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अमरीका ने जिसे ग्लोबल टेररिस्ट बताया, वो भारत में माननीय विधायक होते-होते रह गया था

जिसने आईबी अफसर को फोन कर के बेटे का एडमिशन करवाया.

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सैयद सलाहुद्दीन
प्रधानमंत्री मोदी अमरीका गए हैं तो ढेर सारे सौदे-समझौते कर के आएंगे, ये सबको मालूम था. लेकिन कम लोगों को अंदाज़ा था कि अमरीका भारत को इतनी बड़ी ईदी दे देगा कि जिसे सरकार महीनों भुना सके. 26 जून, 2017 को अमरीका ने हिजबुल मुजाहिदीन के चीफ सैयद सलाहुद्दीन को 'स्पेशली डेज़िग्नेटेड ग्लोबल टेररिस्ट' घोषित कर दिया. इस ऐलान के चंद घंटों के अंदर ही प्रधानमंत्री मोदी और अमरीकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की मीटिंग हुई.
भारत के लिए ये ऐलान काफी मायने रखता है. अमरीका के ऐलान के बाद लगभग पूरी दुनिया सलाहुद्दीन को आतंकवादी मानेगी और हिजबुल मुजाहिदीन को एक आतंकी संगठन. तो ये खुद को 'क्रांतिकारी' मानने वाले आतंकवादियों की बात के काउंटर-नैरेटिव का काम करेगा, वो भी पूरी दुनिया के सामने. इससे हमारा ये दावा और मज़बूत होगा कि पाकिस्तान नॉन-स्टेट एक्टर्स (ऐसे गुट जो सरकार से बाहर हों, लेकिन सरकार के इशारे पर काम करें) के ज़रिए भारत के अंदरूनी मामलों में दखल दे रहा है, अशांति फैला रहा है.

लेकिन बडगाम के देहात से आने वाला एक कश्मीरी वहां तक कैसे पहुंचा कि उस पर लगने वाले लेबल से इतनी चीज़ें तय होने लगीं? इसके पीछे एक लंबी कहानी है.

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मन बदलता रहता था सलाहुद्दीन का

1946 की फरवरी. 18 तारीख. बडगाम के डाकखाने में काम करने वाले एक साधारण से मुलाज़िम के यहां एक बेटे का जन्म हुआ. उनकी सातवीं औलाद, नाम रखा गया सैयद मोहम्मद यूसुफ शाह. यूसुफ बड़ा हुआ तो कुछ दिन उसका रुझान मेडिसिन की पढ़ाई की तरफ रहा. फिर उसका मन कश्मीरी लड़कों में करियर नंबर एक माने जाने वाली सिविल सर्विस की तरफ हो गया. तो कश्मीर यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस पढ़ने लगा.
यूनिवर्सिटी में यूसुफ जमात-ए-इस्लामी के प्रभाव में आया. जमात-ए-इस्लामी 1941 में मौलाना मौदूदी ने शुरू की थी. जमात क्रांति के ज़रिए इस्लाम के राज की स्थापना में विश्वास करती थी. जमात के लोग बंटवारे के खिलाफ थे. इसलिए नहीं कि वो भारत में रहना चाहते थे, बल्कि इसलिए कि अविभाजित भारत उनके मन-मुताबिक इस्लामी राज्य बने. लेकिन बंटवारा हुआ. पाकिस्तान ने ऐलान किया कि वो एक इस्लामिक गणतंत्र है. कश्मीर मुस्लिम बहुल होकर भी भारत के साथ था. तो जमात का ज़ोर इस बात पर हो गया कि कश्मीर भारत से अलग होकर पाकिस्तान में शामिल हो. धर्म और राजनीति का मेल हमेशा विस्फोटक होता है. लेकिन यूसुफ को ये जंच गया. उसने मान लिया कि कश्मीर का पाकिस्तान में शामिल हो जाना ही सही है.
इसने यूसुफ को राजनीति की ओर मोड़ दिया. और इन्हीं दिनों 1987 के उस चुनाव का ऐलान हुआ, जिसने कश्मीर के इतिहास को 'पहले' और 'बाद' में बांट दिया. इस चुनाव में मुस्लिम युनाइटेड फ्रंट (MUF) लड़ा. MUF कश्मीर के संदर्भ में जनता पार्टी था - ढेर सारी पार्टियों का एक संगठन, जो कश्मीर मसले पर अलग-अलग राय रखता था. कोई पाकिस्तान जाना चाहता था, कोई आज़ादी, कोई कुछ और. इन सब को एक चीज़ जोड़ती थी - कश्मीर को लेकर भारत का रुख इन्हें नागवारा था. तो इसके बैनर तले ऐसे कई लोगों ने पर्चा भरा जिन्हें लगता था कि वो जम्मू-कश्मीर विधानसभा में बैठ कर कश्मीरियों के 'हक' की बात करेंगे. यूसुफ ने भी एमयूएफ के टिकट पर श्रीनगर के अमीराकदल से पर्चा भरा. यूसुफ का मुकाबला हुआ सत्ताधारी नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के गुलाम मोहिउद्दीन शाह से.
 
