महात्मा गांधी ने कहा था,
SC/ST आरक्षण हर 10 साल पर बढ़ाया क्यों जाता है?
आरक्षण की कहानी पार्ट-5; SC/ST एक्ट पर विवाद क्यों है?

"मेरे सपनों का राम-राज्य राजा और रंक के समान अधिकारों को सुनिश्चित करता है."
आम बोलचाल की भाषा में इन्हें एससी-एसटी (SC-ST) कहा जाता है. थोड़ा छितरा कर कहें तो शड्यूल कास्ट और शड्यूल ट्राइब. हिंदी में कहें तो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति. अनुसूचित जाति के दायरे में वे लोग आते हैं जिन्हें पुराने रूढ़िवादी समाज में अछूत समझा जाता था. पुरानी सामाजिक व्यवस्था में उनसे ऊपर समझे जाने वाले लोग, उनके साथ उठना-बैठना पसंद नहीं करते थे. यहां तक की उनके हाथ का पानी भी नहीं पीते थे. मोटामाटी कहें तो ऐसे लोग सामाजिक स्तर पर उत्पीड़न के शिकार थे. और जब सामाजिक स्तर पर ही उत्पीड़न हो रहा हो, तो आर्थिक हैसियत के मजबूत होने की बात सोचना भी बेमानी है. ऐसे लोग निहायत ही गरीब हुआ करते थे. महात्मा गांधी ने इस समाज के लोगों के लिए हरिजन (अर्थात हरि यानी ईश्वर के लोग) शब्द का प्रयोग कर इन्हें मुख्यधारा में लाने के प्रयास किए.
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अब बात अनुसूचित जनजाति की. आम बोलचाल की भाषा में इन्हें आदिवासी कहा जाता है. आदिवासी यानी रहन-सहन में आदिम तरीके से रहने वाले लोग. सामान्यतः ये लोग जंगलों में रहा करते थे और समाज की मुख्यधारा से कटे रहते थे. इसलिए इनकी भी सामाजिक-आर्थिक तरक्की के लिए विशेष प्रयास किए जाने की आवश्यकता महसूस की गई.
अब बात इस समाज के लिए बने विशेष कानूनों की
हम सब जानते हैं कि हमारे संविधान में सबको समानता का अधिकार (Right to Equality) मिला हुआ है, लेकिन व्यवहार में यह पूरी तरह उतरता नहीं दिख रहा था. लोगों की पुरानी दकियानूसी सोच गई नहीं थी, लिहाजा अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के साथ भेदभाव और उत्पीड़न की खबरें आती रहती थी. इन्हीं सब घटनाओं को मद्देनजर रखते हुए ऐसे लोगों के लिए 1955 में 'प्रोटेक्शन ऑफ
सिविल राइट्स एक्ट'
लाया गया. लेकिन यह एक्ट बहुत कारगर साबित नहीं हुआ, क्योंकि इस एक्ट के लागू होने के बाद भी एससी-एसटी कैटेगरी के लोगों के साथ छुआछूत, भेदभाव और उत्पीड़न की घटनाएं होती रही. हालांकि दूसरी तरफ तमाम तरह के सरकारी और गैर-सरकारी प्रयास भी जारी रहे. सामाजिक संगठन भी ऐसी घटनाओं को रोकने की कोशिश में लगे रहे. लेकिन नतीजा वही 'ढाक के तीन पात' वाला.
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एससी-एसटी एक्ट को 1989 में संसद की स्वीकृति मिली थी.
क्या-क्या प्रावधान हैं एससी-एसटी एक्ट में?
इस एक्ट की प्रमुख बातें इस प्रकार हैं :-
1. जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करने पर केस दर्ज होगा.2. इस प्रकार का केस दर्ज होने पर इंस्पेक्टर रैंक का पुलिस अधिकारी इंवेस्टिगेटिंग ऑफिसर (I.O.) होगा.
3. केस दर्ज हो जाने के बाद आरोपी की तत्काल गिरफ्तारी होगी.
4. ऐसे मामलों की सुनवाई सिर्फ स्पेशल कोर्ट में होगी.
5. ऐसे मामलों में जमानत हाईकोर्ट से ही मिल सकती है.
6. उत्पीड़न के शिकार लोगों को सरकार की तरफ से कानूनी मदद दी जाएगी.
7. उत्पीड़न के शिकार लोगों को सरकार द्वारा आर्थिक सहायता दी जाएगी और उनके सामाजिक पुनर्वास में मदद की जाएगी.
