अदावत की शुरुआत की थी औरंगज़ेब ने. जब अजीत सिंह छोटे थे. तो औरंगज़ेब से ये कहते हुए उन्हें राजा मानने से इनकार कर दिया कि उन्हें राजा कि उपाधि सिर्फ़ एक शर्त पे मिलेगी. ये शर्त थी मुस्लिम होना. तब दुर्गादास राठौर ने इनकार कर दिया. और बदले में औरंगज़ेब ने मारवाड़ पर हमला कर दिया. कहानी मशहूर है कि तब अजीत सिंह की धायमाता ने अपने बेटे को अजीत सिंह के स्थान पर रखा और उन्हें लेकर भाग गई. औरंगज़ेब ने भी दाई के बेटे को अज़ीत सिंह बताकर उसका नाम मुहम्मदी राज रख दिया. और उसे मारवाड़ का जागीरदार बना दिया. बाद में अजीत सिंह के बड़े होकर मुग़लों के ख़िलाफ़ जंग छेड़ी और 1708 में मारवाड़ का शासन अपने हाथ में ले लिया.
कहानी और भी रोचक लगेगी जब ये जानेंगे कि इसकी आधी सदी पहले तक मारवाड़ और मुग़लों में गहरी दोस्ती हुआ करती थी. दोस्ती ही नहीं. रिश्तेदारियां भी. दोनों तरफ़ संधियों के चलते कई शादियां हुआ करती थीं. यहां तक कि मारवाड़ के राजा मुग़लों की ओर से लड़ा भी करते थे. फिर ऐसा क्या हुआ कि दिल्ली और मारवाड़ के बीच ऐसी अदावत उपजी कि औरंगज़ेब अजीत सिंह के खून का प्यासा हो गया?
उत्तर बड़ा घिसा पिटा लेकिन हिंदी फ़िल्मों सरीखा एक हिट फ़ॉर्म्युला है. यानी पिता का बदला. पिता का ही नहीं. मां का और भाई का भी. जिसे औरंगज़ेब ने ज़हर बुझी पोशाक पहनाकर मार डाला था. कौन थे अजीत सिंह के पिता और क्या थी उनकी कहानी. आइए जानते हैं. अकबर की बेगम जोधा नहीं थी साल 2008 में एक फ़िल्म आई थी. जोधा अकबर. ह्रितिक और ऐश्वर्या वाली. बाद में एक टीवी सीरियल भी आया इसी नाम से. जिसके अकबर के गले की ख़राश को सुनकर मन करता था कहें, भाई कुछ लेते क्यों नहीं. ह्यूमर असाइड. जोधा-अकबर, कम से कम फिल्म का अधिकतर हिस्सा ऐतिहासिक रूप से देखें तो, सही-सही मालूम पड़ता है.

बादशाह अकबर और मरियम उज़ जमानी (तस्वीर: Wikimedia Commons)
अकबर की तीन रानियों में एक उनकी सबसे फ़ेवरेट थी. सही बात है. लेकिन उनका नाम जोधाबाई नहीं था. वो आंबेर के राजा भारमल की बेटी थीं. उनके जन्म का नाम सही-सही पता नहीं है. लेकिन इतना दर्ज़ है कि जहांगीर के पैदा होने पर अकबर ने उनको एक टाइटल से नवाज़ा था. मरियम उज़-ज़मानी (आज की मरियम). मरियम यीशू मसीह की माता का नाम था.
अकबर के दरबार में एक दरबारी थे अब्दुल कादिर बदायुनी. उन्होंने सम्राट अकबर के शासनकाल के दौरान कई मध्ययुगीन ऐतिहासिक इतिहास लेख लिखे हैं. जैसे 'तारिख-ए-फरिश्ता' और ‘मुंतखब-उत-तवारीख’. इनमें दर्ज़ है कि मरियम उज़ ज़मानी अकबर की पसंदीदा और सबसे प्यारी पत्नी थीं. जहांगीर की आत्मकथा, 'तुज़क-ए-जहांगिरी' में उनका ज़िक्र है. बाद की कुछ किताबों में मरियम उज़ ज़मानी का नाम हरका बाई के नाम से दिया हुआ है. अब सवाल ये कि फिर ये जोधा बाई नाम आया कहां से?
