साल है 2009. लोकसभा चुनाव के साल में सपा में कलह मची है. पार्टी के संस्थापक नेता आजम खान पर आरोप है कि वह पार्टी विरोधी गतिविधियों में लगे हैं. पार्टी के खिलाफ प्रचार कर रहे हैं. उनके बेहद करीबी और सपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने तो आहत होकर एक जनसभा में ये तक कह दिया था, ‘मैं ये नहीं समझ पा रहा हूं कि जो पेड़ उन्होंने लगाया, उसे वो क्यों काट रहे हैं?’ 16 मई 2009 को लोकसभा चुनाव के नतीजे आए और सपा की सीटें पिछले चुनाव के मुकाबले काफी घट गईं. पार्टी कुल 23 सीटों पर सिमट गई.
आजम खान 'बिकाऊ नहीं हैं', लेकिन क्या पहले की तरह दमदार हैं?
16 साल पहले जब आजम पार्टी छोड़कर गए तो दूसरी पार्टी में शामिल नहीं हुए थे, लेकिन अब तो कथित तौर पर बसपा से उनकी ‘खुसुर-फुसुर’ की बड़ी चर्चा है. दिक्कत ये है कि आजम खान या उनके शागिर्दों की तरफ से न तो इस पर मुहर ही लगाई जा रही है और न ही साफ-साफ इनकार किया जा रहा है.
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इसके ठीक एक दिन बाद आजम खान ने समाजवादी पार्टी में अपने सभी पदों से इस्तीफा दे दिया. पार्टी के तत्कालीन महासचिव अमर सिंह ने इसकी जानकारी देते हुए कहा कि अभी उन्होंने पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया. लेकिन कुछ समय बाद ही शिवपाल यादव मीडिया के सामने आए और एलान किया कि मोहम्मद आजम खान साहब 2 साल से पार्टी विरोधी काम कर रहे थे और 2 साल से इनको समझाया जा रहा था. अब निर्णय ले लिया गया है कि उनको 6 साल के लिए पार्टी से निकाला जाता है.
समाजवादी पार्टी बनने के बाद ये वो पहला मौका था, जब आजम खान जो इसके संस्थापक भी रहे, सपा से अलग हो गए थे. अभी तक तो ये ऐसा आखिरी मौका भी है, लेकिन आने वाले वक्त में क्या हो जाए कौन जानता है? तब कल्याण सिंह के सपा में आने और जयाप्रदा को रामपुर से लड़ाने के विरोध में आजम खान बागी बने थे. आज वो पार्टी में प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ते दिखते हैं. जब-तब पहेलियों में पीड़ा व्यक्त करते हैं और खुद को 'छोटा' बताते हुए सपा नेतृत्व पर तंज की तलवार कभी तीखी तो कभी मीठी धार से चलाते रहते हैं.

16 साल पहले जब आजम पार्टी छोड़कर गए तो दूसरी पार्टी में शामिल नहीं हुए थे, लेकिन अब तो कथित तौर पर बसपा से उनकी ‘खुसुर-फुसुर’ की बड़ी चर्चा है. दिक्कत ये है कि आजम खान या उनके शागिर्दों की तरफ से न तो इस पर मुहर ही लगाई जा रही है और न ही साफ-साफ इनकार किया जा रहा है. ऐसा लगता है जैसे ‘संभावनाओं की अस्पष्टता’ में वह पार्टी में अपनी खोई ‘प्रतिष्ठा’ की वापसी की आहट खोज रहे हैं.
हालांकि बसपा में जाने के सवाल पर आजम खान कह चुके हैं कि वे साबित कर चुके हैं कि वे बिकाऊ नहीं हैं. सपा नेता ने कहा, "बेवकूफ तो हूं, पर इतना भी नहीं हूं...” लेकिन वे ये साफ-साफ नहीं कह रहे कि सपा में ही रहेंगे या बसपा में जाएंगे.
आजम खान नाराज क्यों हैं?समाजवादी पार्टी के एक सीनियर नेता 'ऑफ द रिकॉर्ड' बताते हैं कि आजम खान की हालिया नाराजगी की कई वजहें हैं. एक तो वह 23 महीने बाद जेल से रिहा हुए तो उन्हें पार्टी का कोई बड़ा नेता रिसीव करने नहीं आया. रामपुर के मौजूदा सांसद मोहिबुल्लाह नदवी ने उनके जेल से बाहर आने पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. सपा में फिलहाल कई मुस्लिम लीडर्स एक्टिव हैं, लेकिन आजम खान अपने बेटे को पार्टी में अपने बाद अगला मुस्लिम लीडर बनाना चाहते हैं. उनकी डिमांड ये भी है कि वेस्ट यूपी में जो भी टिकट फाइनल हो, उस पर फैसला वो लें.
