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टीपू सुल्तान की किस बदक़िस्मती से भारत अंग्रेजों का ग़ुलाम बन गया?

अमेरिका की आज़ादी और टीपू सुल्तान की हार का क्या कनेक्शन है?

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1799 में सेरिंगपट्टम की लड़ाई में टीपू सुल्तान की मौत हो गई और मैसूर आंग्ल युद्ध का अंत हो गया (पेंटिंग: Henry Singleton)
आज 27 सितम्बर है और आज की तारीख़ का संबंध है एक युद्ध से.
आज ही के दिन यानी 27 सितंबर 1781 को हैदर अली और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के बीच दूसरे आंग्ल-मैसूर युद्ध के दौरान सालनगढ़ की लड़ाई हुई थी. हैदर अली को इसमें हार का सामना करना पड़ा था. हैदर अली क्यों हारे और इसका आने वाले भविष्य पर क्या असर पड़ा, ये बताने से पहले ज़रा गणित पर चलते हैं. ˈकेऑस थ्योरी’ 1963 में MIT के गणितज्ञ ‘एडवर्ड लोरेन्ज’ ने एक नई थ्योरी विकसित की. जिसे हम आज ˈकेऑस थ्योरी’ के नाम से जानते हैं. क्या है ये थ्योरी?
ऐसे समझिए कि कोई एक व्यक्ति चुनाव में किसे वोट देगा, इसका ठीक-ठीक अनुमान लगाना लगभग असम्भव है. दूसरे शब्दों में दुनिया अनप्रिडिक्टेबल है, क्योंकि बहुत जटिल और उलझी हुई है. इसके बरक्स, अगर सोनू  मोनू की तरफ़ पत्थर उछालें तो न्यूटन के सिद्धांत का पालन करते हुए वो पत्थर कितनी देर में पहुंचेगा, और कितनी ज़ोर से लगेगा, इसकी गणना की जा सकती है.
लेकिन बात इतनी भी सीधी नहीं है. कैरम का खेल खेलने वाला हर व्यक्ति ये जानता है कि फ़्रिक्शन, भार और फ़ोर्स, इन सभी की वैल्यू पता होने के बावजूद गोटी कहां जाएगी, इसका ठीक-ठीक पता लगाना नेक्स्ट टू इम्पॉसिबल है. यानी मानव के बनाए सिस्टम भी इतने जटिल हो सकते हैं कि उनकी पूरी नॉलेज होने के बावजूद, कोई एक रैंडम इवेंट सिस्टम में अभूतपूर्व बदलाव ला सकता है. यही केआस थ्योरी है.
लोरेन्ज साहब ने तो इस थ्योरी को मौसम की गणना के लिए सुझाया था. लेकिन आज इसका इस्तेमाल सोशल मीडिया बिहेवियर, चुनाव पोलिंग, यहां तक कि इतिहास की विवेचना के लिए भी किया जाता है. हम इस थ्योरी की चर्चा इसलिए कर रहे हैं. क्योंकि रैंडम दिखने वाले ऐसे ही इवेंट्स ने 1803 में असाये की लड़ाई में मराठों की हार पक्की कर दी थी. जिसके बारे में हमने आपको 23 सितम्बर के एपिसोड में बताया था. शतरंज की बिसात पर अमेरिका बात सिर्फ़ मराठों और अंग्रेजों की नहीं थी. शतरंज की इस बिसात पर बहुत बड़े-बड़े खिलाड़ी चाल चल रहे थे. जिनमें शामिल थे, ब्रिटेन, फ़्रांस, मराठा साम्राज्य, मैसूर और अमेरिका. फ़्रांस और ब्रिटेन तो भारत में कॉलोनी बनाने की फ़िराक में थे. लेकिन अमेरिका इस खेल में क्या कर रहा था? ये समझने के लिए 18 वीं शताब्दी के मध्य से शुरू करते हैं.
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1757 में प्लासी की जंग में मीर जाफ़र और रॉबर्ट क्लाइव की मुलाक़ात (पेंटिंग: फ़्रांसिस हेमन)


