31 अगस्त, 1939 की बात है. जर्मनी और पोलैंड की सीमा पर बसे एक शहर ग्लीविट्ज़ में एक रेडियो स्टेशन पर हमला हुआ. रेडियो के कुछ एंटी जर्मन सन्देश प्रसारित किए गए. अगले दिन गेस्टापो यानी जर्मन पुलिस को स्टेशन में एक पोलिश व्यक्ति का शव मिला. इस घटना से गुस्साए हिटलर ने पोलेंड पर आक्रमण का आदेश दे दिया, और ये घटना भूमिका बनी दूसरे विश्व युद्ध की.
1987 में भारत ने चीन को सबक सीखा दिया था!
1987 में अरुणाचाल प्रदेश में भारत और चीन की सेना एकदम आमने-सामने आ गई थी.

विश्व युद्ध ख़त्म हो जाने के बाद पता चला कि ग्लीविट्ज़ में हुआ हमला फ़र्ज़ी था. खुद जर्मन सिपाहियों ने पोलिश लोगों का भेष धरकर स्टेशन पर हमला किया था. इसके अलावा उन्होंने कंसन्ट्रेशन कैम्प्स से लाकर एक आदमी के शव को मौका-ए-वारदात पर रख दिया. यही शव दिखाकर हिटलर ने जर्मन लोगों को भड़काया, और युद्ध को जायज ठहराया.
लेटिन भाषा में ऐसी घटनाओं के लिए एक शब्द है- ‘कैसस बेली’.
यानी ऐसी घटना जो युद्ध का कारण बने, या जैसा कि इस केस में था, जिसका इस्तेमाल युद्ध को जायज ठहराने के लिए किया जाए. अब इस शब्द को 1962 भारत चीन युद्ध (India China War) के प्रकाश में देखिए. कल यानी 15 दिसंबर के एपिसोड में हमने आपको बताया था कि कैसे भारत ने तवांग के पास नमकु चा नदी तक पहुंचने की कोशिश की थी. यही घटना ईस्टर्न सेक्टर में युद्ध की शुरुआत का कारण या कहें तो ‘कैसस बेली’ बनी. और चीन ने भारत पर हमला कर दिया.
पूर्व से पश्चिम की ओर बहने वाली नमकु चु धारा के दोनों सिरों पर दो चोटियां हैं. थग ला और हाथुंग ला. 1962 युद्ध से लेकर 1986 तक भारत ने यहां पहुंचने के दोबारा कोशिश नहीं की. लेकिन यहां पहुंचे बिना हम युद्ध की स्थिति में तवांग को नहीं बचा सकते थे. इसलिए 20 सालों तक भारत की स्ट्रेटेजी रही कि युद्ध होने पर तवांग को खाली कर दिया जाएगा. और ‘से ला-पास’ को आख़िरी डिफेंसिव पोजीशन बनाया जाएगा.

1980 में इस सोच में बदलाव आया. इंदिरा दुबारा सत्ता में आई. आर्मी लीडरशिप ने उनके सामने एक पेशकश रखी. तवांग को बचाने के लिए हाथुंग ला पर पोस्ट बनानी होगी. हाथुंग ला के ठीक बगल में एक घाटी पड़ती है. सुमदोरोंग चू नाम की. 1983 में इंटेलिजेंस ब्यूरो की एक टीम ने सुमदोरोंग चू (Sumdorong Chu)का दौरा किया. टीम पूरी गर्मियों तक इस इलाके में रुकी और जाड़ों में लौटी. 1986 तक यही प्रोसीजर 3 साल तक दोहराया गया. और इसी दौरान चीन को इसकी खबर लग गई.
