लोग इतिहास में मशगूल हैं और इतिहास अभी यहीं से होकर गुजर रहा है.जैसे साइंस में एक शाखा होती है, अप्लाइड साइंस. वैसे ही कहावतें भी यदा-कदा अप्लाइड बन जाती हैं. जैसे 2018 में ये कहावत बन गई थी. उस साल एक फ़िल्म रिलीज़ होने जा रही थी, पद्मावती. संजय लीला भंसाली द्वारा निर्देशित. लोगों को लगा इतिहास से छेड़छाड़ हो रही है. हिपॉक्रसी की सीमा पार हो चुकी थी लेकिन बर्दाश्त करने की सीमा पर कर्णी सेना के जवान तैनात थे. फ़िल्म की अभिनेत्री दीपिका पादुकोण की नाक पर लाखों का इनाम रखा गया.
इतिहास फिर इतिहास है. जो हो गया सो हो गया. उसे निशाना बनाया जाना कठिन था. सो ग्रामर से बदला लेने की ठानी गई. नाक कटी लेकिन फ़िल्म के नाम की. भंसाली ने ई की मात्रा काट कर दे दी. फ़िल्म का नाम हो गया पद्मावत. असली पद्मावत लिखी गई थी 1540 में. लिखने वाले थे मलिक मुहम्मद जायसी. जायसी इतिहासकार नहीं थे. सूफ़ी कवि थे. जायसी ने जो लिखा, उसे अधिकतर इतिहासकार सिर्फ़ एक रूपक मानते हैं. लेकिन फ़ीलिंग्स को कौन समझाए. हर्ट होने के लिए होती हैं, सो हो गईं.
पद्मावत को सच माने या सिर्फ़ एक रूपक. लेकिन अलाउद्दीन खिलजी हक़ीक़त में था. और अलाउद्दीन खिलजी की कहानी को जानने के लिए ज़रूरी है अली गुर्शस्प की कहानी जानना. कौन अली गुर्शस्प? ख़िलजी सल्तनत को खड़ा करने वाले शख़्स का नाम था. जलालुद्दीन ख़िलजी. 1290 में वो दिल्ली के तख़्त पर क़ाबिज़ हुआ. इससे पहले दिल्ली पर तुर्कों का शासन हुआ करता था. जलालुद्दीन भी तुर्की ही था लेकिन उसके पूर्वजों ने 200 साल अफ़ग़ानिस्तान में गुज़ारे थे. इसलिए हिंदुस्तान के तुर्क उसे बादशाह मानने से इनकार कर रहे थे. 1291 में जलालुद्दीन के ख़िलाफ़ बग़ावत की पहली आग भड़की.

जलालुद्दीन ख़िलजी (तस्वीर: wikimedia)
कहां- कड़ा में. जो प्रयागराज से क़रीब 70 किलोमीटर दूर एक रियासत हुआ करती थी. कड़ा के गवर्नर का नाम था, मलिक छज्जु. सुल्तान ने बग़ावत रोकने के लिए अपने भतीजे अली गुर्शस्प को कड़ा भेजा. अली गुर्शस्प ने कड़ा पर चढ़ाई की और कुछ ही दिनों में कड़ा का विद्रोह ठंडा पड़ गया. खुश होकर जलालुद्दीन ने अली गुर्शस्प को कड़ा का गवर्नर नियुक्त कर दिया.
मलिक छज्जु ने जिन्हें अमीर (उन दिनों अमीर एक राजनैतिक पदवी हुआ करती थी ) बना रखा था वो अली गुर्शस्प के साथ हो लिए. अमीरों को बग़ावत करने से मतलब था. मलिक छज्जु नहीं तो अली गुर्शस्प ही सही. उन्होंने अली गुर्शस्प को दिल्ली तख़्त के ख़िलाफ़ भड़काना शुरू कर दिया. अली गुर्शस्प को जलालुद्दीन से कोई ख़ास दिक़्क़त नहीं थी. लेकिन उसके परिवार वालों से उसकी एक ना बनती थी.