87 के चुनावों में अमीराकदल में प्रचार करता यूसुफ उर्फ सैयद सलाहुद्दीन (फोटोःकश्मीर लाइफ)
1987 के चुनाव में अमीराकदल में प्रचार करता यूसुफ उर्फ सैयद सलाहुद्दीन (फोटोःकश्मीर लाइफ)


 

विधायक बनते-बनते रह गया

चुनावों से पहले माहौल एनसी के बिल्कुल खिलाफ था. तो यूसुफ को अपनी जीत पर भरोसा था. गिनती के दिन जब वोट गिने जाने लगे तो कुछ राउंड वो आगे भी चला. लेकिन तभी गिनती रोक दी गई. कहा गया कि यूसुफ ने जीतने के लिए बूथ कैप्चरिंग करवाई थी. हंगामे के बाद एनसी के गुलाम मोहिउद्दीन शाह को विजयी घोषित कर दिया गया. यूसुफ ने इसके खिलाफ जमकर प्रदर्शन किया, हिंसा हुई. पुलिस ने उसे पकड़ कर जेल में डाल दिया जहां से वो लगभग दो साल बाद ही निकल पाया. इस वाकये ने कश्मीर के हज़ारों लड़कों की ही तरह युसूफ को भी हमेशा के लिए बदल दिया. जेल से बाहर आकर वो युसूफ शाह से सैयद सलाहुद्दीन बन गया. जब सैयद सलाहुद्दीन जेल से निकलने के बाद बडगाम में अपने गांव सुईबुग पहुंचा, तो उसका जोरदार स्वागत हुआ. उसने बंदूक हाथ में लेकर ऐलान किया-
‘हम अमन के रास्ते विधानसभा में जाना चाहते थे, लेकिन हमें ऐसा नहीं करने दिया गया. हमारी आवाज दबाने के लिए हमें जेल भेज दिया गया. कश्मीर के लिए हथियार उठाने के अलावा अब हमारे पास कोई चारा नहीं.’
फिर सलाहुद्दीन एहसान दार से मिला. एहसान दार - वो स्कूल मास्टर, जो 1987 में मोहभंग के बाद नियंत्रण रेखा पार कर के पाकिस्तान चला गया था. वहां से तीन साल बाद लौटा तो अप्रैल 1990 में उसने बनाया हिजबुल मुजाहिदीन. हिजबुल ने बहुत कम समय में नाम बना लिया. मीरवाइज़ उमर फारूक के पिता मौलवी उमर (जो तब कश्मीर के मीरवाइज़ होते थे) की हत्या हिजबुल का पहला चर्चित काम था.
मीरवाइज़ उमर फारूक (दाएं) के पिता की हत्या हिजबुल ने ही की थी
मीरवाइज़ उमर फारूक (दाएं) के पिता की हत्या हिजबुल ने ही की थी


 
सुप्रीम कमांडर कैसे बना सैयद सलाहुद्दीन
हिजबुल मुजाहिदीन ने एक साल में 10,000 से ज्यादा लोगों की भर्ती की. इन्हीं के दम पर वो कभी कश्मीर में मीट का दाम तय करता, तो कभी 'हिंदू लालाओं' के ज़रिए सेब के कारोबार पर बैन लगाता. लेकिन हिजबुल अकेला नहीं था जो कश्मीर पर नियंत्रण चाहता था. जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (JKLF) जैसे गुट भी थे जो नहीं चाहते थे कि कश्मीर पाकिस्तान में मिले. तो कश्मीर में हिजबुल और जेकेएलएफ के बीच ही लड़ाई शुरू हो गई. नतीजे में कई उग्रवादी या तो मारे गए या फिर सेना ने पकड़ लिया. और तब हिजबुल ने एक मीटिंग बुलाई जिसमें नए सिर से स्ट्रैटेजी बनाई गई. नवंबर 1991 में हुई इस मीटिंग में तय हुआ कि दार की जगह हिजबुल का सुप्रीम कमांडर होगा सैयद सलाहुद्दीन.
सलाहुद्दीन के राज में हिजबुल और हिंसक हुआ. प्रेस तक से दुश्मनी ले ली. 31 मार्च 1992 को हिजबुल ने कश्मीर में 'इंडियन एक्सप्रेस' की बिक्री पर बैन लगा दिया और श्रीनगर में तैनात उसके पत्रकार जॉर्ज जोज़फ को 48 घंटे में घाटी छोड़ने का हुक्म दे दिया.