ये नाम पहली बार ब्रिटिश लेखक जेम्स टॉड की किताब, 'राजस्थान के इतिहास और पुरावशेष' में आता है. ये किताब 19 वीं शताब्दी की शुरुआत में लिखी गई थी. दिक़्क़त ये कि पहले तो जेम्स टॉड इतिहासकार नहीं थे और दूसरी ये कि इस नाम से ऐसा लगता है कि मरियम उज़ ज़मानी जोधपुर राजघराने से थी. जबकि उनका सम्बन्ध आंबेर के राजघराने से था. तो फिर जोधाबाई का क्या? नर हो ना निराश करो मन को. थीं एक जोधाबाई. लेकिन वो थी जहांगीर की पत्नी. यानी अकबर की बहू. जिनका सम्बन्ध मारवाड़ घराने यानी (आज के जोधपुर) से था. वो मारवाड़ के राजा उदय सिंह की बेटी और सवाई सूर सिंह की बहन थी. इन सवाई सूर सिंह की शादी हुई कृष्णावती बाई से. जो अकबर की गोद ली हुई बेटी थी. इसके अलावा भी सवाई सूर सिंह की कई रानियां थी. लेकिन चूंकि कृष्णावती के साथ अकबर का नाम जुड़ा था. इसलिए कृष्णावती की औलाद को आगे चलकर मारवाड़ की सत्ता मिली. नाम था राजा गज सिंह.

मारवाड़ के राजा गज सिंह और बेटा जसवंत सिंह (तस्वीर: Wikimedia Commons)
रिश्ते पर गौर फ़रमाइए. सूर सिंह की बहन की शादी हुई अकबर के बेटे जहांगीर से. और अकबर की गोद ली हुई बेटी की शादी सूर सिंह से. जहांगीर का बेटा हुआ ख़ुर्रम (आगे चलकर शाहजहां). यानी राजा गज सिंह और खुर्रम ममेरे भाई हुए.
1622 के आसपास खुर्रम ने जहांगीर से बग़ावत कर दी. तब मारवाड़ राजघराना मुग़ल शासकों से अच्छे संबंध रखता था. जोधाबाई और हरकाबाई की शादी दोनों के बीच हुई संधियों का ही परिणाम थीं. 5 मई 1623 के दिन जहांगीर से महाबत ख़ां और परवेज़ मिर्ज़ा को खुर्रम पर नकेल कसने भेजा. और साथ ही राजा गज सिंह को इस लड़ाई का लीडर नियुक्त किया. जंग के मैदान पर पहुंचे तो शाही सेना और खुर्रम की सेना में जंग छिड़ी. लेकिन लड़ाई से दूर गज सिंह अपने कैम्प में ही बैठे रहे. कारण कि लड़ाई में उनका दिल ना था. खुर्रम उनका ममेरा भाई था. और लड़ाई के बीच में रिश्ता आ रहा था. दूसरी तरफ़ क्या हो रहा था? लीडर ग़ायब. सेना मैदान में. वही हुआ जो हो सकता था. शाही सेना की कमर टूट गई. यहां खुर्रम ने एक गलती कर दी. उसका एक जनरल, भीम सिसोदिया, गज सिंह के पास पहुंचा. उसने गज सिंह को लड़ाई के लिए ललकारा. कायर, भगौड़ा, ना जाने क्या-क्या गाली सुनाई. ये सब सुन गज सिंह का खून खौल उठा और वो जंग के मैदान में पहुंच गए. जीती लड़ाई खुर्रम हार गया.

शाहजहां (खुर्रम) की ताजपोशी (तस्वीर: Royal Collection Trust)
लेकिन खेल दुबारा पलटा, जब 1627 में जहांगीर की मौत हो गई. राज गज सिंह तब दक्कन में ही थे. रिश्ते की दुहाई देते हुए राजा गज सिंह खुर्रम के दरबार में पहुंचे. जो अब तक शाहजहां हो गया था. उसने भी दरियादिली दिखाते हुए गज सिंह को महाराजा की उपाधि दी और उन्हें दक्कन में बीजापुर सल्तनत के ख़िलाफ़ लड़ाई का लीडर नियुक्त किया. साल 1638 में महाराजा गज सिंह की मृत्यु हुई तो मारवाड़ की गद्दी मिली जसवंत सिंह को.
