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छत्रपति शिवाजी ने सिर्फ़ एक मुलाक़ात में कैसे जीती जंग?

प्रतापगढ़ के किले से सिर्फ़ एक बार बाहर निकले और आदिलशाही को हरा दिया

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10 नवंबर 1659 के दिन शिवाजी और अफ़ज़ल ख़ान की मुलाक़ात हुई थी (तस्वीर: wikimedia commons)
आज 10 नवंबर है और आज की तारीख़ का संबंध है प्रतापगढ़ की लड़ाई से.
17वीं सदी की शुरुआत में भारत में तीन बड़ी ताक़तें थी. मुग़ल, दक्कन में निज़ामशाही और बीजापुर में आदिलशाही. तब मध्य भारत में एक 15 साल के लड़के ने बीड़ा उठाया कि वो अपना अलग साम्राज्य खड़ा करेगा. इस लड़के को आज हम छत्रपति शिवाजी महाराज के नाम से जानते हैं. अपने अभियान की शुरुआत में ही उन्हें बीजापुर की सल्तनत से एक बड़ी लड़ाई लड़नी पड़ी थी. और इस लड़ाई का फ़ैसला युद्ध के मैदान में नहीं, एक टेंट में हुआ था. जहां शिवाजी की मुलाक़ात अफ़ज़ल खान से हुई थी. निकोलो माकियावेली और द प्रिन्स  अच्छा क्या? बुरा क्या? सही कौन? ग़लत कौन? कौन हीरो और कौन विलेन? इन सवालों के जवाब में एक ज़मीनी किताब का ज़िक्र आता है. किताब का नाम था, ‘द प्रिन्स’. लिखने वाले का नाम निकोलो माकियावेली. इटली के रहने वाले थे. किताब लिखी 1513 में. उन दिनों इटली के आसपास जमकर लड़ाइयां चल रही थी. सत्ता जिसके हाथ में आती वो ही ‘अच्छे’ काम करने लग जाता. अच्छे काम जैसे, किसी पर हमला मत करो, अपने दुश्मनों को माफ़ कर दो.
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निकोलो माकियावेली की किताब द प्रिन्स (तस्वीर: Amazon)


बाहर से देखने पर ये फ़ैसले नैतिक लगते, लेकिन इन फ़ैसलों के चलते सत्ता स्थिर नहीं रह पाती. दुश्मन को माफ़ किया जाता तो वो दोगुनी ताक़त से हमला करता. और सत्ता बिखर जाती. एक स्टेबल सत्ता के अभाव में लोग़ों की ज़िंदगी दूभर थी.ऐसे में माकियावेली ने कहा. ठहरो, ठहरो! इन अच्छे कामों के चलते जब सब बुरा हो रहा है तो अच्छा आख़िर है क्या.
इसका जवाब दिया उन्होंने प्रिन्स में. जिसमें उन्होंने कहा कि एक राजा की नैतिकता और आम इंसान की नैतिकता बराबर नहीं हो सकती. अगर राजा को अपनी सल्तनत पर ख़तरा महसूस होता हो. तो उसे दुश्मनों को हरगिज़ माफ़ न करते हुए, उनका सफ़ाया कर देना चाहिए. उसकी नैतिकता इसमें निहित है कि किसी भी हाल में जनता का भला होना चाहिए. इतिहास जब 17वीं शताब्दी के मध्य से गुजर रहा था. शिवाजी का इनिशिएटिव जनता के भले का यही सवाल 15 साल की उम्र के शिवाजी के दिमाग़ में आया. आदिलशाही और मुग़लों की आपसी लड़ाई में जनता पिस रही थी. ऐसे में उन्होंने कमान अपने हाथ में लेकर एक इनिशिएटिव लिया. साल था 1645. औरंगज़ेब और दारा शिकोह के बीच दुश्मनी परवान चढ़ रही थी. औरंगज़ेब को दक्खिन की सूबेदारी से बेदख़ल कर दिया था. इसी साल शिवाजी ने बीजापुर की गद्दी पर आरी चलानी शुरू कर दी.
उनके पिता शाहजी भोंसले पूना की जागीर सम्भालते थे, लेकिन बीजापुर रियासत के तले रहकर. शिवाजी को ये मंज़ूर ना था. लेकिन उनके सामने एक बड़ा सवाल था. वो ये कि एक छोटी सी जागीर का वारिस बीजापुर रियासत का सामना कैसे करे. परिस्थिति ने उन्हें एक मौक़ा दिया. मुग़ल दक्कन में अपना क़द मज़बूत करने की फ़िराक में थे. और बीजापुर की अदिलशाही मुग़लों को रोकने की कोशिश में लगी थी.
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अफ़ज़ल खान और अली आदिल शाह (तस्वीर: Commons)


