फिर आता है फ़ैसला. और फ़ैसला वो कि सारे लोग भौचक्के रह जाते हैं. कोर्ट बतलाती है, रेप नहीं हुआ. इतना ही होता तो भी बात थी. फ़ैसले में आगे कहा जाता है कि लड़की को सेक्स की आदत थी और चूंकि उसने पहले भी सेक्स किया है तो रेप का मामला बनता ही नहीं.
भारत में एक बड़ी नारीवादी एक्टिविस्ट हुई हैं, लतिका सरकार. आज ही के दिन यानी 23 फ़रवरी के रोज़ साल 2013 में उनका देहांत हो गया था. लतिका की पैदाइश हुई बंगाली परिवार में. पिता बड़े वकील हुआ करते थे. इसलिए लतिका ने भी लॉ में ही करियर बनाया. 1953 में जब उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी में लॉ पढ़ाना शुरू किया. तो ऐसा करने वाली वो पहली महिला थी. तब लॉ कोर्स में सिर्फ़ 10 लड़कियां पढ़ती थीं. अगले 20 साल में क़ानून की पढ़ाई में लड़कियों की संख्या बेहतर हुई. लेकिन क़ानून की नज़र में लड़कियों की स्थिति नहीं.
1979 में लतिका की नज़र में एक केस आया. जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने उस साल सितम्बर में एक फ़ैसला सुनाया था. मामला कस्टोडियल रेप का था. एक आदिवासी लड़की का रेप हुआ था. और सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों ने इस मामले में एक अजीबो गरीब फ़ैसला सुनाया. फ़ैसले में कहा गया कि लड़की ने चुप्पी बांधे रखी, उसके शरीर पर चोट के निशान नहीं है, और ना ही वो वर्जिन है. इसका मतलब रेप हुआ ही नहीं है. इस एक फ़ैसले ने भारत में तब लगभग वही माहौल पैदा कर दिया था, जैसा साल 2011 में निर्भया केस के बाद हुआ था. क्या था पूरा मसला? आइए समझते हैं,
1970 का साल. महाराष्ट्र के देसाईगंज ज़िले की बात है. आदिवासी समाज की एक लड़की थी. उम्र कुछ 14 से 16 साल के बीच रही होगी. रेप का केस था. इसलिए असली पहचान उजागर ना करते हुए बाद में अख़बारों ने लड़की का नाम ‘मथुरा’ लिखा. मथुरा अनाथ थी. दो बड़े भाई थे. स्कूल जाने का मौक़ा कभी मिला नहीं. इसलिए मथुरा 14 साल की हुई तो लोगों के यहां काम करने लग गई. इस दौरान एक घर में काम करने के दौरान अशोक नाम के एक युवक से उसकी मुलाक़ात हुई. और प्यार हो गया. शादी की बात भी हो गई. लेकिन फिर भाई सामने खड़े हो गए. भाइयों से बचने के लिए मथुरा अशोक के साथ भाग गई और दोनों साथ रहने लगे.

न्यूज़ पेपर में मथुरा की खबर
फिर आया 26 मार्च 1972 का दिन. लड़की के भाइयों को रिश्ता मजूर नहीं था. उन्होंने अशोक के ख़िलाफ़ पुलिस में शिकायत कर दी. पुलिस लड़की, अशोक और उनके पूरे परिवार को पूछताछ के लिए थाने ले आई. पूछताछ हुई. अशोक और उसके परिवार को फिर घर भेज दिया गया. मथुरा की बारी आई तो उसे देर रात तक थाने में ही रोक कर रखा गया. थाने में लड़की के अलावा सिर्फ़ दो हवलदार थे. तुकाराम और गणपत. बक़ौल मथुरा,
रात को थाने को अंदर से बंद कर लाइट बुझा दी गई. फिर गणपत मथुरा को बिल्डिंग के पीछे की तरफ़ बने टॉयलेट में ले गया. उसने मथुरा से कपड़े खोलने को कहा. फिर खींचकर मेन बिल्डिंग में ले गया. और मथुरा को ज़मीन पर धक्का देकर उसके साथ रेप किया. गणपत के बाद तुकाराम ने भी यही कोशिश की. लेकिन शराब में धुत्त होने के कारण वो इसमें कामयाब नहीं हो पाया.