दरअसल जलालुद्दीन की पत्नी यानी दिल्ली की रानी को अली गुर्शस्प फूटी आंख नहीं सुहाता था. एक तो वो इस बात से ख़फ़ा थी कि बादशाह ने अपनी बेटी मल्लिका-ए जहां की शादी अली गुर्शस्प से कर रखी थी. दूसरा अली गुर्शस्प बादशाह के बड़े बेटे का भाई था. इसलिए रानी को लगता था कि अली गुर्शस्प की नज़र हमेशा दिल्ली के तख़्त पर रहेगी.
17 वीं शताब्दी के इतिहासकार हाजी उद दबीर के अनुसार अली गुर्शस्प अपनी शादी से क़तई खुश नहीं था. अली गुर्शस्प ने इसी के चलते महरू नाम की एक लड़की से दूसरी शादी कर ली. मल्लिका-ए जहां इस बात से इतनी ख़फ़ा हुई कि एक दिन जब महरू और अली गुर्शस्प बाग में बैठे हुए थे, तो मल्लिका-ए जहां ने महरू पर हमला कर दिया. मामला इतना बढ़ा कि बादशाह को बीच बचाव के लिए आना पड़ा. अली गुर्शस्प की बग़ावत बहरहाल इन्हीं पारिवारिक कारणों के चलते अली गुर्शस्प बग़ावत को तैयार हो गया. लेकिन दिल्ली सल्तनत से लोहा लेना आसान नहीं था. फ़ौज और पैसे की ज़रूरत थी. पहली बग़ावत भी इन्हीं की कमी के चलते फेल हुई थी. इसके अलावा एक ख़तरा और था. अगर बादशाह को बग़ावत की खबर हुई तो विद्रोह शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो सकता था.

2018 में रिलीज़ हुई फिल्म पद्मावत में अलाउद्दीन का किरदार रणवीर सिंह ने निभाया था (तस्वीर: wikimedia और IMDB)
अली गुर्शस्प ने एक-एक कदम फूंक -फूंक कर रखने की ठानी. उसने आसपास के हिंदू राज्यों की तरफ़ निगाह की. सबसे पहले उसने मालवा में भिलसा पर हमला किया और वहां से उसे खूब धन दौलत हासिल हुई. अगला निशाना थे दक्कन के यादव. जिनके वैभव से सामने भिलसा की दौलत भी फीकी थी.
यादवों पर हमला करने से पहले अली गुर्शस्प ने एक प्लान बनाया. दिल्ली में सुल्तान को कोई शक ना हो इसलिए उसने भिलसा की दौलत दिल्ली दरबार को सौंप दी और यादवों के बारे में कुछ नहीं बताया. खुश होकर जलालुद्दीन ने अली गुर्शस्प को युद्ध मंत्री और अवध का गवर्नर बना दिया. इतना ही नहीं जलालुद्दीन ने अली गुर्शस्प को रेवेन्यू का एक हिस्सा भी सौंपा ताकि वो अपनी सेना में और लोगों को भर्ती कर सके.
कुछ साल इंतज़ार करने के बाद 1296 में अली गुर्शस्प ने यादवों की राजधानी देवागिरी पर हमला किया. देवागिरी लूटकर उसे बहुत से हाथी-घोड़े और दौलत हासिल हुई. जलालुद्दीन के पास इस लूट की खबर पहुंची तो वो इस उम्मीद में ग्वालियर पहुंचा कि अली गुर्शस्प लूट लेकर उसके सामने हाज़िर होगा. जलालुद्दीन की पहली गलती अली गुर्शस्प का इरादा कुछ और था. वो लूट का सामान लेकर सीधे कड़ा की ओर निकल गया. जलालुद्दीन के सलाहकारों ने उसे समझाया कि कड़ा पहुंचने से पहले चन्देरी में ही उसे रोक लिया जाए. लेकिन जलालुद्दीन को अपने भतीजे पर पूरा भरोसा था. वो बिना कोई कार्यवाही किए दिल्ली लौट गया. कड़ा पहुंच कर अली गुर्शस्प ने सुल्तान को एक चिट्ठी भेजी. जिसमें उसने लिखा कि उसकी अनुपस्थिति में दुश्मनों ने बादशाह के कान भरने की कोशिश की है. और वो जल्द ही लूट का सामान लेकर बादशाह के आगे हाज़िर होगा.
