नया तरीका सोचा.

1869 में तय हुआ कि इस्लामाबाद से हिसार, आगरा, झांसी होते हुए, बुरहानपुर और वहां से आगे उड़ीसा तक एक दीवार बनाई जाएगी. पहले सोचा गया कि ग्रेट वॉल ऑफ चीन की तर्ज़ पर एक दीवार बनेगी, लेकिन चूंकि उसका खर्चा बहुत ज्यादा था. इसलिए जल्द ही ये विचार त्याग दिया गया. 1867 में AO ह्यूम कस्टम कमिश्नर नियुक्त हुए. ये वही ह्यूम हैं जिन्होंने बाद में इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना की. ह्यूम ने एस्टीमेट लगाया कि एक मील दीवार बनाने के लिए 250 टन मैटेरियल लगेगा, जिसमें करीब 6 किलोमीटर औसतन ढुलाई लगेगी. इसलिए उन्होंने एक नया तरीका सोचा. ह्यूम खुद एक बॉटनिस्ट ने थे. इसलिए उन्होंने तय किया कि क्यों न झाड़ियों से एक दीवार बनाई जाए.
ह्यम ने मिट्टी और बारिश का अनुमान लगाकर कई प्रकार के पेड़ पौधों पर शोध किया. और अंत में करोंदा के बीजों को झाड़ियां लगाने के लिए चुना. करोंदा आसानी से पैदा हो जाता है. इसकी घनी झाडी होती है. और इसमें पैदा होने वाले फल को सब्जी को अचार के लिए भी इस्तेमाल में लाया जा सकता है. ह्यूम ने करोंदा, बबूल और कुछ और प्रजातियों को कस्टम लाइन में बोना शुरू किया. इन झाड़ियों को पानी देने के लिए कस्टम लाइन के साथ-साथ एक रोड बनाई गई. और कुएं खुदवाए गए. 1870 में ह्यूम का कार्यकाल ख़त्म हुआ. और तक तक लगभग 1200 किलोमीटर लम्बी झाड़ियों की दीवार बनकर तैयार हो चुकी थी. इस दीवार की ऊंचाई 12 फ़ीट तक थी, और चौड़ाई 14 फ़ीट की. ह्यूम के अपने शब्दों में “इंसान और जानवर कोई भी इस दीवार को पार नहीं कर सकता था”.
दीवार का पता कैसे चला?जल्द ही इस दीवार का फायदा भी दिखना शुरू हुआ. रिकार्ड्स के अनुसार 1877-78 के बीच 7 हजार स्मग्लरों को पकड़ा गया और बहुतों से जुर्माना वसूल किया गया. लेकिन फिर
धीरे-धीरे ये झाड़ियों की ये दीवार नष्ट हो गई. क्यों हुई, ये जानने से पहले बताते हैं कि इस दीवार का पता कैसे चला.
साल 1995 की बात है. लंदन की लाइब्रेरी में काम करने वाले रॉय मॉक्सहैम एक पुरानी किताब पढ़ रहे थे. किताब का नाम था, ‘रैम्ब्ल्स एंड रेकलेक्शन ऑफ एन इंडियन ऑफिसियल’. किताब के लेखक विलियम हेनरी स्लीमैन थे. ये वही स्लीमैन हैं, जिन्होंने भारत से ठगी का खात्मा किया था. इसी किताब को पढ़ते हुए मॉक्सहैम को झाड़ियों की दीवार का जिक्र मिला. मॉक्सहैम ने ब्रिटिश लाइब्रेरी में पुराने भारतीय दस्तावेज़ों को खंगाला और दीवार के अवशेषों को खोजने के लिए तीन बार भारत की यात्रा पर आए. 1998 में उन्हें इटावा में इस दीवार का एक छोटा से हिस्सा मिला. जिसके बाद उन्होंने इस विषय पर एक पूरी किताब लिखी. 2007 में इस किताब का मराठी में और 2015 में तमिल भाषा में अनुवाद किया गया.

