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तालिबान कैसे बना दुनिया का पांचवां अमीर आतंकी संगठन, क्या है इसकी कमाई का जरिया?

नशे को इस्लाम के खिलाफ बताने के बाद भी अफीम की तस्करी क्यों करता है तालिबान?

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काबुल स्तिथ अफगान राष्ट्रपति भवन पर कब्जा जमाने के बाद तालिबान (Taliban) के लड़ाके. (फोटो: एपी)
अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे को दो दिन हो चुके हैं. अपनी कट्टर इस्लामिक विचारधारा के लिए जाना जाने वाला यह संगठन अब देश में सरकार बनाने की तैयारी कर रहा है. अफगानिस्तान के लोग तालिबान के डर से लगातार देश छोड़कर भाग रहे हैं. दूसरी तरफ, आलोचनाओं के बीच अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाने के अपने फैसले को एक बार फिर से सही ठहराया है. वहीं रूस, चीन और पाकिस्तान जैसे देशों ने तालिबान के साथ दोस्ताना रिश्ते बनाकर रखने की बात कही है. इस बीच विदेशों राजनयिकों और नागरिकों को अफगानिस्तान से निकालने के लिए रेस्क्यू ऑपरेशन चलाए जा रहे हैं.
सबसे पहले साल 1996 में तालिबान अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज हुआ था. उसने पांच साल तक अफगानिस्तान पर राज किया. साल 2001 में 9/11 के हमले के बाद अमेरिकी सैनिकों ने तालिबान को सत्ता से हटा दिया. हालांकि, अफगानिस्तान के ग्रामीण इलाकों में तालिबान ने खुद को संगठित बनाए रखा. वक्त के साथ-साथ यह और मजबूत हो गया. आर्थिक और सांगठनिक, दोनों रूप में. जिसका परिणाम यह है कि अमेरिकी सैनिकों के वापस जाने की घोषणा के कुछ महीने के भीतर ही तालिबानी लड़ाकों ने पूरे अफगानिस्तान को अपने नियंत्रण में ले लिया. पांचवां सबसे अमीर आतंकी संगठन सत्ता में न रहते हुए अपने संगठन को चलाने और लगातार उसका विस्तार करने के लिए तालिबान ने अलग-अलग स्रोतों से कमाई की. इसमें अफीम की खेती से लेकर तस्करी और माइनिंग से हुई कमाई शामिल है. साल 2016 में फोर्ब्स पत्रिका ने सबसे अमीर आतंकी संगठनों की एक लिस्ट निकाली थी. इस लिस्ट में तालिबान पांचवें स्थान पर था. सबसे ऊपर ISIS को जगह मिली थी. फोर्ब्स की लिस्ट के मुताबिक जहां ISIS सालाना दो अरब डॉलर का टर्नओवर कर रहा था, वहीं तालिबान 400 मिलियन डॉलर यानी करीब 2900 करोड़ रुपये का.
अगले चार साल में तालिबान की कमाई में बहुत तेजी से बढ़ोतरी हुई. नाटो की एक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2019-20 में तालिबान का बजट 1.6 अरब डॉलर यानी करीब 11 हज़ार करोड़ रुपये का रहा. 2016 की तुलना में चार गुना अधिक. इस कमाई का एक बड़ा हिस्सा माइनिंग और अफीम की खेती से आया. इसके अलावा संगठन को विदेशी फंड भी मिला. रियल एस्टेट और अपनी समांनांतर टैक्स व्यवस्था से भी संगठन ने करीब 240 मिलियन डॉलर यानी करीब 1700 करोड़ रुपये की कमाई की.
कतर की राजधानी दोहा के एक होटल में Taliban प्रतिनिधि दल का प्रमुख अब्दुल सलाम हनाफी (दाईं तरफ) दूसरी तालिबान सदस्यों के साथ. (फोटो: एएफपी)
कतर की राजधानी दोहा के एक होटल में तालिबान (Taliban) प्रतिनिधि दल का प्रमुख अब्दुल सलाम हनाफी (दाईं तरफ) दूसरी तालिबान सदस्यों के साथ. (फोटो: एएफपी)