8. केस की सुनवाई के दौरान पीड़ितों और गवाहों की यात्रा और अन्य जरूरी खर्चों को सरकार की तरफ से मुहैया कराया जाएगा.
9. इस एक्ट में यह भी प्रावधान किया गया है कि 'ऐसे क्षेत्रों जहां एससी-एसटी समाज के लोगों पर ज्यादा जुल्म होते हैं, उनका पता लगा कर वहां इसकी रोकथाम के कानूनी, प्रशासनिक और सामाजिक - हर तरह के प्रयास किए जाएंगे.
इस तरह के प्रावधानों से यह साफ हो गया कि अब अनुसूचित जाति और जनजाति (SC-ST) के लोगों को तंग करने और उनके साथ भेदभाव करने से लोग डरेंगे. ऐसा हुआ भी और इस समाज के लोगों के साथ ज्यादती की घटनाओं में कमी भी आई.
2018 में क्यों बवाल हुआ?
एससी-एसटी एक्ट लागू होने के बाद इस तबके के लोगों पर अत्याचार की घटनाओं में कमी तो बहुत आई, लेकिन इस कानून का एक दूसरा और नकारात्मक पहलू भी सामने आया. कई जगहों पर इस कानून को ब्लैकमेलिंग और लोगों को तंग करने के हथियार के तौर पर इस्तेमाल किए जाने की खबरें भी सामने आने लगी. आम बोलचाल की भाषा में कहें, तो जैस कोई किसी पर यह आरोप लगाकर केस दर्ज करवा दे कि 'अमुक आदमी ने अपने हैंडपम्प या कुएं से पानी नहीं पीने दिया या दूसरे तरीके से भेदभाव किया' और आरोपी को जेल भेज दिया जाए. कई सारे मामलों में ऐसा हुआ भी है.

2018 में एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भारी बवाल हुआ था.
इसी को देखते हुए और लंबे समय से ऐसी याचिकाओं की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने महसूस किया कि 'बहुत सारे मामलों में एससी-एसटी एक्ट का दुरुपयोग हो रहा है.' इसी दुरुपयोग को रोकने के उद्देश्य से 20 मार्च 2018 को अपना जजमेंट सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी एक्ट में कुछ मामूली परिवर्तन कर दिया. मोटे तौर पर सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट में 2 बातें थी जो पुराने एक्ट से अलग थीं.
1. एससी-एसटी एक्ट के तहत केस दर्ज होने पर डीएसपी रैंक का अधिकारी इसकी जांच करेगा और उसे अपनी प्रारंभिक जांच (Initial inquiry) 7 दिनों में पूरी करनी होगी.
*जबकि मूल एक्ट में पुलिस इंस्पेक्टर रैंक के अधिकारी द्वारा जांच किए जाने का प्रावधान है. प्रारंभिक जांच की समयसीमा के बारे में भी कुछ स्पष्ट नहीं है.
2. यदि किसी सरकारी नौकरी करने वाले व्यक्ति के खिलाफ एससी-एसटी एक्ट के तहत मामला दर्ज होता है तो उसकी गिरफ्तारी से पहले सक्षम प्राधिकारी (Competent Authority) से इजाजत लेनी होगी.अपने इस फैसले के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी एक्ट के दुरुपयोग को रोकने की दिशा में कदम बढ़ाया था. लेकिन इस फैसले के साथ ही पूरे देश में हंगामा खड़ा हो गया. अनुसूचित जाति और जनजाति के संगठन सडकों पर उतर गए और तोड़-फोड़ करने लगे. इसके जवाब में समाज के दूसरे वर्ग के लोग भी सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन करने लगे. कई जगहों पर तो प्रदर्शन के दौरान हिंसा भी हुई. वहीं कई लोग कथित तौर पर संविधान की प्रतियां जलाने तक पर उतर आए.
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2 अप्रैल 2018 को भारत बंद का भी ऐलान कर दिया गया. दिल्ली, पटना, लखनऊ, जयपुर, पुणे समेत देश के कई शहर हिंसा की चपेट में आ गए. इन सब को देखते हुए कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी संभालने वाले केन्द्र और राज्य सरकारों के सामने विचित्र स्थिति पैदा हो गई. सत्ता में बैठे लोगों के सामने एक तरफ तो कानून व्यवस्था की चिंता थी, वहीं दूसरी तरफ वोट बैंक का डर सता रहा था. क्योंकि कोई भी सियासतदान न तो एससी-एसटी वोटों से हाथ धोने का जोखिम ले सकता था और न ही गैर-एससी-एसटी वोटों का.