14 जून 1986 की तारीख. 12 असम रेजिमेंट की एक पेट्रोलिंग पार्टी ने देखा कि सुमदोरोंग चू में कुछ चीनी टेंट नजर आ रहे हैं. खतरे की घंटियां बज उठीं. खबर ईस्टर्न कमांड तक पहुंचाई गई. जिसका हेडक्वार्टर फोर्ट विलियम, कोलकाता में हुआ करता था. जब तक खबर दिल्ली पहुंची, सेना ने पूरा हिसाब किताब लगा लिया. सुमदोरोंग चू में चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी के 40 सैनिक डेरा जमाए हुए थे.
प्रधानमंत्री राजीव गांधी तुरंत हरकत में आए. चीन के सामने एक आधिकारिक विरोध दर्ज़ कराया गया. चीन के राजदूत को तलब कर एक डिप्लोमेटिक नोट भी साझा हुआ. हालंकि चीन पर इसका कोई असर नहीं हुआ. अगस्त तक सुमदोरोंग चू में चीनी सैनिकों की संख्या 200 हो चुकी थी. उन्होंने एक हेलिपैड और कुछ स्थाई ढांचे भी बना लिए थे. अब लड़ाई नैरेटिव की थी.
चीन ने वही रुख अपनाया जो उसने 1962 में अपनाया था. उनकी तरफ से कहा गया कि भारत ने चीन की सीमा में दखल देने की कोशिश की है, और वो मैकमोहन लाइन को नहीं मानते.
बहरहाल सिचुएशन कंट्रोल करने के लिए भारत की तरह से एक शांति प्रस्ताव भेजा गया कि दोनों सेनाएं इस इलाके से पीछे हट जाएं. चीन ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया. इस मसले को सुलझने में पूरे 9 साल लगे. इन नौ सालों में बहुत कुछ हुआ. एक जनरल था जो चीन को सबक सिखाना चाहता था. एक प्रधानमंत्री जो कूटनीति की मदद लेना चाहता था, और एक देश था, जो पिछले 20 सालों से चीन के हाथों हार का मलहम सहला रहा था. लेकिन इसके बावजूद जल्द ही चीन को अहसास हुआ कि ये 1962 वाला भारत नहीं था.
क्या हुआ था सुमदोरोंग चू में उस साल?
सुमदोरोंग चू संकट की एक खास बात ये भी है कि ये भारत के पूर्व चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ जनरल बिपिन रावत का पहली एक्टिव तैनाती थी. जनरल रावत 16 दिसंबर 1978 को 5/11 गोरखा राइफल्स में कमीशन हुए थे. इस छोटे से ट्रिविया के बाद आइये सुमदोरोंग चू संकट की पूरी कहानी जानते हैं. स्वीडिश पत्रकार बर्ट्रिल लिटनर ने अपनी किताब, चाइना इंडिया वॉर : कोलोजन कोर्स ऑन द रूफ ऑफ द वर्ल्ड. में इस घटना का ब्यौरा दिया है. बर्ट्रिल लिखते हैं, “चीन ने वहां हेवी आर्टिलरी गन्स तैनात कर दी थी”.
चीन लड़ना नहीं चाहता थाभारत ने निर्णय लेने में देर कर दी थी. यहां एक बार फिर हमें सेना और सरकार और मिलिट्री लीडरशिप के बीज सामंजस्य में कमी देखने को मिलती है. कर्नल आशीष दास, जो तब तवांग में तैनात थे, द प्रिंट से हुई एक बातचीत में बताते हैं, “दिल्ली में क्या चल रहा है, हमें इस बात की कोई खबर नहीं थी. हमें बस इतना पता था कि चीनियों ने हमारे इलाके पर कब्ज़ा कर लिया है, और हमें उन्हें पीछे खदेड़ना है”.