अफगानिस्तान दुनिया का सबसे बड़ा अफीम निर्यातक है. अनुमानों के मुताबिक, अफगानिस्तान से हर साल डेढ़ से तीन अरब डॉलर (लगभग 11 से 22 हज़ार करोड़ रुपये) की अफीम निर्यात होती है. बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक, अफीम की खेती पर अफगानिस्तान की सरकार के मुकाबले तालिबान का नियंत्रण अधिक रहा और उसने अलग-अलग स्तरों पर टैक्स लगाकर खूब कमाई की.
रिपोर्ट कहती है कि तालिबान सबसे पहले तो अफीम उगाने वाले किसानों पर 10 फीसदी टैक्स लगाता है. फिर इस अफीम को हेरोइन में बदलने वालों पर भी टैक्स लगता है. और फिर आखिर में इस हेरोइन का बिजनेस करने वालों को भी टैक्स देना पड़ता है. अनुमान है कि इस पूरे उपक्रम से तालिबान को सालाना 100 मिलियन डॉलर से 400 मिलियन डॉलर  (लगभग 700 से 2900 करोड़ रुपये) की कमाई होती है. समांनांतर टैक्स व्यवस्था अमेरिकी मिलिट्री ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि तालिबान की कमाई का 60 प्रतिशत हिस्सा अफीम को हेरोइन में बदलने वाली लैब्स से आता है. ऐसे में अमेरिकी सैनिकों ने इन लैब्स पर एक के बाद एक ताबड़तोड़ एयरस्ट्राइक कीं. हालांकि, ये मेकशिफ्ट लैब्स थीं. नष्ट होने के तुरंत बाद इन्हें फिर से खड़ा कर लिया गया.
जैसा कि ऊपर बताया गया कि साल 2001 में अमेरिकी सैनिकों ने तालिबान को अफगानिस्तान के प्रमुख शहरों से खदेड़ दिया था. लेकिन, ग्रामीण इलाकों में तालिबान की उपस्थिति बनी रही. बीबीसी की रिपोर्ट बताती है कि साल 2018 में तालिबान का 70 फीसदी अफगानिस्तान पर इतना नियंत्रण था कि वो वहां अपनी समांनांतर शासन व्यवस्था चला रहा था.
तालिबान (Taliban) की कमाई का एक बड़ा हिस्सा अफीम की खेती, हेरोइन निर्माण और उसकी तस्करी से आता है.
तालिबान (Taliban) की कमाई का एक बड़ा हिस्सा अफीम की खेती, हेरोइन निर्माण और उसकी तस्करी से आता है.

इस समांनांतर शासन व्यवस्था के तहत तालिबान टैक्स भी लेता था. अफगानी व्यापारियों को तालिबान के नियंत्रण वाले इलाकों से गुजरने पर संगठन को टैक्स देना पड़ता था. इस तरह की टैक्स व्यवस्था से भी तालिबान ने खूब कमाई की. दूसरी तरफ टेलीकम्युनिकेशन और मोबाइल फोन ऑपरेटर्स से भी तालिबान को पैसे मिले. अफगानिस्तान इलेक्ट्रिसिटी कंपनी के मुताबिक, तालिबान ने इलेक्ट्रिक बिल बनाकर दो मिलियन डॉलर की दर से कमाई की. माइनिंग और विदेशी फंडिग से कमाई अफगानिस्तान खनिजों के मामले में बहुत समृद्ध देश है. अनेक आर्थिक अनुमानों के मुताबिक, अफगानिस्तान में खनिज क्षेत्र की कीमत लगभग एक अरब डॉलर आंकी गई है. हालांकि, ज्यादातर खनिज अभी छोटे स्तर पर और गैरकानूनी तरीके से ही होता है. इसी गैरकानूनी माइनिंग का फायदा तालिबान ने उठाया. संयुक्त राष्ट्र की एनालिटिकल सपोर्ट एंड सैंक्सन्स मॉनीटरिंग रिपोर्ट, 2014 के मुताबिक तालिबान ने दक्षिणी हेलमंद में चलने वाले 25 से 30 गैरकानूनी माइनिंग ऑपरेशन के जरिए हर साल 10 मिलियन डॉलर (करीब 74 करोड़ रुपये) की कमाई की. बताया गया कि तालिबान खनिज ले जाने वाले प्रत्येक ट्रक के एवज में 500 डॉलर (37 हज़ार रुपये) वसूलता है.
नाटो की रिपोर्ट के मुताबिक, पूरे देश में माइनिंग के जरिए तालिबान को हर साल लगभग 460 मिलियन डॉलर (करीब 3400 करोड़ रुपये) की कमाई होती है. इसके अलावा यही रिपोर्ट बताती है कि निर्यात के जरिए भी तालिबान हर साल लगभग 240 मिलियन डॉलर (1700 करोड़ रुपये) की कमाई करता है.
अवैध माइनिंग वाले क्षेत्रों में नियंत्रण स्थापित करके तालिबान (Taliban) ने मोटी कमाई की.
अवैध माइनिंग वाले क्षेत्रों में नियंत्रण स्थापित करके तालिबान (Taliban) ने मोटी कमाई की.

