पूरे ब्रह्मांड में जितने परमाणु हैं, उससे ज़्यादा चेस के गेम संभव हैं. चेस के कितने गेम संभव हैं, इसे ‘शेनन नम्बर’ से व्यक्त किया जाता है. ‘शेनन नम्बर’, क्लॉड शेनन के एक शोध पत्र से निकल कर आया था. 1950 के दशक में लिखे उनके इस शोध-पत्र का नाम था, ’किसी कंप्यूटर को चेस खेलने के लिए कैसे प्रोग्राम करें?’
इसमें उन्होंने बताया था कि शतरंज के कुल, ’10 टू दी पावर 120’, यानी 1 के आगे 120 शून्य, गेम्स संभव हैं. जबकि ऑब्ज़र्वेबल यूनिवर्स में सिर्फ़ ’10 टू दी पावर 80’, परमाणु हैं. इंट्रेस्टिंग बात ये कि ‘शेनन नंबर’, जो आपको सुनने में ओवर एस्टीमेशन लग रहा होगा, दरअसल एक अंडरएस्टिमेट है. क्यूंकि बाद में रामानुजम के मेंटर और दोस्त गॉडफ़्री हार्डी ने कहीं स्वीपिंग कमेंट किया कि शतरंज के कुल, ’10 टू दी पावर 150’, यानी 1 के आगे 150 शून्य, गेम्स संभव हैं.

हमने आज की तारीख़ इन नम्बर्स से शुरू इसलिए की, ताकि आपको समझ में आए कि किसी कंप्यूटर को चेस सिखाना कितना मुश्किल है. चेस जीतने के लिए काफ़ी हद तक ऐसी ही कोई इंट्यूटिव अप्रोच चाहिए होगी, जैसी अप्रोच किसी पेंटिंग को बनाने के लिए चाहिए. तो सवाल ये कि क्या कंप्यूटर को चेस सिखाया जा सकता है, जैसा कि क्लॉड शेनन के शोध पत्र का सब्जेक्ट पूछता है? उत्तर है: हां.
कैसे? इसका उत्तर लास्ट में जानेंगे. पहले हम 10 तारीख़ की उस घटना की बात कर लें, जिसने तब खेल जगत से लेकर टेक्नोलॉजी जगत तक में तहलका मचा दिया था. ये घटना थी कंप्यूटर और चोटी के ग्रैंड मास्टर के बीच का शतरंज मुक़ाबला. इस घटना के दो मुख्य पात्र थे पहला, गैरी कैस्पारॉव. अगर मध्यम आयु वर्ग के लोगों को याद हो तो, 90 का दशक, वो दशक था जब हम भारतीयों को खेल में सिर्फ़ दो नाम सुनाई देते थे: पहला, सचिन तेंदुलकर और दूसरा विश्वनाथन आनंद. विश्वनाथन आनंद उन दिनों चेस में इतने एक्टिव थे और इतने प्राइज़ जीतते थे कि हमें ये भी पता था कि अगर उनको कोई हरा सकता है तो वो हैं रूस के गैरी कैस्पारॉव. गैरी कैस्पारॉव लगातार 21 से ज़्यादा वर्षों तक दुनिया के चोटी के शतरंज खिलाड़ी बने रहे थे. जिस घटना की बात हम करने जा रहे, उसके घटने तक ही वो 12 बार वर्ल्ड चैंपियन बन चुके थे.

तो, गैरी कैस्पारॉव का भौकाल स्थापित कर चुकने के बाद हम आते हैं 10 फ़रवरी, 1996 की घटना के दूसरे नायक ‘डीप ब्लू’ पर. IBM का एक चेस प्लेइंग कंप्यूटर. संयोग ये कि जिस वर्ष गैरी कैस्पारॉव दुनिया के सबसे छोटी उम्र के विश्व शतरंज चैंपियन बने, उसी वर्ष यानी, 1985 में IBM ने ‘प्रोजेक्ट चिप टेस्ट’ शुरू किया. मतलब ‘डीप ब्लू’ पर काम करना शुरू किया.
10 फ़रवरी, 1996 वो दिन था जिस दिन ग्रैंड मास्टर गैरी कैस्पारॉव और प्रोजेक्ट ‘चिप टेस्ट’ से निकले शाहकार ‘डीप ब्लू’ के बीच मैच होना तय हुआ.
'फ़ाइव थर्टी एट’ के एडिटर इन चीफ़ नेट सिलवर बताते हैं-
"ये IBM के लिए बहुत ज़रूरी प्रयोग था. लेट 1990 में उसकी उतनी रिस्पेट नहीं रह गई थी, जितनी पहले हुआ करती थी. ये एक चांस था, वो सारी रिस्पेट वापस पाने का."उस वक्त के IBM के CEO लूई गर्स्टनर ने व्यंग करते हुए कहा-
"हम दुनिया के बेहतरीन शतरंज खिलाड़ी और गैरी कैस्पारॉव के बीच मुक़ाबला देखेंगे."