कर्नल आशीष आगे बताते हैं , “वो ज्यादा आक्रामक नहीं थे, ना ही हमसे लड़ना चाहते थे. उन्हें अहसास था कि वो हमसे नहीं लड़ सकते”. 2020, जब ये इंटरव्यू किया गया, तब आशीष ने कहा, “आज भी उन्हें पता है कि उनकी सेना को युद्ध का अभ्यास नहीं है. वो एक राजनैतिक सेना है. हमारी तरह प्रोफेशन सेना नहीं है”. कर्नल आशीष के नाम नाम पर इस तवांग में एक
चोटी का नाम रखा गया है, आशीष टॉप. उन्होंने इस छोटी कप फतह करने में अहम् भूमिका निभाई थी. हालांकि चीनियों से भिड़ना इतना आसान नहीं था. आशीष बताते हैं कि हमारे पास इलाके का कोई मैप नहीं था. हम रात में पहाड़ों में यूं ही चलते रहे थे. और कई दिन तो ऐसे गुजरे जब हमने खाना भी नसीब नहीं हुआ. आशीष बताते हैं कि ऊपर से किसी ऑपरेशन की मंजूरी नहीं दी गई. लेकिन जमीन पर मौजूद सैनिकों ने अपने कदम एक बार भी पीछे नहीं हटाए. इधर जमीन पे सेना मौजूद थी, वहीं दिल्ली में कूटनीति की तैयारी चल रही थी.
जुलाई 1986 में इस मामले में भारत और चीन फौज के बीच सात राउंड की बातचीत हुई. लेकिन सब बेनतीजा रहीं. मिलिट्री लीडरशिप पाशपेश में थी. इसी बीच जनरल कृष्णस्वामी सुंदरजी को आर्मी चीफ ऑफ स्टाफ बनाया गया. जनरल सुंदरजी अब तक अपने आक्रामक रवैये के लिए मशहूर हो चुके थे. वो 1965 के युद्ध का हिस्सा रह चुके थे. साथ ही बांग्लादेश वॉर के वक्त उन्होंने रंगपुर सेक्टर में एक अहम लड़ाई की कमान संभाली थी. यही नहीं ऑपरेशन ब्लूस्टार भी उन्हीं की लीडरशिप में हुआ था. COAS बनते ही उन्होंने एक काउंटर मूवमेंट की योजना बनाई. इस ऑपरेशन को नाम दिया गया - ऑपरेशन फाल्कन (Operation Falcon).
ऑपरेशन फाल्कनचीन को लग रहा था कि 1962 से सबक लेकर भारत चुपचाप बैठा रहेगा. लेकिन भारत ने उम्मीदों के विपरीत सुमदोरोंग चू के आसपास की चोटियों पर फ़ोर्स चढ़ा दी. पांचवी माउंटेन डिवीजन की एक ब्रिगेड और सेना की तीन डिवीजन सुमदोरोंग चू के आसपास तैनात किया गया. इन ट्रूप्स तक सप्लाई पहुंचाने के लिए एयरफ़ोर्स ने मदद की. IAF ने किसी भी स्थिति से निपटने के लिए असम और उत्तरी बंगाल में अपने बॉम्बर विमान तैयार रखे थे.

चीन भारत के इस दांव से अचम्भे में था. नेविल मैक्सवेल अपनी किताब चाइना बॉर्डर: सेटेलमेंट एंड कन्फ्लिक्ट्स में लिखते हैं कि बीजिंग को लगने लगा था, भारत हमले की तैयार कर रहा है. उनकी तरफ से भी तैयारियां शुरू हो गई. हालांकि राजीव इसके पक्ष में नहीं थे. वहीं सुंदरजी किसी डिप्लोमेसी को अपने आड़े नहीं देना चाहते थे. एक पूर्व डिप्लोमेट में शब्दों में, “सुंदरजी किसी भी हाल में चीनियों को एक कड़ा सबक सिखाना चाहते थे”
बर्ट्रिल लिटनर लिखते हैं कि सुंदरजी चीन को दिखाना चाहते थे कि ये 1962 नहीं है. लिटनर ने साथ ही लिखा है कि जैसी ही राजीव को सुंदरजी के इरादों की भनक लगी, उन्होंने खुद मौके पर जाने की इच्छा जताई. लेकिन ख़राब मौसम के चलते राजीव का दौरा टल गया. सुंदरजी और ज्यादा ट्रूप्स डिप्लॉय करना चाहते थे, लेकिन राजीव ने इससे इंकार कर दिया.