जैसे WW2 के बाद अमेरिका और रशिया कभी सीधे नहीं लड़े. बल्कि अपने सैटेलाइट स्टेट्स के माध्यम से प्रॉक्सी वॉर करते रहे. जैसे क्यूबा, वियतनाम, कोरिया, अफ़ग़ानिस्तान आदि. ऐसा ही खेल 17वीं और 18वीं सदी में ब्रिटेन और फ़्रांस के बीच चल रहा था. जहां-जहां इन दोनों की कॉलोनियां थीं, वहां-वहां ये एक-दूसरे के ख़िलाफ़ विद्रोह की आग भड़काते रहते थे.
18वीं सदी तक कनाडा फ़्रांस के कब्जे में था और इसे न्यू फ़्रांस कहा जाता था. ब्रिटेन का आधिपत्य अमेरिकी राज्यों पर था और वहां भी इन दोनों में कश्मकश चल रही थी. 1756-1763 के बीच चले युद्धों में ब्रिटेन ने नॉर्थ अमेरिका से फ़्रांस का सफ़ाया कर दिया. तब फ़्रेंच लेखक वोल्टायर ने कहा, कुछ एकड़ बर्फ़ चली भी जाती है तो क्या फ़र्क पड़ता है.
वोल्टायर कनाडा के बड़े भू-भाग के बर्फ़ से घिरे रहने के कारण ऐसा कह रहे थे. और उनकी नज़र में कनाडा का कोई ख़ास महत्व नहीं था. लेकिन फ़्रेंच शासकों को इस बात का अहसास था कि ब्रिटेन की ताक़त दिन पर दिन बढ़ती जा रही थी, जिस पर लगाम लगाना ज़रूरी था.
उनकी नज़र ब्रिटेन की दो कॉलोनियों पर पड़ी. पहला भारत, जहां ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी प्लासी का युद्ध जीतकर पूर्वी भारत यानी बंगाल पर क़ब्ज़ा कर चुकी थी. और दूसरा अमेरिका. जहां ब्रिटेन के ख़िलाफ़ विद्रोह की चिंगारी भड़क चुकी थी. पूरी कहानी को समझने के लिए तब के दक्षिण भारत की पावर इक्वेशन को भी समझना ज़रूरी है. मैसूर की रियासत मैसूर की सेना में एक छोटे सिपाही के पद से शुरुआत करने वाले हैदर अली 1761 तक मैसूर के शासक बन चुके थे. मैसूर तब आज की तरह एक ज़िला न होकर पूरी रियासत हुआ करता था. जो आज के गोवा के नीचे मालाबार रीजन तक फैला था. इसके बग़ल में था कर्नाटक, आज का मद्रास.
नोट: आज मैप में ये जगहें बदल चुकी हैं. इसलिए तब के मैप का सहारा लें.
मैसूर के ऊपर था मराठा साम्राज्य. जिस पर पेशवाओं का शासन था. 18वीं शताब्दी के अंत तक ये बहुत मज़बूत हुआ करता था. और मैसूर को भी इसे टैक्स चुकाना पड़ता था. इनके बग़ल में थी निज़ामशाही. जो मुग़लों के अधीन थे और उनके कमजोर हो जाने के बाद कभी मराठों से तो कभी ब्रिटिश EIC के साथ हो लेते थे. बंगाल और बिहार पर क़ब्ज़ा जमाने के बाद अंग्रेजों की नज़र दक्षिण और मध्य भारत पर थी. पेशवा इतनी बड़ी ताक़त थे कि उन पर आक्रमण सम्भव नहीं था.

मद्रास में अंग्रेज अपना किला बना चुके थे और निज़ामशाही का भी उन पर ज़ोर नहीं चलता था. बचा सिर्फ़ एक मैसूर. हैदर अली को ये बात पहले ही समझ आ गई थी कि ब्रिटिश EIC की नज़र मैसूर पर है. मैसूर एक समृद्ध राज्य था. जहां चंदन की लकड़ी का कारोबार हुआ करता था. इतना ही नहीं मैसूर के पास अपना बंदरगाह भी था, माहे. जिससे विदेशों तक चीजें भेजी जाती थी.


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1780 में दक्षिण भारत का मैप (तस्वीर: Brion de la tour)