बीजापुर का सारा ध्यान मुग़लों की ओर था. ऐसे में शिवाजी ने एक-एक कर बीजापुर के किलों को हथियाना शुरू किया. सबसे पहला किला था, तोरणा. उस पर क़ब्ज़ा जमाकर उन्होंने फिरंगोज़ी नरसाला को अपने पाले में किया. फिरंगोज़ी के पास चाकन के किले का ज़िम्मा था, उन्होंने शिवाजी के प्रति वफ़ादारी की शपथ ली, और उनके मिलिटरी कमांडर बन गए. इसके बाद शिवाजी ने कोंडना का किला भी हथिया लिया.बीजापुर तक इसकी खबर पहुंची. तो उन्होंने शिवाजी के पिता शाहजी को बंदी बना लिया. दांव सफल रहा. मजबूरन शिवाजी को अपनी रफ़्तार रोकनी पड़ी. 1649 में शाहजी की रिहाई हुई तो शिवाजी दुबारा अपने अभियान में लग गए. उन्होंने जवाई पर हमला कर उसे भी अपने कब्जे में कर लिया. अफ़ज़ल खान अगले कुछ सालों तक बीजापुर रियासत और शिवाजी के बीच चूहे-बिल्ली का खेल चलता रहा. 1656 में मुहम्मद आदिल शाह की मौत हुई तो बीजापुर का नया सुल्तान बना, अली आदिल शाह. उसकी उम्र तब सिर्फ़ 18 साल थी. 1659 तक बीजापुर और मुग़लों के बीच तनातनी में कमी आ गई थी. तब अली आदिल शाह की मां बड़ी बेगम ने उसे शिवाजी पर नकेल कसने की सलाह दी.
अफ़ज़ल खान बीजापुर सल्तनत के सबसे ताक़तवर कमांडर्स में से एक था. सिर्फ़ सेना के लिहाज़ से ही नहीं, शारीरिक बनावट में भी. 7 फुट का विशालकाय अफ़ज़ल खान अब तक एक भी जंग नहीं हारा था. भोंसले परिवार से साथ उसके पुरानी अदावत थी. शिवाजी के बड़े भाई संभाजी की मौत में उसका बड़ा रोल रहा था. बीजापुर रियासत के बुलावे पर वो दक्कन से लौटा और शिवाजी के ख़िलाफ़ जंग की तैयारी में जुट गया.
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शिवाजी (तस्वीर: Commons)


