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आदिवासियों के बीच राजस्थान और छत्तीसगढ़ मिलकर लाखों पेड़ काट रहे हैं, पूरी कहानी हमसे जानिए

छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य में पेड़ों की कटाई शुरू हो गई है. एक्सपर्ट्स ने चेतावनी दी है कि इस कटाई से पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुंचेगा.

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हसदेव अरण्य की कटाई के खिलाफ विरोध प्रदर्शन. (फोटो: ट्विटर)

दिल्ली, बेंगलुरु और मुंबई को मिला दें, तो भी छत्तीसगढ़ का हसदेव अरण्य का क्षेत्रफल उससे बड़ा होगा. कुल मिलाकर 1,500 वर्ग किलोमीटर के विशाल क्षेत्र में फैले हुए इस प्राचीन जंगल को बचाने के लिए जंगल के दावेदार यानी आदिवासी समाज के लोग पिछले 200 दिन से धरने पर बैठे हुए हैं. वो कहते हैं कि जंगल बचाने की लड़ाई उनका अपना जीवन बचाने की लड़ाई है. ये उनकी ही नहीं बल्कि इस जंगल में रहने वाले हाथी, तेंदुए और भालू जैसे जानवरों को बचाने की भी लड़ाई है. यहां 3,000 किस्म के दुर्लभ औषधीय पेड़-पौधे पाए जाते हैं. इसे भारत का फेफड़ा भी कहा जाता है, क्योंकि ये भारी मात्रा में कार्बन डाइ ऑक्साइड को सोखकर ऑक्सीजन को वातावरण में छोड़ता है.

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हसदेव अरण्य को ख़तरा किससे है?

दरअसल इस जंगल के नीचे कोयले का अकूत भंडार दबा हुआ है. और यही इस जंगल के अस्तित्व के लिए खतरा बन गया है. छत्तीसगढ़ की सरकार ने तीन कंपनियों को इस जंगल में दबे कोयले को खोदकर निकालने की इजाज़त दी है. इसके लिए भारी संख्या में पेड़ काटे जाने हैं. इससे जंगल के साथ-साथ उस पर निर्भर इंसानों और जानवरों के अस्तित्व पर भी संकट आ गया है. आदिवासियों की गोंड, पंडो और कोरवा जातियां इन जंगलों में रहती हैं और जंगल ही उनकी आजीविका का साधन है. जंगल से उन्हें महुआ, साल, तेंदू पत्ता, चिरौंजी, खुंखड़ी जैसे वन्य उत्पाद मिलते हैं और हर आदिवासी परिवार को सालाना औसतन 60 से 70 हज़ार रुपये की आमदनी हो जाती है.

लेकिन आदिवासियों को डर है कि जब जंगलों पर आरा चलेगा, तो ये सब ख़त्म हो जाएगा. इसीलिए आदिवासियों का आंदोलन जारी है. फिर भी 26 सितंबर से जंगल का कटान शुरू कर दिया गया है. हिंदुस्तान टाइम्स की खबर के मुताबिक, इस बात की जानकारी खुद सरगुजा के कलेक्टर ने दी है. ये मुद्दा सिर्फ छत्तीसगढ़ सरकार और आदिवासियों के बीच का नहीं है. इस पूरे विवाद में कई पार्टियां हैं. मसलन, केंद्र सरकार, राजस्थान सरकार और अडानी ग्रुप भी इस पूरे विवाद में प्रत्यक्ष रूप से शामिल हैं.

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मई के महीने में कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने कहा था कि वो अपनी पार्टी की छत्तसीगढ़ सरकार के उस फैसले से नाखुश हैं, जिसमें हसदेव के जंगलों में कोल माइनिंग की इजाजत दे दी गई है. लेकिन ये फैसला सिर्फ वर्तमान मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का नहीं है. इस पूरे मसले को समझने के लिए इसके 12 साल पुराने इतिहास को टटोलना पड़ेगा. लेकिन इससे पहले कि हम विवाद की तरफ बढ़ें, पहले इस जंगल को जानना जरूरी है.