साथ ही उसने लिखा कि बादशाह एक माफ़ीनामे पर दस्तख़त कर उसके पास भिजवा दे ताकि दिल्ली आने में उसे कोई दिक़्क़त ना हो. बादशाह ने कहे मुताबिक़ माफ़ीनामा भिजवा दिया. सलाहकारों ने बादशाह को समझाया कि कम से कम कुछ दूत कारा भिजवाए जाने चाहिए ताकि हालात का जायज़ा लिया जा सके.

अलाउद्दीन का रणथम्बोर आक्रमण (तस्वीर: wikimedia)
दूत कड़ा पहुंचे तो उन्हें अली गुर्शस्प के प्लान का पता चला. इसकी खबर बादशाह तक पहुंचती, इससे पहले ही दूतों को गिरफ़्तार कर लिया गया. अब जलालुद्दीन को अली गुर्शस्प पर कुछ शक हुआ. तब अली गुर्शस्प के छोटे भाई अल्मस बेग ने सुल्तान को भरोसा दिलाया कि अली गुर्शस्प अभी भी वफ़ादार है. उसने सुल्तान से कहा कि अली गुर्शस्प शर्मिंदा है और अगर वो खुद कारा जाकर अली गुर्शस्प को माफ़ नहीं करेंगे तो वो आत्महत्या कर लेगा. जलालुद्दीन की आख़िरी गलती अली गुर्शस्प की चाल सफल हो गई. सुल्तान ने अपनी सेना लेकर कड़ा की ओर कूच किया. क़िस्मत मेहरबान तो गधा पहलवान. सुल्तान ने कारा ने नज़दीक पहुंचकर एक और बड़ी गलती की. उसने सेना का बड़ा हिस्सा अहमद चाप के साथ ज़मीनी रास्ते से कारा की ओर भेजा. और खुद गंगा नदी पार कर सिर्फ़ हज़ार सैनिकों के साथ अली गुर्शस्प से मिलने पहुंचा.
शिविर में गले मिलने के बहाने ने अली गुर्शस्प ने जलालुद्दीन की पीठ में छुरा भोंक दिया. और उस दिन के बाद अली गुर्शस्प, अली गुर्शस्प ना रहा. तारीख़ थी 16 जुलाई 1296. उसने खुद को बादशाह घोषित कर अलाउद्दीन की पदवी दे दी. और उसका नाम हो गया अलाउद्दीन ख़िलजी.
उधर अहमद चाप को जलालुद्दीन की मौत का पता चला तो वो बाकी सेना लेकर दिल्ली लौट गया. उसे पता था अलाउद्दीन अब दिल्ली की ओर कूच करेगा, इसलिए उसने दिल्ली पहुंचकर जंग की तैयारी करने की सोची.