विदेशों से भी तालिबान को फंडिंग मिलती रही है. अमेरिका और अफगानिस्तान के अधिकारी समय-समय पर पाकिस्तान, ईरान और रूस पर तालिबान को फंड देने का आरोप लगाते रहे हैं. दूसरी तरफ यह बात भी सामने आई है कि लोगों ने निजी तौर पर भी तालिबान को पैसे दिए हैं. ऐसे लोग मुख्य तौर पर पाकिस्तान, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और कतर से संबंध रखते हैं. CIA की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि साल 2008 में तालिबान को खाड़ी देशों से लगभग 700 करोड़ रुपये फंड के तौर पर मिले. फिलहाल अनुमान है कि तालिबान को हर साल 250 से 500 मिलियन डॉलर (करीब 1800 से 3700 करोड़ रुपये) का विदेशी फंड मिलता है. 1996-2001 के दौरान तालिबान का आर्थिक मॉडल साल 1996 से 2001 के बीच तालिबान ने अफगानिस्तान पर शासन किया. इस दौरान उसने किस आर्थिक मॉडल को अपनाया. इस सवाल का जवाब जानने के लिए अफगानिस्तान में सोवियत संघ और उसके बाद के उथल-पुथल के दौर के आर्थिक मॉडल को जानना जरूरी है. स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट ने साल 2015 में अफगानिस्तान के प्राइवेट इकॉनमिक सेक्टर पर एक विस्तृत रिपोर्ट जारी की थी. इस रिपोर्ट में अलग-अलग समय पर अफगानिस्तान के आर्थिक मॉडल का जिक्र है.
सोवियत दौर के दौरान आर्थिक मॉडल के बारे में रिपोर्ट कहती है कि सशस्त्र संघर्ष के कारण आर्थिक गतिविधियां लगातार धीमी पड़ती जा रही थीं. खासकर खेती पर बहुत बुरा असर पड़ रहा था. इससे खाद्य पदार्थों की भारी कमी हो गई थी. ऐसे में सोवियत संघ की तरफ से अफगानिस्तान को काफी फंड दिया गया. दूसरी तरफ, अफगानिस्तान का व्यापार भी सोवियत ब्लॉक की तरफ केंद्रित हो गया. इस बीच सोवियत संघ की देखरेख में चल रही सरकार ने अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था को सोवियत संघ की ही तर्ज पर विकसित करने की कोशिश की. हालांकि, निजी क्षेत्र की आर्थिक गतिविधियों पर रोक नहीं लगाई गई.
सोवियत संघ के रहते हुए अफगानिस्तान में प्राकृतिक गैस सेक्टर का काफी विकास हुआ. अफगानिस्तान के लोगों के लिए रोजगार के मौके पब्लिक सेक्टर में बने. हालांकि, सोवियत सेक्टर के जाते-जाते देश में अराजकता बढ़ती गई और अवैध इकॉनमी फलने फूलने लगी. इसी दौरान अफगानिस्तान के वारलॉर्ड्स हथियारों और ड्रग्स की तस्करी में भी लिप्त हो गए.
तालिबान (Taliban) ने अपने शासन में गैरकानूनी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया. हालांकि, दूसरी तरफ पहले के मुकाबले उथल-पुथल कम हो जाने से कृषि क्षेत्र में उत्पादन बढ़ा. (प्रतीकात्मक फोटो: कॉमन सोर्स)
तालिबान (Taliban) ने अपने शासन में गैरकानूनी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया. हालांकि, दूसरी तरफ पहले के मुकाबले उथल-पुथल कम हो जाने से कृषि क्षेत्र में उत्पादन बढ़ा. (प्रतीकात्मक फोटो: कॉमन सोर्स)

1980 से 1990 के बीच अफगानिस्तान में अफीम का उत्पादन बहुत तेजी से बढ़ा. इस उत्पादन का फायदा अफगानिस्तान के किसानों को भी हुआ. दूसरी तरफ वॉरलॉर्ड्स ने इस पैसे से अपने लिए हथियार खरीदे. एक लंबे समय तक अफीम उत्पादन अफगानिस्तान की अर्थव्यस्था का आधार रहा. 1990 के दौर में अफगानिस्तान दुनिया भर की अफीम का 80 फीसदी उत्पादन कर रहा था.
तालिबान ने अपने शासनकाल में इसी गैरकानूनी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया. प्राइवेट सेक्टर में निवेश करने की कोई कोशिश नहीं की. हालांकि, लड़ाई बंद हो जाने के बाद कृषि जैसी गतिविधियां फिर से फली फूली. अफीम के खिलाफ नैतिक रुख अपनाने के बाद भी तालिबान ने ड्रग तस्करी को राजस्व का बड़ा हिस्सा बनाया. हेलमंद और कांधार में तालिबान ने रिकॉर्ड स्तर पर अफीम का उत्पादन कराया और जमकर तस्करी की. यही नहीं, तालिबान ने अफीम उत्पादन को मुख्य इलाकों से प्रांतीय क्षेत्रों में भी शिफ्ट कर दिया. महज ड्रग्स तस्करी के जरिए तालिबान ने सालाना दो अरब डॉलर (करीब 14 हज़ार करोड़ रुपये) की कमाई की.
तालिबान के शासन के दौरान कृषि क्षेत्र में सुधार हुआ. 1988 से 2001 के बीच अनाज और लाइवस्टॉक प्रोडक्ट्स का उत्पादन बढ़ा. लेकिन साल 2001 में पड़े सूखे से स्थितियां फिर से पहले जैसी हो गईं. देश में एक बार फिर से खाद्य पदार्थों का संकट उत्पन्न हो गया. 2001 में अमेरिका के आ जाने के बाद कई देशों ने अफगानिस्तान को फंड दिया. जिससे एक बड़े स्तर पर इस संकट से उबरने में मदद मिली.

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