कंप्यूटर और ग्रैंड मास्टर के बीच हुए इस पहले मैच की जो पहली बड़ी ख़बर आई, वो बेशक एक लाइन की थी लेकिन उसने पूरी दुनिया को सन्न कर दिया था. पहले गेम में ‘डीप ब्लू’ जीत चुका था. हालांकि बाद में गैरी कैस्पारॉव ने कमाल की वापसी करते हुए 6 गेम्स के इस मैच को 4-2 से जीत लिया था.
इसके एक साल बाद एक और मैच हुआ. जिसे रीमैच कहा गया. इसमें अंतिम गेम तक डीप से बराबरी पर चल रहे कैस्पारॉव, लास्ट गेम के शुरुआत में की गई एक ग़लती के चलते वो गेम और पूरा मैच 3.5-2.5 से हार गए.
गैरी कैस्पारॉव की ये हार कितनी बड़ी थी, ये तो आप उनके क़द से ही समझ गए होंगे. लेकिन उनकी हार से भी बड़ी थी IBM के ‘डीप ब्लू’ की जीत. दुनिया भर में हर कोई इस पर बात कर रहा था. ‘वॉशिंटॉन एग्ज़ेमिनर’ ने इन मैचों के सांकेतिक महत्व को बताते हुए एक आर्टिकल लिखा. ‘बी अफ़्रेड’. ये आर्टिकल सचेत करता था कि AI (आर्टीफ़िशियल इंटेलीजेंस) ज़ल्द ही ह्यूमन इंटेलिजेंस को पीछे छोड़ देगा. हालांकि आर्टिकल ये भी कहता था कि यहां पर ‘डीप ब्लू’ के लिए ‘आर्टीफ़िशियल इंटेलीजेंस’ शब्द का इस्तेमाल करना ग़लत रहेगा.
क्यूं? इसका उत्तर जानने के लिए हमें फिर से वही सवाल पूछना होगा, जो शुरू में पार्किंग लॉट में रखा था, कि कंप्यूटर को चेस कैसे सिखाया जा सकता है?
उत्तर है दो माध्यमों से. एक तो प्रोग्रामिंग के माध्यम से, जैसा ‘डीप ब्लू’ को सिखाया गया था. कई तरह के दांव पेंच उसकी मेमोरी में फ़ीड किए गए थे और उसे ‘किस परिस्थिति में कैसे ररिएक्ट करना है’ इसके लिए कई गणनाएं सिखाई गईं. और उसे तेज़ी से गणनाएं करने और चालें चलने के लिए और ज़्यादा, और ज़्यादा, एफ़िशिएंट बनाया गया.

कंप्यूटर को दूसरी तरह से शतरंज सिखाने का माध्यम है, मशीन लर्निंग. मशीन लर्निंग तुलनात्मक रूप से नई, आसान लेकिन लंबी प्रक्रिया है. इसमें क्या किया जाता है कि कंप्यूटर को खेल के सिर्फ़ बेसिक रूल सिखा दिए जाते हैं. फिर कंप्यूटर बाक़ी कंप्यूटर्स से या मानवों से इस खेल को खेलता है, लगातार हारता है. लेकिन हर बार अपनी हार के दौरान अपोनेंट के उन मूव्ज़ को सीखता रहता है, जो उसकी हार का कारण बने. और एक दिन करोड़ों-अरबों गेम खेल चुकने के बाद वो नियर टू परफेक्ट हो जाता है. कंप्यूटर का यही मशीन लर्निंग वाला फिनॉमिना आपको ‘यू-ट्यूब सजेशंस’ से लेकर गूगल ट्रांसलेशन तक में देखने को मिलता है. तो ये मशीन लर्निंग है दरअसल AI का क्लोज़ रिश्तेदार.
और जैसा ‘वॉशिंटॉन एग्ज़ेमिनर’ ने अपने आर्टिकल में प्रेडिक्ट किया था, इसी मशीन लर्निंग के दम पर दुनिया के सबसे मुश्किल गेम ‘गो’ में, दुनिया के सबसे टॉप के खिलाड़ी ‘ली सीडोल’ को गूगल के ‘अल्फ़ा गो’ ने हरा दिया था. 4-1 से. 2016 में. गैरी कैस्पारॉव और डीप ब्लू वाले मैच के ठीक 20 साल बाद. इसलिए ही 2016 के दौरान, ‘अल्फ़ा गो’ वाले मैच को ‘डीप ब्लू’ वाले मैच का रीविज़िट कहा जा रहा था.

इसी साल यानी 2016 में, जब मानवों के ऊपर AI की महत्ता स्थापित हो चुकी थी, तब गैरी कैस्पारॉव ने भी अपने 1996-97 के मैच को रीविज़िट करते हुए कहा था-
"हालांकि मैं IBM को तो प्रेम पत्र अब भी नहीं लिखने जा रहा, लेकिन ‘डीप ब्लू टीम’ के लिए मेरा सम्मान बढ़ता चला गया है. अपने और डीप ब्लू के गेम को लेकर सोचना भी कम होता चला गया है. आज की डेट में आप शतरंज का ऐसा प्रोग्राम खरीद कर अपने लैपटॉप में इंस्टॉल कर सकते हैं, जो डीप ब्लू को आसानी से हरा देगा".