1987 तक हालत ऐसे ही रहे. फिर 1987 में भारत ने एक कदम ने दोनों देशों के बीच तनाव और बढ़ा दिया. उस साल भारत ने अरुणाचल प्रदेश को राज्य का दर्ज़ा दे डाला. जिससे चीन की भौहें और तन गई.
इस बीच पश्चिम के विशेषज्ञों ने भविष्यवाणी कर दी कि भारत चीन किसी भी युद्ध की जमीन पर आ सकते हैं. हालत लगभग 1962 जैसे बनते जा रहे थे. चीन के एक सीनियर नेता डेंग जिआओपिंग ने ऐलान कर दिया कि वो भारत को सबक सिखाएंगे. भारत अब तक एक उभरती हुई परमाणु शक्ति के तौर पर जाना जाता था. इसलिए युद्ध के हालात भयानक हो सकते थे. चीजें हाथ से निकलती, इससे पहले ही राजीव गांधी ने लगाम पकड़ ली. राजीव के सलाहकार ने उन्हें नसीहत दी कि सुंदरजी के उठाए क़दमों के चलते हो रहा है. लेकिन जरनल सुंदरजी अपनी जगह पर अड़े रहे. एक समय पर उन्होंने राजीव के एक सलाहकार से कह दिया, “अगर आपको लगता है आपको सही जानकारी नहीं मिल रही तो आप चाहें तो कोई दूसरी व्यवस्था कर लें ”
फ्रेंच लेखक क्लॉड आरपी लिखते हैं कि इसके बाद किसी अधिकारी ने सुंदरजी के काम में दखल नहीं दिया. उधर राजीव बैक चैनल्स से चीन से वार्ता में लगे हुए थे.
मई 1987 में विदेश मंत्री ND तिवारी ने चीन का दौरा किया. और इसी दौरे से भूमिका बनी राजीव गांधी के दौरे की. 1988 में राजीव ने बीजिंग का दौरा किया. हालांकि बॉर्डर पर दोनों तरफ सेनाएं खड़ी हुई थी. इसके बावजूद ये ऐतिहासिक दौरा था. क्योंकि नेहरू के बाद पहली बार कोई भारतीय प्रधानमंत्री चीन के दौरे पर गया था. इस दौरे के बाद चीजें लगातार सुधरती गई. भारत और चीन के बीच कई राउंड की बातचीत हुई.

दिसम्बर 1988 में दोनों देशों ने सीमा पर चर्चा के लिए एक जॉइंट वर्किंग ग्रुप JWC का गठन किया. JWC की पहली मीटिंग जून 1989 में हुई. इसके बाद लगातार कई हाई लेवल मीटिंग होती रहीं. साल 1989 से 1991 के बीच चीन के कई बड़े नेताओं ने भारत का दौरा किया. 1993 में दोनों देशों के बीच एक समझौता हुआ. जिसके तहत दोनों देशों ने शांति से मामला निपटाने की प्रतिबद्धता जताई.
सुमदोरोंग चू का संकट अगस्त 1995 तक चला. जिसके बाद इस बात पर सहमति बनी कि दोनों देश अपनी दो पोस्ट हटा देंगे. मामला सुलट गया और भारत चीन के सम्बन्ध लगातार सुधरते गए. सुमदोरोंग चू में कोई गोली नहीं चली, न ही हमने कोई जंग जीती. लेकिन चीन को ये अहसास दिलाने में कामयाब हुए कि 1962 अब बीती हुई बात है. और भारतीय सेना अब चीन के किसी भी कदम का मुंह तोड़ जवाब दे सकती है.
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