कनाडा हारने के बाद फ़्रेंच को जब दिखा कि मैसूर पर ब्रिटिश EIC की नज़र है तो उन्होंने हैदर अली से हाथ मिला लिया. हैदर अली ने उन्हें माहे का बंदरगाह सौंप दिया. और फ़्रांस ने बदले में उन्हें विदेशी हथियार मुहैया कराए और ब्रिटिश EIC के ख़िलाफ़ समर्थन का आश्वासन दिया. इसके बाद ‘पहले आंग्ल मैसूर युद्ध’ की शुरुआत हुई 1767 में. जिसमें अंग्रेजों को भारी शर्मिंदगी उठानी पड़ी. हैदर अली ने उन्हें मद्रास के किले तक खदेड़ दिया और वहां भी उनका पीछा नहीं छोड़ा. ब्रिटिश EIC को मजबूरन संधि करनी पड़ी. जिसे मद्रास की संधि के नाम से जाना जाता है.
इस संधि में शामिल था कि भविष्य में अगर मैसूर पर किसी ने आक्रमण किया तो ब्रिटिश EIC मदद करेगी. अंग्रेज दोगले निकले. 1771 में मराठाओं ने मैसूर पर आक्रमण किया तो उन्होंने मैसूर को मदद देने से इनकार कर दिया. मराठा चौड़ में थे कि ब्रिटिश EIC की इतनी हिम्मत नहीं कि उन पर हमला करे. लेकिन 1775 में उनका भी भ्रम टूटा जब ब्रिटिश EIC ने मराठाओं पर आक्रमण कर दिया. दूसरा आंग्ल-मैसूर युद्ध पहले आंग्ल मैसूर युद्ध में हारने के बावजूद अंग्रेजों का मैसूर से लालच गया नहीं था. और अमेरिका में हुई एक घटना में उन्हें इसका मौक़ा भी दे दिया. जैसा कि आपको मालूम होगा, 4 जुलाई को अमेरिका का 15 अगस्त होता है. कारण कि 4 जुलाई 1776 को 13 ब्रिटिश कॉलोनियों ने मिलकर ब्रिटिश साम्राज्य से आज़ादी का ऐलान कर दिया था. और इससे अमेरिकन क्रांति की शुरुआत हो गई.
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4 जुलाई को 13 कॉलोनियों ने मतदान किया और एक घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर कर खुद को आजाद घोषित कर दिया. (तस्वीर: Wikimedia)


इस चिंगारी को और भड़काने का काम किया फ़्रेंच ने. जैसा कि हमने पहले बताया, कनाडा और भारत के बड़े हिस्से से हाथ धोने के बाद फ़्रेंच अपनी कोल्ड वॉर की शुरुआत कर चुके थे. उन्होंने अमेरिका में विद्रोहियों को समर्थन दिया और पैसों, हथियार आदी से मदद पहुंचाई.
बदले में ब्रिटेन ने ठाना कि कोल्ड वॉर को कुछ गर्म किया जाए. उन्होंने माहे बंदरगाह, जो फ़्रांस के कब्जे में था. उस पर हमला कर दिया. हैदर अली के लिए इस बंदरगाह की बहुत अहमियत थी. और मराठाओं से साथ युद्ध में अंग्रेजों के हाथों धोखा खाने से वो पहले ही बौखलाए हुए थे.
नतीजतन 1780 में दूसरे आंग्ल-मैसूर युद्ध की शुरुआत हो गई. इस लड़ाई के तार अमेरिका से भी जुड़े हुए थे. क्योंकि वहां भी ब्रिटेन के ख़िलाफ़ विद्रोह हो रहा था. और वो ब्रिटेन को भारत में भी हारते हुए देखना चाहते थे. जॉन एडम्स अमेरिका के फ़ाउंडिंग फादर्स में से एक थे. 10 जून, 1780 को उन्होंने US कांग्रेस को पत्र लिखा. जिसमें मैसूर और ब्रिटिश EIC के बीच जंग का ज़िक्र था. इतना ही नहीं इस पत्र में हैदर अली को "प्रसिद्ध हैदर एली" के नाम से सम्बोधित किया गया था. दूसरे आंग्ल-मैसूर जंग की शुरुआत तक हालत बदल चुके थे. मराठाओं को समझ आ गया था कि ब्रिटिश किसी के सगे नहीं. उन्होंने मैसूर का साथ देने की ठानी. निज़ामशाही भी पलड़ा भारी देख इसी ख़ेमे में आ गई. आरकोट का घेराव ब्रिटिश EIC का एकमात्र साझेदार था, कर्नाटक का नवाब वल्ला जाह. जंग का ऐलान हुआ तो जुलाई 1780 में हैदर अली ने मराठों और निज़ामों की सेना के साथ कर्नाटक के किले आरकोट का घेराव कर लिया. वल्ला जाह की मदद के लिए ब्रिटिश EIC ने मद्रास और गुंटूर से अपनी दो टुकड़ियां भेजीं. प्लान था कि दोनों टुकड़ियां कांजीवरम के रास्ते मिलकर अटैक करेंगी.
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हैदर अली (तस्वीर: Pierre Adrien)