मॉक्सहैम किताब में बताते हैं कि इस दीवार के चलते नमक मिलना दूभर हो गया था. दीवार के आसपास के इलाकों में नमक की खपत 7.3 किलो से गिरकर 3.6 किलो तक पहुंच गई थी. ब्रिटिश सरकार के रिकार्ड्स के हवाले से मॉक्सहैम लिखते हैं कि तब नमक की खपत सरकार द्वारा अनुमोदित दर से कम पहुंच गई थी. जिसके चलते भारतीय सैनिकों को और जेल के कैदियों को भी पर्याप्त नमक नहीं मिल पाता था.
मॉक्सहैम कुछ और दिलचस्प चीजें बताते हैं. मसलन कस्टम लाइन पर बनी चौकियों पर काम करने वालों में 40 प्रतिशत मुस्लमान थे. ये लोग अपने घरों से दूर रहते थे. और नमक की आवाजाही पर रोक के कारण स्थानीय जनता के गुस्से का शिकार होते थे. इसके चलते स्थानीय लोगों को लगभग 1 किलो नमक ले जाने पर छूट दे दी जाती थी.
ग्रेट वॉल ऑफ इंडिया नष्ट कैसे हुई?हुआ यूं कि 1875 आते-आते इस दीवार ने ब्रिटिश प्रशासन के लिए नई मुसीबत खड़ी कर दी. तब नमक के साथ-साथ चीनी का भी ट्रेड होता था. अक्सर चीनी को नमक से कन्फ्यूज कर गाड़ियां रोक दी जाती. जिसके चलते बहुमूल्य समय नष्ट होता. इसके साथ एक दिक्कत ये भी थी कि चौकियों पर निगरानी करने वाले लोग नमक रोकते और घूस लेकर जाने देते.
प्रेमचंद की कहानी नमक का दरोगा भी इसी सिनारियो पर आधारित है. इसके चलते जल्द ही इस कस्टम लाइन को ख़त्म करने की मांगे उठने लगी. 1872 में वाइसरॉय लार्ड मायो ने उन रियासतों के साथ समझौता करना शुरू किया, जहां से नमक स्मगल कर लाया जाता था. मायो के बाद वाइसराय बने लार्ड नार्थब्रुक ने इस काम में तेज़ी लाते हुए 1879 तक लगभग सभी रियासतों से संधि करते हुए, नमक के प्रोडक्शन पर ब्रिटिश सरकार का एकाधिकार जमा लिया. इसके बाद उन्होंने पूरे देश में नमक का टैक्स एक सामान करते हुए टैक्स को 2.5 रूपये प्रति मन कर दिया. अगले वाइसरॉय लार्ड रिपन के वक्त में ये गिरकर 2 रूपये प्रति मन हो गया. अब चूंकि सभी जगह टैक्स समान था, इसलिए स्मगलिंग का कारोबार धीरे-धीरे बंद हो गया. और साथ ही झाड़ियों वाली कस्टम दीवार की उपयोगिया भी खत्म हो गई.

1882 में ब्रिटिश सरकार ने साल्ट एक्ट पास किया, जिसके बाद भारतीयों के लिए नमक उठाना या बनाना गैर कानूनी घोषित कर दिया गया. इस समय पर ब्रिटेन में जहां प्रति टन नमक के लिए 30 सेंट देना पड़ता था, वहीं भारत में 1 टन नमक की कीमत 20 पौंड होती थी. एक गरीब आदमी को नमक खाना हो तो उसे अपने दो महीने की पगार लगानी पड़ती थी.
नमक पर लगने वाले इस टैक्स का आजादी के आंदोलन पर भी काफी असर पड़ा. 1923 में सरकार ने एक बिल पेश कर नमक पर लगने वाले टैक्स को दोगुना करने की पेशकश की. लेकिन असेम्बली में ये बिल पास नहीं हो पाया. जल्द ही नमक पर लगने वाले टैक्स के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गए. 1930 में महात्मा गांधी ने नमक पर लगने वाले टैक्स के खिलाफ दांडी मार्च की शुरुआत की. हालांकि अंग्रेज़ टस से मस न हुए. और 1947 तक नमक पर टैक्स लागू रहा. आजादी के बाद इस क़ानून को निरस्त कर दिया गया. 1953 में सरकार ने नमक पर सेस लगाना शुरू किया, जिसकी दर तब 14 नया पैसा प्रति चालीस किलो हुआ करती थी.
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