ऐसे में नरेन्द्र मोदी की सरकार ने संसद के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने का फैसला किया. बिल्कुल उसी तरह जिस तरह से शाहबानो मामले पर राजीव गांधी की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटा था. दोनों मामलों में संसद के द्वारा फैसला पलटे जाने का कारण भी था. कारण यह था कि सुप्रीम कोर्ट ने इन दोनों मामलों में फैसला तो दिया था, लेकिन अपने फैसले को संविधान के मूल ढांचे (Basic Structure) के तहत परिभाषित नहीं किया था. यहां आपको बताते चलें कि यदि किसी भी मामले को सुप्रीम कोर्ट संविधान के मूल ढांचे के तहत परिभाषित कर देता है, तो उससे छेड़छाड़ करने के मामले में सरकार और संसद के हाथ बंध जाते हैं. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि केशवानंद भारती केस (1973) में सुप्रीम कोर्ट की 13 सदस्यों की संविधान पीठ ने यह स्पष्ट कर दिया था कि 'ऐसा कोई कानून या संशोधन संभव नहीं है, जो संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित करता हो.'
बहरहाल हम एससी-एसटी एक्ट में सुप्रीम कोर्ट के रुख पर संसद की भूमिका पर वापस लौटते हैं :
नरेन्द्र मोदी की सरकार ने संसद के द्वारा एससी-एसटी एक्ट के मूल प्रावधानों को बरकरार रखने वाला विधेयक पेश किया और उसपर संसद के दोनों सदनों की मंजूरी भी मिल गई. इस विधेयक पर सरकार को विपक्ष का भी खुला समर्थन मिला, क्योंकि वोट बैंक की राजनीति सबको करनी थी. लिहाजा सरकार का विधेयक पास हो गया और इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट का फैसला अप्रासंगिक हो गया.

2018 में एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से उपजे हालात के कारण संसद में एक विधेयक लाया जिससे सुप्रीम कोर्ट का फैसला अप्रभावी हो गया.
एससी-एसटी आरक्षण
अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को संविधान लागू होने के साथ ही सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण देने का फैसला लिया गया. संविधान के अनुच्छेद 15 (4) के तहत शैक्षणिक संस्थानों में जबकि अनुच्छेद 16 (4) के तहत सरकारी नौकरियों में इस तबके के लोगों को आरक्षण दिया गया. अनुसूचित जाति के लोगों को 15 फीसदी जबकि अनुसूचित जनजाति के लोगों को 7.5 फीसदी आरक्षण दिया गया. राज्य सरकार की नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों के मामले में आबादी के अनुपात में या इससे कुछ कम-ज्यादा भी हो सकता है.
इसके साथ ही विधायिका में इन तबकों का प्रतिनिधित्व बनाए रखने के लिए इनकी आबादी के अनुपात में लोकसभा और विधानसभाओं में भी सीटें आरक्षित की गईं.
आरक्षण कब तक?
शुरुआत में इस तरह का आरक्षण सिर्फ 10 वर्ष के लिए लागू किया गया था. हमारे संविधान निर्माताओं को उम्मीद थी कि अगले 10 वर्षों में समाज का सबसे पिछड़ा तबका इतनी तरक्की कर जाएगा कि उसे भविष्य में आरक्षण जैसे सहारे की जरूरत नहीं पड़ेगी. यानी 26 जनवरी 1950 को लागू हुए संविधान के निर्माताओं को यह भरोसा था कि 1960 आते-आते एससी-एसटी समुदाय के लोग ठीक-ठाक तरक्की कर जाएंगे. लेकिन अफसोस कि ऐसा हो नहीं पाया. नतीजतन 1959 में 8वें संविधान संशोधन के द्वारा आरक्षण के प्रावधानों को अगले 10 बरस के लिए बढ़ा दिया गया. लेकिन अगले 10 बरस में भी स्थिति ज्यों की त्यों बनी रही और फिर इसे 1969 में 23वें संविधान संशोधन के द्वारा एक बार फिर 10 बरस के लिए बढ़ा दिया गया. तब से लेकर हर 10 साल पर एक संविधान संशोधन होता है और आरक्षण का प्रावधान अगले 10 साल के लिए बढ़ा दिया जाता है. बढ़ाने का कारण यह है कि एससी-एसटी तबके की सामाजिक-आर्थिक हैसियत में आज भी कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आ पाया है. इसी को मद्देनजर रखते हुए 1990 में सरकार ने 65वां संविधान संशोधन किया और इस संशोधन के माध्यम से संविधान के अनुच्छेद 338 के तहत अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए एक आयोग (SC-ST Commission) का गठन किया. यह आयोग इन तबके के लोगों की सामाजिक-आर्थिक हैसियत में सकारात्मक बदलाव लाने से संबंधित सुझाव देने के लिए बनाया गया था. साथ ही संबंधित मामलों पर इस आयोग को कुछ अर्ध-न्यायिक शक्तियां (Quasi-Judicial Power) भी दी गई. यह आयोग हर साल अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति और राज्यपालों को भेजता है.