हसदेव अरण्य की जियोग्राफी

हसदेव ‘बांगो बैराज' का कैचमेंट इलाका है. यहां से छत्तीसगढ़ के करीब 4 लाख हेक्टेयर इलाके में खेतों की सिंचाई भी की जाती है. इसके अलावा ख़ास बात ये है कि इस जंगल में करीब 5 अरब टन ‘काला सोना’, यानी कोयला दबा हुआ है, जिसके खनन की इजाज़त सरकार ने तीन कंपनियों को दे दी है. सूरजपुर, सरगुजा और कोरबा जिले में कोयले के करीब 23 ब्लॉक हैं. इन्हीं में तीन ब्लॉक को लेकर पूरा विवाद है.

विवाद शुरु कहां से हुआ?

साल 2010 में केंद्र की UPA सरकार ने राजस्थान सरकार को छत्तीसगढ़ में 3 कोयला खदानों में खुदाई की मंजूरी दी. कोयला खदानें केंद्र की लिस्ट में आती हैं. यानी इनका अलॉटमेंट सिर्फ केंद्र ही कर सकता है. लेकिन खदान जिस राज्य में पड़ती है, वहां के फॉरेस्ट और लैंड डिपार्टमेंट से क्लियरेंस लेना होता हैं. यानी इसमें केंद्र के साथ साथ राज्य सरकार का भी अहम रोल होता है.

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केंद्र ने राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को तीन खदानें अलॉट कीं. ये खदान थीं परसा ईस्ट एंड केते बेसान (PEKB) कोल फील्ड में. लेकिन 2011 में तब के केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इस फैसले को पलट दिया और कहा कि कोल माइनिंग घने जगलों से दूर होनी चाहिए. लेकिन साल भर में ही जयराम रमेश के ही मंत्रालय ने (PEKB) के फेज़ 1 के लिए खुदाई के लिए मंजूरी दे दी. केंद्र ने पहले फेज के लिए 762 हेक्टेयर में फैले 137 मिलियन टन कोयले की खुदाई की मंजूरी दी थी. राज्य सरकार से सारे क्लियरेंस के बाद फेज 1 की खुदाई हो गई. इस बीच में NGT ने PEKB कोल ब्लॉक से कोयले का खनन रोक दिया, लेकिन इसे 2015 में दोबारा शुरू कर दिया गया.

इसके बाद बारी आई दूसरे फेज़ की खुदाई की. इस साल मार्च में छत्तीसगढ़ सरकार ने कहा कि उन्होंने राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को दूसरे फेज़ की खुदाई की मंजूरी दे दी है. और यहां से शुरू हुआ हसदेव अरण्य में आदिवासियों का प्रदर्शन.

अडानी की भूमिका

सवाल ये है कि इस पूरे विवाद में अडानी का नाम कहां से आया? दरअसल, राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड का काम बिजली उत्पादन है, कोयले की खुदाई नहीं. इसलिए राजस्थान सरकार ने खुदाई का जिम्मा दिया अडानी ग्रुप को. इस पूरे काम को कहते हैं माइनिंग डेवलपमेंट ऑपरेटिंग (MDO). तो अडानी ग्रुप PEKB में राजस्थान सरकार के लिए MDO का काम कर रहा है.

दूसरे फेज़ में छत्तीसगढ़ सरकार ने 1,136 हेक्टेयर की खुदाई की मंजूरी दी है. जिसके लिए पेड़ों की कटाई का काम 26 सितंबर से शुरू हो गया है.

क्यों हो रहा है प्रदर्शन?

इस पूरे मसले पर कई मांगों को लेकर प्रदर्शन हो रहे हैं. लेकिन आदिवासियों की मांग अलग है. आदिवासियों का कहना है कि उनकी बिना मंजूरी लिए खदानों को अलॉट कर दिया गया. जिस भी खदान का अलॉटमेंट होता है उसके लिए उससे संबंधित गांव की ग्राम पंचायत की मंजूरी ली जाती है. पंचायत की मंजूरी के बाद माइनिंग डिपार्टमेंट आगे की प्रकिया बढ़ाता है. इस मामले में आदिवासियों का आरोप है कि पंचायत की मंजूरी तो ली गई लेकिन वो फर्जी ग्राम पंचायत थी. यानी आरोप के मुताबिक असली पंचायत के बजाए फर्ची पंचायत पेश करके खदान की लीज़ दे दी गई.

