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इस्लाम में संगीत हराम होने वाली बात पर उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान का जवाब शानदार था

उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां की सादगी और बड़प्पन को बयां करते किस्से.

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source- इंडिया ट्रेंडिंग

शहनाई का ज़िक्र आते ही एक ही चेहरा दिमाग में उभरता है. उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां साहब का. एक ऐसे फ़नकार, जिन्होनें अपने शहनाई वादन से दशकों तक पूरी दुनिया को सम्मोहित कर रखा था. लोकप्रियता के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचने के बाद भी उनके अंदर जो सादगी थी उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है. यतीन्द्र मिश्र ने उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान पर एक बेहद सुंदर किताब लिखी है 'सुर की बारादरी'. उसी किताब से कुछ किस्से छांट कर आपके लिए लाए हैं.


छोटी सी उम्र में जब ख़ां साहब कोठे की सीढ़ियों पर दिल हार बैठे

14 साल की उम्र में कमरुद्दीन (बिस्मिल्लाह ख़ां) अपने बड़े भाई शम्सुद्दीन के साथ काशी के बालाजी मंदिर में रियाज़ करने जाता था. लेकिन बालाजी मंदिर का एक और रास्ता था, जो सिर्फ अमीरुद्दीन जानता था. दालमंडी का वो रास्ता, जिस पर चल कर वो रसूलनबाई और बतूलनबाई के कोठे तक पहुंचता. सिर्फ संगीत की तालीम लेने. जब वो दोनों गाती तो बिस्मिल्लाह ख़ां को ईद में मिलने वाली ईदी जैसी खुशी मिलती थी. खनकदार आवाज़ में रसूलनबाई हर रोज़ नया राग गाती. कभी ठुमरी, कभी टप्पे, कभी दादरा. वहीं से इन्होंने भाव, खटका, मुर्की सीखा.

हर दिन इनका ऐसे गायब होना बड़े भाई शम्सुद्दीन को खटकने लगा. आते तो हम एक ही रास्ते से हैं लेकिन ये अचानक गायब कहां हो जाता है. ऐसा कौन सा रास्ता है, जो मुझे नहीं पता. इन सवालों के बाद शुरू हुई अमीरुद्दीन की जासूसी. जब सच्चााई सामने आई तो पहले समझाया गया कि ये नापाक जगह है. यहां आने से अल्लाह नाराज़ हो जायेगा.

लेकिन उन्हें खटके, मुर्की की ऐसी लत पड़ी थी कि 4-5 दिन तक दिल को समझाने के बाद फिर से जा पहुंचे उनकी चौखट पर. जहां खड़े होने भर से उन्हें जन्नत जैसा लगता. इस बार जब बड़े भाई ने दोबारा पकड़ा तो डांट के साथ फिर से अल्लाह नाराज़ हो जाएगा की नसीहत मिली. लेकिन जो जवाब सामने से आया उसे भाई शम्सुद्दीन काट न पाए, "ख़ुदा क्यूं नाराज़ होने लगा? दिल से निकली आवाज़ में पाक-नापाक क्या होता है?"

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"भारत-रत्न मुझे शहनईया पर मिला है, लुंगिया पे नाहीं"

ये उस्ताद को भारतरत्न मिलने के बाद का वाकया है. एक बार बिस्मिल्लाह ख़ां की शिष्या ने डरते हुए उनसे कहा,  "बाबा आपकी इतनी इज्ज़त है. अब तो आपको भारतरत्न तक मिल चुका है. फिर क्यों ये फटा हुआ तहमद (लुंगी) पहनते हैं? न पहना करें, अच्छा नहीं लगता है." ख़ां साहब ने जवाब में जो बोला वो दर्शाता है कि उनके अंदर कितनी सादगी थी. वो बोले,


"धत् पगली ई भारत रत्न हमको शहनईया पे मिला है, लुंगिया पे नाहीं. आगे से नहीं पहनेंगे, मगर इतना बताए देते हैं कि मालिक से यही दुआ है, फटा सुर न बख्शे. लुंगिया का क्या है, आज फटी है, तो कल सी जाएगी."

ख़ां साहब के लिए कौन थे पैंगबर

उस्ताद संगीत को ही खुदा मानने के पक्षधर थे. ऐसी बातें कहा करते थे जो आज के इस्लामी कट्टरपंथियों को ज़रा नहीं भाती. "यह जो आपके यहां (हिंदुओं में) हजारों देवी-देवता हैं, हमारे मज़हब में (मुसलमानों में) ढेरों पैंगबर हैं, ये सब कौन लोग हैं? जानते नहीं न?"

"हम बताते हैं भइया ख़ुदा को तो नहीं देखा है, पर गांधीजी को जरूर देखा है. मदन मोहन मालवीय, नरेंद्र देव और पं. ओंकारनाथ ठाकुर को देखा है. उस्ताद फ़य्याज ख़ां को बहुत नजदीक से देखा और सुना है. अरे ये लोग ही तो हमारे समय के पैंगबर, देवता लोग हैं. अब सरस्वती को कौन अपनी आंखों से देख पाया होगा, मगर बड़ी मोतीबाई, सिद्धेश्वरी देवी, अंजनीबाई मालपेकर और लता मंगेशकर को देखा है. मैं दावे से कह सकता हूं, अगर सरस्वती कभी होंगी और बरख़ुरदार इतनी ही सुरीली होंगी. न ये औरतें सरस्वती से कम सुरीली होंगी और न ही सरस्वती इन फनकारों से ज्यादा सुर वाली.