कड़ा में अलाउद्दीन ने जलालुद्दीन का सिर काटकर एक भाले पर लटकाया और उसे पूरे शहर में घुमाया. अगला चरण था दिल्ली पर चढ़ाई. लेकिन दिल्ली कूच करने से पहले उसे एक और चीज़ की ज़रूरत थी. जनता की वफ़ादारी. खुद को एक उदार बादशाह दिखाने के लिए उसने धन दौलत की बारिश कर दी. जनता में लगभग 200 किलो सोना बंटवाया गया. दिल्ली पर कूच अगस्त 1296 में वो दिल्ली की ओर रवाना हुआ लेकिन गंगा और यमुना नदी में बाढ़ के कारण उसे बीच में ही पड़ाव डालना पड़ा. इस बीच वो जिस शहर से गुजरता, लोगों में मुनादी करवाता कि जो सेना में शामिल होगा, उसे एक मन सोना दिया जाएगा. दक्कन से लूटी हुई धन दौलत यहां उसके काम आ रही थी. बदायूं पहुंचने तक उसकी सेना में 60 हज़ार सैनिक और 56 हज़ार घुड़सवार जमा हो चुके थे.

मालिक मुहम्मद जायसी ने 1540 में पद्मावत लिखी थी (तस्वीर: wikimedia)
उधर दिल्ली में जलालुद्दीन की जगह उसके छोटे बेटे कद्र ख़ां ने ले ली थी. कद्र ख़ां का बड़ा भाई अरकली ख़ां मुल्तान में गवर्नर तैनात था. हिसाब से गद्दी उसे मिलनी थी. लेकिन रानी ने कद्र ख़ां को बादशाह बना दिया. इस गलती का रानी को तब अहसास हुआ, जब अलाउद्दीन ने 30-30 मन सोना देकर जलालुद्दीन के बहुत से वफ़ादारों को अपनी तरफ़ कर लिया. ये देखकर रानी ने अरकली ख़ां से मदद मांगी. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी.
अलाउद्दीन की सेना शहर में प्रवेश कर चुकी थी. कद्र ख़ां ने फ़ौज लेकर उससे लड़ाई करने की ठानी, लेकिन जंग की पहली रात ही उसकी आधी सेना अलाउद्दीन के कैम्प में शामिल हो गई. अंत में निराश होकर कद्र ख़ां अपनी मां और परिवार लेकर मुल्तान भाग गया. इसके बाद आज ही दिन यानी 21 अक्टूबर 1296 को अलाउद्दीन ख़िलजी का राज्याभिषेक हुआ और वो दिल्ली के तख़्त पर क़ाबिज़ हो गया.
इसके बाद शुरू हुई बाकी की कहानी जिस पर सारा हंगामा था. पद्मावत की असलियत 1303 में अलाउद्दीन ख़िलजी ने चित्तौड़गढ़ के किले पर आक्रमण किया. तब मेवाड़ के राजा रतन सिंह रावल को गद्दी सम्भाले सिर्फ़ एक साल हुआ था. इस जंग में अलाउद्दीन ने आसानी से जीत हासिल कर ली. चित्तौड़गढ़ अभियान का एकमात्र ज़िक्र अमीर ख़ुसरो के लिखे में मिलता है, जिसमें इसे बस एक सैनिक अभियान की तरह दर्ज किया गया है. ख़ुसरो ने किसी भी रानी पद्मिनी की कोई चर्चा नहीं की है.
मलिक मोहम्मद जायसी ने इसके 237 साल बाद पद्मावत लिखी. कुछ ख़ास इंट्रो ना देते हुए जायसी सीधे पद्मिनी की कहानी पर आते हैं. जो श्रीलंका के राजपूत राजा हमीर शंक चौहान की बेटी थी. बोलने वाले तोते पर हमें कोई शक नहीं है. लेकिन श्रीलंका में राजपूतों के राज्य की बात एकदम ही बेमानी है. इसकी पुष्टि कभी किसी इतिहासकार ने नहीं की है.
अलाउद्दीन ख़िलजी के शासन की कई तरह से विवेचना की जा सकती है. धर्म के आधार पर जनता को निशाना बनाए जाने की कई घटनाएं भी तथ्यपरक हैं. लेकिन इसके लिए पद्मावत का सत्य होना क्यों ज़रूरी है. ये सवाल गले नहीं उतरता.