आरोप ये भी लगे कि कोयले की खुदाई की वजह से कई गांवों के आदिवासियों को विस्थापित होना पड़ा. और अगले पांच साल तक भी इन विस्थापित आदिवासियों को ठीक से रीहैबिलिटेट नहीं किया गया.

इस मामले में नाम ना बताने की शर्त पर छत्तीसगढ़ सरकार के एक अधिकारी कहते हैं कि ये आरोप सिर्फ काम रोकने के लिए लगाया जा रहा है. पहले फेज़ की खुदाई तो पूरी हो गई, उसके बाद ये आरोप सामने आया है. जबकि अगर वहां जाकर देखेंगे तो जिस गांव के लोगों की तरफ से आरोप लगे हैं वो खुशहाल हैं और आर्थिक तौर पर उनका विकास भी हुआ है.

और क्या विवाद हैं?

दरअसल ये विवाद सिर्फ हसदेव तक सीमित नहीं है. बिलासपुर में पिछले तीन महीने से लगातार धरना चल रहा है. इसके अलावा छत्तीसगढ़ में अलग-अलग जगहों पर भी माइमिंग की मंजूरी के खिलाफ प्रदर्शन चल रहा है. इन प्रदर्शनों का एक कारण जो उभर कर आता है वो है पानी की समस्या. बिलासपुर में पानी का मुख्य स्रोत हसदेव नदी बताई जाती है. माइनिंग और पेड़ों की कटाई के बाद जिले में पानी के मुख्य स्रोत पर खतरा बताया जा रहा है.

साथ ही कोरबा में हसदेव बांगो डैम है. इस डैम का पानी जांजगीर चांपा जाता है. बताया जाता है कि जांजगीर चांपा में 72 प्रतिशत सिंचाई इसी डैम पर निर्भर है. लेकिन माइनिंग के बाद डैम में आने वाले पानी पर असर पड़ेगा और सिंचाई के लिए पानी की समस्या हो सकती है.

क्या कहती हैं रिसर्च रिपोर्ट्स?

कोयला मंत्रालय और पर्यावरण एवं जल मंत्रालय के जॉइंट रिसर्च के आधार पर 2010 में हसदेव अरण्य को पूरी तरह से ‘नो गो एरिया’ घोषित किया गया था. ‘नो गो’ यानी ऐसे जंगल जहां किसी किस्म की माइनिंग आदि गतिविधियां नहीं की जा सकतीं. लेकिन इसके बाद आई दो रिपोर्ट्स को न केवल नज़रअंदाज़ किया गया, बल्कि इनके खिलाफ़ जाकर हसदेव अरण्य में कोल माइनिंग के रास्ते भी खोले गए.

- Wildlife Institute of India की रिपोर्ट

2014 में हसदेव अरण्य इलाके में परसा ईस्ट केते बेसन कोल ब्लॉक को दी गई मंजूरी के खिलाफ़ NGT ने आदेश दिया. उसने इलाके के बारे में एक स्टडी करने को कहा था ताकि हसदेव फ़ॉरेस्ट रीजन में एनवायरन्मेंट और बायो-डाइवर्सिटी की कंडीशंस का सही आकलन किया जा सके और पता लग सके कि इस इलाके में माइनिंग के क्या प्रभाव होंगे. इसके बाद Wildlife Institute of India (WII) यानी भारतीय वन्यजीव संस्थान ने 277 पन्ने की एक रिसर्च रिपोर्ट जारी की. इसमें NGT के पूछे गए सवालों के बहुत क्लियर जवाब दिए गए हैं.