हमारे लिए संगीत हराम है तो ये हाल है, नहीं होता तो सोचो मुस्लिम फ़नकार कहां पहुंच गए होते

उस्ताद की ज़ुबानी संगीत की अहमियत को सुनना एक शानदार तजुर्बा है. वो कहते हैं,


"संगीत वह चीज़ है, जिसमें जात-पात कुछ नहीं है. फिर कहा रहा हूं, संगीत किसी मज़हब का बुरा नहीं चाहता. एक बार एक महफ़िल में मैंने गूंगबाई हंगल, हीराबाई बड़ोदकर, कृष्णराव शंकर पंडित और भीमसेन जोशी से पूछा था, 'क्या आपके धर्म में गीता, रामायण से बढ़कर भी कुछ है?' सबने कहा, हां है, संगीत है."

"मुझे लगता है हमारे मज़हब में मौसीक़ी को इसलिए हराम कहा गया कि अगर इस जादू जगाने वाली कला को रोका न गया, तो एक से एक फ़नकार इसकी रागिनियों में इस कदर डूबे रहेंगे कि दोपहर, शाम वाली नमाज़ कज़ा हो जाएगी."

जब ख़ां साहब ने अपने उस्ताद से पूछा था ऐसा क्यों है तो उस्ताद ने उनसे कहा था, "अपने यहां संगीत जैसी बेहतरीन चीज़ नाजायज़ मानी जाती है. फिर भी उसे किसी ने छोड़ा तो नहीं. फ़य्याज ख़ां साहब को देखो, रज्जब अली ख़ां साहब, अमीर ख़ां को देखो, मौज़ुद्दीन ख़ां, अलाउद्दीन ख़ां जैसे लोग कहां हैं मौसीक़ी में. अब, जब हराम है, तब तो यह हाल है. अगर कहीं जायज़ होती, तो ये सारे लोग या यूं कहें सारे मुस्लिम फ़नकार कहां पहुंच गए होते".


उस्ताद बिस्मिल्लाह खां
उस्ताद बिस्मिल्लाह खां

खुशी और दुख दोनों के लिए रस में डूबकर बजाते थे शहनाई

एक वाकये में उस्ताद ने बताया है कि कैसे शिव विवाह के समय मुबारकबंदी और सेहराबंदी गाते थे. और मुहर्रम के मौके पर ग़म के लिए नौहा.


परदेस में बहन को चले किस पे छोड़कर
भइया हुसैन जाते क्यों हो मुंह को मोड़कर

(नौहा गाकर बताते हुए) अब यह जब दिल से गाया जाएगा तो कोहराम मच जाएगा. लोग छाती पीटकर रोने लगेंगे. हम ख़ुद इसमें अंदर ही अंदर रोने लगते हैं और इस तरह बजाते हैं कि हुसैन साहब को उस समय क्या कष्ट हुआ होगा. जब हमको कष्ट होगा, तो हमारे ख़ुदा को भी होगा और सुनने वालों को भी. इसी तरह शिव-विवाह पर सेहराबंदी (दूल्हे की शान में पढ़ी जाने वाली कविता) बजाते हैं, तो अपने को किसी नौशे (दूल्हा) से कम नहीं समझते. फिर गंगा पुजैया में "गंगा दुआरे बधइया बाजे" बजाते समय बिल्कुल झूम जाते हैं. सुर वही हैं, ताल वही और राग वही. मगर ये आप पर है कि राग में क्या तासीर पैदा करें कि ग़म के समय मातम छाए और ख़ुशी के समय नौबत बजने लगे.

सुलोचना को देखने के लिए ब्लैक में बेचते थे टिकट

बचपन में सिर्फ संगीत ही नहीं, फिल्मों के शौकीन भी थे बिस्मिल्लाह ख़ां. हीरोइन सुलोचना के दीवाने थे. मामू, मासी और नानी से दो-दो पैसे लेते थे. फिर घंटों लाइन में लगकर टिकट खरीदते थे. थोड़े बड़े हुए तो टिकट खरीदकर के ब्लैक में बेचते थे, जिससे बारह पैसे मिल जाते. इस पैसे से वो फिल्म भी देख लेते और अगली फिल्म के लिए बचा भी लेते थे. जैसे उम्र बढ़ती गई सुलोचना के लिए दीवानगी भी बढ़ती गई. बालाजी मंदिर पर रोज़ शहनाई बजाने से उन्हें जो एक अठन्नी की कमाई होती, उससे सुलोचना की फिल्में देखने जाते थे.

आज जब मज़हब देखकर लोगों की ब्रांडिंग करने का दौर चल पड़ा है, तब उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां जैसे फ़नकार बहुत याद आते हैं. जो किसी मज़हब के नहीं बल्कि इंसानियत के पैरोकार थे.

यहांं देखें वीडियो:

https://www.youtube.com/watch?v=327EadX9GaI

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