उसने घाटी में आतंकवाद को नए सिरे से गढ़ दिया

सलाहुद्दीन घाटी में आतंकवाद को एक नए लेवल पर ले गया. पाकिस्तान से आगे जाकर उसने हिजबुल को 'पॉप्युलर इंटरनेशनल ऑर्गनाइज़ेशन' का सदस्य बनाया. सूडान के डॉ. हसन अल तुरबी के शुरू किए इस संगठन के ज़रिए दुनियाभर से हिजबुल को पैसा, हथियार और ट्रेनिंग मिलने लगे. वो कश्मीर में अफगानी लड़ाकों को भी लाया. इसके लिए हिजबुल ने अफगानिस्तान के 'हरकत-ए-जिहाद-ए-इस्लामी'  से समझौता किया था. इस तरह हिजबुल मुजाहिदीन आतंकवाद के कैनवास पर सबसे बड़ा नाम बन गया. 90 की शुरुआत में उसका एक महीने का खर्च 45 लाख बताया जाता था.
 
घाटी में उग्रवाद के चरम पर हिजबुल ने कश्मीर को जंग का मैदान बना दिया था.
घाटी में आतंकवाद के चरम पर हिजबुल ने कश्मीर को जंग का मैदान बना दिया था और जनजीवन अस्त-व्यस्त कर दिया था


 
सलाहुद्दीन ने ही कश्मीर में एक युनाइटेड जेहाद काउंसिल बनाने की बात की. पूरे कश्मीर के लिए एक संगठन. 1993 में उसने ऐलान किया-
''हज़ारों लोगों के मरने के बाद सरकार से अब कोई समझौता नहीं किया जाएगा. हिजबुल मुजाहिदीन अब पूरी दुनिया में इस्लामिक खिलाफत की स्थापना होगी और इसकी शुरुआत कश्मीर से होगी.''
इस सब ने सेना का ध्यान खींचा और वो सेना के राडार पर आ गया. तो 1993 में सैयद सलाहुद्दीन खिलाफत वाला बयान भूल कर हिजबुल के दो और बड़े नामों - गुलाम मुहम्मद सूफी और अशरफ सराफ के साथ पाकिस्तान चला गया. पाकिस्तान ने भी सलाहुद्दीन में पोटाश देखा और उसे शरण दे दी.

हिजबुल की इमेज बिल्डिंग

पाकिस्तान जाने के बाद सलाहुद्दीन ने हिजबुल की इमेज बिल्डिंग पर काम शुरू किया. उसने कहना शुरू किया कि उसकी लड़ाई भारत के लोगों से नहीं है, वहां की सरकार से है. तो जब 1993 के सितंबर में लातूर में आए भूकंप में 10,000 लोगों की जान गई, हिजबुल मुजाहिदीन उन चुनिंदा उग्रवादी संगठनों में से था जिन्होंने संवेदना व्यक्त की. लेकिन कश्मीर को लेकर सलाहुद्दीन का रुख ज़रा भी नहीं बदला.
पाकिस्तान में वो बड़ी ठसक से हिजबुल की सालाना रिपोर्ट जारी कर के सेना पर हुए हमलों की ज़िम्मदारी लेता रहा. उसके मुताबिक एक साल ऐसा था जब अकेले हिजबुल ने फौज पर 1600 से ज़्यादा हमले किए थे.
सलाहुद्दीन ने पाकिस्तान में रहकर पुरज़ोर कोशिश की कि कश्मीर में चुनावी राजनीति खत्म हो जाए. इसके लिए उसने कश्मीर में एनसी और कांग्रेस के काडर पर ही बैन लगा दिया. 1996 के चुनावों से पहले उसनी खुली चुनौती दी कि चुनावों में जो हिस्सा लेगा, मारा जाएगा. चुनौती वो पाकिस्तान को भी देता था. 2012 में जाकर ये बात ऑन रिकॉर्ड आई. उसने कहा था,
''कश्मीर की आज़ादी में मदद करना पाकिस्तान की नैतिक ज़िम्मेदारी है. वो इस से पलटा तो हिजबुल मुजाहिदीन उसके खिलाफ हो जाएगा.''
 