आजम खान के बीएसपी में जाने की खबरों पर सपा के ये सीनियर नेता कहते हैं, ‘आजम खान ‘भारतीय जनता पार्टी का मोहरा’ बन गए हो सकते हैं. उन पर 70 से ज्यादा केस हैं. इतने सारे केसेज में जमानत मिलना आसान नहीं होता लेकिन वो जेल से बाहर आ गए. हो सकता है कि पर्दे के पीछे कोई बार्गेनिंग चल रही हो. जमानत इसीलिए मिली हो कि समाजवादी पार्टी को डिस्टर्ब करो. कुछ महीने देखा जाएगा. अगर ये वाला काम ठीक से नहीं करेंगे तो हो सकता है फिर जेल चले जाएं.’
हालांकि, लखनऊ में एक प्रतिष्ठित अखबार के पॉलिटिकल एडिटर इस बात को खारिज करते हैं. उनका कहना है कि आजम खान पर दायर अधिकांश मामले कमजोर थे. ये ऐसे मामले थे, जिनकी कोई ठोस जमीन नहीं थी. लोकल अदालतों में इनके फैसले प्रभावित किए जा सकते थे, लेकिन हाईकोर्ट में ये सस्टेन नहीं करते. क्योंकि जैसे-जैसे मामला ऊपरी अदालतों में जाता, फैसले को प्रभावित करना मुश्किल हो जाएगा. आजम खान को छोड़ दीजिए. ऐसे और भी कई नेता हैं, जिन पर कई मुकदमे लादे गए. बाद में वो बरी हुए. वही ट्रेंड यहां पर भी है. इसलिए, अगर आजम खान को जमानत मिली है तो इसमें भाजपा ने उन पर कोई 'कृपा' नहीं की है.

वो कहते हैं कि आजम खान भाजपा के लिए तब अहम थे, जब वह ‘पोलराइजेशन’ के लिए जमीन तैयार करते थे. अब सब क्लियर है. अल्पसंख्यक वोटबैंक को पता है, उसे कहां वोट करना है. भाजपा का भी अपना वोटर स्पष्ट है. आज की तारीख में आजम खान भाजपा के लिए भी उतने रेलेवेंट नहीं हैं. जैसे अपर्णा यादव की राजनीति इस बात पर टिकी है कि वो मुलायम सिंह यादव परिवार की बहू हैं और भाजपा में वह ‘प्रतीकात्मक राजनीति’ का चेहरा हैं. वैसे ही आजम खान भी सपा में ‘अल्पसंख्यक राजनीतिक का प्रतीकात्मक चेहरा’ बनकर रह गए हैं. सपा उन्हें पार्टी में इतना ही बनाए रखना चाहती है.
पिछली बार जब आजम खान जेल से बाहर आए थे, तब उनकी पत्नी तंजीन फात्मा ने कहा था कि अब उन्हें सिर्फ अल्लाह पर भरोसा है. और किसी पर नहीं है. इस स्टेटमेंट ने समाजवादी पार्टी में एक तरह से तनाव बढ़ा दिया था. बीते दिनों दूसरी बार जब आजम खान जेल से आए तो एक बार फिर ‘अफवाहें’ उनकी राह में स्वागत करते खड़ी थीं. उनसे सवाल पूछा गया तो उन्होंने पहेलियां बुझानी शुरू कर दीं. पहले तो कहा कि वह जेल में थे. वहां राजनीतिक रूप से किसी से कोई संपर्क नहीं था कि कहीं ‘आने-जाने’ की बात हो. फिर, एक और बयान में कहा, अभी तो अपना इलाज कराएंगे. फिर सोचेंगे कि क्या करना है.
इन सबमें उन्होंने साफतौर पर कहीं भी खारिज नहीं किया कि वह बसपा में नहीं जाने वाले हैं. बुधवार 24 सितंबर को एक बार फिर उनके सामने यही सवाल आया तो इस बार वह कुछ-कुछ साफ बोले. उन्होंने कहा,
हमारे पास चरित्र नाम की एक चीज है और उसका ये मतलब नहीं कि हमारे पास पद हो. ओहदा हो. लोग प्यार करें, हमारी इज्जत करें. और हम बिकाऊ माल न हों, ये हमने साबित कर दिया है. बेवकूफ तो हूं, पर इतना भी नहीं हूं.