बीजापुर की सेना लेकर अफ़ज़ल ख़ां शिवाजी से जंग करने पहुंचा. उसके पास 20 हज़ार घुड़सवार, 15 हज़ार पैदल सैनिक, 100 तोपें, और कई हाथी थे. शिवाजी का सामना अब तक इतनी बड़ी सेना से नहीं हुआ था. उन्हें इल्म था कि सीधी लड़ाई में हार की सम्भावना ज़्यादा है. वो अपनी सेना सहित प्रतापगढ़ के किले में घुस गए. जवाई के जंगलों से घिरा प्रतापगढ़ किला गुरिल्ला युद्ध के लिए बिलकुल अनुकूल था.
यहां अफ़ज़ल को अहसास हुआ कि जंग के लिए एक चीज़ जो सबसे ज़्यादा मायने रखती है. वो है, लोकेशन, लोकेशन, लोकेशन. अफ़ज़ल खान की सेना में अधिकतर घुड़सवार थे. जो जंगल के इलाक़े में ज़्यादा काम नहीं आ सकते थे. इसलिए शिवाजी कई दिनों तक प्रतापगढ़ के किले में जमे रहे. संधि का प्रस्ताव शिवाजी को उकसाने की ख़ातिर अफ़ज़ल ख़ां ने मंदिरों और आसपास के गांवों पर हमला किया. इसमें पंढरपुर का विठोबा मंदिर और तुलजापुर का भवानी मंदिर भी शामिल था. मकसद था शिवाजी समर्थकों का मनोबल तोड़ना. कई दिनों तक लड़ाई यहीं पर अटकी रही तो अफ़ज़ल ख़ां ने कृष्णाजी भास्कर को शिवाजी के पास भेजा. उसने पुराने संबंधों का हवाला देते हुए कहा कि शिवाजी संधि के लिए मान जाएं.
उसने वादा किया कि संधि हो जाने पर वो बीजापुर सुल्तान से दरखवास्त करेगा कि शिवाजी को उनके हिस्से का इलाक़ा सौंप दिया जाए. इस दौरान भी उसने शिवाजी ने किलों पर चढ़ाई जारी रखी. शिवाजी खुले मैदान में लड़ने के इच्छुक नहीं थे इसलिए उनके इलाक़ों को भारी नुक़सान हो रहा था.
शिवाजी के सलाहकारों ने उनसे कहा कि संधि का प्रयास किया जाना चाहिए, ताकि नुक़सान से बचा जा सके. शिवाजी ने मुलाक़ात की पेशकश स्वीकार की और अपने दूत गोपीनाथ पंत को अफ़ज़ल ख़ान के पास भेजा. यहां गोपीनाथ ने दर्शाया कि शिवाजी संधि के लिए उत्सुक हैं और जल्द से जल्द मुलाक़ात चाहते हैं.
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प्रतापगढ़ का किला (तस्वीर: commons)


अफ़ज़ल ने शिवाजी को वई आने का न्योता दिया. लेकिन शिवाजी ने इससे इनकार करते हुए संदेश भिजवाया कि वो लोग प्रतापगढ़ किले के नीचे मिलेंगे. और दोनों तरफ़ सिर्फ़ कुछ बॉडीगार्ड के अलावा और कोई ना होगा. अफ़ज़ल खान तैयार हो गया. मुलाक़ात की पहली रात ही अफ़ज़ल ने प्रतापगढ़ के आसपास के गांवों में अपनी सेना तैनात कर दी. शिवाजी ने भी अपने सेना से तैयार रहने को कहा और मीटिंग में पहुंच गए.
शिवाजी और अफ़ज़ल दोनों को एकदूसरे पर भरोसा न था. लेकिन अपनी क़द काठी के कारण अफ़ज़ल ख़ा को विश्वास था कि वन-टू-वन लड़ाई हुई तो वो शिवाजी को पस्त कर देगा. शिवाजी भी पूरी तैयारी से पहुंचे. उन्होंने अपने कपड़ों के अंदर कवच पहना हुआ था. और साथ ही ‘बाघ नख’ यानी ऊंगलियों में नाखून की तरह पहना जा सकने वाला हथियार भी छुपाया हुआ था. मुलाक़ात अफ़ज़ल अपने साथ 1000 सैनिक लेकर कैम्प की तरफ़ रवाना हुआ. तब गोपीनाथ ने उसे समझाया कि इतनी सेना देखकर शिवाजी मिलने को तैयार ना होंगे. ये सुनकर अफ़ज़ल ने अपने सैनिकों को कुछ दूरी पर रोक दिया और एक पालकी में बैठकर शिवाजी से मिलने पहुंचा. साथ में सिर्फ़ 5 लोग थे, जिनमें कृष्णाजी, गोपीनाथ और अफ़ज़ल का ख़ास लड़ाका सैय्यद बंदा भी शामिल था. आज ही दिन यानी 10 नवंबर 1659 के दिन शिवाजी और अफ़ज़ल ख़ां की मुलाक़ात हुई.
मराठा इतिहासकारों के अनुसार मुलाक़ात होते ही अफ़ज़ल ने शिवाजी से आदिलशाही की सरपरस्ती स्वीकार करने को कहा. और आगे बढ़कर शिवाजी को गले लगाना चाहा. गले लगते ही उसने एक ख़ंजर से शिवाजी की पीठ पर हमला किया. कवच के चलते शिवाजी ख़ंजर के वार से बच गए. उन्होंने अपना बाघ नख निकाला और अफ़ज़ल के पेट पर वार कर दिया. खून की धार बह निकली तो अफ़ज़ल टेंट से बाहर की ओर भागा. सैय्यद बंद ने तलवार से शिवाजी पर वार किया लेकिन शिवाजी के साथी जिवा महाला ने उसे मार गिराया. अफ़ज़ल खान बुरी तरह घायल था, उसने भागने की कोशिश की लेकिन शिवाजी के एक साथी ने पकड़कर उसका सिर कलम कर दिया.
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वाघ नख (तस्वीर: wikimedia commons)