एससी-एसटी आरक्षण के प्रावधान को संविधान सभा ने ही मंजूरी दे दी थी.
हमने अब तक एससी-एसटी एक्ट, एससी-एसटी वर्ग के लोगों के लिए आरक्षण और इस समाज से संबंधित मामलों को देखने के लिए एक आयोग के गठन के बारे में आपको विस्तार से बताया. लेकिन एक मामला और है जो अक्सर घूम-फिरकर सरकार के सामने आता रहता है और चर्चा में बना रहता है. वह मामला है प्रमोशन में आरक्षण का. प्रमोशन में आरक्षण का मतलब, सरकारी नौकरी में आए एससी-एसटी वर्ग के लोगों को अन्य वर्ग के लोगों की तरह प्रमोशन न देकर, प्रमोशन की प्रक्रिया में भी कुछ सीटें आरक्षित कर देने की मांग से जुड़ा है. प्रमोशन में आरक्षण का मुद्दा इतना पेचीदा क्यों है?
प्रमोशन में आरक्षण को लेकर कई बार राजनीतिक दलों की ओर से आवाज उठाई गई. बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने इस मुद्दे को काफी ज़ोर-शोर से उठाया. लेकिन कुछ राजनीतिक दलों ने इसका विरोध भी किया. मजेदार बात यह है कि एससी-एसटी वर्ग से आने वाले कुछ सांसदों ने भी इसका विरोध किया. एक उदाहरण देता हूं.
2012 में मनमोहन सिंह की सरकार प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए एक विधेयक लाने को राजी हो गई. इसे राज्यसभा से पास भी करा लिया गया. लेकिन दिसंबर 2012 में जब भारत सरकार के कार्मिक मंत्री वी नारायणसामी ने यह बिल लोकसभा में पेश करने की कोशिश की, तब उनकी कोशिश को पलीता लगाने का काम अनुसूचित जाति से आनेवाले एक सांसद महोदय ने किया. उन सांसद महोदय का नाम था यशवीर सिंह. उत्तर प्रदेश की नगीना (सुरक्षित) लोकसभा सीट से समाजवादी पार्टी के सांसद. उन्होंने उस बिल को नारायणसामी के हाथ से छीन कर फाड़ दिया. उनका तर्क था कि आखिर कोई सीनियर ऑफिसर प्रमोशन पाकर बाॅस बने अपने जूनियर के साथ कैसे सहजता से काम करेगा. और जब यही सीनियर-जूनियर का झगड़ा ब्यूरोक्रेसी में चलने लगेगा, तो राजनीतिक नेतृत्व कहां और कैसे जाकर झगड़ा सुलझाएगा और कैसे प्रशासन दुरुस्त ढंग से चलेगा?

यह लोकसभा में उस दिन के हंगामें की तस्वीर है जिस दिन प्रमोशन में आरक्षण का विधेयक कार्मिक मंत्री वी नारायणसामी के हाथ से छीनकर फाड़ा गया था.
बहरहाल बिल फाड़ा जा चुका था और इसके ठंडे बस्ते में जाने की मुकम्मल तैयारी हो चुकी थी. तब से आजतक यह बिल ठंडे बस्ते में ही पड़ा है. फरवरी 2018 में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस हेमंत गुप्ता की बेंच ने भी अपने एक फैसले में यह कह दिया कि 'प्रमोशन में आरक्षण किसी का मौलिक अधिकार नहीं है.'
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद से अबतक केन्द्र सरकार ने इस मामले में हाथ न लगाने में ही अपनी भलाई समझी है. आगे-आगे देखते हैं कि आखिर इस मसले पर होता क्या है. फिलहाल न तो ऐसी कोई चर्चा है और न ही किसी प्रकार का कोई आंदोलन वगैरह हो रहा है.