हालांकि, आजम के ये कहने के पीछे भी कहानी है. दी लल्लनटॉप में पॉलिटिकल एडिटर पंकज झा बताते हैं कि मायावती ने लखनऊ में 9 अक्टूबर को बीएसपी की बड़ी रैली बुलाई है. इससे पहले यानी 8 अक्टूबर को अखिलेश यादव रामपुर जा रहे हैं. पंकज झा के मुताबिक 24 सितंबर को समाजवादी पार्टी के एक पूर्व विधायक ने दोपहर में अखिलेश यादव और आजम खान की बात कराई थी. इसके बाद ही आजम खान ने बीएसपी में शामिल होने के सवाल पर कहा वे बिकाऊ नहीं हैं.
क्या आजम सपा छोड़ बसपा में जा सकते हैं?
इस सवाल पर पंकज झा कहते हैं कि आजम खान आजीवन सपा छोड़कर कहीं और नहीं गए. वह जिद्दी आदमी हैं और अपनी बात मनवाने का उनके पास अपना तरीका होता है. उनके पुराने बयानों से जाहिर होता है कि वह जताना चाहते हैं कि अखिलेश और सपा ने उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया. अखिलेश जियाउर्रहमान बर्क और इकरा हसन चौधरी जैसे नई पीढ़ी के मुस्लिम नेताओं को आगे बढ़ा रहे हैं. इन सबको लेकर ही उनके मन में कहीं न कहीं असंतोष की भावना है, जो जब-तब सामने आती है. लेकिन बड़ी संभावना यही है कि आजम खान फिलहाल सपा छोड़कर कहीं नहीं जाने वाले हैं.
‘दी लल्लनटॉप’ से बातचीत में लखनऊ के एक वरिष्ठ पत्रकार भी उनकी बात से सहमत दिखते हैं. वो कहते हैं कि आजम खान की पूरी राजनीति सपा में रही. 2009 के लोकसभा चुनाव में अमर सिंह और जयाप्रदा से नाराज होकर उन्होंने पार्टी छोड़ी भी, लेकिन उसका इतना प्रभाव नहीं दिखा. उन्होंने रामपुर से जयाप्रदा को हराने के लिए पूरी ताकत लगा दी लेकिन हरा नहीं पाए. बाद में पार्टी में उनकी वापसी भी हो गई.

दरअसल, साल 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान आजम खान सपा से दो बातों से नाराज थे. एक तो जयाप्रदा को रामपुर से उम्मीदवार बनाया जाना उन्हें नहीं भाया. दूसरा, सपा के कल्याण सिंह से हाथ मिलाने से भी उन्हें तकलीफ थी. तब कल्याण सिंह भाजपा छोड़ सपा के साथ रहने लगे थे. बीबीसी से बातचीत में आजम खान ने कहा था कि भाजपा छोड़ने वाले कल्याण सिंह से सपा के हाथ मिलाने से उन्हें काफी तकलीफ पहुंची, क्योंकि कल्याण सिंह बाबरी मस्जिद गिराए जाने के समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे और उन्होंने इस घटना की जिम्मेदारी खुलेआम स्वीकार की थी.
जयाप्रदा वाले मामले को हालांकि, उन्होंने ‘छोटा’ बताया था और कहा था कि ‘ये स्थानीय मामला है लेकिन कुछ लोग कुछ लोग भ्रम फैलाकर असली बात से ध्यान हटा रहे हैं.’ लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद उन्होंने इन सब मतभेदों को अंजाम पर पहुंचाते हुए पार्टी से इस्तीफा दे दिया और बाद में सपा ने भी उन्हें 6 साल के लिए बाहर का रास्ता दिखा दिया. हालांकि, बाद में पहले वाली धमक के साथ ही उनकी पार्टी में वापसी भी हो गई और मुलायम सिंह यादव को इस बात का एहसास भी हुआ कि उन्होंने कल्याण सिंह से हाथ मिलाकर गलती थी.