अफ़ज़ल खान का सिर राजगढ़ भिजवाकर शिवाजी की माता जीजाबाई के आगे पेश किया गया. ये उनके पति के साथ हुए दुर्व्यवहार और संभाजी की मौत का बदला था. अफ़ज़ल खान की मौत के बाद शिवाजी प्रतापगढ़ के किले की ओर भागे और अपने तोपख़ाने को गोले दागने का संदेश दिया. साथ ही जंगल में छुपी उनकी सेना ने अफ़ज़ल की सेना पर धावा बोल दिया. शिवाजी के कमांडर कान्होजी जेधे ने अपने 1500 सैनिकों के साथ किले की तलहटी से वार किया. अफ़ज़ल खान के बाद सेना का नेतृत्व मूसे खान कर रहा था. वो भी घायल हुआ तो भाग निकला. कमांडर की ऐब्सेन्स में सेना का मनोबल टूट गया और जल्द ही उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया. इतिहासकारों का इतिहास इस तरह शिवाजी ने आदिल शाही को हराकर अपनी पहली बड़ी लड़ाई जीती . ये जीत मराठा साम्राज्य की नींव में पहली ईंट साबित हुई. ब्रिटिश इतिहासकार जेम्स ग्रांट डफ़ ने शिवाजी और अफ़ज़ल ख़ां के बीच इस मुलाक़ात का ज़िक्र किया है. 1818 में लिखी एक किताब में उसने दावा किया कि छत्रपति शिवाजी ने अफ़ज़ल खान पर पहला हमला किया. तथा सुनियोजित तरीक़े से उसका क़त्ल कर दिया.
साल 1900 में जस्टिस रानाडे ने इसे इतिहास के साथ खिलवाड़ बताया. और खुद मराठा इतिहास पर एक किताब लिखी, 'द राइज़ ऑफ़ मराठा पावर' . काफ़ी सारी घटनाओं पर उन्होंने नए तथ्य रखे, लेकिन इस घटना के सापेक्ष कोई साक्ष्य मुहैया नहीं किया. 1919 में भारतीय इतिहासकार जादूनाथ सरकार ने मराठा हिस्ट्री से रेफ़्रेन्स लेते हुए कहा, सभी स्त्रोतों तय होता है कि इस केस में शिवाजी ने आत्मरक्षा में ये कदम उठाया था. साथ ही ये तर्क भी दिया कि जब सूरत लूट की घटना पर इतिहासकारों ने शिवाजी को कोई रियायत नहीं दी. तो इस घटना में पक्षपात दिखाने का कोई मामला नहीं बनता.
विज्ञान का मामला होता तो मीटर लगाकर चेक कर लेते. कौन सही था, कौन ग़लत? लेकिन मामला इतिहास का है. इसलिए सबजेक्टिविटी की छाया पड़नी तय थी. फिर भी अधिकतर वर्तमान इतिहासकार यही मानते हैं कि शिवाजी ने आत्मरक्षा में अफ़ज़ल पर हमला किया था.

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