यहां से इतिहास खुद को दोहराता है. शाहजहां का बेटा यानी औरंगज़ेब भी उसी तरह बग़ावत में उतरा जैसे कभी शाहजहां उतरा था. 14 जुलाई के एपिसोड में हमने आपको बताया था कि किस प्रकार 1658 में औरंगज़ेब से दक्कन की सूबेदारी छीन ली गई थी. जिसके बाद उसने आगरा पर चढ़ाई करने के लिए अपने कैम्पेन की शुरुआत कर दी थी. शाहजहां बूढ़ा हो चला था. इसलिए दारा शिकोह ने सेना की कमान अपने हाथों में ली और रजवाड़ों को औरंगज़ेब का क़ाफ़िला रोकने भेजा. कमान सौंपी गई राजा जसवंत सिंह को. बिलकुल उसी तरह जैसे कभी उनके पिता राजा गज सिंह को शाहजहां को रोकने के लिए भेजा गया था. धर्मतपुर की जंग अप्रैल 1658 में जसवंत सिंह आगरा से निकलते हैं. और उज्जैन से 20 किलोमीटर दूर धर्मतपर में वो अपना डेरा जमाते हैं. ताकि औरंगज़ेब को आगरा से पहले ही रोक सकें. शाही सेना बहुत ताकतवर थी. धिक सम्भावना यही थी कि औरंगजेब उनके सामने कहीं ना ठहरता. लेकिन उनसे ये गलती हो गई कि धर्मतपुर में जसवंत सिंह ने बहुत टाइम वेस्ट कर दिया. उन्होंने इनिशिएटिव नहीं लिया और दिन बीतते गए. इस दौरान हुआ ये कि औरंगजेब का भाई मुराद भी अपनी सेना लेकर उज्जैन पहुंच गया.
दिक़्क़त की बात ये नहीं थी कि जसवंत सिंघ ने सिर्फ़ डिफ़ेंस के लिए डेरा जमाया. ज़्यादा बड़ा कारण ये था कि वो जानबूझकर मुराद के आने का इंतज़ार कर रहे थे. तब रजवाड़ों की आपसी रंजिश में हर कोई अपना क़द बढ़ाना चाहता था. ज़्यादा आसार इसी के थे कि शाहजहां के बाद दारा शिकोह आगरे की गद्दी पर बैठते. इसीलिए जसवंत सिंह को लगा कि शाही सेना के बल पर वो दारा शिकोह के दोनों दुश्मन, मुराद और औरंगज़ेब को एक साथ निपटा देंगे. और दारा की नज़र में और ऊंचे हो जाएंगे.

औरंगज़ेब और दारा शिकोह के बीच युद्ध (तस्वीर: Wikimedia Commons)
10 अप्रैल के रोज़ आगरा से मुग़ल जनरल क़ासिम खान को भेजा गया. ताकि वो जसवंत की मदद करे. लेकिन औरंगज़ेब ने पद और पैसे का लालच देकर उसे भी ख़रीद लिया. जंग शुरू होने से ठीक पहले क़ासिम खान औरंगज़ेब से जा मिला. जसवंत सिंह की सेना सिर्फ़ 8 हज़ार की रह गई. उन्होंने रतलाम के शासक राना रतन सिंह राठौर से मदद मांगी. और जंग में कूद गाए. 15 अप्रैल के रोज़ ये जंग हुई. जसवंत सिंह के सलाहकारों ने उनसे कहा कि अगर वो रात में हमला करें तो जीत सकते हैं. औरंगज़ेब की सेना में ज़्यादा आर्टिलरी और हेवी केवेलरी यानी बख़्तरबंद घुड़सवार सेना थी. इसके बरअक्स राजपूत सेना लगभग पूरी ही लाइट केवेलरी यानी हल्के हथियारों वाली घुड़सवार सेना थी.