#रिपोर्ट में WII ने सिफारिश की है कि PEKB कोल ब्लॉक को एक्सेप्शन के बतौर चलाया जा सकता है, लेकिन इसके अलावा एक भी कोयला खदान हसदेव फ़ॉरेस्ट रीजन में नहीं खोली जानी चाहिए, और इस पूरे इलाके को 'नो-गो जोन' डिक्लेयर कर देना चाहिए.

#रिपोर्ट में दूसरी बात कही गई कि PEKB कोल ब्लॉक का कंजर्वेशन प्लान बहुत बेसिक है. इसे दुरुस्त किए जाने की ज़रूरत है. कहा गया कि ये इलाका विलुप्त होने की कगार पर खड़े कई दुर्लभ वन्य जीवों का पर्यावास रहा है. ऐसे में इस इलाके में ज़रा भी लापरवाही वन्यजीवों के लिए बहुत खतरनाक हो सकती है.

#ये भी कहा गया कि पिछले 7 सालों में PEKB कोल ब्लॉक की वजह से इस पूरे इलाके पर बहुत गंभीर असर हुआ है. जिनका सही असेसमेंट अभी तक नहीं हो पाया है.

- इंसानों और हाथियों का संघर्ष

इंसानों और हाथियों के द्वंद्व पर WII की बायो-डाइवर्सिटी असेसमेंट की रिपोर्ट के पेज नंबर 52 पर साफ़ शब्दों में लिखा है कि कोल प्लांट्स की वजह से हाथियों और इंसानों में टक्कर की स्थिति बन गई है. जिस इलाके में कोयले का खनन होना शुरू होता है, हाथी वहां से दूर जाने की कोशिश करते हैं. और इस तरह धीरे-धीरे हाथियों का नेचुरल हैबिटेट कम हो रहा है और अब वो इंसानी बस्तियों में घुस रहे हैं. इसमें हर साल औसतन 60 आदिवासियों की जान चली जाती है.

ये आंकड़ा ज्यादा इसलिए है क्योंकि देश के सिर्फ एक फ़ीसद हाथी छत्तीसगढ़ में हैं, जबकि हाथियों से संघर्ष में 15 प्रतिशत मौतें यहीं होती हैं.

सरकार का क्या पक्ष है?

विवाद, प्रदर्शन और बयानबाजियों के बीच इसी साल 26 जुलाई को छत्तीसगढ़ सरकार ने विधानसभा में प्रस्ताव पास किया. इस प्रस्ताव में कहा गया कि अब तक पास हुए माइनिंग अलॉटमेंट और प्रस्तावित अलॉटमेंट तत्काल प्रभाव से रद्द किए जाते हैं. यानी सरकार ने विधानसभा में प्रस्ताव पास करा के सभी तरह की माइनिंग को रद्द कर दिया. लेकिन सरकार के इस आदेश के ठीक तीन महीने बाद 26 सितंबर को आखिर पेड़ों की कटाई क्यों शुरु हुई?

इस मामले में दी लल्लनटॉप ने छत्तीसगढ़ के फॉरेस्ट डिपार्टमेंट से बात की. विभाग का कहना है कि NGT के क्लियरेंस और पहले फेज़ की खुदाई के असेस्मेंट की रिपोर्ट के बाद दूसरे फेज़ के लिए पेड़ों की कटाई की जा रही है.

तो कुल अबतक का जमाजोड़ यही है कि 200 दिन से ज्यादा से आदिवासी प्रदर्शन कर रहे हैं. स्टडी रिपोर्ट्स कहती हैं कि अगर माइनिंग की गई पर्यावरण पर बुरा असर होगा और हाथियों से इंसानों के टकराव की भीषण स्तिथि बन सकती है. सरकार ने कहा है कि अब हसदेव अरण्य में किसी भी तरह की माइनिंग नहीं होगी. लेकिन दूसरे फेज़ की माइनिंग के लिए पेड़ों की कटाई शुरू हो चुकी है.

वीडियो: छत्तीसगढ़ के हसदेव जंगल में चल रहा है कोयले का खेल

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