अखिलेश नजरअंदाज करते हैं?खैर, आज के मुद्दे पर आते हैं. अखिलेश पर नजरअंदाज करने के आरोप पर वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं कि आजम खान को सपा में पूरा सम्मान मिल रहा है. रामपुर के आसपास का टिकट वही तय करते हैं. उनका केस लड़ने वाले कपिल सिब्बल को सपा ने राज्यसभा भेजा. उनके ही कहने पर एसटी हसन का टिकट अंतिम समय पर काट दिया गया. आजम खान की पसंद रुचि वीरा को अखिलेश ने चुनाव लड़वाया और वह जीतीं भी. आजम खान के तेवर को कोई और पार्टी संभाल भी नहीं पाएगी. जो सम्मान उन्हें यहां मिला वो बसपा और अन्य पार्टियों में उन्हें कभी नहीं मिलेगा.
वह आगे बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में सपा फिलहाल मुख्य विपक्षी पार्टी है. आगे भी 2027 और 2029 में ऐसा लगता है कि मुख्य मुकाबला भाजपा और सपा के बीच ही होगा. यूपी में डेढ़ साल चुनाव को बचा है. ऐसी हालत में कोई भी कहीं और जाने की नहीं सोचेगा.
उन्होंने कहा कि नाराजगी आजम खान का पार्टी में अपनी अहमियत जताने का तरीका है. सपा भी जानती है कि मुस्लिम वोटर उसे छोड़कर कहीं जाने वाले नहीं हैं. चाहे आजम खान पार्टी में रहें या न रहें, लेकिन फिर भी वह उनकी ‘प्रतीकात्मकता’ बनाए रखती है.
जाते-जाते वह एक बात और कहते हैं. आजम खान अभी बसपा में जाने से इनकार नहीं कर रहे लेकिन बाद में जब सब ठीक हो जाएगा तो वो इसी सवाल पर कह देंगे कि ये क्या बकवास है. यही उनका अंदाज है.

इसी बीच एक सवाल और उठता है. आजम खान सिर्फ सपा के बड़े नेता नहीं हैं, बल्कि अखिलेश यादव से उनका पारिवारिक संबंध भी है. वह मुलायम सिंह यादव की 'आंखों के तारे' थे. ऐसे में जब वह 23 महीने बाद जेल से छूटे तो अखिलेश यादव उन्हें लेने क्यों नहीं गए?
ये सवाल जब आजम से पूछा गया तो उदास चेहरे के साथ उन्होंने कहा कि वो 'छोटे आदमी' हैं. पिछली बार जब जेल से छूटे तो अकेले आ गए थे. इस बार भी आ गए. आजम ने ये भी कहा कि वह किसी से उम्मीद नहीं करते. अखिलेश बड़ी पार्टी के बड़े नेता हैं. उनके (आजम) जैसे छोटे आदमी के लिए कुछ बात कहेंगे तो ये उनका बड़प्पन हैं. यह कहते उनके भीतर का ’दर्द छलकता तो है', लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों को ये कोई अनोखी घटना नहीं लगती.
पत्रकार बताते हैं कि जेल से छूटने पर कौन किसी को रिसीव करने पहुंच जाता है. अखिलेश यादव तो कम से कम उस पर प्रतिक्रिया देते हैं. रामपुर भी मिलने के लिए चले जाते हैं. क्या मायावती ऐसा करतीं? क्या जेल से छूटने पर वो उन्हें लेने के लिए जातीं? या रामपुर में उनसे मिलने के लिए चली जातीं? ये कोई बड़ा मुद्दा नहीं है.
वहीं लल्लनटॉप से बातचीत में सीनियर सपा नेता कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि समाजवादी पार्टी ने जेल से छूटने पर उनकी अगवानी नहीं की. वो सीतापुर जेल में बंद थे. पार्टी की सीतापुर ईकाई उन्हें लेने के लिए गई थी. पार्टी के जिलाध्यक्ष गए थे. मुरादाबाद की सांसद रुचि वीरा गई थीं. फिर अखिलेश यादव के जाने का आग्रह क्यों है? उन्होंने कोई सर्कुलर तो जारी किया नहीं था कि कोई आजम खान को रिसीव करने नहीं जाएगा.
राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, अखिलेश के आजम खान को लेने न जाने की एक वजह ये भी है कि इससे एक तरह से ‘पोलराइजेशन’ होता और आजम खान ही ताकतवर नजर आते क्योंकि जेल से छूटने पर उन्हें पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष लेने के लिए जाते हैं. अभी तक यूपी में ‘मुस्लिमों के नेता’ अकेले अखिलेश यादव हैं और सपा बिल्कुल भी आजम खान को इस मामले में बढ़त नहीं देना चाहती.
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