रात में हमला होता तो जसवंत की लाइट केवेलरी को फ़ायदा मिलता. रात के अंधेरे में आर्टिलरी से निशाना लगाना मुश्किल होता और औरंगज़ेब की हेवी आर्टिलरी तेज़ी से मूव नहीं कर पाती. ये सब होता लेकिन होता तब जब जसवंत सिंह मानते. इसके बजाय उन्होंने जवाब दिया, ‘रात में हमला करना राजपूतों की आन बान शान के ख़िलाफ़ है.'
फिर क्या था. बस आन बान शान ही बची. 6000 सेना को औरंगज़ेब की सेना ने काट डाला. सिर्फ़ 600 सिपाही लेकर जसवंत सिंह को वहां से जान बचाकर भागना पड़ा. रतलाम के राजा रतन सिंह राठौर भी इस युद्ध में मारे गए. इस जंग के बाद एक आख़िरी जंग मई 1658 में दारा शिकोह और औरंगजेब के बीच हई. कैसे औरंगज़ेब जीता, उसने दारा शिकोह के साथ क्या सलूक किया. नीचे दिए लिंक में पढ़ें.
यहां पढ़ें- क़ैदी शाहजहां अपने बेटे औरंगजेब का गिफ्ट खोलते ही बेसुध क्यों हो गया?
ज़हर बुझी पोशाक इस लड़ाई के बाद राजा जसवंत सिंह अपने सैनिकों के साथ किले पर पहुंचे. इस घटना के लिए एक लोककथा मशहूर है. ऐतिहासिक रूप से कितनी प्रामाणिक है, नहीं कहा जा सकता. कहानी कहती है कि जसवंत सिंह किले में पहुंचते हैं तो रानी पहले तो दरवाज़ा ही नहीं खोलती. फिर बड़ी मुश्किल से दरवाज़ा खुलता है और जसवंत सिंह अपने महल में घुस पाते हैं. इसके बाद आती है खाने की बारी. भोजन तो रोज़ की ही तरह राजाओं वाला आता है लेकिन जसवंत सिंह देखते हैं कि खाना लकड़ी के बर्तनों में परोसा गया है. रोज़ चांदी के बर्तनों में खाने वाला राजा सवाल करता है, ये लड़की के बर्तन में खाना क्यों ?

राजा जसवंत सिंह और औरंगज़ेब (तस्वीर: Wikimedia Commons)
तो रानी जवाब देती है,
"लकड़ी के बर्तन में इसलिए कि चांदी के बर्तनों से जो आवाज़ होती वो आपको डरा देती".रानी जंग में हार जाने के लिए जसवंत सिंह को उलाहना दे रही थी. इसके बाद जसवंत सिंह बदला लेने की ठानते हैं. और अपने बेटे पृथ्वी राज सिंह को इसके लिए तैयार करते हैं. मारवाड़ ख्यातों (एक क़िस्म की लोक गाथा) में ज़िक्र है कि औरंगज़ेब पृथ्वी राज को दिल्ली बुलाते हैं और उसे वहां एक पोशाक तोहफ़े में देते हैं. पृथ्वी राज पोशाक पहनता है तो उसकी तबीयत बिगड़ने लगती है. और 8 मई 1867 के रोज़ उसकी दर्दनाक मौत हो जाती हैं, पता चलता है कि औरंगज़ेब ने जो पोशाक दी वो ज़हर से लेस की हुई थी.
अपने एकमात्र बेटे को खोकर जसवंत सिंह बेसुध हो जाते हैं. और तब से लेकर अपनी मृत्यु तक इस शॉक से नहीं उबर पाते. उन्हें सबसे बड़ा ग़म था कि सिर्फ़ एक ही लड़का था जो कि बदला ले सकता था और वो भी मर चुका था. इसी ग़म में आज ही के दिन यानी 28 दिसम्बर 1678 में पेशवार में जसवंत सिंह की मृत्यु हो जाती है.
जसवंत सिंह की मृत्यु के वक्त उनकी दो रानियां पेट से थीं. इनमें से एक से राजा अजीत सिंह पैदा हुए थे. जिनकी कहानी हमने शुरुआत में सुनाई थी. और इसके बाद मुग़ल और रजवाड़ों में अदावत का एक नया दौर शुरू होता है. जो मुग़ल सूरज के डूबने पर जाकर ख़त्म हुआ.