मथुरा का परिवार, जो अब तक पुलिस स्टेशन के बाहर मथुरा का इंतज़ार कर रहा था. उन्हें स्टेशन की लाइट बंद देख कुछ शक हुआ. लेकिन वो ज़्यादा कुछ कर नहीं सकते थे. पुलिस माई-बाप थी और दरवाज़े अंदर से बंद थे. मथुरा के परिवार वालों ने मथुरा को नाम लेकर पुकारा लेकिन कोई जवाब ना आया. धीरे-धीरे भीड़ इकट्ठा हो गई.
देर रात मथुरा पुलिस थाने से बाहर निकली और उसने भीड़ को अपनी आपबीती सुनाई. हंगामा खड़ा हुआ तो बड़ी मुश्किल से पुलिस ने मथुरा की शिकायत पर FIR दर्ज़ की.
मामला सेशन कोर्ट पहुंचा. एक युवा वकील वसुधा धागमवार मथुरा का केस लड़ने के लिए तैयार हुई. प्रो बोनो आधार पर. इस केस में सेशन कोर्ट ने दोनों अभियुक्तों को बरी कर दिया. और फ़ैसला सुनाया कि सब कुछ मथुरा की मर्जी से हुआ है.
इसके बाद मामला बॉम्बे हाई कोर्ट पहुंचा. जहां कोर्ट ने सेशन कोर्ट का फैसला पलटते हुए दोनों अभियुक्तों को 5 और 1 साल की सजा सुनाई. हाई कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा,
“डर के मारे कोई औरत अपना शरीर सरेंडर कर दे. इसका मतलब ये नहीं कि उसने सहमति दे दी है."
साल 1979 में ये केस सुप्रीम कोर्ट की तीन जस्टिस बेंच के पास पहुंचा. इस केस को सुन रहे थे, जस्टिस सिंह, जस्टिस कैलाशम और जस्टिस कौशल. दोनों तरफ़ की दलील सुनने के बाद कोर्ट ने जो फ़ैसला सुनाया वो हैरतंगेज़ करने वाला था.
सुप्रीम कोर्ट ने दोनों अभियुक्तों को बरी कर दिया. और इस फ़ैसले के पक्ष में तीन तर्क दिए.
पहला- रेप के दौरान मथुरा चुप रही. उसने किसी भी तरह ही आवाज़ कर विरोध नहीं जताया.
दूसरा- मथुरा के शरीर पर कोई निशान नहीं था. यानी उसने किसी भी तरह का शारीरिक प्रतिरोध नहीं किया था.
तीसरा- मथुरा वर्जिन नहीं है. यानी उसने शादी से पहले भी सेक्सउवल इंटरकोर्स किया है. इसका मतलब है कि उसे सेक्स की आदत है.
पहले दो तर्क तो साफ़ दिखाई देते हैं कि तर्क नहीं कुतर्क थे. लेकिन तीसरे में तो हद ही पार हो गई. अपने आख़िरी निर्णय में अदालत ने कहा,
“लड़की को सेक्स करने की आदत थी और उस वक़्त दोनों पुलिसवाले शराब के नशे में थे. लड़की ने मौके का फ़ायदा उठाया और दोनों को सेक्स के लिए उकसाया. लोगों के सामने मासूम बनने का नाटक करने के लिए ही उसने उन बेगुनाहों पर रेप का इलज़ाम लगाया”हज़ारों केसेस की तरह ये मामला भी इतिहास में जमा हो जाता लेकिन तब इस फ़ैसले पर नज़र पड़ी लतिका सरकार की. लतिका तब एक बड़ी लॉ एक्स्पर्ट और जानीमानी नारीवादी एक्टिविस्ट थीं.