सलाहुद्दीन पाकिस्तान को भी धमकाता रहा है
सलाहुद्दीन पाकिस्तान को भी धमकाता रहा है

जब आईबी अफसर को फोन कर के बेटे का एडमिशन करवाया

हिजबुल कश्मीर में फौज का दुश्मन नंबर वन था. तो फौज ने पूरी ताकत लगाकर उसके नेटवर्क पर चोट की. इस सब के बीच कश्मीरियों का भी बंदूक से मोहभंग होने लगा. तो कश्मीर में शांति लौटी. चुनाव होने लगे. सलाहुद्दीन पाकिस्तान से जो कर सकता था, करता रहा. लेकिन कश्मीर में उसका ज़ोर कम होता गया. नौबत यहां तक आई कि 2001 में वो एक डील के तहत भारत आने तक को तैयार हो गया. ये दावा वाजपेयी सरकार में RAW  के चीफ रहे ए. एस. दुलत ने किया था. दुलत के मुताबिक सलाहुद्दीन ने मेडिकल कॉलेज में अपने बेटे के एडमिशन के लिए श्रीनगर के आईबी चीफ के. एम. सिंह को फोन किया था. सिंह ने एडमिशन करवा दिया था.
हिजबुल को नई ज़िंदगी बुरहान वानी ने दी जब वो फेसबुक के ज़रिए कश्मीर में आतंकवाद का पोस्टर बॉय बना. जब 8 जुलाई, 2016 में बुरहान वानी सेना की कार्रवाई में मारा गया, घाटी में माहौल गर्म होने लगा. इसने सलाहुद्दीन को दोबारा खबरों में आने का मौका दिया. अगस्त 2016 में इस्लामाबाद में सार्क के गृहमंत्रियों की बैठक थी. सलाहुद्दीन ने भारत के गृहमंत्री राजनाथ सिंह को खुली चुनौती दी कि वो पाकिस्तान आकर दिखाएं. उसके इस बयान के बाद पाकिस्तान में राजनाथ के दौरे के खिलाफ प्रदर्शन भी हुए थे. इसके बाद सितंबर 2016 को सलाहुद्दीन ने फिर बयान दिया कि वो किसी कीमत पर कश्मीर मसले का शांति से हल नहीं होने देगा. उसने वादा किया कि वो सुसाइड बॉम्बर भेज-भेज कर कश्मीर को हिंदुस्तानी फौज का श्मशान बना देगा. एक ग्लोबल टेररिस्ट घोषित करते हुए अमरीकी सरकार ने उसके इस बयान का ज़िक्र प्रमुखता से किया था.
हिजबुल आज भी घाटी में सक्रिय है. एक उग्रवादी का जनाज़ा
हिजबुल आज भी घाटी में सक्रिय है. एक उग्रवादी का जनाज़ा.


 

अमरीका के आतंकवादी कहने से क्या बदल जाएगा

आज सलाहुद्दीन 71 साल का है. हिंदुस्तान में दशकों से एजेंसियों के लिए मोस्ट वॉन्टेड रहने के बाद जाकर अमरीका ने सलाहुद्दीन को स्पेशली डेज़िग्नेटेड ग्लोबल टेररिस्ट करार दिया है. इसका असर ये होगा कि अब कोई अमरीकी सलाहुद्दीन की मदद नहीं कर पाएगा. अमरीका में उसके सारे लेन-देन पर रोक लगेगी और सारी सम्पत्ति फ्रीज़ हो जाएगी. अमरीकी फाइनेंशियल सिस्टम से बाहर होने से सईद के लिए पूरी दुनिया में लेन-देन मुश्किल हो जाएगा.
लेकिन इस प्रतिबंध का असल असर सामने आने में काफी वक्त लग जाएगा. क्योंकि पाकिस्तान सरकार सैयद सलाहुद्दीन के पीछे मज़बूती से खड़ी है. कश्मीर हमेशा से पाकिस्तान का सपना रहा है. लेकिन 1972 में दो टुकड़े होने के बाद से खासतौर पर कश्मीर पाकिस्तान के जीने-मरने का सवाल बना हुआ है. वो हिसाब बराबर करना चाहता है. इसलिए पूरे आसार हैं कि अमरीका के इस कदम के बावजूद पाकिस्तान सरकार सलाहुद्दीन को पालती रहे. अब तक जो खुले आम होता था, वो अब पर्दे के पीछे से होगा.

तो हिंदुस्तान के लिए इस ऐलान का प्रतीक महत्व ही ज़्यादा है. इसे हम कैसे भुना पाते हैं, देखना है.

 


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