लेकिन जैसा कि पूर्व अमेरिकन फ़र्स्ट लेडी एलनॉर रूज़वेल्ट का कथन है,
“प्लान करने में उतना ही एफ़र्ट लगता है जितना किसी चीज़ की इच्छा करने में.”
अंग्रेजों का प्लान भी सिर्फ़ हवा-हवाई साबित हुआ. और उन्हें मुंह की खानी पड़ी. हैदर अली ने अपने बेटे टीपू को गुंटूर से आने वाली टुकड़ी का सामना करने भेजा. ये लड़ाई पोलीलूर में हुई थी. जहां पहली बार टीपू ने रॉकेट का इस्तेमाल किया था. इस लड़ाई में अंग्रेजों को जमकर नुक़सान हुआ. यहां तक कि अंग्रेज टुकड़ी को लीड कर रहे कर्नल बेली को सरेंडर तक करना पड़ा. हैदर अली का वॉटरलू मोमेंट दूसरी टुकड़ी जिसे कर्नल हेक्टर मुनरो लीड कर रहे थे, उसका सामना करने हैदर अली खुद पहुंचे. इस लड़ाई में भी हैदर अली की जीत हुई और हेक्टर मुनरो को मद्रास लौटना पड़ा . यहां तक तो हैदर अली बाक़ायदा नेपोलियन साबित हो रहे थे. लेकिन उनकी एक गलती से उनका वॉटरलू मोमेंट भी जल्द सामने आ गया.
गलती ये थी कि हैदर अली अगर मद्रास पर धावा बोलते तो अंग्रेजों के पांव दक्षिण भारत से उखड़ जाते. लेकिन हैदर अली ने इसके बजाय आरकोट पर घेराबंदी का चुनाव किया. हैदर अली के आरकोट में बिज़ी देख ब्रिटिश EIC ने मालाबार रीजन पर आक्रमण कर दिया. जो आरकोट से कोसों दूर है. हैदर अली ने टीपू को सेना सहित मालाबार की तरफ़ रवाना किया.
इस सबके बीच ब्रिटिश EIC को मद्रास में संभलने का मौक़ा मिल गया. बंगाल अभी भी उनका एक मज़बूत गढ़ था. यहां से ‘सर आयरे कूट’ के नेतृत्व में एक और अंग्रेज़ टुकड़ी मद्रास पहुंची. कूट ने मद्रास पहुंचकर स्थिति का जायजा लिया. कूट को लगा कि जब तक मराठे और निज़ामशाही हैदर अली के साथ हैं, तब तक उन्हें हराना मुश्किल है. टीपू से टीपू सुल्तान अंग्रेजों ने कूटनीति चलते हुए मराठाओं और निज़ामों को संदेश भेजा कि वो बेकार में मैसूर की जंग में अपने हाथ जला रहे हैं. साथ ही ये आश्वासन भी भेजा कि भविष्य में ब्रिटिश EIC और वो साझेदार होंगे. मराठाओं और निज़ामों ने अपने हाथ पीछे खींच लिए. और इसके चलते हैदर अली आरकोट में अकेले पड़ गए. इसके बाद हैदर अली और आयरे कूट के बीच तीन जंग हुई. जिसमें सालनगढ़ की लड़ाई भी शामिल है.
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टीपू सुल्तान का जन्म 20 नवंबर 1750 में कर्नाटक के देवनाहल्ली में हुआ था (तस्वीर: wikimedia)


पोलीलूर, पोर्तो-नोवो और सालनगढ़, तीनों जगह हैदर अली को हार का मुंह देखना पड़ा. 1782 में हैदर अली की तबीयत बिगड़ने से मौत हो गई. और टीपू बन गए टीपू सुल्तान. उन्होंने अंग्रेजों से लड़ाई जारी रखी.
लेकिन 1783 में एक और अंतराष्ट्रीय घटना ने इस लड़ाई पर असर डाला. हुआ यूं कि 1783 में ब्रिटेन फ़्रांस और स्पेन के बीच एक पीस ट्रीटी साइन हुई. इस ट्रीटी में अमेरिका को स्वतंत्र देश के रूप में स्वीकारने की बात भी शामिल थी. फ़्रांस जो मैसूर को अब तक मदद दे रहा था. इस ट्रीटी के चलते उसने मैसूर का साथ देना बंद कर दिया. और 1784 में टीपू को अंग्रेजों से संधि करनी पड़ी.
इसके बाद टीपू की ताक़त निरंतर कम होती गई. और 1799 में एक लड़ाई के दौरान उसकी मौत हो गई. यहीं हमारी केऑस थ्योरी कंकलूड होती है. क्योंकि इसके बाद मैसूर अंग्रेजों के हाथ में चला गया और मराठा पूर्व और दक्षिण दोनों तरफ़ से घिर गए. अगर सही वक्त पर मराठा और मैसूर ने साझेदारी बनाए रखी होती तो ब्रिटिश अपना पांव जमा ही नहीं पाते.