लतिका सरकार
उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई. इनमें दिल्ली विश्वविद्यालय में लॉ प्रोफेसर उपेंद्र बक्शी, रघुनाथ केलकर और मथुरा की वकील वसुधा धागमवार भी शामिल थीं. इन सब लोगों ने मिलकर सुप्रीम कोर्ट के नाम पर एक ओपन लेटर जारी करते हुए कहा,
“क्या शादी पूर्व सेक्स के प्रति टैबू इस कदर ताकतवर हो चुका है कि आप भारतीय पुलिस को युवा लड़कियों के रेप की आजादी दे रहे हैं?"लेटर में आगे लिखा था,
“क्या सुप्रीम कोर्ट एक 14 साल की लड़की से अपेक्षा करता है कि वो दो-दो वयस्क पुलिसवालों के कब्जे में होते हुए मदद की आवाज़ दे. क्या बिना चोट के निशान के रेप होना असम्भव है?”मामले ने तूल पकड़ा, खबर बड़ी हुई. इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ कई महिला संगठन तैयार हुए. इनमें सबसे बड़ा था ‘फ़ोरम अगेंस्ट रेप’, नाम का एक संगठन. जो लतिका सरकार ने अपने साथियों के साथ मिलकर बनाया. बाद में इस संगठन का नाम ‘फ़ोरम अगेंस्ट ऑप्रेशन ऑफ़ वीमेन’ (FAOW) रखा गया.

डॉ. वसुधा धागमवार
FAOW ने कई बार कोशिश की कि ये केस दुबारा ओपन हो. लेकिन बहुत कोशिशों के बाद भी सुप्रीम कोर्ट ने इस केस पर दुबारा सुनवाई से इनकार कर दिया.
लतिका सरकार और उनके जैसे नारीवादी कई एक्टिविस्ट की कोशिशों का नतीजा था कि इस केस से भारत सरकार पर भारी दबाव बना और देश में रेप क़ानून में संसोधन किए गए. 25 दिसंबर , 1983 को, इंडियन एविडेंस एक्ट के सेक्शन 114(A) में वैधानिक (स्टेट्यूटरी) प्रावधान जोड़ा गया. जिसमें कहा गया कि अगर पीड़िता कहती है कि उसने संभोग के लिए सहमति नहीं दी है तो अदालत को मानना होगा.
IPC के सेक्शन 376 (रेप) में चार नए सेक्शन, ए, बी, सी और डी जोड़े गए. जिनके तहत तय हुआ कि अगर कोई भी पुलिसकर्मी, सरकारी कर्मचारी, या महिला/बाल संस्था या हॉस्पिटल का मालिक उनकी हिफ़ाज़त में आई किसी महिला का रेप करता है तो उसे 10 साल से लेकर उम्र क़ैद तक की सजा होगी. बर्डन ऑफ़ प्रूफ़ को लेकर भी क़ानून में संसोधन किया गया. इससे पहले रेप के मामले में बर्डन ऑफ़ प्रूफ पीड़ित पर डाल दिया जाता था. मथुरा के केस के बाद बर्डन ऑफ़ प्रूफ अपराधी पर डाला गया. साथ ही इन-कैमरा ट्रायल, पीड़ित की पहचान पर प्रतिबंध (रेस्ट्रिक्शन) और सख्त सजा के प्रावधान भी जोड़े गए. लतिका सरकार और FAOW ने इसके बाद भी लगातार महिलाओं के अधिकार की लड़ाई लड़ी.1980 में लतिका सरकार सेंटर फ़ॉर विमन डिवेलपमेंट स्टडीज़ की फ़ाउंडिंग मेम्बर बनी. और 1982 में उन्होंने 'इंडियन एशोसियन फ़ॉर विमन स्टडीज़' की स्थापना की. अब एक एपिलॉग:
साल 2016 में एक फ़िल्म आई थी, पिंक. फ़िल्म में जिरह करते हुए अमिताभ बच्चन का किरदार कोर्ट में एक बात कहता है. “ना सिर्फ़ एक शब्द नहीं,अपने आप में एक पूरा वाक्य है”डायलॉग पूरा होते ही पर्दे पर कोर्ट में, और पर्दे के सामने हॉल में सन्नाटा था.
21 वीं सदी का भारत ‘मी टू’ के बाद एक नए कॉन्सेप्ट से रूबरू हो रहा था. ये कॉन्सेप्ट था कन्सेंट का. यानी रज़ामंदी या सहमति.
इस डायलॉग से बात आगे बढ़ी लेकिन फिर भी मुकम्मल नहीं हुई. ना से आगे भी एक और शय है. वो है चुप्पी. जिसे बिना बोले ही तोड़ दिया जाता है. ‘ना का मतलब तो हां होता है’ गाने वाले लड़कों को ये समझना बाकी है कि ना का मतलब हां तो क़तई नहीं होता, साथ ही खामोशी का मतलब भी हां नहीं होता.